शनिवार, 29 दिसंबर 2012

सब ठीक नहीं है प्रधानमंत्राी जी

कब तक सहें-
सब ठीक नहीं है प्रधानमंत्राी जी 
दिल्ली ने देश की धो दी प्रधानमंत्राी जी, जब आप कहते है सब ठीक है न तब शायद मजबूरी में कहना पड रहा है कि सब ठीक नहीं है प्रधानमंत्राी जी। दिल्ली के आम इंसानों में जिन युवाओं और महिलाओं का प्रतिनिधित्व उस लडकी को मिला जो इस वक्त सिंगापुर में अपनी जिंदगी और मौत से लड कर हार गई। जब गृहमंत्राी को प्रेस काफ्रेंस करने पर यह लगने लगे कि वह देश के सामने बोल रहे हैं जब युवा शक्ति के प्रदर्शन को माओवादियों से तुलना की जाने लगे तो समझ में प्रधानमंत्राी जी को भी आना चाहिए कि सब ठीक नहीं है। इस बार यह विरोध किसी अन्ना या किसी रामदेव के पास से किये गये उद्घोष के बाद नहीं तैयार हुआ बल्कि पुरूषवादी सत्ता के महाधीशों के विरोध में इसलिए प्रारंभ हुआ कि एक गुनाह करने वालों के लिए सरकार मूर्खतापूर्ण बयानबाजी कर रही है। कभी डी.आई.जी. महिला, एस.डी.एम. के कार्यविधि में राजनैतिक प्रश्न उठाते है। यदि इन राजनैतिक नुमाइंदो के घर की बेटी के साथ कुछ ऐसा कृत्य हुआ होता तब मैं देखता कि ये सब कितना मौन व्रत धारण करते है पर आम जन का कोई पालन हार नहीं है तभी तो राष्ट्रपति के सुपुत्रा सांसद कुछ अच्छा कह नहीं पाये तो प्रदर्शनकारियों की रातों का जायजा डिस्को और बार में लेने पहुॅचते है वहीं दूसरी तरफ अपने भाई की करतूत और बयानबाजी का विरोध राष्ट्रपति जी की सुपुत्राी करती है क्या राजनीत है साहब आम जन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है पर प्रधानमंत्राी और राष्ट्रपति के घर मंे पले हुए कुत्तों को सुरक्षा के लिए गार्ड नियुक्त किये जाते है। देश के रक्षा प्रमुख की जेड सुरक्षा की चिंता देश को नहीं है। देश की युवतियों की सुरक्षा के लिए यदि आम इंसान आवाज उठाता है तो वाटर कैनन, सेना और आंसू गैस के गोले छोडे जाते है। यदि जनता का प्रतिनिधि चैपट हो जाए तो जनता के विद्रोह को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया जाता है उसके बाद भी प्रधानमंत्राी आप कैमरामैन से पूछते है कि सब ठीक है ना। वाह क्या यही होता लोकतंत्रा। भारत लघु महाद्वीप आज भी दिल्ली के कारनामों के चलते पानी-पानी हो गया। मैं पूछता है कि कौन वापस करेगा दिल्ली का पानी इतनी पानीदारी देश के किसी भी राजनेता के पास नहीं बची। भारत की न्यायपालिका का एक सूत्रा है जिसमें यह कहा गया है कि हजारो बेगुनाह छूट जाय पर एक गुनहगार नहीं बचना चाहिए फिर क्यों भारत के गृहमंत्राी जी यह कहते है कि भारत में न्याय तुरंत फुरंत नहीं मिलता। क्या सत्ता और सत्ता के खेल यही है। मेरे समझ में एक बात और नहीं आती कि दिल्ली के कांग्रेसी चमचों के द्वारा कहे जाने वाले सोनिया गांधी के सुपुत्रा, युवा चेतना के रखवाले और यूथ सिम्बल राहुल गांधी क्या इस कडकती ठंड ठंडक के शिकार हो गये हैं। प्रधानमंत्राी जी आप भी देख रहे है कि भारत देश में दिल्ली से उठा आक्रोश हैदराबाद और जयपुर में भी फ ैल रहा है। न्यूटन के तीसरा नियम में न्यूटन ने कहा था कि हर क्रिया के विरोध में प्रतिक्रिया होती है पर जो रवैया महिलाओं ने और युवाओं ने दिखाया है वह न्यूटन के इस बात को गलत साबित करता हुआ नजर आता है। प्रधानमंत्राी जी आपकी केन्द्र और राज्य सरकार इस दुर्दांत घटना में भी राजनैतिक रोटिया सेंकने में लगी हुई है। सरकार के द्वारा अपनाये गये अराजक रवैये को देखकर मन तो गालियाॅ देने का करता है परंतु अपने संस्कारों को खोकर आपके स्तर तक तो मंै नहीं पहुॅच सकता। एक पुलिस वाले की मौत के लिए भी आपकी सरकार ने भी उन युवाओं को ही दोषी माना जिनको किसी ने बरगलाया नहीं बल्कि वह स्वयं की प्रेरणा से अपने समाज की स्त्राी सुरक्षा के लिए घर से निकलकर सडकों में उतरे थे। इतना ही सब होने के बाद आपको क्या लगता है क्या हमारे मुल्क में हमारी बिटिया और बहनें सुरक्षित है। आपके बयान की यदि सही तरह से जाॅच नहीं हुई और उसे मीडिया ने प्रसारित कर दिया तब आपने निजी चैनलों के लोगों को एक शब्द भी नहीं कहा बल्कि अपने पावर का पावर दिखाकर दूरदर्शन के इंजीनियरों और कैमरामैनों के खिलाफ संस्पेशन आर्डर जारी करवा दिया। आप यह क्यों भूल जाते है कि भारत में जब सरकार सत्रा राजकीय कार्य भारतीय समय पर होता है न्याय भारतीय समय के अनुरूप मिलता है तो वो सब बेचारे इसी भारत के निवासी थे और इसी परंपरा का निर्वहन कर रहे थे इस घटना को लेकर दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार इतनी बौखला गई कि किसी को यह समझ में नहीं आया कि लोगों से क्या बातें कही जाय। राष्ट्रपति साहब तो ज्यादा चिंता दिखाई पडे अब जब दामिनी की मौत हो गई है तब सारे नेताओं की चिर निंद्रा टूटी और वे सब झूठी संवेदनाएॅ टी.वी. चैनलों के सामने व्यक्त करके इस बात की अपील करते हुए नजर आ रहे है कि कृपया सभी प्रदर्शनकारी शांति व्यवस्था बनाये रखें। क्या आप देश के उन युवाओ को मूर्ख समझ रखे है। अंततः प्रधानमंत्राी जी एक ही निवेदन करना चाहता हूॅ कि आपके शासनकाल में कुछ भी ठीक नहीं है और इस बात को आपको स्वीकार करना चाहिए। यदि घटना सउदी अरब के देशों में हुई होती तो इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं होता है कि गुनहगार की रूह भी दोबारा इस गुनाह को करने से कोसो दूर भागती पर हम भारत के निवासी है और प्रधानमंत्राी जी भारत मंे सब कुछ ठीक नहीं है।
- अनिल अयान
9406781040

रविवार, 16 दिसंबर 2012

ओलम्पिक से भारत हुआ बेदखल ,टूटा खिलाडियों का मनोबल ....

कब तक सहें -
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ओलम्पिक से भारत हुआ बेदखल ,टूटा खिलाडियों का मनोबल ....
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भारत में जब से कामनवेल्थ गैम्स हुए भारत के राजनीतिज्ञकों के घर की चांदी हो गई। कई मालामाल हो गये, कई घोटालेबाज हो गये, कईयों के ऊपर केस चलने लगे, कई जाॅच के घेरे में आकर अपने आप को जनता की नजरों में गिरा लिये और उस समय राजनीतिज्ञ और अधिक खुश हुए हांेगे जब भारती ओलम्पिक संघ को विश्व ओलम्पिक संगठन से इसलिए बेदखल कर दिया गया क्योकि संगठन के चुनाव में ज्यादा ही राजनीतिक पार्टियों का दखल बढने लगा था इसका प्रमुख कारण राजनीतिक पार्टियों के धन्ना सेठों के मध्य लाभांश के लालची रवैयें की बढोतरी थी।
राजनीतिज्ञों ने दखल दिया और उधर भारत ओलम्पिक संघ से बेदखल हुआ। अब सब हाथ में हाथ रखकर बैठे हुए ओलम्पिक गैम से भारत की निकासी की तेरहवीं और बरसी का शोेक मनाते नजर आ रहे है। क्रिकेट का जुनून इतना अधिक बढ गया है कि क्रिकेट के माहौल को देखते हुए बाॅलीवुड ने कई फिल्में बनाकर करोडो कमा लिये। प्रायोजकों के द्वारा फर्श से अर्श तक का सफर तय कर लिया गया और खिलाडी विज्ञापन के चकाचैंध में आकर खेल की गुणवत्ता की ऐसी की तैसी करने में परहेज नहीं किया। कई खिलाडी मैच फिक्सिंग, डोपिंग टेस्ट में अपने को सबसे आगे रखकर पूरे देश की इज्जत पूरे विश्व के सामने निलाम कर दी और पूरे देश को उनकी करतूतों से शर्मशार होना पडा। क्रिकेट के चलते अधिकतर खेल उपेक्षित होते चले गये। उनको लाभ और सुविधाएॅ बहुत दूर की बात बल्कि उनके साथ जातीयता बढने लगी। अन्य खेलों में भारतीय हुनर को आगे बढने का एक सहारा ऐशियन, कामनवैल्थ और ओलम्पिक ही था। जहाॅ पर भारतीय खिलाडियों को अलग-अलग विधाओं में अपना जौहर दिखाने को मिलता पर उपर वाले की दया और इन राजनीतिज्ञकांे की दुआ के चलते यह भी संभव नहीं हो पायेगा। थोडा बहुत गोल्ड, ब्रांज और सिल्वर मैडल के द्वारा भारत थोडा बहुत विश्व में अपना स्थान सुनिश्चित कर पाया था। वह भी इस परिणाम के चलते खत्म हो गया। आखिरकार कब राजीतिक देश का अहित करने से बाज नहीं आएंगे। मुझे लगता है कि राजनीतिक प्रतिनिधियों का दखल ओलम्पिक कमेटियों में नहीं वरन क्रिकेट, हाॅकी की चयन कमेटियों में भी बढता चला जा रहा है। इसका तात्कालिक उदाहरण भारतीय खिलाडियों का क्रिकेट के दौरे और उनके प्रदर्शन में आई औसतन गिरावट हैं। हम अपने स्वार्थो के चलते यह भूल जाते है कि खिलाडी कोई रोबोट नहीं है जिसे हमने चार्ज किया और उसे अपने पैसा कमाने के होड में लगा दिया। न उसकी सेहत की ध्यान दी और न ही उनके परफार्मेंंस की चिंता की। इसके चलते इंग्लैण्ड दौरे में क्रिकेटरों की जो थू-थू हुई है वह मीडिया ने हम सबके सामने बहुत विस्तार से रखा हैं भारत क्रिकेट के लिए पागल है इसमें कोईं संदेह नहीं है। भारतीय खिलाडी भी हर बार आशाओं में खरे उतरे। यह उनके लिए संभव नहीं हो सका। हमारी मीडिया की सबसे बडी कमी है कि चैनल सबको सिर मे चढा लेते है और इसके चलते खिलाडियों में ओवरकाफिडेन्स पनपने लगता है और यदि खिलाडी फ्लाप हुआ तो उसकी मिट्टी पलीद करने में यह मीडिया पीछे नहीं हटती। यह पब्लिक है दोस्तो इसे सिर्फ अपने हीरो से जीत की उम्मीद रहती है और यदि उम्मीद टूटती है तो वह सिर्फ बौखलना ही जानते है। यही हाल हाॅकी और ओलम्पिक गैम के अन्य विधाओं का भी होता है पर क्या किया जाय लगातार आशंकाओं के बावजूद वहीं हुआ जिसका डर था। आखिरकार वह मौके जिसमेें भारतीय एथिलीटों, टेनिस स्टार, मुक्केबाजों, कुश्ती पहलवानों, तीरदांजो, हाॅकी खिलाडिया और अन्य विधाओं में खिलाडी अपने जौहर दिखाते वह भी उनसे बहुत ही बेशर्मीपूर्वक छीन लिया गया। अब बेचारे यह खिलाडी उस गलती का परिणाम भुगतेंगें जो उन्होंने किया ही नहीं है। अपने घरेलू खेलों में भाग लेने बस से उनका पूरा विकास कैसे हो सकता है वो विश्व स्तर के खिलाडी कैसे बनेंगे। विश्व स्तर का खिलाडी बनने के लिए विश्व स्तर की प्रतियोगिताओं में अपना स्थान सुरक्षित कर भारत का गर्व बढाने की आवश्यकता है। खेल का सीधा सा नियम रहा है जो जिस कार्य के लिए चुना गया है वह उस स्थान पर अपना पावर दिखाये। यदि डाॅक्टर अपना पावर न्यायालय में दिखायेगा तो कैसे काम चलेगा। बस इसी तरह बंटाधार होता रहेगा। इसी तरह खिलाडी अपने कांधे में अपने हुनर की अर्थी लेकर घूमते नजर आयेंगे। आज के समय पर चाहिए कि चयनकर्ताओं केा अपनी जिम्मेवारी तटस्थ होकर निर्वहन करें ताकि उम्दा खिलाडी निकलकर सामने आये और भारत का नाम रोशन करें। ओलम्पिक ही नहीं बल्कि अन्य खेल के संघों को अपने नियम, कायदों मंे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि उसमें खिलाडी, उनके कोच और भूतपूर्व खिलाडियों को चयन समिति में स्थान मिलें न कि राजनीतिज्ञों को। वरना अभी तो ओलम्पिक में ही भारत बेदखल हुआ वह दिन दूर नहीं है कि जब आई.सी.सी. के संगठन से बी.सी.सी.आई. को भी बेदखल होना पडेगा क्योकि राजनीतिज्ञ इसी तरह खेल संगठनोें के बाप बनने की कोशिश करते रहेंगे और खेल संगठनों को सर्वनाश करने में तुले रहेंगे। अंततः खेल को सर्वोपरि बनाने के लिए खिलाडियों का संगठन हो जो खिलाडियों के विकास की बात सोचे खेल को खेल रहने दें दंगल का मैदान न बनायें।
- अनिल अयान , सतना

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

जब शिक्षकों ने दिखाया दम, हम नहीं किसी से कम

जब शिक्षकों ने दिखाया दम, हम नहीं किसी से कम
अध्यापक से शिक्षाकर्मी और फिर संविदा शिक्षक तक के सफर में गुरू के चेहरे का इतना परिवर्तन हो चुका है कि अब मास्टर साहब को मास्टर की संज्ञा दे दी गई। कुछ दिनों पूर्व इस बात को जानकर थोडा खुशी हुई कि शिक्षक कुछ तो जागृत हुए कुछ समय अंतराल में हडताल, मुख्यमंत्राी से मिलना जुलना और फिर कोई परिणाम आ न पाना। इसलिए स्कूटर रैली निकालकर कम से कम शासन को यह तो बताया कि शिक्षकांे की माली हालत क्या हो चुकी उसी काम को करने के लिए सरकार किसी को 20,000 से 40,000 रू0 मासिक वेतन देती है और किसी को कर्मी बनाकर कुछ समय के लिए 5000 से 10000रू0 में निपटा देती है। बेरोजगारी की मार झेल रहे युवाओं को जब कोई अच्छा जाॅब नहीं मिलता तो वह मास्टरी कर लेता है उसकी स्थिति मरता क्या न करता जैसी स्थिति हो जाती है। राधाकृष्णन जी की संज्ञा और गोविंद के समतुल्य इन शिक्षकों का स्थान कितने नीचे इस सरकार ने गिरा दिया है यह सरकार भी नहीं समझ पायी है।
शिक्षक से शिक्षाकर्मियों तक का सफर तो दिग्विजय सरकार ने शुरू किया था जैसे की सफाई कर्मियों की स्थिति थी। फिर शुरू हुआ संविदा शिक्षकों का दौर जिसकी स्थिति और गुड गोबर हो गई। आज के सरकारी स्कूलांे की स्थिति यह है कि मास्टर रोज समय में स्कूल पहुॅचता नहीं है यदि पहुॅच गया तो समय पर बच्चों को पढाता नहीं है। वरिष्ठ शिक्षक इसलिए नहीं पढाता है क्योकि उसका विकास तो 40,000रू0 का वेतन बढा रहा है। बच्चों का विकास भाड में जाए। संविदा शिक्षक इसलिए नहीं पढाता है कि वो अपनी पारिवारिक और आर्थिक समस्याओं के चलते इतना चिंतित रहता है कि पढाने का मन ही नहीं करता। कही यदि कभी पढाने का मन किया भी तो प्राचार्य के आदेश और विभागीय काम की घुडदौड जारी हो जाती है। शिवराज सरकार ने शिक्षा के स्तर को बढाने के लिए शिक्षकों का वेतनमान बढाया तो धन्यवाद की पात्रा है। पर यह भी सच है कि आज उतने वेतन से एक सप्ताह का घर नहीं चलता है। एक महीना घर चलाना सिर्फ बीरबल की खिचडी के तरह ही हाल होगा। आजकल शिक्षकों की स्थिति डेली वेजेज मजदूर से भी बदतर है और बदतर करने वाले हमारे जनप्रतिनिधि और हमारी सरकार। शिक्षक दिवस का ढकोसला मुझे बिल्कुल नहीं भाता। शिक्षक अपना सम्मान करवाने के लिए अधिकारियों की चमचागिरी कर आवेदन पत्रा दें। मैं ये पूछता हूॅ कि वो कमेटी क्या काम करती वो प्राचार्यो और अभिभावकों के मत से शिक्षकों के बारे में जानकारी एकत्रा कर चुनाव करे कि वह पात्राता रखता है कि नहीं। पर नहीं यदि ऐसा हुआ तो सरकारी रेवडी बांटने में लगाम नहीं लग पाएगी। इसलिए शिक्षक दिवस में सरकार सरकारी दामादों को स्वागत करके सम्मानित करती है और सभी शिक्षकों को इस बात का गर्व होता है कि वो डाॅ. राधाकृष्णन के वंशज है उन्हें कितना सम्मान दिया जाता है। यदि शिक्षकों ने समान वेतन समान सुविधाओं की बात की तो वो दोषी हो गया। एक नगर निगम का स्वीपर इन शिक्षकों से अधिक पेमेंट पाता है और घूस जो मिलती है उसकी कोई गिनती नहीं। पोलियों डाॅप पिलाना हो, जनगणना करना हो, सर्वे करना हो या धूप लू में बगारी करना हो सब बिन बुनियाद के अशिक्षकीय कार्यो के लिए सिर्फ शिक्षा के ही सरकार को नजर आता है। क्या और विभाग वाले विशिष्ट लोक से आये है क्या उनकी जिम्मेवारी कुछ नहीं है।
मैं पूछता हूॅ कि जब सरकारी शिक्षक से यदि साल भर पढवाया नहीं जाएगा सिर्फ उपर्युक्त कार्यो की तरह बेगारी करवाया जाएगा तो माॅ सरस्वती की कृपा क्या इतनी ज्यादा इफरात है कि सरकारी स्कूल के बेबस लाचार बच्चों पर मुफ्त में बरसेगा जी नहीं दोस्तो। यदि सरकार को शिक्षकों से उनके हुनर का उपयोग करवाना है तो उन्हें बुनियादी सुविधा उपलब्ध करानी होगी। उनसे सिर्फ पढवाने का कार्य लेना होगा। अन्य जिम्मेवारियों के लिए अन्य विभाग के कुर्सी तोडते कर्मचारी है ना। उनका उपयोग समय-समय पर करना चाहिए।
शिक्षकों का पूरा समूह एक जुट होकर जिस तरह अपनी शक्ति प्रदर्शन किया है वो भी अनुशासित होकर वह पूरे राज्य के संविदा शिक्षक को करना चाहिए। गरम रवैया ही उन्हें उनकी मंजिल तक पहुॅचा सकता है। एक तरफ जब प्रशासन यह कहता पाया गया कि इन पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी तब मुझे लगा कि अपनी आवाज जब बहरों को सुनाने के लिए शक्ति प्रदर्शन करना कहाॅ गलत है वो भी सभी अनुशासन में रहते हुए। यदि इतनी ज्यादा चिंता है तो समान वेतन समान सुविधाएॅ समान कार्य और जिम्मेवारी का सूत्रा अपनाकर इस समस्या को ही खत्म कर दिया जाए। खुद राई का पहाड और तिल का ताड बना लिया और दूसरे पर अंगुलिया उठाई जाने लगी। एक काम के लिए अलग-अलग वेतन माना, अलग-अलग सेवा शर्ते, यह तो दोगलापन हुआ शिक्षक हमारे देश का भविष्य निर्मित कर रहे है और देश की सरकार को चाहिए कि शिक्षक को एक राजपत्रित अधिकारी के बराबर मापदण्ड दें, सेवा शुल्क और सुविधाएॅ प्रदान करना चाहिए तभी उनका वास्तिविक सम्मान उन्हंे प्राप्त होगा अन्यथा अन्य लोगों की तरह शिक्षकों को भी अपनी शक्ति प्रदर्शन करने की आदत पड गई तो स्कूल में बच्चो को कौन पढाएगा और परीक्षा परिणामोें का क्या हाल होगा जनाब इसका जो देश को नुकसान होगा उसके लिए कौन जिम्मेवार होगा इसलिए समस्या को बढाने की बजाय समस्या की जड को खत्म करना चाहिए। शिक्षक का सम्मान हम सब का सम्मान है। इसलिए शिक्षको का हक भी एक समान होना चाहिए। अंत में
झील में पानी बरसता है हमारे देश में
खेत पानी को तरसता है हमारे देश में
यहाॅ नेताओं और बेईमानों के सिवाय
अब खुशी से कौन हंसता है हमारे देश में
- अनिल अयान
मो. 9406781040

शनिवार, 24 नवंबर 2012

प्राॅक्सी वार का एक बुत धराशायी, अब होगी अफजल गुरू की विदाई

प्राॅक्सी वार का एक बुत धराशायी, अब होगी अफजल गुरू की विदाई
बरसी नजदीक ही थी कि एक अचानक खबर फेसबुक में देखा की आज कसाब को फांसी मुझे लगा कि फेक पोस्ट है पर दोपहर तक जब टी0वी0 चैनलो से ब्रेकिंग न्यूज सुना तब जाकर यकीन आया। यह वाकयै श्रद्वांजली थी। एक परोक्ष युद्व का बुत धरासायी हुआ कई लोगों, कई देशो को झटका लगा कि भारत के संविधान में ये करिश्मा कैसे हो गया। कसाब को पकडे जाने के बाद जिस तरह 4-5 साल तक उसकी खातिरदारी की गई वह भारत और भारतवासियों के लिए चिंता का विषय था। भारतीय लोकतंत्रा और भातीय न्यायपालिका के लिए यह सरकारी दामाद की सेवा करने की जगदोजहद जारी थी।
कसाब और अफजल गुरू इतना ज्यादा प्रसिद्व हो गए थे कि वीर रस के कवियों से लेकर राजनैतिक समीक्षाकार भारत पाक संबंधों पर लंबे-लंबे आर्टिकल लिखनें लगे और संसद हमले में शहीद हुए परिवारों को सच्ची सहानुभूति भारत के संविधान और भारत के कानून के द्वारा इस अवसर पर दी गई।
इतने वर्षो से भारत की धर्मनिरपेक्ष उदारता का परिणाम था कि कसाब को सारे मौके दिए गए अपनी बेगुनाही को साबित करने का वकील प्रदान किए गए उसका पूरा ख्याल रखा गया लेकिन मामला भारत के शहीद परिवारों की दुआओं की तरफ झुकता रहा। इस प्रक्रिया का गोपनीय रहना वाकयै एक गोरिल्ला युद्व की तकनीक का आधुनिक पर्याय था। पूरा काम इतनी सफाई और नैतिक ढंग से हुआ कि जल्लाद तक को कानोकान खबर नहीं हुई। पाकिस्तान, भारत पाक युद्व के बाद से ही परोक्ष युद्व को तेज करने के लिए आतंकी हमले की साजिश करता रहा है जो लगातार अक्षरधाम मंदिर हमलों से मुम्बई बम विस्फोटों और भारत के सर्वोच्चतम संविधान के रखवाले लोकतंत्रा के केन्द्र बिंदु संसद में हमला करवाकर यह सिद्व कर दिया कि आतंकवादी प्राॅक्सीवार करते हुए परोक्ष रूप से भारत के हृदय में भी आक्रमण करने में परहेज नहीं करेेंगे पर भारत ने जितने भी सैनिकों के इंतजाम अपने सुरक्षा के नाम किये उनकी शहादतों को कसाब और अफजल गुरू जैसे आतंकी बुतों का जिंदा रहना शर्मिदिगीं का कारण बन रहा था। भारत का संविधान अपने पुराने पाकिस्तान के साथ रिश्तों की दुहाई देकर मुॅह में पट्टी बांधे हुए उदासीन बना हुआ था। कभी आगरा वार्ता कभी स्लामाबाद यात्रा कभी जसवंत सिंह का जिन्ना के ऊपर किताब लिखना कभी आडवानी का पाकिस्तान को सेगुलर कहना कभी कांग्रेस की तरफ से पाकिस्तान पर टिप्पणी करके विवादित बने रहना ये सब पाकिस्तान के साथ जितने संबंध मजबूत किये उतना ही आतंकवादियो ने उधर से एहसास दिला दिया कि जन्मजात दुश्मन पाकिस्तान कभी दोस्त नही हो सकता। लंबी जद्दोजहद के बाद प्रणव दा के द्वारा जीवनदान की अर्जी खारिज करने से लेकर कसाब की फांसी और फिर आतंकी संगठनों को खिसयानी बिल्ला खंभा नोचे वाले कहावत को चरितार्थ करने की प्रक्रिया यह साबित कर दी कि भारत को जो कार्य संसद हमले की दुर्घटना के बाद कर लेना चाहिए जैसे की अमेरिका ने वल्र्ड ट्रेड हमले के बाद किया था, वह इस कार्य में देरी करके अनावश्यक अपने नागरिकों की नजरों में इतने सालों तक चढा रहा।
यह सच है कि कसाब प्राॅक्सीवार या परोक्ष युद्व का एक बुत था जो लश्करे तोयबा के द्वारा तैयार किया गया था उसके 25 वर्ष के जीवन में यह जेहाद का मिशन अंजाम तक उसे पहुॅचा दिया। अफजल गुरू के द्वारा तैयार किया गया यह बुत आतंकवादी संगठनों को हीरो कब बन गया वह खुद कसाब को भी नहीं पता था। तभी तो उसकी मौत की खबर सुनते ही लश्कर ने ऐसी गुहारी मारी कि जैसे उसको पूरे चैराहे में सभी के सामने बलात्किृत कर दिया गया हो। अभी तक जो हुआ वह तो एक अच्छे निर्णय का परिणाम था परंतु अब भारत को चाहिए कि मुस्लिम देशों में भारत के उच्चायोगों और भारत की आत्मसुरक्षा को सख्ती से ज्यादा मजबूत कर देना चाहिए ताकि कोई दुष्कर परिणाम न भोगना पडे। इस घटना से भारत में रह रहे सच्चे मुसलमानों की भी पहचान हो गई वे इसलिए खुश थे क्योकि आतंकी हमलों में आतंकियो ने जब बेगुनाहो को मौत के घाट उतारा तब उन्हांेने यह बिल्कुल नहीं देखा कि मरने वाला किस धर्म का है। इसी वजह से आज वो सभी मुसलमान जश्न मना रहे है। हमारे खुशियाॅ मनाने का अवसर है लेकिन हमें इस बात का भी चिंतन करना चाहिए कि इस बुत के सहारे इसके कारीगरों को भी अंजाम तक पहुॅचाया जाय और उस कारखाने को भी नष्ट किया जाय जिसमें अफजल गुरू जैसे कारीगर दिन रात एक करके कसाब जैसे बुतों का निर्माण करने में लगे हुए है और जेहाद का राग अलाप रहे है। भारत को अपने इस अच्छे काम की कडी को जारी रखना चाहिए और एक बात ध्यान देनी चाहिए कि पाकिस्तानी विदेश मंत्राी चाहे जितना भारत के साथ मधुर रिश्तों की बडाई करती रहे पर कसाब की मृत्यु के बाद उनका भारत दौरा निरस्त कर देना अच्छे परिणामों की रोक संकेत नहीं करता, वह किस ओर संकेत करता है वह हम सब जानते है। भारत के उच्च सत्ताधिकारी, जनप्रतिनिधियों और न्यायपालिका को चाहिए कि अब सीधे अफजल गुरू की विदाई के लिए आरती का थाल सजा लें ताकि किसी आतंकी संगठन के हौसले को सिर उठाने तक का मौका न मिल पाय तभी शहीदों को यह एक और बेदाम श्रद्वांजली होगी।
इस तरह शहीदों को मैं सदा देता हूॅ वतन परस्ती के शोलो को हवा देता हूॅ
शहीदी परिवारों को दुआ देता हूॅ और आतंक के खुदा को बद्दुआ देता हूॅ।
- अनिल अयान
सम्पादक, शब्द शिल्पी
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शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

अतिक्रमण हटाने का धतकरम कही नरम कहीं गरम

अतिक्रमण हटाने का धतकरम कही नरम कहीं गरम
जब भी कोई नेता नपाडी या किसी सत्ताधारी की शहर में आवक होती है तो हमारा प्रशासन तथा उसके ठेकेदार इतने ज्यादा जागरूक हो जाते है कि उन्हंे सिर्फ और सिर्फ सडक के किनारे के वो सामान्य व्यवसायी दिखते है जो नाम के व्यवसायी है परंतु काम सिर्फ रोटी, कपडा और मकान के लिए रोज जगदो जहद करते है। इसी बहाने इस बात का सत्यापन हो जाता है। मुख्यमंत्राी से सामान्य मंत्राी या राष्ट्रपति से राज्यपाल इनकी आवक शहर को सुंदरता और गरीब दुकानदारों को कई महीने तक न बोलने वाला एक हरा घाव दे जाती है। लोगों के पेट में लात मारकर शहर को साफ सुथरा बनाना और साफ सुथरा सतना अपना के नारे लगाने वाले तथाकथित साफ स्वच्छ मण्डियो की व्यवस्था तो नहीं करा पाते। वोट पाने के लिए गोटियाॅ फिट करने के साथ-साथ उन बेबस लाचार दुकानवालों, ठेलेवालों, गुमटीवालों और अन्य इसी तरह के कुछ दुकानदारों से नाजायज वसूली करने का गुणधर्म इन नालायक कर्मचारियों का होता है। समय आने पर यह दुलत्ती मानकर उन सभी कमजोर व्यवसायियों का गला रेतने में भी पीछे नहीं हटते। समस्या यह नहीं है कि समाधान तक शहर पहुॅचता नहीं है बल्कि समस्या यह है कि समस्या को अपना घर बनाने वाले आला अफसर समाधान को खोजने की कोशिश ही नहीं करते उन्हें सिर्फ अपनी जंेबें भरने के साथ ऊपर अच्छे आंकडे दिखाना और कुछ समय के बाद नियम कानून भूल जाना जैसी दो कोडी की हरकतें करने से फुर्सत नहीं है।
जिसके पैर की ऐडियाॅ नहीं फटती है वह दूसरे का दर्द जान ही नहीं सकता है। यह सच है कि ए0सी0 के हवा खाने वाले घूस से दाल रोटी की व्यवस्था करने वाले और दलालों के मुफ्त दिये हुए पेट्रोल और डीजल की गाडियों के मालिक ये तथाकथित सफेदपोशी ईमानदार आला अफसर जब अतिक्रमण के नाम पर सरकार का समय और विभाग का धन उडाने के लिए निकलते है तो इन चश्मे से सिर्फ और सिर्फ रोड के पास रखी गुमटियों सब्जी और अन्य सामान के ठेले और गरीब तबके के वो दुकानदार ही दिखते है जो इन दबंगईयों स्टाइल में किये गये अतिक्रमणविरोधी दस्ते के डर से इनके मुॅह निकली धनराशि इनके जेबों में भरने की मजबूरी से बेबस है वरना इन उडनदस्तों के पर अब तक इतने मजबूत ही नहीं हुए कि सडक के किनारे बने हुए माॅल मल्टीपलेक्स, आटोमोबाइल्स, जनप्रतिनिधियों के होटल, रेस्टाॅरेंट और तथाकथित नामी गिरामी काला धन रखने वालों के बियर बारों का नाजायज अतिक्रमण हटा सकें क्योकि वहाॅ पर इनकी फाइलें इनका आदेश और इनके सारे नियम कानून मात्रा एक फोन की घंटी बजने के बाद घुटने टेक देते है तब मेरा सवाल इन लोगों से होता है कि कहाॅ चला जाता है इनका नियम, कानून, इनका साफ स्वच्छ सतना रखने का उद्देश्य और सरकार के बहुमुखी विकास के चिट्ठे और अंततः इनकांे अपने कदम पीछे ही लेने पडते है। मैं अतिक्रमण हटाने का विरोध नहीं करता पर इस कार्य में न्यायसंगत और तटस्थ होकर ईमानदारी से अपना कत्र्तव्य निर्वहन करने का समर्थन जरूर करता हूॅ ताकि इसका लाभ लोगों को प्रशासन को और पूरे देश को प्राप्त हो। अभी तक मैंने जितने बार देखा है कि जनप्रतिनिधियों, विभिन्न पार्टियों के नेताओं और पावरफुल उद्योगपतियों ने इस व्यवस्था को लचर बना दिया है। इसके सामने प्रभावी अफसर या तो आते नहीं है और यदि आते है तो उनका जल्द से जल्द तबादला करा दिया जाता है। यदि प्रशासन चाहे तो जो लोग अपने छोटे मोटे व्यवसाय और रोजी रोटी कमाने के लिए काम पर दिन रात एक करते है उनके लिए नगर निगम के द्वारा परमानेंट व्यवस्था करवा दी जानी चाहिए जिससे अतिक्रमण का झंझट खत्म हो जाय। आज के समय पर जिला प्रशासन अपनी तरफ से प्रयास तो बहुत करते है पर उसके रख रखाव करने में उसको पसीने छूट जाते है क्योकि नियमित रूप से कार्य करना तो दूर उसका रख रखाव करने में जितने व्यवधान उसे झेलने पडते है वह हमारे सामने है। प्रशासन के द्वारा बहुत सारे कार्य तो धत करम के रूप में पूरे समाज में दिखाई पडता है क्योकि प्रशासन के कुछ लोगों की रोजी रोटी के साथ बलात्कार और नियम कानूनो का दुरूपयोग करने से एक कदम भी पीछे नहीं हटते। आज के समय पर सामान्यतः उच्च पद पर वहीं बैठा है जो नेताओं की चमचागिरी करने में सबसे आगे है और प्रशासन की आंखो में धूल झोंकने में भी शर्म नहीं आती हो। आज के समय पर अधिकारी अतिक्रमण हटवाते है पर अतिक्रमणकारियों से पैसे इसलिए लिये जाते है ताकि उन्हें अतिक्रमण किया जा सके और अधिकारियों के हाथ में फंसी सोने की अंडा देने वाली ये मुर्गियाॅ हमेशा जिंदा रहीं आये अन्यथा नरम गरम व्यवहार वाले इस प्रकार के अतिक्रमणविरोधी दस्तों का हाल क्या होता है यह सब हम रोजाना समाचार पत्रों एवं टी0वी0चैनलों में देखते है। इन गतिविधियों से एक बात निकलकर सामने आती है इस प्रकार के कार्य चांदी कंे जूतों से पिटे हुए लोगांे की मजबूरी है और रूपयों के हाथो से बिके हुए लोगांे की मजबूरी है क्योकि दस्ते में शामिल हर एक व्यक्ति लक्ष्मी पुत्रों के लक्ष्मी के हाथो नीलाम हो चुके होते है और बिन पेंदी के लोटे की तरह व्यवहार करते नजर आते है। यही इनकी नियत ही है और गरीब व्यवसाइयों की रोजी रोटी के लिए उनकी नियत एक विधान है।
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अनिल अयान
संपादक शब्द शिल्पी
सतना मो. 9406781040



सोमवार, 12 नवंबर 2012

महंगे हुए सपने अब नहीं है अपने

महंगे हुए सपने अब नहीं है अपने
बुजुर्गो ने कहा था कि हमेशा खुले आॅखों से सपने देखों तभी वो पूरे होते है वरना नींद के सपनों का कोई औचित्य नहीं है। परंतु आज के समय है। लोग कितने सपने देखते है। परंतु महंगाई एक डायन की तरह उनके पीछे, पडकर सपनों को तोडने लगती है। क्या जमाना आ गया है साहब आज के समय पर सपनों की उॅचाई इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि सपनों को देखने के लिए सरकारी की मेहरबानी। जीॅ हाॅ ये कोई फेंटेसी की बात नहीं है। यह वास्तविकता है यदि आपको यकीन न हो तो उन लोगों से पूंछिये जिनकी रोज की रात उस सोच में बरबाद होती है कि अगली रात भूखे पेट सोना पडेगा या निवाला नसीब होगा कि नहीं। उसका सपना तो सिर्फ रोटी कपडा और मकान का इंतजाम कर पाना की नहीं होता है।
तथ्यों के अनुरूप यह भी सच है कि इन दो वर्षो में महंगाई इतनी अधिक बढी है कि पिछले वर्षो की महंगाई को भी इस पर यकीन नहीं था। अर्थशास्त्राी अपने हाथों में हाथ धरे बैठे रह गए परंतु महंगाई और मुद्रा स्फीति की दर को रोकने में अक्षम रहे। महंगाई का सबसे ज्यादा प्रभाव आम जन पर पडा है। खास की श्रेणी में आने वाले धन्ना सेठ तो आज भी उसी तरह जीवन जी रहे है किस तरह पहले जिया करते थे। महंगाई के चलते सरकार भी अपनी तटीया सीमा में पहुॅच गई। सरकार के दो प्रतिनिधि डाॅ. मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य रहा होगा जब वो प्रधानमंत्राी होने के बारे में विचार कर रहे थे वरना वो अर्थशास्त्राी के रूप में ज्यादा नामवर हुए। यह सच है कि महंगाई आज के समय की देश में सबसे ज्यादा चिंताजनक मुद्दा बनी हुई है।
एक तरफ हमारा देश विकास करने के लिए विकसित देशों की श्रेणी में खुद को लाने के लिए तत्पर है और वहीं दूसरी तरफ महंगाई त्रोता युग की सुराा की तरह अपना मुख फेलाती ही जा रही है। महंगाई का असर यंू हुआ है कि गल्ला खरीदने से लेकर उसे खाने योग्य बनाने में और पकाकर खाने की प्रविधि में इतनी ज्यादा चिंता होती है कि लोग खाना खाने की तृष्णा को भूल जाते है। आज के समय पर देखे गए सपने तो बहुत दूर की बात है यदि वो अपनी आयु पूरी कर लें तो शायद ऊपर वाले की मेहरबानी ही होगी। आज के समय पर आम से संसद में बैठा हुआ हर व्यक्ति महंगाई का ही राग अलाप रहा है। कोई महंगाई के नाम पर वोट का बैंक बना रहा है? कोई महंगाई के चलते चैथा मोर्चा खोल रहा कोई महंगाई पर बयानबाजी करके कैमरे के सामने आना चाहता है बस यह कहे कि महंगाई कभी एन0डी0ए0 और कभी यू0पी0ए0 के घर में बिन पेंदी के लोटे की तरह लुढक रही है। महंगाई की मार 2011-12 में कुछ ऐसी पडी कि सरसो के खाने के तेल और पेट्रोल में कोई अंतर नहीं रह गया। आज के समय में समय के साथ महंगाई भी हाईटेक नेताओं के हाथ की कठपुतली हो गई है जो चाहे जब चाहे आम इंसान की कमर तुडवाने के लिए इसका प्रयोग कर सकता है सिर्फ उसके पास पावर और लालबत्ती हो। आजकल रूपये का दाम खुद कम हो गया तो रूपय देकर समान का दाम बढ गया। अर्थशास्त्रा के सारे नियम कानून भारतीय मुद्रा को सम्मानजनक स्ािान दिलाने में असमर्थ साबित हो रहा है। नौकरी पेशेवालों की तो और मुसीबत है उनकी तनख्वाह सिर्फ महंगाई की भूख प्यास को पूरा करने में ही खप जाती है। बचत करना तो सिर्फ सपना हो गया है। लोगों के अमीर बनने के सपने में जंग लगने लगी है। आयात और निर्यात के बीच बनती खाई कही न कहीं महंगाई के लिए उत्तरदायी है। आयात शुल्क में बढोत्तरी और अनावश्यक लोगों को सब्सिडी कहीं न कही पर सरकार के लिए महंगी साबित हो रही है। अर्थजगत के सुप्रसिद्व अखबार द एकोनाॅमिकल टाइम्स को देखते हुए एक संपादकीय में साफ-साफ लिखा गया कि भोपाल की अधिकता और उत्पादित माल के निर्यात में कमी भारत को कंगाल बनाने में मदद कर रही है और यदि यही हाल रहा तो भारत इस सरकार की अगली दो पंचवर्षीय पूरे होने तक घोषित हो जाएगा और उस समय पर अर्थशास्त्रा कुछ भी नहीं कर पाएगा। न ही भारत को दिवालिया होने से बचा पाएगा। यह सच है कि मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार भविष्यगत सपने देखता है और उसे पूरे करने के लिए दिन रात एक करता है परंतु भरत की स्थिति यह की भारत में रहने वाला ही व्यक्ति कर्ज में डूबा है। भारत में रहने वाला गरीब और अधिक गरीब हुआ है और भारत का अमीर और अधिक अमीर हुआ। कई अमीरों की अमीरी का कोई सिर पैर तथा बुनियाद नहीं है। उनके स्विस बैंको में स्थित खाते अपने सुख चैन के लिए दिन गिन रहे है। शिक्षा से लेकर दीक्षा तक सब महंगी हो गई है। आप कब तक यह कहते रहेंगे कि हमे अपने से मतलब है देश से कोई मतलब नहीं वो जनप्रतिनिधि जाने देश चलाना प्रधानमंत्राी को ठेका है और राज्य चलाना मुख्यमंत्राी का ठेका है। हमने तो उन्हें चुनकर विधानसभा और संसद में भेज दिया बाकी उनकी जिम्मेबारी वो जाने।
यह सच है कि जिस देश के भौतिक संसाधनों का उपयोग मानव संसाधनों के द्वारा नहीं किया जाता वह देश अपनी कंगाली का पहला कदम रख चुका होता है। एक तरफ यदि महंगाई यह चिल्लाती हुई हमें डकार जाने के लिए आतुर हो रही है कि मोहि कहा विश्राम। तो हम सब को इस बात पर आपसी सामंज्य बिठाकर उसका सामना करना चाहिए। महंगाई यदि सुरक्षा की तरह मुॅह फेला रही है तो हमें हनुमान की तरह हार न मानते हुए सामना करके विजयी होना पडेगा या तो हम बदल जाए या जमाने को बदल दें। हम बदलेंगे तो सपने अपने होगे और यदि जमाना बदलेगा तो सपने सुहाने होंगे तो अब से महंगाई की कहिये तोहिं यहाॅ विश्राम।
अनिल अयान
संपादक शब्द शिल्पी
सतना मो. 9406781040

बुजुर्गो ने कहा था कि हमेशा खुले आॅखों से सपने देखों तभी वो पूरे होते है वरना नींद के सपनों का कोई औचित्य नहीं है। परंतु आज के समय है। लोग कितने सपने देखते है। परंतु महंगाई एक डायन की तरह उनके पीछे, पडकर सपनों को तोडने लगती है। क्या जमाना आ गया है साहब आज के समय पर सपनों की उॅचाई इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि सपनों को देखने के लिए सरकारी की मेहरबानी। जीॅ हाॅ ये कोई फेंटेसी की बात नहीं है। यह वास्तविकता है यदि आपको यकीन न हो तो उन लोगों से पूंछिये जिनकी रोज की रात उस सोच में बरबाद होती है कि अगली रात भूखे पेट सोना पडेगा या निवाला नसीब होगा कि नहीं। उसका सपना तो सिर्फ रोटी कपडा और मकान का इंतजाम कर पाना की नहीं होता है।
तथ्यों के अनुरूप यह भी सच है कि इन दो वर्षो में महंगाई इतनी अधिक बढी है कि पिछले वर्षो की महंगाई को भी इस पर यकीन नहीं था। अर्थशास्त्राी अपने हाथों में हाथ धरे बैठे रह गए परंतु महंगाई और मुद्रा स्फीति की दर को रोकने में अक्षम रहे। महंगाई का सबसे ज्यादा प्रभाव आम जन पर पडा है। खास की श्रेणी में आने वाले धन्ना सेठ तो आज भी उसी तरह जीवन जी रहे है किस तरह पहले जिया करते थे। महंगाई के चलते सरकार भी अपनी तटीया सीमा में पहुॅच गई। सरकार के दो प्रतिनिधि डाॅ. मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य रहा होगा जब वो प्रधानमंत्राी होने के बारे में विचार कर रहे थे वरना वो अर्थशास्त्राी के रूप में ज्यादा नामवर हुए। यह सच है कि महंगाई आज के समय की देश में सबसे ज्यादा चिंताजनक मुद्दा बनी हुई है।
एक तरफ हमारा देश विकास करने के लिए विकसित देशों की श्रेणी में खुद को लाने के लिए तत्पर है और वहीं दूसरी तरफ महंगाई त्रोता युग की सुराा की तरह अपना मुख फेलाती ही जा रही है। महंगाई का असर यंू हुआ है कि गल्ला खरीदने से लेकर उसे खाने योग्य बनाने में और पकाकर खाने की प्रविधि में इतनी ज्यादा चिंता होती है कि लोग खाना खाने की तृष्णा को भूल जाते है। आज के समय पर देखे गए सपने तो बहुत दूर की बात है यदि वो अपनी आयु पूरी कर लें तो शायद ऊपर वाले की मेहरबानी ही होगी। आज के समय पर आम से संसद में बैठा हुआ हर व्यक्ति महंगाई का ही राग अलाप रहा है। कोई महंगाई के नाम पर वोट का बैंक बना रहा है? कोई महंगाई के चलते चैथा मोर्चा खोल रहा कोई महंगाई पर बयानबाजी करके कैमरे के सामने आना चाहता है बस यह कहे कि महंगाई कभी एन0डी0ए0 और कभी यू0पी0ए0 के घर में बिन पेंदी के लोटे की तरह लुढक रही है। महंगाई की मार 2011-12 में कुछ ऐसी पडी कि सरसो के खाने के तेल और पेट्रोल में कोई अंतर नहीं रह गया। आज के समय में समय के साथ महंगाई भी हाईटेक नेताओं के हाथ की कठपुतली हो गई है जो चाहे जब चाहे आम इंसान की कमर तुडवाने के लिए इसका प्रयोग कर सकता है सिर्फ उसके पास पावर और लालबत्ती हो। आजकल रूपये का दाम खुद कम हो गया तो रूपय देकर समान का दाम बढ गया। अर्थशास्त्रा के सारे नियम कानून भारतीय मुद्रा को सम्मानजनक स्ािान दिलाने में असमर्थ साबित हो रहा है। नौकरी पेशेवालों की तो और मुसीबत है उनकी तनख्वाह सिर्फ महंगाई की भूख प्यास को पूरा करने में ही खप जाती है। बचत करना तो सिर्फ सपना हो गया है। लोगों के अमीर बनने के सपने में जंग लगने लगी है। आयात और निर्यात के बीच बनती खाई कही न कहीं महंगाई के लिए उत्तरदायी है। आयात शुल्क में बढोत्तरी और अनावश्यक लोगों को सब्सिडी कहीं न कही पर सरकार के लिए महंगी साबित हो रही है। अर्थजगत के सुप्रसिद्व अखबार द एकोनाॅमिकल टाइम्स को देखते हुए एक संपादकीय में साफ-साफ लिखा गया कि भोपाल की अधिकता और उत्पादित माल के निर्यात में कमी भारत को कंगाल बनाने में मदद कर रही है और यदि यही हाल रहा तो भारत इस सरकार की अगली दो पंचवर्षीय पूरे होने तक घोषित हो जाएगा और उस समय पर अर्थशास्त्रा कुछ भी नहीं कर पाएगा। न ही भारत को दिवालिया होने से बचा पाएगा। यह सच है कि मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार भविष्यगत सपने देखता है और उसे पूरे करने के लिए दिन रात एक करता है परंतु भरत की स्थिति यह की भारत में रहने वाला ही व्यक्ति कर्ज में डूबा है। भारत में रहने वाला गरीब और अधिक गरीब हुआ है और भारत का अमीर और अधिक अमीर हुआ। कई अमीरों की अमीरी का कोई सिर पैर तथा बुनियाद नहीं है। उनके स्विस बैंको में स्थित खाते अपने सुख चैन के लिए दिन गिन रहे है। शिक्षा से लेकर दीक्षा तक सब महंगी हो गई है। आप कब तक यह कहते रहेंगे कि हमे अपने से मतलब है देश से कोई मतलब नहीं वो जनप्रतिनिधि जाने देश चलाना प्रधानमंत्राी को ठेका है और राज्य चलाना मुख्यमंत्राी का ठेका है। हमने तो उन्हें चुनकर विधानसभा और संसद में भेज दिया बाकी उनकी जिम्मेबारी वो जाने।
यह सच है कि जिस देश के भौतिक संसाधनों का उपयोग मानव संसाधनों के द्वारा नहीं किया जाता वह देश अपनी कंगाली का पहला कदम रख चुका होता है। एक तरफ यदि महंगाई यह चिल्लाती हुई हमें डकार जाने के लिए आतुर हो रही है कि मोहि कहा विश्राम। तो हम सब को इस बात पर आपसी सामंज्य बिठाकर उसका सामना करना चाहिए। महंगाई यदि सुरक्षा की तरह मुॅह फेला रही है तो हमें हनुमान की तरह हार न मानते हुए सामना करके विजयी होना पडेगा या तो हम बदल जाए या जमाने को बदल दें। हम बदलेंगे तो सपने अपने होगे और यदि जमाना बदलेगा तो सपने सुहाने होंगे तो अब से महंगाई की कहिये तोहिं यहाॅ विश्राम।
अनिल अयान
संपादक शब्द शिल्पी
सतना मो. 9406781040

देख कर षिक्षा लाचार, खुद का काला बाजार

देख कर षिक्षा लाचार, खुद का काला बाजार
सर्वषिक्षा अभियान और पढना-बढना आन्दोलन जब अनिवार्य षिक्षा तक पहुचा तब षिक्षा के मौलिक अधिकार के बारे मे विचार करने की अवष्यकता महसूस हुई । षिक्षा या साक्षर दोनो का भेद आज के समय पर बढता जा रहा है। आज षिक्षा का अध्याय प्राइवेट स्कूलो के घर की जागीर हो चुका है और साक्षरता सरकारी फाईलो में दीमक का भोजन बन रही है। स्कूली षिक्षा को बढावा देने के लिए सरकारो ने अजीबो गरीब चक्रव्यूह रचा है जिसमें वह मद के अनुसार राषि प्रदान करती है और वह राषि उसके चमचों के द्वारा पार कर दी जाती है। आज के समय पर एम.पी. बोर्ड के विद्यालयों की अपेक्षा सीबीएसई के स्कूलो के प्रति लोगो का रूझान बढा है लोग इग्लिस मीडियम के दौर में सामिल हो कर अपने बच्चो को एक पढा लिखा अग्रेज युवक बनाने में पीछे नही रहना चाहते। सीबीएसई ने आज के समय पर इसी लिए हिन्दी मीडियम तक की व्यवस्था की है षिक्षा जितनी मंहगी हुई है उतनी ही बजारू भी हो गयी है षिक्षा का बाजार आज के समय पर फल फूल रहा है बडे -बडे उद्योगपति अपना काला धन षिक्षा के उद्योग ने लगा कर करोड पति से अरबपति बन रहे है क्रिष्चियन षिक्षा को उच्चस्तरीय बना कर धार्मिक प्रचार प्रसार करने के बहाने अपने विचारो को विदेष से देष में अयात कर रहे है गोरख धंधो को राजिनितिक जनप्रतिनिधि और बाजारवाद के लक्ष्मीपुत्र विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करके समाज सेवा और धर्नाजन दोनो कर रहे है।
पहले के समय पर षिक्षा ज्यादा सस्ती आमजन के लिए आसान होने के साथ-साथ स्तरीय भी होती थी परन्तु आज के समय पर षिक्षा को जितना प्रयोगात्मक बनाया गया वह उतनी ही स्तर हीन हो गयी वजह सरकार अपना परीक्षा परिणाम सुधारने के लिए पहले पाॅचवी और आठवी की परिक्षाएॅं खत्म की और फिर सारे बच्चो को पास करने की अनिर्वयताः भी षिक्षा विभाग के सामने रखी यह सच है कि इस कार्य में षिक्षको की मजबूरी सामने आयी। पर दसवी का परिणाम उतना ही गिरा हर मुद्दे में बच्चो को मिलने वाली शासकीय छूट उनके भविष्य के साथ खिलवाड करती नजर आयी आप खुद सोचिए जब छन्ना लगेगा नही तो अच्छे बीज कहाॅं से मिलेगे। यह सच है कि प्राइवेट विद्यालयों षिक्षा की गुडवक्ता की ओर ध्यान दिया जा रहा है परन्तु यह गुणवत्ता सिर्फ रईसो के घर की मुर्गी की तरह है क्योंकी प्राइवेट कान्वेट स्कूलों में गरीब अपने बच्चो को पढ ही नही सकता है। अमीर वर्ग का पूरा क्रीम उत्पाद यहाॅं पहुचता है और सरकारी परिक्षाओं में परिणाम अपने नाम करता है यही सब अस्थितरताए उच्च परिणामों की मांग इतनी ज्यादा स्कूलो से की जाती है की स्कूलो का उद्येष्य अच्छे प्रतिषत अंक दिलाने तक सीमित हो चुका है। उनका ज्ञानार्जन का उद्येष्य कब से दम तोड रहा है यह हम ही जानते है माता पिता बच्चेां की रिजल्ट से ही खुष रहते है उन्होने यह कभी सोचने की कोषिष ही नही की उनका बच्चा ज्ञान रखता है प्रायवेट स्कूलों में अभिवावकों से अच्छी खासी मोटी रकम वसूली जाती है चाहे वह डोनेष या फीस के रूप में हो। इसी लिए वह राषि देने के लिए विवस होते है उनके मन में बच्चो को टाॅंपर बनने की तेजललक होती है इसी षिक्षा का और विभीषणीय कार्य प्रायवेट ट्यूषन करना है। आज के समय पर षिक्षक की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि उसे कोचिंग ट्यूषन आदि के कार्य से जुडना उसकी मजबूरी है। षिक्षक केा कही न कही शोषण और षिक्षण कार्य मे हो रहे अत्याचार में मलहम लगाने के लिए मुद्रा की आवश्यकता होती है और यह कार्य मुद्रा ही पूर्ण करती है। इस पूरे खेल में माता पिता मजबूर होता है कि स्कूल तो स्कूल ट्यूशन भी बच्चों को निचोेड रहा है। बच्चों के ऊपर माता पिता के रोल माॅडल की तरह बनने और ट्यूशन की अपेक्षाओं के बीच संदेहात्मक स्थिति का दवाब बनता चला जाता है। बच्चा एक इंसान की बजाय रिजल्ट देने वाली मशीन की तरह हो जात है।
इन परिस्थितियों में शिक्षा तो दूर हम वास्तविक ज्ञान की साक्षरता तक सही ढंग से बच्चों के बीच नहीं बांट पाते है। सरकार का शिक्षा विभाग अपने स्कूली शिक्षा के अंतर्गत शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाने के लिए अपने जूते घिसने में करोडो रूपये यू ही खर्च कर देता है सिर्फ विद्यालयों का उन्नयन शिक्षकों का स्थानांतरण परिणामों की समीक्षा और गुणवत्ता सुधाारने की कवायद में अपना मुख्य कार्य षिक्षकों को मुख्य सुविधओं और मूल परीक्षण की बात भूल जाती है। इसी का परिणाम होता है कि षिक्षकों के पास स्कूल में पढाने के अलावा हर काम करने का समय होता है। सारे के सारे ब्लाक और जिला स्तरीय उत्कृष्ट विद्यालय परीक्षाओं को पूरा कराने के लिए शिक्षकों का उपयोग करते है और शिक्षा विभाग को सरेआम ठंेगा दिखाते है। ऐसी स्थिति में होनहार की गति दुर्गति में बदल जाती है। इस शिक्षा के कुटीर उद्योग में सब बिकाऊ है शिक्षा, योजना, बच्चे और उनके अभिभावक। स्कूल इन सबको रूपयों के साथ खरीदकर अपनी दुकान चलाता चला आ रहा है। इसी तरह देष का भविष्य षिक्षा प्राप्त कर तथाकथित रूप से साक्षर हो रहा है और हम उसी पीढी पर गर्व कर रहे है। वास्तविकता यह है कि हमारों आॅखो में सरकारी स्कूल और प्राइवेटों स्कूला की षिक्षा की चल रही अनुचित मूल्य की दुकानें सिर्फ धूल झोंक रही है और हम उनके प्रभाव से बचने के लिए अपनी पलके उठानी की जहमत भी नहीं कर रहे है। षिक्षा इस विवषता को देखकर और अपनी कालाबाजारी को देखकर सिर्फ घडियाली आंसू बहाने के लिए विवष है।
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दीप इस प्रेम का देहरी मन धरे।

दीप इस प्रेम का देहरी मन धरे।
यह सच है कि दीप पर्व हमारे नजदीक है दीपक हमारे जीवन में रोशनी का प्रतीक है। दीप से निकलने वाली रोशनी हमारी सफलताए हमारे विश्वासए हमारी खुशी और जीवन के सौहार्द्र का प्रतीक है। त्रोतायुग में राम कभी वनवास पूरा करके अयोध्या वापस लौटे थे। लगातार चैदह वर्ष का संघर्ष उनके जीवन को दीप्तिमान कर दिया था। मर्यादा पुरूषोतम राम के जीवन की रोशनी के आगमन पर अयोध्यावासियों ने घी के दीपों से रोशनी की थी। आज इस कलयुग में अब अयोध्या पर राम जन्मभूमि के ऊपर बाबरी और राममंदिर पर बहस चल रही है। महंगाई का यह दौर है कि दीपक के लिए तेल ही बहुत महंगा है घी तो ईद के चांद की तरह हो चुका है। आज के इस आई टी के युग में दीपों का स्थान मोमबत्तियों और सजावटी लाइटों ने ले ली है। आज हर वर्ग को लक्ष्मी को भरने की अकबकाहट सुख चैन से जीने नहीं देती।
यह दीप पर्व अपनी उष्मा लेकर ऊर्जा और प्रकाश लेकर आगे बढ रहा है। हम सब की और आज की विसंगतियाॅ सारा मजा किराकिरा करने में कोई परहेज नहीं छोडती है। विसंगतियों के चलते देश आंतरिक आतंकवाद की आग में जल रहा है। लगातार सभी कारक अपना तम पूरे भारत में फैला रहे है। अमावस्या का अंधेरापन देश की एक टिमटिमाटी रोशनी को बुझाने के लिए एडी चोटी का जोर लगा रही है। यह दीप है तो अपनी रोशनी की एक किरण लेकर दूर तक अंधेरे को चीरने का संघर्ष जारी किये हुए है। प्रयासों को कभी छोडना नहीं चाहिए है। यह प्रयास कोशिशें ही है जो हमें यह बताती है कि हारों तो थको नहींए फिर से शुरूआत करों और बढते रहो अंत तक जब तक की तुम्हे सफलता न मिल जाये। यह जीवन एक तम से लडने का कुरूक्षेत्रा है। कभी हम अपने आसपास का तम मिटाने की कोशिशे करते है। कभी दुख को खत्म कर खुशी को पुकारने की कोशिश करते है। कभी निराशा में आशा की किरण खोजने की कोशिश करते है और यही कार्य कोशिशों को सफलता में बदलकर दीवाली का उत्सव हर दिन हर पल जीवन में लाता है।
सिर्फ दीपक जलाना खुशियां मनाना दीवाली का सही ढंग से उत्सव मनाना नहीं होता है। दीवाली का सही अर्थ तो हमारे जीवन में तब ही माना जाएगा जब हम अपने साथ दूसरे को भी सोंचेए उसको साथ ले और अपनी खुशियों का कुछ पल उसके साथ बिताकर उसके जीवन में भी खुशियों का कुछ पल उसके साथ बिताकर उसके जीवन में भी खुशियों को भरें तभी जीवन की सच्ची दीवाली को उत्सव महोत्सव में बदलेगा। हम अमीरी और गरीबी की उस गहरी खाई का दंश झेल रहे है जो समाज के साथ साथ मन में भी बन गई है और समाज की यह खाई तो कभी न कभी पाटी जा सकती है परंतु मन की दरार भरने में वक्त लग जाता है तब खाई को पाटने में तो कई जन्म भी कम पड जाएंगे। दीवाली में हम खाने पीने के अलावा हजारों हजारो रूपये पटाखो में बरबाद कर देते है और पर किसी गरीब बेबस लाचार को एक जून का भोजन कराने में नाक भौं सिकोडने लगते है। यही हमारी विडंबना है दोस्तो। दीवाली यदि सौहार्द्र की किरण हर घर तक जानी चाहिए। यह सच है कि सोचने भर से भगवान राम पैदा नहीं होंगे। मनोविज्ञान ने बताया कि राम का अंग्रेजी में विस्तार करें तो राम अर्थात् आर जिसका है राइट यानि सहीए इसी तरह ए अर्थात् आज जिसका अर्थ है एक्शन यानि कायर्च और म अर्थात् एम जिसका अर्थ है मैन यानि मनुष्य। हम सब राम बन सकते है यदि हम सही कार्य करने वाले मनुष्य है। त्रोता का मिथक जो हमारी आस्था का प्रतीक है वह महामानव महाशक्ति महादेव तुल्य है पर आज के समय पर आम जन को उच्च विचार रखते हुए अपने घर से शुरूआत करनी चाहिए तभी हम दीवाली के पर्व की वास्तविक शुभकामना लोगांे तक पहुॅचा पाएंगें। दीवाली प्रकाश का पर्व है। हमें आवश्यकता है कि प्रेम सौहार्द्रए विकासए सफलताए संबंध के दीपों को जलाकर दीपों से निकलने वाले प्रकाश से अपने जीवन को रोशन करने के साथ.साथ अपने साथ अपने मित्राए अपने साथी के जीवन के असफलताए दुखए रंशए निराशाए आंसुओं के मावसी तम को चीरकर पुनः दीपों की अवलि सजाएं। उसके जीवन को हम प्रकाशवान करे ताकि हमारे साथ साथ हमारा कमजोर भाई भी सहयोग से उत्सव का मना सके तभी तो दीवाली के आगमन का सच्चा सुख भो सके वरना हमारे लबों में मुस्कान और दोस्तों का जीवन श्मशान हो तो किस बात की दीवाली किस बात की मिठाइयां किस बात का उत्सव अंत में इन पंक्तियों से इस दीपावली की ढेर सारी मंगलकामनाएॅ।
जब हर तरफ फैला है घनघोर तम
दीप इस प्रेम का देहरी मन धरे।
माना की अंधेरा है फैला बहुत
इससे तुम भी लडो और हम भी लडे।
...........

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रविवार, 4 नवंबर 2012

देख देश का हाल ,रावण हुअ बेहाल



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लोकतंत्र बनाम तंत्रलोक


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बदला परिवेश सुलगता देश


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