सोमवार, 12 नवंबर 2012

देख कर षिक्षा लाचार, खुद का काला बाजार

देख कर षिक्षा लाचार, खुद का काला बाजार
सर्वषिक्षा अभियान और पढना-बढना आन्दोलन जब अनिवार्य षिक्षा तक पहुचा तब षिक्षा के मौलिक अधिकार के बारे मे विचार करने की अवष्यकता महसूस हुई । षिक्षा या साक्षर दोनो का भेद आज के समय पर बढता जा रहा है। आज षिक्षा का अध्याय प्राइवेट स्कूलो के घर की जागीर हो चुका है और साक्षरता सरकारी फाईलो में दीमक का भोजन बन रही है। स्कूली षिक्षा को बढावा देने के लिए सरकारो ने अजीबो गरीब चक्रव्यूह रचा है जिसमें वह मद के अनुसार राषि प्रदान करती है और वह राषि उसके चमचों के द्वारा पार कर दी जाती है। आज के समय पर एम.पी. बोर्ड के विद्यालयों की अपेक्षा सीबीएसई के स्कूलो के प्रति लोगो का रूझान बढा है लोग इग्लिस मीडियम के दौर में सामिल हो कर अपने बच्चो को एक पढा लिखा अग्रेज युवक बनाने में पीछे नही रहना चाहते। सीबीएसई ने आज के समय पर इसी लिए हिन्दी मीडियम तक की व्यवस्था की है षिक्षा जितनी मंहगी हुई है उतनी ही बजारू भी हो गयी है षिक्षा का बाजार आज के समय पर फल फूल रहा है बडे -बडे उद्योगपति अपना काला धन षिक्षा के उद्योग ने लगा कर करोड पति से अरबपति बन रहे है क्रिष्चियन षिक्षा को उच्चस्तरीय बना कर धार्मिक प्रचार प्रसार करने के बहाने अपने विचारो को विदेष से देष में अयात कर रहे है गोरख धंधो को राजिनितिक जनप्रतिनिधि और बाजारवाद के लक्ष्मीपुत्र विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करके समाज सेवा और धर्नाजन दोनो कर रहे है।
पहले के समय पर षिक्षा ज्यादा सस्ती आमजन के लिए आसान होने के साथ-साथ स्तरीय भी होती थी परन्तु आज के समय पर षिक्षा को जितना प्रयोगात्मक बनाया गया वह उतनी ही स्तर हीन हो गयी वजह सरकार अपना परीक्षा परिणाम सुधारने के लिए पहले पाॅचवी और आठवी की परिक्षाएॅं खत्म की और फिर सारे बच्चो को पास करने की अनिर्वयताः भी षिक्षा विभाग के सामने रखी यह सच है कि इस कार्य में षिक्षको की मजबूरी सामने आयी। पर दसवी का परिणाम उतना ही गिरा हर मुद्दे में बच्चो को मिलने वाली शासकीय छूट उनके भविष्य के साथ खिलवाड करती नजर आयी आप खुद सोचिए जब छन्ना लगेगा नही तो अच्छे बीज कहाॅं से मिलेगे। यह सच है कि प्राइवेट विद्यालयों षिक्षा की गुडवक्ता की ओर ध्यान दिया जा रहा है परन्तु यह गुणवत्ता सिर्फ रईसो के घर की मुर्गी की तरह है क्योंकी प्राइवेट कान्वेट स्कूलों में गरीब अपने बच्चो को पढ ही नही सकता है। अमीर वर्ग का पूरा क्रीम उत्पाद यहाॅं पहुचता है और सरकारी परिक्षाओं में परिणाम अपने नाम करता है यही सब अस्थितरताए उच्च परिणामों की मांग इतनी ज्यादा स्कूलो से की जाती है की स्कूलो का उद्येष्य अच्छे प्रतिषत अंक दिलाने तक सीमित हो चुका है। उनका ज्ञानार्जन का उद्येष्य कब से दम तोड रहा है यह हम ही जानते है माता पिता बच्चेां की रिजल्ट से ही खुष रहते है उन्होने यह कभी सोचने की कोषिष ही नही की उनका बच्चा ज्ञान रखता है प्रायवेट स्कूलों में अभिवावकों से अच्छी खासी मोटी रकम वसूली जाती है चाहे वह डोनेष या फीस के रूप में हो। इसी लिए वह राषि देने के लिए विवस होते है उनके मन में बच्चो को टाॅंपर बनने की तेजललक होती है इसी षिक्षा का और विभीषणीय कार्य प्रायवेट ट्यूषन करना है। आज के समय पर षिक्षक की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि उसे कोचिंग ट्यूषन आदि के कार्य से जुडना उसकी मजबूरी है। षिक्षक केा कही न कही शोषण और षिक्षण कार्य मे हो रहे अत्याचार में मलहम लगाने के लिए मुद्रा की आवश्यकता होती है और यह कार्य मुद्रा ही पूर्ण करती है। इस पूरे खेल में माता पिता मजबूर होता है कि स्कूल तो स्कूल ट्यूशन भी बच्चों को निचोेड रहा है। बच्चों के ऊपर माता पिता के रोल माॅडल की तरह बनने और ट्यूशन की अपेक्षाओं के बीच संदेहात्मक स्थिति का दवाब बनता चला जाता है। बच्चा एक इंसान की बजाय रिजल्ट देने वाली मशीन की तरह हो जात है।
इन परिस्थितियों में शिक्षा तो दूर हम वास्तविक ज्ञान की साक्षरता तक सही ढंग से बच्चों के बीच नहीं बांट पाते है। सरकार का शिक्षा विभाग अपने स्कूली शिक्षा के अंतर्गत शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाने के लिए अपने जूते घिसने में करोडो रूपये यू ही खर्च कर देता है सिर्फ विद्यालयों का उन्नयन शिक्षकों का स्थानांतरण परिणामों की समीक्षा और गुणवत्ता सुधाारने की कवायद में अपना मुख्य कार्य षिक्षकों को मुख्य सुविधओं और मूल परीक्षण की बात भूल जाती है। इसी का परिणाम होता है कि षिक्षकों के पास स्कूल में पढाने के अलावा हर काम करने का समय होता है। सारे के सारे ब्लाक और जिला स्तरीय उत्कृष्ट विद्यालय परीक्षाओं को पूरा कराने के लिए शिक्षकों का उपयोग करते है और शिक्षा विभाग को सरेआम ठंेगा दिखाते है। ऐसी स्थिति में होनहार की गति दुर्गति में बदल जाती है। इस शिक्षा के कुटीर उद्योग में सब बिकाऊ है शिक्षा, योजना, बच्चे और उनके अभिभावक। स्कूल इन सबको रूपयों के साथ खरीदकर अपनी दुकान चलाता चला आ रहा है। इसी तरह देष का भविष्य षिक्षा प्राप्त कर तथाकथित रूप से साक्षर हो रहा है और हम उसी पीढी पर गर्व कर रहे है। वास्तविकता यह है कि हमारों आॅखो में सरकारी स्कूल और प्राइवेटों स्कूला की षिक्षा की चल रही अनुचित मूल्य की दुकानें सिर्फ धूल झोंक रही है और हम उनके प्रभाव से बचने के लिए अपनी पलके उठानी की जहमत भी नहीं कर रहे है। षिक्षा इस विवषता को देखकर और अपनी कालाबाजारी को देखकर सिर्फ घडियाली आंसू बहाने के लिए विवष है।
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