रविवार, 3 फ़रवरी 2013

बौद्धिक आजादी के लिये घिघियाते लोग

कब तक सहें
बौद्धिक आजादी के लिये घिघियाते लोग
 हमारी भारतीय सभ्यता के उपर हुये प्रायोगिक हमलों के बाद इस वक्त तीन केश फ़िर से मीडिया के बुद्धू बक्से मे दिखाया जा रहा है उसमे से एक है आशीश नन्दी का बयान, सलमान रुश्दी का कोलकाता आने पर ममता बनर्जी के द्वारा रोक लगा देना और कमल हासन की फ़िल्म विश्वरूपम पर प्रतिबन्ध की पेशकश.सलमान रुश्दी और आशीश बौद्धिक वर्ग से  सम्बन्ध रखते है. और कमल हासन फ़िल्म जगत के जाने माने अदाकार और फ़िल्म निर्देशक है. दोनो परिस्थितियो को देख्नने पर पता चलता है कि बौद्धिक आतन्कवाद  का ज्यादा ही प्रचार प्रसार किया जा रहा है.बौद्धिक आजादी के लिये ये तीनो नाजायज ही सरकार के  सामने घुटने टेक रहे है. इन पूरे तथ्यो से दो बाते सामने आती है.रुश्दी  और नन्दी की लेखन प्रक्रिया  एक लबादे को हटाने की  कोशिश करती है जिसे आज सभ्यता का अतिवादी चोला कहा जा सकता है. इसके अन्दर कई तथाकथित नामी गिरामी लोग अपने को सभ्यता का पालनहार समझते है.लोकतान्त्रिक देश की वास्तविकता यह है कि ज्यादा अपने मन का राग बजाने से सबके तन के निचले सिरे मे खुजली शुरू हो जाती है.यहा पर समन्वय स्थापित करके ही अपना काम निकाला जा सकता है या निकालने की परम्परा है,ज्यादा कट्टर हो जाने पर अपनी जान से हाथ धोने की तरह हो जाता है.इस देश मे राजनीति का ऐसा ही रवैया है.क्या कर सकते है आप.रुश्दी का देश की कोलकाता नगरी मे  रोका जाना इसी सभ्यता का जीता जागता उदाहरण है.और रही गन्दे साहित्य के प्रराचर होने की और इसके विरोध की पैरवी करने वाले टी.एम.सी. सान्सद साहेब के बयानो की. तो इस देश का कोई ऐसा कोना नही है जिस जगह पर इस साहित्य का कारोबार फल फूल नही रहा है. और वो क्या देश का कोई कानून इसका बाल भी हिला नही सका. कितनी शर्म की बात है.वो खुद बस स्टेन्ड, रैल्वे स्टेशन ,के बुक स्टाल्स मे इस बीमारी को रोकने मे असमर्थ है.
    विश्व रूपम  के मामले की कहानी थोडा अलग परन्तु इसी तरीके से मुद्दे को बनाने और आग लगाने की कहानी है. इसमे कमल हासन जितने गुनह्गार है उससे कई गुना सेन्सर बोर्ड के वो मेम्बर विरोध के अधिकारी है जो इस फ़िल्म को ओ.के. का प्रमाण पत्र दिये है.प्रोड्यूसर और डायरेक्टर का काम है वो फ़िल्म व्यापार से जुडे है. वो तो अपना काम करेगे ही, पर सेन्सर बोर्ड के मेम्बर क्या इस फ़िल्म मे भी अन्डर द टेबल अपना काम करने मे लगे हुये थे.अब यदि इस फ़िल्म को ओ.के. का प्रमाण पत्र दिया गया तो फ़िर हासन साहब का मीडिया के सामने आना जायज है. क्योकी वो तो अपनी बनायी फ़िल्म बाजार मे बेन्चेगे ही. सेन्सर बोर्ड को चाहिये था कि वो आपत्तिजनक सीन्स को हटाने का आदेश देता जिस वजह से मुस्लिम धर्म के अनुयाइयो को ह्र्दयाघात लगा है.यह भी सच है की किसी फ़िल्म का उद्देश्य ये नही होना चाहिये कि किसी धर्म को आहत किया जाये.परन्तु. आज के उसी टॆलीवीजन मे फ़िल्म्स के अन्दर. अश्लीलता .सरे आम आइट्म गाने और अन्य तरीको से पेश कर मानव को सिर्फ़ नर और मादा के रूप मे समाज के सामने पेश किया जाता है. उस वक्त क्यो समाज और धर्म के पन्डे अपनी जुबान क्यो नही खोलते. हमारे धर्म मे आन्च आयी तो हम गोहारी मारने लगे. और अन्य धर्मो की बारी आने पर मूक दर्शक बन गये.
  आशीश नन्दी साहेब  तो ज्यादा ही कबीराना अन्दाज भारत जैसे कट्टर लोकतान्त्रिक देश मे  बेबाकी से प्रस्तुत कर दिया है.सम्वैधानिक कैटेगरी की जनरल के अलावा सभी करप्ट. मतलब जिस डाल मे विराजमान हुये उसी को काटने मे तुल गये. और फ़िर ये कह रहे है कि. कबीरा खडा बाजार मे सबकी मांगे खैर, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर.  उन्हे शायद यह  नही पता कि यह भारत है यहां पर कबीर जैसे युगवादी सन्त को, जो किसी जाति पाति, धर्म और पन्थ को नही मानता था,उसके मरने के बाद उसी के अनुयाइयों ने कबीर पंथ का आराधक बनाकर उसके विचारों के साथ सरे बाजार बलात्कार कर दिया.तो आप किस खेत की मूली है. साहेब यहा का आईना भी प्रतिबिम्ब व्यक्ति को देख कर दिखाता है. क्योकि उसे भी अपनी जान प्यारी है. आज के राजनैतिक माहौल मे किसने कहा था कि गुस्साये और पगलाये तथाकथित सूरज को आईना दिखाने के लिये.अब भोगिये सजा और जिल्लत.
   तीनों के विचार प्रगतिशीलता का प्रचार प्रसार करना है.परन्तु एक सिदधान्त है कि हमारी आजादी हमारे लिये तब तक नुकसान दायक नही है. जब तक कि  उस नुकसान से अपने स्वार्थ की रोटियां सेकने वाले लोग मौजूद ना हो. पर यहां तो पूरी सेना मौजूद है. खैर
आज के समय मे बौदधिक आजादी अपने ही घर मे कारावास भोगने के लिये विवश है. क्योकि बौदधिक आतंकवाद रोकने वाले ही इसे विलायती बाबू बनाकर जनता की आंखो मे धूल झोंक रहे है. और यही वोट बैंकिंग का बेस्ट मैनेजमेट है.

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