अनिल अयान श्रीवास्तव .अनिल अयान.
युवा कवि, कहानीकार,समीक्षक संपादक:शब्दशिल्पी,सतना
जब
से मै कालेज में बी.एस.सी.बायोलाजी कर रहा था,तब से मैने लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया
था. शुरुआत में प्रतियोगिताओं के लिये लिखता था.जैसे स्वरचित काव्यपाठ, वकतृत्व कला,
भाषण,निबंध, तत्कालिक कहानी लेखन. आदि. फिर मेरी मुलाकात डा. हरीश निगम और डा. लालमणि
तिवारी से हुई जो सतना में मेरे कालेज में साहित्य के प्रभारी हुआ करते थे. उनसे संतोष
खरे जी केयहाँ आयोजित होने वाली पाठक मंच की गोष्टियों का पता चला.वहीं से मैने औपचारिक
रूप से साहित्य मे प्रवेश किया.विज्ञान के विद्यार्थी होने के नाते साहित्य मेरे लिये
बिल्कुल नया था.परन्तु कविता में रविशंकर चतुर्वेदी ने रीवा संभाग के सारे कवियों से
परिचय कराया. मंजर हाशमी साहब ने शायरों ने परिचय कराया. संतोष खरे ने किताबों और समीक्षाओं
के लिये प्रेरित किया. पाठक मंच में मुझे आदरणीय चिंतामणि मिश्र मिले जो उम्रदराज होने
के बाद भी जवाँ दिल थे. साहित्य समाज और पत्रकारिता
से वास्तविक रूप से परिचय कराया.उन्होने मुझे समाचार पत्रों में कालम लिखने के लिये
प्रेरित किया. आज मै उनके आशीर्वाद से नवस्वदेश और देशबंधु में कालम लिख रहा हूँ. उन्होने
समीक्षाओं की बारीकियाँ मुझे बताई.और सबसे बडी बात यह बताई की साहित्य की औकात कितनी
है समाज को बदलने की, आज शब्द शिल्पी पत्रिका को मै तीन वर्षों से निकाल रहा हूँ. इस
पत्रिका के आगाजसे आज तक के सफर में उनका हर कदम में निर्देशन मुझे मिला..
अब
मुद्दे कीबात पे आना चाह्ता हूँ आज के समय में निःसंदेह युवावर्ग साहित्य से दूर जा
रहा है. इसकी प्रमुख वजह साहित्य समय के अनुसार बदलाव करने में असमर्थ रहा जिसतरह युवावर्ग
की सोच बदल रही है. आज के समय में पाठकों की कमी नहीं है परन्तु पाठको की बात करने
वाला साहित्य नहीं उपलब्ध है. आज के समय में युवा वर्ग साहित्य लिख कर डायरी के पन्नों
में कैद करने के लिये विवश है. क्योंकि आज पत्र पत्रिकाओं को साहित्य फिजूल का माल
नजर आता है. जो इसे तवज्जो देती है उन्हे खास प्रसिद्ध लोगो के साहित्य से सरोकार है,
वह यह नहीं जान पाते की एक अदना सा कलमकार ही लगातार लिखने के बाद खास और प्रसिद्ध
हो जाता है. सतना लक्ष्मीपुत्रों का शहर है. परन्तु ये लोग मुजरे, रैंप शो, और धार्मिक
गोरखधंधों के लिये अनुदान की कतार खडा कर देते है. परन्तु साहित्य के नाम पर एक फूटी
कौडी देने में नाक भौं सिकोड लेते है. मुझे तो एक चिंतामणि जैसे पारस पत्थर मिल गये
जो मुझे अनिल श्रीवास्तव से अनिल अयान में परिवर्तित कर दिया. परन्तु युवाकलम कार आज
भी ऐसे पारस पत्थर को खोज पाने में असमर्थ है.कहीं ना कहीं मौकों की कमी और सही मार्ग
दर्शन ना मिल पाने के कारण वो साहित्य से बहुत दूर हो जाते है.आज के समय में साहित्य
यदि पुरुस्कार पाने और पदलोलुपता के लिये लिखा जा रहाहै. परन्तु आम जन की आवाज के लिये
लिखा जाने वाला साहित्य यदि कम है तो भी पढा
जा रहाहै. प्रेमचंद्र और परसाई को आज भी लोग बडे चाव से पढना पसंद करते है. आज के समय
में जरूरत है कि हम अपनी कोपलों का स्वागत करें वरना हम सब ठूँठ हो जायेगें.यही बात
मै अपने अग्रज कलम कारों से भी कहना चाह्ता हूँ.आपने मुझे अपनी बात कहने का अवसर दिया
इस हेतु बहुत आभार..शुक्रिया....
अनिल अयान,
९४०६७८१०७०
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