रविवार, 24 मार्च 2013

होली के आधुनिक धतकरम


 होली के आधुनिक धतकरम
रंगों का त्योहार होली,,, सभी लोगो को दीवाली और होली का बेसब्री से इंतजार होता है. पहले के समय में होली का अपना अंदाज हुआ करता था. अरे मै तो बताना ही भूल गया फागुन और फगुआ की धूम तन और मन को हर्ष और उल्लास के सागर में गोते लगाने के लिये मजबूर कर देती थी.पहले के समय में गावों का वो हरियाली भरा माहौल और परिवार के सभी लोगों का होली की छुट्टी में घर आकर  कई दिनों तक होली के रंग मे सराबोर हो जाना, अपना अलग ही मजा हुआ करता था. जैसे होली सिर्फ़ रंग खेलना ही नहीं बल्कि खुशियों के रंग मे सभी को रंगने की कला होती थी. देवर भाभी की वो उमंग और अंगडाई देखते ही बनती थी. और जीजा साली के बीच की नोंक झोक और फिर रंग गुलाल की आमद पूरे परिवार को रंगा रंग कर देती थी. धुरेणी का हाल तो ये होता था की जो इस दिन घर से बाहर होली मना लेता था वो कई दिनो तक सिर्फ़ बाहर इस लिये नही निकलता था क्योंकी वो उस लायक बचता ही नहीं था. और इस तरह महिलाओं की स्थिति तो घर के बाहर निकलने लायक ही नहीं बचा करती थी. क्योकी घर के अंदर की होली यादों की होली बन जाया करती थी. इस तरह होली का त्योहार यादों मे समाहित हो जाया करता था, होलिका दहन का रात्रि पहर में होना और पूरे मोहल्ले और टोले के बच्चों,युवाओं, और बूढे बुजुर्गो का उत्साह देखने को बनता था. होली के नशे में वाकये सालीनता से नशा भी किया जाता था. होरियारों की टोलियों का गली गली मोहल्ले मोहल्ले मे जाकर फाग सुनाना और नास्ता पानी करना यह सब आम बात हुआ करती थी. पर जैसे जैसे समय ने करवट बदला यह त्योहार अपनी वास्तविकता को खोता चला गया.
समय के साथ होली के मायने बदल गये. रंगों के मायने बदल गये. रिस्तों के मायने बदल गये. गाँवो का अस्तित्व खोता चला गया. देवर भाभी दूर होते चले गये. जीजा ने साली को आधी घरवाली मान लिया. परिवार टूटते चले गये.हाईटेक युग में एक साथ मिलने बैठने की फुरसत नहीं रही. देश महगाई की दौड में ऐसे दौडा की रंगो और गुलालों की जगह खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाने लगा. पानी की समस्या ने होली खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया. लोगो के बीच जाति धर्म और पंथ को लेकर मतभेद मनभेद में बदलते चले गये. मानवीयता अमानवीयता मे बदलने लगी." होली खेले रघुवीरा, की धुन इस सब में गायब होगई. अमीरी और गरीबी के बीच की खाँई इतनी ज्यादा गहरी होगई की यदि हमारे पास में कोई गरीब रह रहा है तो हम उसके घर होली की मुबारकबाद देने नहीं जा सकते है. क्योकी हमारा स्तर कहीं उसके यहाँ जाने से गिर ना जाये. हम खील बतासे गुझियाँ सलोनी मिठाई खुरमी पेट भर खाये और फिर कचडे में भी फेक दिये. जरूरत समझे तो जानवरों को खिला दिये पर अपने आस पास गरीब लोगो के यहाँ लगुआ और बरेदियों की संज्ञा दिये जाने वाले आम सर्वहारा वर्ग का स्वागत करने से परहेज करने लगे. यही है आज की होली का धतकरम जो हर एक वर्ग का आदमी करता चला आया है. और यही हमारी विसंगति भी है. आज के समय पर होली की शुभकामनायें इंटरनेट और नेटवर्किंग साइट्स के युजर्स शब्दो, चित्रो और हाई टेक ईमेलस के द्वारा देने लगे है. ना किसी के पास इतना वक्त है कि वो एक दूसरे के पास जाये और मिलेजुले आज सब विकास की दौड के धावक है जिसे परिवार गाँव विरासत और रिस्तों से कोई मतलब नहीं है सब एक टेबल पर उपलब्ध है यही आधुनिक होली के धतकरम है.
 होली के इस धतकरम को किये बिना हम कुछ कर भी नहीं सकते है. क्योंकी आज की इस एहसान फरामोस दुनिया में चलने के लिये  और चलाने के लिये आपको त्योहार भी भ्रष्टाचार के रंग और टेक्नालाजी के गुलाल से मिल कर मनाना होगा जहाँ आदमियत की होली जलानी ही पडती है तभी आपकी, हमारी, और सब की होली सार्थक होगी. हम तो उस तरह की बचपन मे होली मनाया करते थे. आज तो सब झूँठा सा प्रतीत होता है. त्योहार के दिन ही नही लगता की आज होली का त्योहार है आज तो कैलेन्डर और एस.एम.एस बताते है कि भैया जगो होली आगयी है, वरना किसी को इतनी फुरसत ही नहीं है की होली को उसी धूम धडाके और मजे से मनाये कि आने वाले कई दिनो तक रंग और कई सालों तक यादें ना जाये..... चलिये अब चलता हूँ बहुत सालों के बाद कई दोस्त और भाभी आयी है मेरे साथ होली खेलने ,,, कल तक साली आने वाली है पर वो आधी घर वाली नही है इस बात की खुशी है.... उम्मीद करता हूँ आपके घर में ऐसी आवक जल्द होगी. तब तक के लिये होली मुबारक हो दोस्तो.
 होली मनायें प्रेम के चंदन अबीर से.
शुभकामनायें दे खुशी के अश्रु नीर से.
लोगो के रिस्तों मे यकीन हो गहरा
मुस्कान ,गुझियाँ और मीठी खीर से.
सच्चा गुलाल है सदा रिस्तो के बीच में
आँसू हमारे भी गिरे दूजे की पीर से.
अनिल अयान. सतना.

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