गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

समीक्षा: योद्धा सन्यासी विवेकानंद: बसंत पोतदार


समीक्षा: योद्धा सन्यासी विवेकानंद: बसंत पोतदार
स्वामी विवेकानंद: मनुष्य व्यक्त्तिव निर्माण और विश्व बंधुत्व का अजेय योद्धा.
  सन्यासी योद्धा श्री बसन्त पोतदार द्वारा स्वामी विवेकानंद पे आधारित मराठी उपन्यास है. और इसी को आधार मान कर यह अनुवाद  गंगाधर परांजपे ने एक पुस्तकाकार के रूप मे योद्धा सन्यासी स्वामी विवेकानंद हमारे सामने प्रस्तुत की है. पुस्तक का भावों का केंद्र बिंदु सन्यासी योद्धा नामक मराठी उपन्यास है इस हेतु श्री बसंत पोतदार जी और भाषागत शिल्प के लिये  गंगाधर परांजपे जी की कलम बधाई के पात्र है.पूरा अनुवाद संग्रह २१६ पेजों मे  और पांच खण्डों मे  विभक्त है. अन्त मे प्रकाशित १५ पेजों मे संचयित चारुगात्र विवेकानंद इस अनुवाद उपन्यास का उपसंहार है जिसके बिना पूरे उपन्यास का अनुवाद अधूरा है.
   प्रथम खण्ड परमहंस- एक परिचय है द्वितीय खण्ड अस्सी प्रतिशत भक्त ठग होते है शीर्षक से अनुवादित है.तीसरा खण्ड धर्मसम्मेलन मे प्रवेश नहीं नामक शीर्षक से अनुवादित है. चौथे खण्ड मे यदि तुम्हारी मां का अपमान किया तो नामक शीर्षक से अनुवादित है. और अन्तिम खण्ड मे विदेश यात्रा के पूर्व शीर्षक से अनुवादक ने अपनी बात कही है.
प्रथम खण्ड मे संत रामक्रष्ण परमहंस के जीवन का सम्पूर्ण वर्णन किया है.इस भाग के जरिये गंगाधर जी ने परमहंस जी का नरेन्द्र से मिलन और उनके जीवन मे माता की संज्ञा  मिली माँ काली के चमत्कारों का जिक्र है.इसमे माँ काली से साक्षत्कार , श्री राम की साधना, रामक्रष्ण का विवाह, भैरवी से मुलाकात, तोतापुरी से मुलाकात, गोविन्दराय से मुलाकात,शंभूचरण से मुलाकात का जिक्र है. नरेंद्र से उनके गुरु की लगातार ३ मुलाकातों का जिक्र है. और अंततः परमहंस के जीवन का त्याग १५-१६ अगस्त १८८६ के आस पास की घटनाऒं का वर्णन है.
द्वितीय खण्ड मे भक्तो की मनो दशा को पाठकों के सामने रखा गया है. जिसमे लेखक और अनुवादक ने परमहंस जी के सम्पूर्ण जीवन काल की घटनाओं को एक खण्ड मे रखकर भक्ति और ढकोसला के भेद की तुलनात्मक बातों को पाठकों के सामने रखा गया है.सन १८९३ के पहले की, विवेकानंद के जीवन की क्रमिक घटनाऒं का मार्मिक और रोचक वर्णन किया गया है.इस खण्ड मे स्वामी विवेकानंद के भारत से विदेश जाने और और वहां के पूर्व उनके संघर्ष को दर्शाया गया है. जब वो राजस्थान मे गये तो उन्हे किस तरह विविदिशानंद का नाम प्राप्त हुआ इसका भी वर्णन पाठकों के सामने आता है. राजस्थान के बाद गुजरात कि यात्रा का वर्णन किया गया है. इसी तरह महाराष्ट्र ,पूना, गोवा, कन्याकुमारी, हैदराबाद,और यहा से अमेरिका के लिये प्रस्थान करने के लिये सारी वैचारिक और समाजिक जमीन का जिक्र बखूबी बेबाकी से किया गया है.
  तीसरे खण्ड मे धर्मसभाओं मे स्वामी विवेकानंद का प्रवेश और उनके विचारों का वर्णन किया गया है.यहा पर १८९३ के बाद की स्वामी विवेकानंद के विदेश मे निर्मित हुयी प्रतिष्ठा और वैचारिक जमीन के निर्माण की कहानी है, इसमे अमेरिका मे हुये सन१८९४ की फ़रवरी मे विरोधियों के द्वारा निर्मित विरोधो का तट्स्थ वर्णन है. इस खण्ड मे  इंग्लैड के किये गये स्वामी विवेकानंद के कार्यों का जिक्र है. और अंततः पुनः अमेरिका और इंग्लैड की यात्रा और वहां पर स्वामी विवेकानंद के समाज सुधार और मानवनिर्माण की शिक्षा का प्रचार प्रसार करने का लेखक और अनुवादक ने सीधे सपाट वर्णन किया है.
  चौथे खण्ड मे स्वामी विवेकानंद ने किस तरह फ़्रांस, रोम,अदन, कोलम्बो, और फ़िर कोलकाता तक पहुचे इससे सम्बंधित घटनाओं का वर्णन है. इसी खण्ड मे विवेकानंद के द्वारा रामक्रष्ण परमहंस मिशन की स्थापना के बारे मे विस्त्रित वर्णन है.इसी चरण मे  स्वामी विवेकानंद की भगिनी निवेदिता से मुलाकात और उनके जीवन मे निवेदिता का प्रवेश, उनके मिशन मे योगदान का वर्णन है, रामक्रष्ण मठ मे हुये विवादो अर्थात गुरुबंधुओं से स्वामी विवेकानंद के विवादो का वर्णन है.जो कुछ दिनो के बाद शांत होगया, इसी चरण मे बीमार स्वामी विवेकानंद का विदेश यात्रा के पूरव की घटनाओं का वर्णन है.
 अंततः अंतिम चरण मे.२० जून १८९९ से शुरू हुयी विदेश यात्रा जिसमे भारत से लंदन और फ़िर इस्तंबूल जाने का वर्णन है.यहां पर उनकी मुलाकात का जिक्र है जिसमे उनकी मुलाकात कु, मैक्लाड या जो से हुयी जो उनके विचारों की मुरीद थी. वापस भारत आकर  ट्रस्ट की स्थापना, बंगाल की यात्रा.४ जुलाई १९०२ को उनके स्वर्गवासी होने तक की हर घटना का बारीकी से वर्णन किया गया है.
अन्तिम कुछ पेजों मे परिशिष्ट के रूप मे स्वामी विवेकानंद के विभिन्न रूपों का ,व्यक्तित्व कॆ विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है. जिसमे ब्रह्मचारी, पट्टशिष्य, सिद्धि विरोधी, विज्ञान निष्ठ, दलितों के मसीहा, मांसाहारी होने, हाजिरजवाबी होने, से सम्बंधित विभिन्न घटनाओं का, पत्रो के माध्यम से लोगो के विचारों का संग्रह है. यही स्वामी विवेकानंद के सांगोपांग जीवन की लोगो के द्वारा की समीक्षा है.
 सम्पूर्ण अनुवाद पर यदि बात करें तो यह कहने मे कोई संकोच नहीं है कि पूरी पुस्तक स्वामी विवेकानंद शताब्दी वर्ष मे उनके व्यक्तित्व के प्रचार प्रसार के उद्देश्य से पाठक मंच मे भेजी गयी है. गंगाधर परांजपे जी ने अपनी अनुवाद्कीय मे खुद स्वीकार किया है कि  भावपक्ष के नजरिये से इस पूरे उपन्यास मे सिर्फ़ बसन्त पोतदार की बाओ का बिना कोइ फ़ेर बदल किये वर्णन किया गया है. इस पुस्तक का उद्देश्य विवेकानंद के बहुआअयामी जीवन के बारे मे और उससे जुडे विभिन्न आयामो को पाठको के सामने उजागर करना है.साथ ही यह बताना है कि अनासक्त होकर कर्म मे सतत संलग्न होने का नाम विवेकानंद है. पूरी पुस्तक का केन्द्रबिंदु परमहंस और विवेकानंद है. विवेकानंद की जीवनचर्या के साथ वैचारिक सोच को धर्म,समाज, सभ्यता, जाति वर्णव्यवस्था, शिक्षा, मानव चरित्र निर्माण, विज्ञान और तर्क के क्षेत्र मे पाठको के सामने रखना है. इस अनुवाद मे जस्टिस पलोक बसु का अमूल्य योगदान है. जो स्वामी विवेकानंद के विचारों के मुरीद थे.अंतत: पूरी रचना को पढने के बाद यह आकलन कर सकता हूं कि स्वामी विवेकानंद कोमनुष्य के व्यक्त्तिव निर्माण और विश्व बंधुत्व के अजेययोद्धा के रूप  मे  पाठकों के सामने लाना  ही इस पुस्तक का उद्देश्य है.साथ ही मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण की शिक्षा  ही जीवन की सबसे बडी दीक्षा है. जो स्वामी विवेका नंद का मूलमंत्र है.और इस रचना के कालजयी होने का प्रमुख सूत्र है.पूरी रचना को पाठकों के सामने लाने का प्रमुख उद्देश्य पाठकों के सामने स्वामी विवेकानंद के उदीयमान विचारो को पुनुरुत्थान हेतु सामने लाना है.
अनिल अयान.
सतना म.प्र.
संपादक -शब्द शिल्पी,सतना,
सम्पर्क:९४०६७८१०४०,९४०६७८१०७०

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