कब तक सहे
कहाँ नहीं है साहित्य
साहित्यिक पत्रकारिता का आज के
समय में हाल बेहाल हो चुका है.हर तरफ से यह देश साहित्य से दूर
जा रहा है.साहित्य को हर तरफ सुना जा रहा है या यह कहें कि जबरन
सुनवाया जा रहा है.हर तरफ साहित्य की चर्चा लगभग ना के बराबर
है.जो कुछ भी बचा है वह गोष्ठियों तक सीमित हो कर रह गया है और
गोष्ठियों से निकल कर एक दिवसीय कार्यशालाओं तक सिमट कर रह गया है.बडे बडे कालेज और विश्वविद्यालय में भी साहित्यिक आयोजन गाहे बगाहे होते रहते
है.जिसमें साहित्यकार की जगह में अकादमिक प्राध्यापक गण और छात्र
छात्राएँ अधिक होते है.साहित्यिक चर्चा की बजाय साहित्य की कक्षा
के नाम पर भर्रेशाही होती है.आज के समय पर कविसम्मेलन भी काफी
जोर पकड रहे हैं.जिसमें कविता की तरह कुछ होता ही नहीं है.हास्य के नाम पर फूहडता,ओज के नाम पर पाकिस्तान को गाली
देने के अलावा कुछ भी नहीं होता और हर जगह वही जुगाडपन जरूरी हो गया है.साहित्य अब कहीं आलमारी के अंदर रखी कृतियों में देखने को मिल सकता है और यदा
कदा पत्र पत्रिकाओं के पृष्ठों में देखने को मिलता है.नहीं तो
फिर अखबारों में टुकडियों में साहित्य को पाला पोसा जा रहा है. समय के साथ साहित्य के प्रतिमान भी बदलाव है.साहित्यिक
पत्र पत्रिकायें अपनी आखिरी सांसो की प्रतीक्षा में अपने दिन गिन रही है.
साहित्य आज हर जगह मौजूद है पहले
के समय में इसे दीवारों में उकेरा जाता था पत्तों और छालों में लिखकर सुरक्षित रखा
जाता था.धीरे धीरे इसे कपडों में,कागजों
में चित्रों और वर्णों के माध्यम से सुरक्षित करने की कोशिश की जाती रही है.
पहले के समय में जितना प्रयास होता रहा है उससे कही ज्यादा प्रयास होता
रहा है. परन्तु सफलता की कोटि भी बहुत कम रह गई है.संस्कृत भाषा के साहित्य में जितना विकास किया गया उससे ज्यादा विकास हिन्दी
के साहित्य में होना चाहिये परन्तु बाग्ला भाषा के साहित्य का विकास हिन्दी से ज्यादा
हुआ.चाहकर भी हिन्दी के साहित्यकार अपने शिखर तक नहीं पहुच पा
रहे है.इसका सबसे बडा कारण है गुटबाजी का इस क्षेत्र में शामिल
हो जाना. साहित्य अनेको तरीकों से हमारे जीवन में शामिल है परन्तु
उस राह में बढकर कोई व्यक्ति अपनी योग्यता शाबित नहीं कर पाता है.आज के समय में पाठकों की संख्या में बढोत्तरी करना ही साहित्य का मुख्य लक्ष्य
रह गया है.साहित्य आज के समय में आलेखों कविताओं और व्यंग्यों
की पुस्तकों तक सीमित होकर रह गयाहै. पुस्तक मेले में भी पुस्तकों
की बिक्री की बुरी हालत रही है.प्रकाशक भी लेखको और कवियों को
जहमत देने का काम कर रहे है. साहित्य हर जगह होकर भी हर व्यक्ति
को सुलभ नहीं हो पा रहा है.पत्रिकाये सुलभ रूप से पाठकों तक नहीं
पहुँच पारही है. साहित्यिक पत्रकारिता की हालत और दुस्वार हो
चुकी है. साहित्यिक पत्रकारिता के नाम पर आज के समय पर सिर्फ
कमप्यूटर से कट कापी पेस्ट का जमाना रह गया है.कोई अपना लिखना नहीं चाहता.और पढने की आदत तो लगभग समाप्त हो गया है.कोई अपने आप
लिखना नहीं चाहता है.सब किसी ना किसी जरिये से बहुत जलदी प्रसिद्ध होना चाहता है और
इसी के चलते वह अध्धयन छॊड चुका है और हम सब जानते है कि बिन अध्ययन कुछ भी संभव नहीं
है,संपादक को आज के समयमें कोई सामग्री नहीं मिल पा रही है प्रकाशन
के लिये विज्ञापन के लिये कोई संभावना नहीं बन पा रही है.साहित्यिक पत्रकारिता आज के
समय में अपने घुटने टेके आने वाले अपने भविष्य के लिये चिंता की चिता में जल रही है.पर
इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि जहाँ एक ओर पत्रकारिता अपना दम तोड रही है.वही दूसरी
ओर समाचार पत्र इस परंपरा को जीवनदान देने का प्रमुख काम कर रहे है.और यदि इस परंपरा
को वो ही बस इसी तरह चलाते रहेंगे तब भी साहित्यिक पत्रकारिता अपनी सांसे लेती रहेगी.
इस युग में स्मार्ट फोन,इंटरनेट,वीडियो गेम्स के चलते किसी भी युवा के पास इतना
समय नहीं है कि वो साहित्य की तरफ रुख करे.
आज के युवाओ को फेसबुक ट्वीटर ब्लाग्स से फुरसत नहीं है तो वह
साहित्य कहाँ से पढेगा.इसमें भी उनका कुसूर नही है आज के समय की मांग है कि हर समय
हम अपने को व्यस्त रखें.और् इससे सरल माध्यम कहीं और उपलब्ध नहीं हैं
इस लिये वर्तमान की माँग है कि साहित्य की हर विधा को. हर भाषा को सुरक्षित रखा जाये.तभी हम आने वाली पीढी को हम कुछ दे पायेंगे. वरना सिर्फ
आभासी दुनिया के अलावा हमारे पास अब कुछ भी नहीं बचा है. अब हम
सब को सोचना है कि हर जगह पर रहने वाला साहित्य हर व्यक्ति तक पहुँचेगा कि नहीं.
अनिल अयान.