कब
तक सहे
मौत
की डील बनी मिड डे मील.......
अनिल
अयान,
उडीसा
, गोवा और बिहार के स्कूलों में घटी एम.डी.एम. की कहानी खत्म कर के रख दी है.
मिड डे मील यानी मध्यान भोजन योजना का क्रियान्वयन जिस उद्देश्य को लेकर किया गया था.
वह किनारे चलागया है. मिड डे मील का हाल बिहार के स्कूलों में होना और फिर गोवा और
उडीसा के स्कूलों में इसकी पुनरावृत्ति यह पुष्टि करती है की हमारी सरकार बच्चों को
किसी फिल्म का पात्र बना कर रख दी है. रियल स्टोरी की बजाय रील स्टोरी की बात ज्यादा
इसमें जान पडती है. जिस समय यह बयान सामने आया कि खाना खाने के तेल से नहीं बल्कि वाहन
चलाने वाले तेल से बनाया गया था. तब मुझे लगा जैसे कि मिड डे मील कोई लाभकारी योजना
नहीं बल्कि बच्चों की जिंदगी को शील करती मौत की डील है. मौत की वह डील जो सरकार और
समाज के वो स्वसहायता समूह चला रहे है जिनके
बच्चे खुद भी उसी स्कूल में पढाई कर रहे है. अब हम यह कह सकते है कि स्वार्थ की भूँख
इतनी ज्यादा बढ गई है कि आम सर्वहारा वर्ग के बच्चों को और उनकी मासूमियत को मौत के
घाट उतार कर खून से सना खाना उन्ही नन्ही सी जान को परोसा जा रहाहै और नेता और संबंधित
अधिकारी गण सरकार की इस योजना को धता बताकर अपने धतकरम में बहुत ज्यादा खुश हो रहे
है. यह शुक्र है कि इस बार यह सब सतना के स्कूलों में नहीं घटा वरना हर बार इस योजना
को टटोलने में पता चलता है कि यह योजना में छेद करने वाले और इसकी सतह को छन्नी बनाने
वाले इसी के अंदर छिपे हुये है. जैसे कि घुन गेंहूँ के अंदर छिप कर उसे खत्म कर देता
है. मै कभी कभी यह सोचता हूँ कि जिन लोगो को यह काम सौपा जाता है वह इस तरह के काम
को अंजाम तक पहुँचाने में कोई परहेज क्यों नहीं करते है. क्या इनको यह नहीं लगता है
कि उन नन्हे मुन्हे बच्चों के माता पिता के दिल में क्या गुजरेंगी. और खुदा ना खासता
यदि खुद के घर में इसी तरह हो जाये तो इन सबका क्या हाल होगा.
सरकार की ये योजना बच्चों
को स्कूल तक ले जाने की और उन्हें पौष्टिक भोजन मुहैया कराने की थी परन्तु यह दूसरा ही अंजाम सरकार को
दिखा रही है. यह योजना किसी तरह की खामी नहीं रखती है परन्तु इसके क्रियान्वयन और मानीटरिंग
की कहानी बिगडी ही रहती है. जब सही ढंग से इस योजना के हर स्तर को निगरानी में रखा
जायेगा तो यह तो तय है कि इस तरह का भ्रष्टाचार कम होगा और घोडे में लगाम भी लगेगी.इस
तरह के अपराधियों को सजायें मौत की सजा ही तय होना चाहिये. परन्तउ भारत की न्यायपालिका
इतनी लचर है कि इस तरह के अपराध उनकी नाक के नीचे भी हो जाये तो भी वो अपना निर्णय
सुनाने में सदी गुजार देती है. कई लोग तो इस तरह की घटनाओं में अफसोस जाहिर करके रफा
दफा कर देते है.यदि यही घटना किसी बडे स्कूल में या किसी बडे कालेज के कैंटीन में हो
जाये तो सरकार समाज और समाज सेवी संगढन स्कूल की नींव तक खोद डालेंगें.परन्तु इस मामले
में तो कोई भी कुछ नहीं प्रतिक्रिया या और कुछ बयान बाजी नहीं कर रहा है. क्योकीं सब
जानते है कि चुनाव के मौसम में रिस्क लेना खतरे से खाली नहीं है. और कोई भी तालाब में
रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं लेना चाहते है. आम सर्वहारा वर्ग के बच्चों के लिये कोई
संगढन आँगे नहीं आना चाहता है. ना कोई जन प्रतिनिधि जुबान खोलना चाहता है. देश के प्रधान
मंत्री जी तो अपने अगले चुनाओं के वोटो की गणित को बनाने में लगे हुये है. और अन्य
जन प्रतिनिधि चूहों की तरह अपने बिलों के अंदर छिप गये है. जैसे सभी चूडियाँ पहन ली
हों यह सच है की इस तरह की योजना सिर्फ बच्चों का पढाई में व्यवधान पैदा करने के अलावा
और कुछ काम नहीं करती है. पूरे खेतों का कचडा और स्तरहीन अनाज गरीबों में बाँटने और
एम.डी.एम. में खर्च करने के लिये ही आता है. सरकार की चाहे आँगनवाडी योजना हो या यह
योजना इसके अनाज को जब कोई खरीद कर अपने दुधारू पशुओं के भोजन में मिलाकर दूध की पैदावार
बढाता नजर आता है तो बहुत दुखः होता है और शर्म भी आती है क्योंकी जिस अनाज को पशुओं
के भोजन के लिये प्रभारी से ब्लैक में खरीदा जाता हो और उसे स्वेत क्राँति की दर को
बढाने का काम किया जा रहा हो उस तरह के भोजन को आम सर्वहारा वर्ग के बच्चों की मौत
का सामान तैयार करना कहाँ तक उचित है. इससे बेहतर कि उन्हे सल्फास की गोलियाँ ही देकर
खत्म कर सरकार अपनी योजना पूरी कर ले.इस तरह की गतिविधि केन्द्र्सरकार और संबंधित राज्य
सरकार को जनता के प्रश्नों का शिकार बना देती है. मुझे लगता है इस तरह की मील से बेहतरहै
की सरकार बच्चों को कच्चा खाना अच्छे स्तर का मुहैया कराये. स्कालरशिप दे. अनुदान दे,
रोजगार का मौका दे. परन्तु इस तरह की मौत की डील को बंद कर. समाज ,
शिक्षक और बच्चों का अमूल्य समय जीवन और क्षमता तो ना नष्ट करे. अन्यथा
सरकार के इस तरह के कार्य नेकी कर और दरिया मे डाल वाली परिस्थित ही पैदा करने में
कारगर होगी. और इसके अलावा और कोई फायदे मंद परिणाम देने में हिजडे की तरह ही शाबित
हो पायेगी. सरकार को यह नहीं भूलना चाहिये कि वो स्वार्थके चक्कर में अपने आगामी वोटरों
को जाने अंजाने मौत के घाट ही उतारने में तुली हुयी है.
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