शनिवार, 12 अप्रैल 2014

राजनीति में रिस्तों की विभीषणगिरी

राजनीति में रिस्तों की विभीषणगिरी
राजनीति का चुनावी बिगुल बजते हीं परिवार की यारी छोड कर सारे नेता वोटों की यारी शुरू कर दी है.समय बदलने के साथ नेता भी अपने परिवार की माँ की आँख निकालने में लगे होते है.किसी भी रिस्ते की बात कर लें परंतु राजनीति का मंत्र है कि वोटो के नाम पर परिवार के हर रिस्ते को आमने सामने ला रहे है.सब राजनीतिज्ञ अपने अपने पारिवारिक सदस्यों के सामने अपनी पार्टी के लिये अपने ही घर की इज्जत नीलाम करने में बाज नहीं आ रहे है. पार्टी के साथ मिलकर अन्य पार्टी के नेता की बुराई सिर्फ वोट के लिये करना, समझ में आता है. परन्तु दूसरे नजरिये से बात करें रिस्तों को आमने सामने रखकर वोटों की राजनीति ही सबसे सबसे बडी राजनीति आज के समय की है.चाहे मेनका गांधी और सोनिया गांधी ,रावड़ी देवी और साधू यादव, करुणाकरण और उनके बेटे की चुनावी बिगुल हो.यह तो कुछ उदाहरण है ऐसे सैकडों उदाहरण है जिसमें राजनीति में आकर कुर्सी पाने के लिये राजनेता अपने ही परिवार के किसी भी सदस्य के विरोध में खडे होकर यह साबित कर देते है कि कुर्सी घर में आनी चाहिये चाहे किसी भी तरीके से और किसी भी पार्टी से आये.घर में लाल बत्ती का होना जरूरी है.
आज के समय में यह देखा गया है राजनेता अपने पूर्वजों की परंपरा के निर्वहन के चलते चुनावी मैदान में उतर जाते है.यदि उनकी पुस्तैनी पार्टी उन्हे टिकट देने से परहेज करने की सोचें भी तो वह दूसरी पार्टी से टिकट की ख्वाहिस करने में देर नहीं लगती है.आज के समय में हर पार्टी को नये युवा चेहरे की तलाश के चक्कर में फिरते रहते है.और इस तरह इन लोगों की तलाश पार्टी में जाकर पूरी होती है और पार्टी की तलाश इन युवा चेहरों और इनके पारिवारिक संपत्ति में जाकर खत्म होती है.ये चेहरे चुनाव जीतें या ना जीतें परन्तु जनता जनार्दन को लुभाने का ठेका जरूर पूरा कर लेते है. पार्टी का अपना स्वार्थ भी सिद्ध हो जाता है.समाज और जनता को इसी सब तरीकों से राजनीति का प्रभाव दिखने लगता है. अपने परिवार के हर रिस्ते पिता पुत्र,बेटा बेटी,चाचा भतीजा, पति पत्नी जैसे रिस्ते राजनीति के रंग में रंगने के लिये तैयार है तो चुनाव का रंग अपने आप समझ में आने लगता है.परिवार के सरहद निकल कर राजनीति की दहलीज में ये रिस्तों के सौदागर जिस तरह राजनीति के दामन को छूकर आँगे बढने की ख्वाहिश रखने लगे है वह राजनीति के निकटतम भविष्य के लिये कितना लाभप्रद है वह तो आने वाला लोक सभा चुनाव ही बतायेगा.इस प्रकार के राजनैतिक महासमय से इन पारिवारिक रिस्तों का क्या होता होगा.चुनाव के माहौल में उन लोगों का क्या होता होगा जो इन परिवारों के मुरीद होते होंगे. और वो किसे वोट करते होंगें.रिस्तों की यह विभीषणगिरी का भी अपना एक मजा होता है.घर की दहलीज के अंदर सब रिस्तेदारी निभाते है और पार्टी के मंच में आते है एक दूसरे को गाली देना शुरू कर देते है.बुला भला कहता शुरू कर देते है.यही सब रीति राजनीति सहचरी बन जाती है. कहते है कि सबसे बडा धर्म आज के समय में सत्ता धर्म है और सबसे बडा ज्ञान आज के समय में राजनीति है.जो इसे सीख गया वह देश की बागडोर सम्हालने की अग्नि परीक्षा में पास हो जाता है.
आज की राजनीति का हाल कुछ ऐसा है कि चुनाव आयोग हर प्रत्याशी पर अपनी बाज की आँख लगा कर बैठा है. चाहे वो राजनीति का कोई भी रिस्ता हो.कोई भी इस हाईटेक युग के चुनाव आयोग किसी को नहीं छोडने वाला है.हर मापडंड में खरे उतरने के बाद ही ये रिस्तेदारी चुनाव के महासमर को जीत सकते हैं.कुर्सी के महारास में कौन विजयी होगा यह तो लोकसभा चुनाव बता ही देगा.इस विभीषणगिरी का दुष्परिणाम यह होता है कि जीतने वाला तो जस्न में डूबा रहता है. पर हारने वाला विद्रोह करने के लिये उतारू हो जाता है.यह राजनैतिक रास्तों से होता हुआ पारिवारिक पगडंडियों में पहुँच जाता है.और एक कलह का कारण बनता है.जो इस राज यज्ञ के मंत्र को पढना शुरू कर देते है उन्हें इससे भी कोई फर्क नही पडता है.कुर्सी पाने के लिये समझौतों की श्रंखला तक पार करने की जहमत उठा सकते है.लाल बत्ती पा सकते हैं.विजय रथ में सवार हो सकते है.परिवार छोड सकते हैं पार्टी के लेफ्ट हैंड बन सकते है.जीवन में साम दाम दंड भेद अपनाकर सत्ता का सुख भोग सकते है भले ही इसके लिये अपने आदर्शों को टके सेर तक गिरवी रख सकते हैं. यही विभीषणगिरी राजनीति की आत्मा है. राजनेता इसकी देह.
अनिल अयान सतना