शनिवार, 14 जून 2014

क्या सिर्फ धारायें लगायेंगी बलात्कार में विराम

क्या सिर्फ धारायें लगायेंगी बलात्कार में विराम
आज के समय में बलात्कार ,गैंगरेप,छेडखानी,और मौखिक छींटाकसी जैसी वारदातें,भारत के हर कोने में हो रहीं है.पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों में यह परिदृश्य देखने को मिला,उत्तर प्रदेश को तो मीडिया ने पूरी तरह से इस मामले में खामोश करके नंगा करने में कोई कसर नहीं छोडा.ऐसा नहीं है कि ये घटनायें सिर्फ कुछ दिनों पूर्व से शुरू हुई है. हम शायद गत वर्ष दामनी कांड को भुला चुके है.मध्यप्रदेश के वह क्षेत्र जहाँ पर आदिवासी निवास करते है उनके साथ गांव में सामूहिक दुष्कर्म और बाद में गांव में नग्न घुमाने जैसा घिनौना कृत्य स्थानीय समाचार पत्रों और चैनलों से छिपे नहीं है.पर इसके नियंत्रण के लिये क्या किया जा रहा है या जो भी किया जा रहा है उसने कितना प्रभावी बदलाव लाया है. इस पर कोई विचार नहीं कर रहा है. सब बयान बाजी और,आरोपो प्रत्यारोपों के भंवर जाल में एक दूसरे को कैद करने में लगे हुये है. यदि इन राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों की बहन बेटियों और घर की इज्जत को इन घटनाओं से तार तार करने की कोई कोशिश करे तो शायद उस समय ये पूरे दल बल के साथ उस गुनहगार को उसके परिवार रिश्तेदारों सहित जमींजोद कर देंगे.कोर्ट,पुलिस,एफ.आई.आर.,सजा जैसी सरकारी शब्दावली का इनके सामने कोई अस्तित्व नहीं होगा.तब ये नहीं कहेगें कि बलात्कार आवेश में गल्ती से हो जाता है. ना ही उस समय कोई मंत्री,जनप्रतिनिधि,और नेता,नपुंसकतापूर्ण बयानबाजी नहीं करेगा.
संविधान में कहने को बहुत सी धारायें है.धारा ३७२,पर क्या इसके लिये बनी धारा ३७२ काफी है बलात्कार रोकने के लिये.बिल्कुल भी नहीं.क्योंकि बलात्कारियों के लिये इस धारा का डर खत्म हो गया है.पुलिस भी इस धारा के परिणामों को जनता तक पहुँचाने में असफल रही है.जब इसतरह की घटनाये देश में घटती है तो सरकार ,मुख्यमंत्री और जन प्रतिनिधियों के अनर्गल प्रलाप गुनहगारों को और छूट दे देते है.इस धारा से बचने के लिये पुलिस भी दबाव में आकर ३७६-घ,३५४-क, ३२३, और ५०६ धाराये लगाने के लिये मजबूर है.ऐसा क्यों होता है कि हमारे आसपास होने वाली इस तरह की घटनाओं के लिये अदालतें उसी तरह से कछुआ चाल से न्याय प्रक्रिया का प्रारंभ करती है जिस तरह से वो दीवानी और फौजदारी मुकदमों के लिये अपना क्रियाकलाप दिखाती चली आई है.न्याय प्रक्रिया हो या पुलिस कार्यवाही सब कछुआ चाल से अपने दस्तावेज पूरा करते है. क्या इसी तरह महिला सुरक्षा पर सवाल उठते रहेंगें.हम नारी जागरुकता वर्ष और स्त्री सशक्तीकरण वर्ष का राग अलापते है परन्तु इन सब का कोई अर्थ नहीं होता यदि हमारे समाज में ऐसी घटनायें घटती रहेंगी.
जो लोग यह बयान करते है.जो संगठन पुरुषवादी कट्टर सोच का प्रतिनिधित्व करते है और कहते है- कि बलात्कार तब तक नहीं रुकेगा जब तक कि लडकियाँ अपना पहनावा नहीं बदलेगीं,फिल्मों में आकर्षक दिखने वाले उत्तेजक सीन चलते रहेंगें. गानों में अस्लीलता और हनी सिंह जैसे रैप सिंगर अपने गाने गाते रहेंगें.जब तक प्रेम की अनुभूति दिखाने वाले गाने हर घरों में गूँजेगें,जब तक टीवी के प्रचार में महिलायें सिरकत करती रहेंगी. आदि आदि...... पर जब गावों में इस तरह की घटनायें घटती है,कस्बों में या शहरों में महिलाओं और बच्चों के साथ गैंगरेप की घटनायें होती है तब भी इस तरह के कारक कार्यकरते है.शायद नहीं क्या हमारे घर में परिवार की महिलायें,बच्चियाँ,हर प्रकार से रहती है तो क्या उनके साथ रेप हो जाता है.नहीं.क्योंकि हमारी नैतिकता वासना तक नहीं पहुँचती है.वासना का अनियंत्रित हो जाना बलात्कार को पैदा करता है.कई लोग पुरातन काल के कुछ मिथकों को उदाहरण बनाकर बलात्कार को ऐतिहासिक दंस बताते है.पर उस समय की परिस्थितियाँ और आज की परिस्थितियाँ पूर्णतः भिन्न है.यह बात सभी को समझना चाहिये जो आवश्यक भी है.
इस लिये आज के समय पर सजा की कडाई का स्तर बढाना चाहिये.फास्टट्रैक कोर्ट होना चाहिये और एक सप्ताह के अंदर सजा का प्रावधान होना चाहिये और आंगे कोई सुनवाई नहीं होनी चाहिये.और सबसे बडी बात है कि जब तक समाज मे हम सब अपनी नैतिकता को हवस में परिवर्तित होने मे नियंत्रण नहीं कर सकते है तब तक कोई धारा या कोई सजा बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं को कोई नहीं रोक सकता है.धाराओं से सजा दिलायी जा सकती है पर धाराओं का डर पैदा करना न्यायपालिका की क्रियाशीलता पर निर्भर करता है. आज के समय पर नैतिकता दम तोड चुकी है.जब तक हम खुद के परिवार से यह शुरुआत नहीं करेंगे तो,सेक्स को सब कुछ मानने की भूल कुंठित मानसिकता वाले लोग करते रहेंगें.सजा जितनी कष्टकारी होगी तो गुनाह उतना ही कम होगा.हर दिशा से इस पर पहल करने की आवश्यकता है. सरकार का काम है बहसबाजी की बजाय त्वरित क्रियाशीलता दिखाये.न्यायपालिका का काम है फास्ट्रट्रैक कोर्ट में एक सप्ताह के अंदर निर्णय हो.पुलिस का काम है कि इसप्रकार के मामलों के लिये विशेश सेल बने तुरंत अपराधियों को पकडा जाये और अदालतों तक पहुँचाये. और सबसे बडी जिम्मेवारी हम सब की है हमें अपने परिवार से नैतिकता की शुरुआत करनी चाहिये.परिवार को समझाना चाहिये कि हवस,सेक्स,को अपराध में परिवर्तित करना गुनाह की राह को तय करती है.नियंत्रण करना हमें आना चाहिये.डर और तत्काल सजा से यह जघन्य अपराध कम होगा.तो आइये मिल कर सब एक बार पहल करें.धारायें हमें राह दिखा सकती है.धाराऒं पर पूरी तरह से आश्रित नहीं रहा जा सकता है. हाँ इस बात से ताल्लुकात जरूर रखता हूँ कि संविधान में यदि धाराओं का परिष्करण और परिवर्धन होता है तो शायद इनका प्रायोगिक परिणाम निकल सकता है.वरना यह संविधान मे लिखी सिर्फ पक्तियों के अलावा कुछ नहीं है. जिसका उपयोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये भारत में अपराधी वकीलों के माध्यम से अदालतों में करते है.यही सच जनता को पता है परन्तु अपराध को रोकने के लिये सब बेबस है.
अनिल अयान,सतना
९४०६७८१०४०

मंगलवार, 3 जून 2014

सिर्फ डिग्रियों के दम पर ही नहीं चलता देश

सिर्फ डिग्रियों के दम पर ही नहीं चलता देश

सत्ता परिवर्तन हुआ ही था कि विरोधी पार्टियों की तरफ से एक नया रोडा अटकाया गया.इस रोडे का नाम था डिग्री का हौआ. जिसके चलते श्री मती स्मृति ईरानी और बाद में माननीय मुंडा जी भी घेराव में आगये.कभी कभी यह लगता है कि क्या डिग्री ही सब कुछ है.या कोई इसके अलावा भी ऐसे कारक है जो मनुष्य के विकास में सहायक हो सकते है.यदि डिग्रियों से ही किसी जिम्मेवारी का मापदंड है तो फिर रावडी देवी जी के संदर्भ में लोग क्या कहेंगें.जो लालूयादव जी की सत्ता को कई वर्षों तक दम खम के साथ चलायी.हम सब जानते है कि डिग्रियों को बेचने वाले विश्वविद्याल और महाविद्यालय हमारे देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुले हुये है.और जो चाहे,जब चाहे,जैसे चाहे डिग्रियाँ थोक का थोक खरीद कर अपने को डिग्री धारी की उपाधि दे सकता है.आज के समय में तो हर वर्ष नये नये प्राईवेट विश्वविद्यालय खुल रहे है.और इस प्रकार डिग्री का व्यवसाय भी फल फूल रहा है.मै अपने बारे में खुद बताऊ तो मै यदि एम.एस.सी. और एम.एड हू तो मैने कौन सा सातवें आसमान से तारे तोड लिया. कम से कम ज्ञान का सहारा लेकर अपनी बात आप सबके सामने कहने का संबल तो प्राप्त कर लिया है. यही स्थिति अन्य स्थानों के युवाओं की है.वो भी डिग्री का घंटा लिये बाजार में फिर रहें है परन्तु उन्हें कोई पूँछने वाला नहीं है.ना ही उनका कोई माई बाप है.
          जिस डिग्री के लिये कांग्रेस और अन्य घटक दल मानवसंसाधन विकास मंत्री युवा स्मृति ईरानी के तिल का ताड बनाने में लगे हुये थे ,उनहें शायद अपने माई बापों की भी डिग्री का अनुमान या खोज खबर नहीं है.जब यू पी ए सरकार अस्तित्व में आई तब ४० प्रतिशत मंत्री स्नातक के नीचे थे. तब भी दस साल देश में अपनी नालायकी और नाकारापन के दम पर राज्य किये.और मंत्रालय चलाये. और अधिक बढे तो हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री जी जाने माने अर्थशास्त्री थे डाक्ट्रेट थे,उनके दस साल किस तरह बीते वो अपनी आपबीती बखूबी जानते है.क्या वो अपने डिग्री के जलवे सत्ता में दिखा पाये ,नहीं क्योंकि उनकी सुप्रीमों जो उनसे कम पढी लिखी थी उनके सिर पर अपना शासन चला रही थी. और कोई कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सका और तो और इसी का परिणाम था कि आज कांग्रेस का अस्तित्व जनता,मीडिया,और राजनीति में खतरे में है.इतिहास में ऐसे बहुत से राजनीतिज्ञो के नाम दर्ज है जो पढे नहीं थे ज्यादा बल्कि लढे थे. उनका यही अनुभव राजनीति में उनको अमर कर दिया. और उनके नाम का जाप करके उनके शिष्य आज राजनीति में अपना नाम रोशन कर रहें है.और दूसरे तरीके से बात करें तो जब स्मृति ईरानी चुनाव लडने का फार्म दाखिल किया.किसी ने कुछ नहीं बोला,जब वो जीत दर्ज की तब किसी ने कुछ नहीं बोला, जब उन्हें संसदीय मंत्रिमंडल में जगह मिली और महत्वपूर्ण पद दिया गया तो ही क्यों सभी लोगों के दिमाग के घंटे बजने लगे.और असीम कष्ट का अनुभव होने लगा.क्या किसी नये व्यक्ति को सत्ता में मंत्रालय में बिठाना गलत है.या सबको यह लगता है कि स्मृति ईरानी नरेंद्र मोदी की खासम खास है. और यदि बात आदर्श वादिता की है कि उन्होंने गलत ढंग से अपने शिक्षा को चुनाव आयोग के सामने रखा गलत शपथ पत्र दाखिल किया तो राजनीति में इस तरह के कर्मकांड करने वाले नेताओं के प्रतिशत ९० प्रतिशत से ऊपर है तब किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है. ना ही कोई गोहार लगाता है.
          डिग्री का मूल्य यदि इतना ही अधिक है तो मुझे लगता है कि चपरासी से कलेक्टर पद के लिये ली जाने वाली चयन परीक्षा को बंद कर देना चाहिये.सिर्फ डिग्रियों और उसमे अंकित प्रतिशत के आधार पर ही लोगों को नौकरी मिल जानी चाहिये.इस प्रकार की परीक्षाओं को लेने का मतलब है कि सरकार को डिग्रियों पर विश्वास रहा ही नहीं इस लिये वो परीक्षाओं का ढकोसला करने में उतारू रही,चपरासी के लिये पाँचवीं पास वाले को क्यों भर्ती नहीं किया जाता है. क्यों परीक्षाओं में स्नातक तक के विद्यार्थी इस पद के लिये परीक्षा देते है. इन सब का कोई जवाब नहीं है सरकार के पास. आज के समय में डिग्रियाँ सिर्फ जेब में रखी जाने वाली रुमाल है.जो आवश्यकता ना होने पर फेंक दी जाती है.और आकर्षक दिखने वाली दूसरी खरीद ली जातीहै.जिससे लोगों के बीच आकर्षक का केंद्र बन सकें.क्या हम नहीं जानते कि डिग्री पाने के लिये जुगाड और मुद्रा से कापी बनवाई जाती है,प्रश्न पत्र खरीदे जाते है. और तो और मुद्रा देकर मनपसंद अंक भी प्राप्त किये जा सकते है.इन सबके बीच किसी जनप्रतिनिधि का जनता के बीच से चुनकर संसद में कार्य करने हेतु जाने की प्रक्रिया में डिग्री के मापदंड उठाना .सिर्फ ध्यानाकर्षक के अलावा कुछ नहीं है. जनता खुद जानती है और स्मृति ईरानी भी कि जनता को कार्य करने से मतलब है जिसके लिये जनता वोट करती है या भविष्य में करेंगी.रही बात अनुभव की तो वह करने से होता है.सही मार्गदर्शन मिलने से अनुभवहीन भी अनुभव प्राप्तकर अनुभवयुक्त बनजाता है. इसलिये डिग्री को देखने की बजाय मंत्रियों के फैसले और किये जाने वाले कार्यों पर ध्यान देना चाहिये.जो सत्ता समाज और समय की माँग भी है.
अनिल अयान,सतना.
९४०६७८१०४

रविवार, 1 जून 2014

संविलयन और विलगन की उहापोह में काश्मीर

संविलयन और विलगन की उहापोह में काश्मीर..

नरेद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद ग्रहण करते ही एक बहुत ही सार्थक पहल हुई है सरकार के सपथ ग्रहण समारोह में पडोसी राष्ट्रो को आमंत्रण और इसी बहाने पाकिस्तान से बात करने का जरिया खोजना.यह सब कितना कारगर रहा वह आज के समय में उत्पन्न हुये धारा ३७० के खत्म करने और परिवर्तित करने की मुहिम के प्रसंग से समझ में आ रहा है.जटिलता की दृष्टि से देखे तो पाकिस्तान के साथ संबंध बनाना इतना कठिन नहीं हैजितना कि काश्मीर को भारत में संविलयित करने की कार्यप्रणाली. वास्तविकता यह है कि काश्मीर समस्या इतनी ज्यादा कठिन है कि देखने मे सीधी साधी और समाधान करने में उतनी कठिन है.
     धारा ३७० का अर्थ है काश्मीर के सुरक्षा कवच की भाँति मजबूत स्वतंत्रता जो भारत की तरफ से काश्मीर को उपहार स्वरूप दिया गया था. हम सब इतिहास के उस पन्ने से वाकिफ है जिस समय पर काश्मीर में पाक के आतंकियों ने आक्रमण कर कब्जा करने में उतारू था और काश्मीर मजबूर था अपने को बचाने के लिये जिसकी वजह से उसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी के सामने संधि का प्रस्ताव स्वीकार करना पडा.काश्मीर की आज भी तीन भागों की विचारधारा में बटी हुई है. एक पक्ष पाकिस्तान की शरण में जाना चाहता है.दूसरा पक्ष स्वतंत्र रहना चाहता है और तीसरा पक्ष भारत से जुडना चाहता है.पाकिस्तान और भारत के जबडों के बीच में फंसे काश्मीर नाम भर का स्वतंत्र राज्य घोषित है पूरा का पूरा सुरक्षा का खर्चा भारत के जिम्मे ही रहता है भारत अपनी सुरक्षा मंत्रालय का ९५ प्रतिशत भाग काश्मीर सुरक्षा के लिये नियुक्त कर रखा है.भारत के अधिक्तर युद्ध काश्मीर सुरक्षा के लिये हुये है और होते रहेंगें.भारत यदि उस समय चाहता तो राष्ट्रसंघ के कहने पर जनमत संग्रह करवा काश्मीर को भारत संविलयन वाले भाग को अपने पास रखकर अन्य भाग को स्वतंत्र कर देता तो आज यह कहानी नहीं होती.हमारा मोह हमें काश्मीर को अपने से अलग करने नहीं देता है.और संवैधानिक रूप से ३७० धारा को परिवर्तित करना भी भारत के लिये बहुत कठिन है.धारा ३७० को परिवर्तित करने के लिये यह आवश्यक है कि संसद में धारा परिवर्तन के साथ साथ अन्य राज्यों की विधानसभाओं में भी ८८ प्रतिशत पारित होना चाहिये और सबसे महत्वपूर्ण बात काश्मीर की संवैधानिक समिति के सामने धारा पर परिवर्तन ही एक मात्र रास्ता है.और काश्मीर की संवैधानिक निर्माण समित को अद्यतन किया ही नहीं किया गया.इस समिति को अद्यतन करने में ही सरकार को पसीने छूट जायेंगें. इस धारा का परिवर्तन ,काश्मीर की सत्ता के लिये नकारात्मक और भारत के लिये सकारात्मक पहल सिद्ध हो सकती है.परन्तु यह प्रायोगिक रूप से यदि लागू होती है तब इसका परिणाम फलदायक रहेगा.लेकिन प्रश्न यह उठता है कि परिणाम तक पहुँचने में ही बहुत से ब्रेकर्स उत्पन्न हो रहे है. अबदुल्ला परिवार ,पी.डी.पी. पार्टी इसमें कोई बदलाव नहीं चाहती है और क्योंकि उनको मिलने वाला विशेष धन और सुरक्षा उनसे छिन जायेगी. वही दूसरी तरफ अब भारत सरकार का पूरा मूड है कि इसपे बहस होना चाहिये जो भारत के विकास और समान राज्यों की परिकल्पना के लिये अति आवश्यक .समाज में हो या देश में बदलाव के लिये लहर उठाने और बदलाव करने के लिये संघर्ष और विरोध को झेलना ही पडता है .इस बीच कुशल प्रशासक वही बन सकता है जो इस सब मनोवैज्ञानिक दबाव के बीच अपने कार्य को सिद्ध करले और देश को विकास के पथ में लेजाने के लिये धर्म परायण के साथ साथ विकास परायण भी बने.यह पहल नरेद्र मोदी पहले ही दिन से कर चुके है.
     एक राज्य के लिये और उसकी स्वतंत्र सत्ता के लिये पूरा धन बल लगादेना जब मंहगा पडने लगे और उस परिस्थिति में जब वह भारत के द्वारा किये गये उपकारों को बिना महत्व दिये यह राग अलापे कि वह स्वतंत्र राज्य बनकर रहना चाहता है.भारत के किसी नागरिक का उस राज्य में कोई मान्यता नहीं हो.उस राज्य की विधानसभा के बिना भारत का कोई नागरिक वहाँ रह नहीं सकता कोई जमीन खरीद नहीं सकता.और भी अन्य बंधन है जो भारत के नागरिको के लिये काश्मीर में लागू है.यह सब कहाँ तक उचित है क्या नेहरू जी ने अपने कार्यकाल में काश्मीर से संधि करके जो कार्य किया था वह भारत के लिये बहुत बडी रुकावट है,यह सब प्रश्न आज भी सबके जेहन में गूँजते है.धारा पर राजनीति करना सही नहीं है परन्तु यह भी सच है इस पर बात चीत ना करना भी सबसे बडी कायरता है.अब देखना यह है कि हमारी सरकार जिस काम को आगाज किया है वह अंजाम तक पहुँचता है या कि समय के बहाव में विलुप्त हो जाता है. काश्मीर का भारत में संविलियन भारत की प्रगति के लिये प्रथम कदम है इसमें कोई दो राय नहीं है. बस आवश्यता है राजनैतिक रूप दिये बिना इस पर निष्कर्ष हेतु बैठक होनी चाहिये.और भारत की शर्तों पर या यह कहूँ कि सामन्जस्य पूर्ण निर्णय लेने में काश्मीर के हुक्मरानों को मदद भी करनी चाहिये .शायद इसी में उनकी भलाई है.क्योंकि भारत से अलग होने के बाद काश्मीर पर किसी और उपनिवेशी ताकत की हुकूमत होगी. अब फैसला काश्मीर को करना है कि भारत के साथ संविलयित होना है या भारत से विलगित.
अनिल अयान,सतना

९४०६७८१०४०

देह स्पर्श से जुडे है रिस्तों की गहराई

देह स्पर्श से जुडे है रिस्तों की गहराई

सामान्यतः देखा गया है कि हर रिस्ते मे गहराई का मापदंड आँका जाने लगा है और उसी  का परिणाम रहा है कि रिस्तों में टूटन और कमजोरी समझ में आने लगी है.समय के साथ देह का संबंध रिस्तों की मजबूती के लिये अति आवश्यक है.सदेह प्रेम की कल्पना ही आज के समय पर प्रायोगिक रूप से देखी जा रही है. हम चाहे किसी जाति धर्म और संप्रदाय के हों परन्तु यह भी शास्वत सत्य है कि आजकल देहिक प्रेम रह गया है.और इसी प्रेम के सहारे हर रिस्ते की नींव परवान चढती है.जितना अधिक दैहिक सुख प्राप्त होता है दो पार्टनर्स उतना नजदीक आते है.यदि हम आज के परिवेश में सिर्फ मनो वैज्ञानिक और मानसिक सुख हेतु प्यार और मोहब्बत की बात करें तो यह बेमानी सा लगता है.
     इतिहास और शास्त्र गवाह रहे है कि पूर्व काल से देह के लिये या देह की वजह से युद्ध लडे गये और विनाश का कारण बने है.कामशास्त्र का जिक्र ना करना इस संदर्भ में भी बेमानी होगी.आज के समय में मन के रिस्ते ,दिल की तह तक जगह देने वाले रिस्तें सिर्फ फेंटेसी में रह गये है.जिनका जिक्र कहानियों उपन्यासों और काव्य साहित्य तक सीमित रह गया है.जिन शब्दों को हम अश्लीलता की श्रेणी में लाकर खडे कर देतें है और यह कह कर नकार देते है कि यह हमारी मर्यादा तोडने के लिये जिम्मेवार है वह सब टूट कर खंड खंड हो गया है.और आज के समय पर हर जगह इस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल होने लगा है या यह कहें कि इस्तेमाल करने में फक्र महसूस करने लगे है हम.आज के समय में ९० प्रतिशत सक्रिय रिस्तों की बुनियाद दैहिक वजहों से निर्मित होती है. यदि हम उदाहरण स्वरूप अपने घर या पडोस से लें तो समझ में आता है कि जब तक माता पिता का स्पर्श बच्चे को प्राप्त होता है यानि बाल्यकाल तक तब तक यह रिस्ता ईमानदारी से बच्चा निभाता है हर कहना बच्चा माता पिता का मानता है. परन्तु जैसे वह अपने विषमलिंगी सहपाठी से या मिलता है और किशोरावस्था वा युवावस्था में प्रवेश करता है और उसके जीवन में जीवन संगिनी या जीवन साथी आते है तब यह परिणाम होता है कि स्पर्श का एहसास बदल जाता है तो रिस्तों मे प्राथमिकतायें बदल जाती है .अब वह व्यक्ति अपने माता पिता के साथ साथ या यह कहे की उससे कहीं अधिक अपनी प्रेमिका,या पत्नी की ज्यादा सुनता है मानता है और विवश होता है दैहिक सुख से जुडा होने की वजह से.वह चाहकर भी अपने माता पिता और अन्य रिस्तों को अपनी प्रेमिका और पत्नी से बने रिस्तें से ज्यादा प्राथमिकता नहीं देता है.क्योकि देह का संबंध अब पत्नी और प्रेमिका के साथ अधिक होने से समय अधिक उनके साथ ही बीतता है और सुख भी उन्ही से प्राप्त होता है और उसकी आकांक्षा में वह उनकी तरफ ही झुकाव रखता है.और उम्र होने के साथ इन रिस्तों में गहराई भी बढती जाती है जिसकी वजह से अन्य रिस्तों की प्राथमिकतायें द्वितीयक होती चली जाती है.अर्थात कुल मिलाकर देह के स्पर्श का असर रिस्तों को कमजोर भी बनाता है और मजबूत भी बनाता है. हम यह कह सकते है कि यह प्रभावी गुण है जो युवावस्था में सबसे अधिक पाया जाता है.मुखर रूप से पुरुषों में और मौन रूप से स्त्रियों में. वैज्ञानिक रूप से एंडोक्राईनोलाजी के अंतर्गत ग्रंथियों और हार्मोंस का प्रभाव भी इसका वैञानिक पक्ष है.जिसे कोई भी नकार नहीं सकता है.जो इस पक्ष को नहीं मानते है वो दिल के रिस्तों की बनावट को ही समझने में इतना समय निकाल देतें है जिस समय तक रिस्तों की मजबूती भी खतरे में आ जाती है.जो समाज को विधटित कर रहें है.एक तरफ व्यक्तिगत सुख और सुकून है दूसरी तरफ समाजिक सुख.अब बात यहाँ पर आ जाती है कि व्यक्ति से समाज का अस्तित्व बनता है या समाज से व्यक्ति का अस्तित्व .यह बहस का विषय है जिसका निष्कर्ष विचारधारा के अनुरूप अलग अलग होता है.
     मिथकों की बात को यदि एक समय पर किनारे करें तो प्रायोगिक रूप से समाज में नजर डालने में समझ में आता है कि रिस्तों के विघटन का प्रमुख कारण इसी को माना गया है. एकल परिवार की रूपरेखा भी इसी कारक की वजह से निर्मित होती है क्योंकि इससे प्राथमिकता के लिये कोई चयन नहीं करना होता है.प्राईवेसी के लिये भी अन्य रिस्तों से संघर्श नहीं करना पडता है.मै इस बात का समर्थन करता हूँ कि इस प्रयोगिक विवशता को टोडना ही समाज को सही दिशा दे सकता है पर इसके लिये हमें खुद ही प्रयास करना होगा.और कितना समय लगेगा.यह कोई नहीं जानता है.
अनिल अयान,सतना

९४०६७८१०४०