बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

कब तक सहे
बच्चों को कलम घिस्सू बनाने की कवायद में अभिभावक.
इस समय वार्षिक परीक्षाओं की तैयारी में सभी बच्चे और उनके अभिभावक लगे हुये हैं.परीक्षा वह शब्द है जिससे जड और चेतन दोनो को बहुत भय लगता है.इस के प्रभाव से कोई भी डर के बिना बचकर नहीं निकल पाया है. हम चाहे किसी उम्र के हो जायें परन्तु जब भी समय यह कहेगा कि वह हमारी परीक्षा लेगा तब हमें वही भय लगता है जो बचपन में परीक्षा भवन में जाने से लगता था.फरवरी और मार्च का महीना हर विद्यालय में पढने वाले बच्चों के लिये किसी हाउआ से कम नहीं होता है.क्योंकि बचपन से पचपन तक हमें यही सिखाया गया है कि परीक्षा वह नाव है जिससे हम अपनी पढाई के ज्वार से बच सकते हैं. कभी बच्चों को किताबों की दुनिया से हटकर सोचने की कोशिश नहीं की गई माता पिता और शिक्षकों के द्वारा. हमेशा एक ही परिपाटी में बैल की भाँति जोत देते हैं.ताकि कोल्हू से हमारे सपनों की सरसो से तेल निकाल सके भले ही वह थके बीमार हो या कमजोर होता चला जाये. सब अभिभावक एक ही तरह की सोच रखते हैं.कोई शुरू से यह सोच रखते है कोई बच्चों के बडे होने के साथ साथ अपनी सोच बदल लेते हैं. कोई कुछ भी नहीं कर सकता है.मजबूर है अपने समाजिक अस्तित्व की लडाई में शतरंज के मोहरा बनाकर शोहरत हासिल करने की कवायद में.

अप्रैल से मार्च तक बच्चा ऐसा अनुभव करता है कि वह जेल में फिर से डाल दिया गया है जिसमें उसे दस महीने अपने खून के आँसू रोने वाले होते है.कभी सोचिये आप उस उमर में थे तो आप से कितना बनता था.शायद बच्चों से बहुत कम बनता था. आज के समय के बच्चे इतने ज्यादा स्मार्ट होते है कि जो विषय वस्तु हम पहली या दूसरी कक्षा मे सीखते थे वह वो पैदा होने के पहले सीख चुके होते है इसमें दोष उनका नहीं उनके पालकों का है जिसतरह द्रोपदी के गरभ में रह कर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह का भेद रहस्य जान लिया था उसी तरह माँ के गरभ में रहकर आज कल के बच्चे हर विषय के बारे में पैदा होने के पहले जान लेते हैं.परन्तु आज के समय में यदि बच्चे बाप बनते जारहे है तो बाप भी महाबाप बनने में लगे हुये है. वो बच्चों से इस धरती के महान गणितज्ञ,वैज्ञानिक और सबसे बुद्धिमान बनाने की कोशिश करने मे लीन होते है. जुलाई से मार्च एक सत्र पूरा होने में बच्चे को कोल्हू के बैल की तरह पेर दिया जाता है और फिर गर्मियों की छुट्टियों में भी कटने वाले बकरे की भाँति खूब खिलाया पिलाया जाता है. आज के समय यदि बच्चे ८० प्रतिशत अंक भी प्राप्त करता है तो पालको के चेहरे में बारह बजे होते है. जैसे उन्हें अभी किसी मैयत में जाना हो. सबसे ज्यादा दर्शनीय क्षण किसी स्कूल के परीक्षा परिणाम के निकलने वाले पैरेंट्स मीटिंग में होता है जब हर पालक अपने बच्चे के बारे उसके कक्षाअध्यापक से ऐसे हर एक बात पूँछता है जैसे उसके बेटे या बेटी ने बहुत बडा गुनाह कर दिया हो.बच्चों का बचपना तो कब का गुम हो चुका है. सरकार और शिक्षा विशेषज्ञ चाहे जितना योजना आयोग बना लें. जितनी योजनायें बना लें परन्तु बाल केद्रिंत शिक्षा का कोई प्रभाव पालक शिक्षक और विद्यालय में देखने को नहीं मिलता है.हर विद्यालय पालकों की अपेक्षाओं में खरा उतरने के लिये बच्चों को किसी सर्कस का शेर बनाने की कोशिश करता है. कोई उसे कलम घिस्सू बनाने की कोशिश करने में अपना जीवन न्योछावर कर देते है.आज के समय में सबसे सार्थक सामाजिक स्तर बनाने वाल एक चिह्न है ट्यूशन और कोचिंग.जिसका बच्चा जितने महगें शिक्षक या शिक्षक जैसे प्राणी से ट्यूशन पढता है वह उतना ही स्तरीय व्यक्ति होता है.और फिर उस टीचर के पीछे उस स्थान के हर परिवार हाथ धोकर पड जाते है ताकि वह उनके बच्चों को भी विद्वान बना दे चाहे उसकी जितनी कीमत देना पडे. आखिर कार हम अपने बच्चों को लिये कहाँ जा रहे है. कभी इस दौड से अपने और अपनी झूटी प्रतिष्ठा के नकाब को हटा कर देखिये जनाब. आप अपने बच्चों को कब से अपना गुलाम बनाने की कवायद करने में जी जान लगाये हुये है.
यदि आपने एक हिन्दी फीचर फिल्म थ्री ईडियट देखी हो तो उसका एक सूत्र हर परिवार को अपने बच्चों के लिये बनालेना चाहिये बाबा रणछोरदास का प्रवचन का सार यह है कि बच्चों को अपने अंदर छिपे प्रकृति प्रदत्त हुनर को आँगे बढाने में उनकी मदद करना चाहिये ताकि उनको अफसोस ना हो कि उन्हें अपने जीवन में सफलता नहीं मिली या वो खुश नहीं है उस समाजिक स्तर से. जैसे कि मैने पहले भी कहा है कि वो हम से बहुत आगे की सोच रखते है.हमें बस उस सोच को जान कर उसके पीछे एक जुनून और अवेयरनेस के साथ बढने की सलाह देनी चाहिये वरना हम उनके गाड फादर नहीं बन सकते उनके एनीमेटर बनने से उनकी सफलता में सहयोगी बनी.आपका यह व्यवहार उन्हे अपने गोल को बनाने और हासिल करने में मदद करना हि उन्हें अपने तरीके से कलमघिस्सू बनाने की कवायद में पूर्ण विराम लगाना होगा.अनिल अयान ,सतना.

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