मंगलवार, 22 जुलाई 2014

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनी, वैदिक की पाक यात्रा

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनी, वैदिक की पाक यात्रा
एक सप्ताह से डा वेद प्रकाश वैदिक जी के मिलन प्रसंग को बहुत समय से अवलोकन कर रहा हूँ.उनका पाकिस्तान जाना, नवाज शरीफ ,प्रधान मंत्री पाकिस्तान से मिलना और फिर वहाँ के पत्रकारों के कहने बस से मोस्ट वांटेड हाफिज सईद से मुलाकात कर लेना, मिलकर भारत आने का निमंत्रण दे देना.यह सब इतना ज्यादा आसानी से वो मीडिया को बता रहे थे जैसे उन्होंने बहुत बडा कार्य करके पाकिस्तान से लौटे या ये कहें कि काश्मीर मुद्दा और अन्य समस्याओं का निपटारा करवा कर लौटे हो.और तो और कई न्यूज चैनल के प्रस्तुत करताओं को ऐसे डाँट रहे थे जैसे उन्होने वैदिक जी से सवालात करके देश द्रोह कर दिया हो.और उसके बाद क्या हुआ हम सब जानते है.आज उनके खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर हो गई है.
मै खुद वैदिक जी के बहुत से आलेख पढा हूँ.उनकी विद्वता का कायल रहा हूँ.विषय विशेषज्ञ मानने लगा था.परन्तु इस बार की घटना ने सबके साथ मुझे भी सोचने के लिये मजबूर कर दिया है कि क्या वैदिक जी का हाल अपने मुँह मिया मिट्ठू बनने जैसी हो गई है. और इसी के चलते वो पाकिस्तान में जल्द बाजी में हाफिज सईद से भी मिलने के लिये तैयार हो गये क्योंकि वहाँ के पत्रकारों ने अपने शब्द जाल के मोहपाश में वैदिक जी को मोहित कर लिये थे.वैदिक जी का यात्रा वृतांत और उनके जीवन के महत्वपूर्ण लमहों को उनके मुँह से ही सुनने के बाद लगा कि  वो अति उत्साह वादिता के शिकार थे और इसी का परिणाम रहा है कि वो आज इस हाल में है.उनका हाल कुछ ऐसा हो गया है कि गये थे हरि भजन को और औटन लगे कपास.वो चाहे जितना अपने को राष्ट्र भक्त और सबसे बडा वीवी आई पी व्यक्ति और भारत का नागरिक घोषित कर ले परन्तु उनकी भाषा शैली को सुनने के बाद लगता है कि वो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा करने में लगे है.क्योंकि जो लोग गहरे होते है वो अपना गुणगान नहीं करते है.अतिउत्साहवादिता का परिणाम था कि वो इतना सब कुछ होने के बाद भी वो अपने किये गये कार्य और उसके परिणाम से उठे विवाद का कोई दुख नहीं है वो विदेश मंत्री, विदेश सचिव,और अन्य राजनेताओं को भी गलत मान रहें है.वो अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करते है. पर इस स्वतंत्रता से उठे शैलाब और सुनामी का कोई छोभ तक नहीं है.अपने को पत्रकार मानते है.पर कैसे वो पाकिस्तान के प्रधान मंत्री से मुलाकात की अनुमति भारत से मिली कैसे उन्हें पाकिस्तान भेजने की प्रक्रिया पूरी की गई.क्या यह शासकीय यात्रा थी या व्यक्तिगत यात्रा थी. व्यक्तिगत यात्रा थी तो फिर वहाँ के प्रधान मंत्री से क्या काम था.हाफिज सईद की मुलाकात यदि शासकीय नहीं थी तो उसका वीडियों और पिक्चर क्यों खीची गयी. और यदि व्यक्तिगत थी तो फिर वैदिक जी को व्यक्तिगत क्या काम आन पडा हाफिज शहीद से ,और वो भी तब ,जब प्रधान मंत्री जी ब्रिक्स सम्मेलन में अपनी भागीदारी और अपने देश का परचम लहरा रहा है. कांग्रेस का कोई संबंध नहीं है. आर एस एस का कोई  संबंध नही है. विवेका नंद फाउंडेशन से उनका कोई नाता नहीं है. तो भी इतने झूठ क्यों बोले गये जो साफ साफ जनता और मीडिया के पकड में आगये.अपने को राष्ट्र वादी और प्रसिद्ध पत्रकार का राग अलापने वाले वैदिक जी को काश्मीर को आजाद करवाने और हाफिज शहीद को भारत में न्योता देने का अधिकार किसने दिया था. कुछ ये ऐसे प्रश्न है जिसका जवाब ना वैदिक जी के पास है और ना ही भारत की सरकार के पास.
इन सवालों के जवाब ही निर्णय तक पहुँचा सकते है कि वैदिक जी कैसे है. वैसे ,जैसे वो अपने विचारों के माध्यम से आम जनता को अखबारों में नजर आते है. या फिर वैसे ,जैसे वो इस धमाचैकडी मचाने के बाद टीवी चैनलों में हम सब को दिख रहे है. जिस हाफिज सईद के लिये देश की सेना पाकिस्तान से युद्ध के लिये तैयार है.जिसके लिये रक्षा मंत्रालय अपने दांव पेच आजमा रहा है. भारत के शहीदों के परिवारों के लिये वो सबसे बडा जानी दुश्मन है.भारत सरकार जिसके लिये पाकिस्तान से कोई समझौता करने के लिये कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं है.उससे मिलना और मिलकर भारत आने का निमंत्रण दे देना.और तो और काश्मीर को पाक को आजाद करके सौंप देने की घोषणा करके आना. देश द्रोह नहीं तो और क्या है.  वैदिक जी विद्वता का नकाब ओढ कर पत्रकारिता का घोषणा पत्र लिये अतिउत्साह वादिता की सजा भोग रहे है.और इस बात की सजा भी मिलनी चाहिये क्योंकि उन्होने भारत की सरकार की अनुमति के बिना दुश्मन देश से गये वहाँ पर देश के सबसे बडे आतंकी अपराधी से मेल मिलाप कर अपने देश में उसकी पैरवी कर रहे है.मै इतना जानता हूँ .भारत की जगह कोई और देश होता तो काफिर करार कर सिर कलम कर दिया गया होता.इस प्रकार के बहुत से उदाहरण अरब देशों में मौजूद है.हमारी उदारवादिता और हमारी स्वतंत्रता देश की रक्षा व्यवस्था से बढकर नहीं हो सकती है.इस बात को वैदिक जी और उन जैसे लोगों को स्वतः ही समझ लेना चाहिये.
अनिल अयान.सतना

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

छिडा घमासान,धर्म व आस्था में कौन महान


छिडा घमासान,धर्म व आस्था में कौन महान
बहुत दिनों से वैचारिक कुरुक्षेत्र का जीताजागता उद्धरण देखने को  मिल रहा है.और उसका परिणाम यह है कि संवादों से विवादों का उदय हो रहा है. नित नूतन वाक युद्ध से आस्थाये और धर्म आहत हो रहे है. वाकयुद्ध के प्रहार इतने तगडे है कि इनकी आँच धर्मावलंबियों, धर्मशास्त्रियों और तो और भक्तों में भी दिख रही है.मामला सिर्फ इतना सा है कि धर्म की भक्ति पुरातन काल से चली आरही है परन्तु इसमें आस्था का केंद्र बिंदु परिवर्तित होने से धर्मगुरु खिन्न हो गये है.और वाकयुद्ध का प्रारंभ जाने अनजाने ही हो गया है.आपत्ति जनक संवाद किये जारहे है. आस्थायें और भक्ति दोनो ही परिचर्चाओं के घेरे में खडी हो गई है.यहाँ तक की अदालत तक का दरवाजा खटखटाना पडा है.साई बाबा भक्तों और सनातन धर्म गुरु शंकराचार्य के बीच का विवाद का कुछ परिणाम निकलने की संभावना अब कम नजर आ रही है
      सवाल कुछ भी हो ,सब परिस्थितियों का खेल नजर आता है. इतने वर्षों से मौन धारण करके रखना और अचानक इस तरह के संवेदनशील विषय पर वैचारिक और वाक युद्ध की स्थिति निर्मित करने का श्रेय धर्मगुरु को ही दिया जा सकता है.क्योंकि उनके ही बयान से यह स्थिति निर्मित हुई है.शिरडी की साई पीठ को अपने बयान में शामिल करना उनके आय व्यय के बारे में प्रश्न चिन्ह खडा करना,साई भक्तों को हिंदू देवी देवताओं की पूजा ना करके अपमान करने का श्रेय देना और तो और साई बाबा के धर्म को मुस्लिम धर्म की श्रेणी में लाना कहीं ना कहीं अराजकता को भी बढावा देने जैसा ही था.सनातन धर्म को मानने वाले किसी तरह के राग अलापने के मुहताज नहीं होते है.और किसी के कहने पर कोई अपनी पूजा अर्चना करना  नहीं बदल सकता है और ना ही छोड सकता है.हम सब जानते है कि हिन्दू धर्म नहीं बल्कि वैदिक कालीन परंपरा है जिसका असर हर भारतवासी के मन में है.इस परंपरा को हिंददेश में रहने वाला बखूबी जानता है.उसके प्रचार प्रसार या विज्ञापन के दम पर मजबूत नहीं किया जा सकता है.एक शेर याद आ रहा है.
      यूनान मिश्र रोमा सब मिट गये जहाँ से
      क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
हम सब जिस धर्म के अनुयायी है उसी धर्म को मानते हुये अन्य धर्मों का आदर करने की विरासत हमें अपने पूर्वजों से मिली है. परन्तु इस तरह  का वाकयुद्ध हमारी इस विरासत को छिन्न भिन्न करती है.संविधान में भी हमारे मौलिक अधिकारों में अपनी आस्था के अनुरूप धार्मिक अनुष्ठान करने और पूजा अर्चना करने का अधिकार प्राप्त है बशर्ते उससे अन्य लोगो की भावनाओं को ठेस न पहुँचे. कोई भी धर्म गुरु अपने प्रभाव से किसी भी व्यक्ति को यह बाध्य नहीं कर सकता है कि वो देवी देवताओं को यदि मानेगा तो उसे साई बाबा के दर में जाने और उनकी पूजा करने से परहेज करना होगा. क्योकि आस्था रक्त की तरह हमारी धमनियों में बहती है वो किसी भी उत्प्रेरक से प्रभावित होकर अपना बहाव बंद नहीं कर सकती है और ना ही दिशा बदल सकती है. हिंदू धर्म में ही हम अपने गुरु बाबा,कुल गुरुओ,और संतो का आदर करते है.पूजा करते है उन्हें भगवान का दर्जा देते है.देवभाषा संस्कृत में भी कई शुभाषित श्लोको में भी इस बात का जिक्र मिलता है और हम अपनी अगली पीढी को सिखाते है.क्या यह सब मिथ्या है या सिर्फ आदर्शवादी बातें ही है.जब हम अपने आसपास देखते है तो बहुत से ऐसे हिंदू धर्म के लोग है जो कभी चर्च में प्रेयर में शामिल होते है ,कभी गुरुद्वारे में अरदास में शामिल होते है और रोजा में मुस्लिम भाईयों के साथ रमजान  का हिस्सा बनते है. तो क्या धर्म गुरुओं के अनुसार इनको हिंदू धर्म से बहिस्कृत कर देना चाहिये क्योंकि ये हिन्दू देवी देवताओं के अलावा अन्य धर्म स्थलों में शामिल हो रहें है.शायद यह संभव नहीं है हिंदू धर्म इतना कट्टर नहीं है.कि इन लोगों का सिर कलम कर दिया जाये.यह विवाद सिर्फ अनुयाइयों को बरगलाने का एक प्रयास के अलावा कुछ नहीं है.
      यदि कोई भक्त शिरडी में जाकर किलो सोना भेंट करता है पूजा अर्चना करता है तो धर्मावलंबियों को इस बात का दुख नहीं होना चाहिये.शंकराचार्य जी सभी भारतवासियों के लिये सम्मान के पात्र है.परन्तु यह भी तय है कि वो इस तरह के बयान देकर वो इस सम्मान को कम कर रहें है.साई बाबा संत हो ,फकीर हो,या फिर कुछ और हो,उनकी पूजा करना किसी की आस्था का प्रश्न है आस्था पर प्रहार करना किसी धर्म के गुरु का दायित्व नहीं है.उनके अलावा उनके मठ के कई लोगों के यही बयान भी है कि सबको अपनी आस्था के अनुरूप पूजा अर्चना करने अधिकार है.और हम किसी को पूजा अर्चना करने के लिये बाध्य नहीं कर सकते है. साई बाबा है या ईश्वर ,उनके चमत्कार का कोई सबूत है या नहीं है.दस्तावेज है या नहीं है यह सब ऐसे प्रश्न है जिसका संबंध हिंदू धर्म ग्रंथों से भी उतना ही है.हमने ना भगवान देखा है और ना ही साई बाबा को परन्तु अपनी अपनी अभिरुचि के अनुसार किसी ना किसी देवी देवता और साई बाबा की पूजा करते है. मेरे यहाँ खुद दोनो की एक स्थान पर मूर्ति रख पूजा की जाती है. एक और बात आपसे कहना चाहता हूँ कि एक दोहा है.
      गुरु गोविंद दोऊ खडे काके लागो पाय
      बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय
इस में तो गुरु की चरण वंदना करने का निर्देश भगवान श्री कृष्ण ने खुद कवि को दिया ,तब हर गुरु की पूजा करने वाला भक्त,माता पिता की पूजा करने वाला पुत्र,सब हिंदू धर्म का अपमान कर रहें है.सबको इस धर्म से बहिष्कृत कर देना चाहिये.शकराचार्य जी के अनुसार तो ऐसा ही किया जाना एक मात्र रास्ता है हिंदू धर्म को कालजयी बनाने के लिये.उधर साई सेवा ट्रस्ट का माने तो यह सब खेल ट्रस्ट में ट्रस्टी बनने के लिये सरकार के कुछ सदस्यों की नियुक्ति के माध्यम से अपने प्रमुख और खास लोगों को उस स्थान पर बैठाने के लिये है. यथा संभव ट्रस्ट के द्वारा आमदनी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये यह सब वाककुरुक्षेत्र जारी है.वर्ना यह सब अभी तक प्रारंभ भी नहीं हुआ था.अचानक शंकराचार्य जी को क्या सूझा कि वो इतने उग्र हो उठे अभी तक वो  साई पूजा नामक चाय में पडी मक्खी को आंख बंद कर निगलते रहे.इस सवाल का फिर हाल कोई जवाब हमारे धर्म गुरु के नहीं है.इतने दिनों के घटना क्रम में ट्रस्ट ने हर सवाल का जवाब दिया है.परन्तु धर्म गुरु की तरफ से सवालो के लिये चुप्पी कहीं ना कहीं उनके ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाती है. और सोचने के लिये मजबूर करती है कि कहीं इस वाक युद का एक मात्र उद्देश्य धर्म और आस्था का सहारा लेकर ट्रस्ट के लाभ को अपने नाम करना तो नहीं है. खैर कुछ भी हो परन्तु  जैसा कि मैने प्रारंभ में कहा था कि धर्म आस्था में कोई भी महान नहीं हो सकता धर्म से आस्था उसी तरह से मिली हुई है जैसे हवा में इत्र की खुशबू.इस लिये सनातन धर्म को धर्मगुरु अदालत और बहस का मुद्दा ना बनाये.और किसी को धर्म से दखल करने,बाध्य करने का ऐलान उनहें नहीं करना चाहिये.क्योंकि भक्ति और आस्था बाध्यता का मुद्दा नही वरन हृदय की आंतरिक और वैचारिक समझ का विषय है. इस तरह के विवाद समाज में अराजकता और धर्म निरपेक्षता को तार तार करने के लिये कदम होते है.अपने लाभ के लिये धर्म आस्था शास्त्र और भक्ति को शस्त्र बनाना यथोचित नहीं है.
अनिल अयान.सतना.
९४०६७८१०४०

शनिवार, 5 जुलाई 2014

व्यापम घोटाले,नखडे निराले,कौन सम्हाले.


व्यापम घोटाले,नखडे निराले,कौन सम्हाले.
जब हम अपने विद्यालय में पढते थे तो हमें हमारे मास्टर साहब ने सिखाया था कि सफलता का कभी भी कोई शार्टकट नहीं होता है.और जो शार्टकट खोजने की कोशिश करता है. कभी ना कभी उसे पकड ही लिया जाता है.और वह मुँह की खाता है.कभी भी सफल होने के लिये शार्ट कट नहीं खोजना चाहिये क्योकि जब गले में फंदा फसता है तो कोई माई बाप काम नहीं आता है.पर जब हम अपनी महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिये जोर जुगाड से पद ,या फिर,प्रवेश पाना चाहता है तो वह जुगाड ही उनके लिये सजा की राह खोल देता है. और हमारे मध्य प्रदेश में व्यापमं का जो फर्जीवाडा और घोटाला सामने आया है वह इस प्रदेश की बनी बनाई इमेज को मिट्टी पलीत करने में लगा हुआ है.
व्यापमं का गठन इसलिये मध्यप्रदेश उच्च शिक्षा मंत्रालय में किया गया था कि ताकि आयोजित होने वाली प्रवेश परीक्षाओं और अन्य व्यावसायिक रोजगार के लिये परिक्षाओं को नियमित रूप से निगमन किया जा सके. कई सालों इस संगठन की कार्य प्रणाली बहुत सही और सहज तरीके से चल रही थी.परन्तु जिस प्रकार यह पीएमटी घोटाला और अन्य परीक्षाओं से संबंधित घोटालों से यह परदा हटा है वह व्यापमं से जुडे हुये लोगों की कार्यप्रणाली को संधिग्ध बना दिया है.इस प्रकार के घोटाले परीक्षाओं में शामिल होने वाले विद्यार्थियों और उनके परिवारों को सामाजिक प्रतिष्ठा से संबंधित खतरों से घेर लिया है.जो विद्यार्थी इससे बचकर भी परीक्षा दिये थे वो भी शक के घेरे में आ गये है.सबकी पेशी एस.टी.एफ. की जाँच के घेरे आगये है.बच्चों के भविष्य के साथ उनके माता पिता या रिस्तेदारों ने जिस जोर जुगाड का इस्तेमाल करके,रुपया पैसा खर्च करके गैरकानूनी तरीके से कालेज में दाखिला दिला कर डाँक्टर बनने का ख्याली पोलाव पका रहे थे वो सब धरासायी हो गये है.और सब एक दूसरे का चेहरा देखकर इस मुसीबत से बचने का रास्ता खोजने में लगे हुये है.वही सीख जो हमारे मास्टर साहब ने हमें सिखाया था वह इस सब लोगों पर भी लागू होता है.परन्तु ये सब रुपये पैसे ,जोड जुगाड,और पहुँच का इस्तेमाल करके इसी सफलता के शार्ट कट में चलने का दंश और सजा भोग रहे है.
पीएमटी घोटाले,अभी आयोजित हुये आयुर्वेदिक डाक्टर की परीक्षाओं का निरस्त हो जाने जैसी घटनाओं से व्यापमं की छवि धूमिल कर दिया है.पर इस तरह के घोटालों से यदि राजनीतिज्ञ का कैरियर समाप्त हो जाता है उससे कहीं ज्यादा बेखबर नौजवानों का भविष्य चौपट हो जाता है.चारा घोटाला,थ्री जी घोटाला,कोयला घोटाला,जैसे घोटाले तो किसी युवा के कैरियर से खिलवाड नहीं करता है परन्तु इस तरह के घोटाले से शिक्षा और रोजगार के गोरखधंधे की अनायास ही नींव रख चुकी है. आज के समय पर रोजगार के प्रति युवाओं की अति महत्वाकांक्षा का ही परिणाम है कि इस तरह के घोटालों को भरण पोषण मिल रहा है.घोटालों से ही समाज में सरकार और विरोधियों के बीच में सरकार को खामोश होना पडता है.और अपने भविष्य के प्रति अति जागरुक होना पडता है.प्रमुख मुद्दा यह है कि क्या व्यापम से आयोजित होने वाली अन्य परीक्षाओं का भी यही अंजाम होने वाला है क्या और भी अभ्यर्थी इस जाल के शिकार हो जायेंगें.और अपने भविष्य की बलि दे देगें. अब फैसला हमें करना होगा कि अपने आने वाले युवाओं को हम किस राह में ले जाना चाहते है. अपने आस पास से यह शुरुआत करनी होगी.अपनी आगे वाली पीढी को यह समझाना ही होगा कि यदि हमे पर्मानेंट सफलता चाहिये तो शार्टकट रास्ते में पेपर पता करना,कापी बनवाना,नंबर बढवाना अदि कामों के लिये इफरात रुपये माफियाओं को सौंपते है और अपनी गर्दन को भी अनजाने सौंप देते है इसलिये जरूरी है कि आने वाली पीढी को इस जहर से बचाना ही उद्देश्य होना चाहिये. रही बात घोटालों की तो वह तो देश के विकास में कलंक राजनेता के द्वारा लगा ही दिये जायेंगें.यह तो सरकार ही रोक सकती है.
इतिहास गवाह रहा है कि घोटालों का लंबा अध्याय है जब इस पर से पर्दा हटा है तब आरोपी पकडे गये है वर्ना रामराज्य  मना रहे घोटाले बाजों की चाँदी हमेशा रही है.मध्य प्रदेश में विगत पाँच वर्षों में इस प्रकार के घोटाले का खुलना और फर्जीवाडे का पर्दाफास होना कहीं ना कहीं जनता और नागरिकों की उम्मीदों की हत्या की तरह है. सरकार को चाहिये कि इस तरह के लोगों के खिलाफ कडे से कडा कदम उठाये.और इस तरह के अधिकारियों की छुट्टी करके कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति करे.इस घोटालों में हिंदूवादी संगठनों के कथित रूप से कार्यकर्ताओं का आना भी इन संगठनों की भूमिका को समाज में संदिग्ध बनाती है.जाँच का जारी रहने तक इन कुसूरवारों को जीवन दान है जाँच समाप्त होने के बाद सभी संबंधित लोगों  का अपने क्षेत्र में कैरियर इस लिये समाप्त हो जायेगा. परन्तु इस तरह के घोटालों का केंद्र वो सब लोग और अतिमहत्वाकांक्षायुक्त मजबूरी है जिसकी वजह से वो समाज में सफलता और सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने के लिये शार्टकट अपनाने के लिये मजबूर होते है. इस लिये जो रास्ता लंबा है उस रास्ते में चल कर मंजिलों को तलाशिये ना कि शार्टकट तरीके से घोटालेबाजों के हाथ का खिलौना बनिये.अब जाँच ही बतायेगी कि कितनी परीक्षाओं की पोल खुलेगी और कितने लोग जेल में सजा काटेंगें.

अनिल अयान,सतना.
९४०६७८१०४०

पढाई के बोझ तले बचपन की खोज.


पढाई के बोझ तले बचपन की खोज.

जब मै शिक्षा महाविद्यालय में बाल मनोविज्ञान का अध्यापन किया करता था तब शिक्षाशास्त्र के विद्यार्थियों को यह बताया जाता था कि बच्चे को करके सीखने का अवसर दिया जाना चाहिये.या फिर बालकेंद्रित शिक्षा को बढाना चाहिये. जिसमें एक एस का मतलब स्टूडेंट,दूसरे एस का मतलब सेलेबस,तीसरे एस का मतलब,स्कूल,और बीच में टी अर्थात टीचर. महात्मा गाँधी ने थ्री एच का सिद्धांत दिया था. जिसमें बच्चें को समाजोपयोगी शिक्षा और स्वामी विवेकानंद ने मानव निर्माण की शिक्षा का जिक्र किया है.आज के इंगलिशमीडियम के विद्यालयों में बच्चों से अधिक उनके पैरेंट्स मेहनत करते नजर आते है.
परन्तु आज के समय बच्चों को सिर्फ ट्रेनिंग दी जारही है.सिर्फ इसलिये ताकि वो परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करके सिर्फ ग्रेड हासिल कर सके.दो दशक गुजरने के बाद आज हम जहाँ खडे हुये है उस जगह में सिर्फ पैरेंट्स को ब्रांड नेम के पीछे दौडाया जारहा है.और पैरेंट्स भी आँख बंद करके इन विद्यालयों में विश्वास करके उनके भविष्य को एक कलमघिस्सू बनाने में खुद ही बच्चों को शिक्षा के कारखाने में मजदूर बनने के लिये झोंक देते है.आज के हालात यह है कि स्कूल के शुरू होते ही सबसे ज्यादा चिंता बच्चों को यह होती है कि गर्मी में मिले प्रोजेक्ट पूरा कैसे किया जाये.इस चिंता को बढाने का काम खुद बच्चों के पैरेंट्स करते है.पूरी गर्मी की छुट्टियाँ सिर्फ स्कूलों के द्वारा मिला हुआ प्रोजेक्ट पूरा करने में व्यतीत होने के बाद भी यह पूरा होने का नाम ही नहीं लेता है. किसी भी पैरेंट्स की इतनी हिम्मत नहीं होती है कि वो स्कूल से यह सवाल कर सके कि छोटे बच्चों को इस तरह के प्रोजेक्ट देने से क्या लाभ जिनका अधिक्तर काम उनके माता पिता के द्वारा पूरा किया जाता है.वो भी सिर्फ इसलिये किया जाता है क्योंकि उनके बच्चे की कक्षा में अच्छी पोजीशन बनी रहे. .पर इस परिस्थिति में हर नन्हा मुन्हा बच्चा अपनी पढाई पर दिन रात रोता है.उसे खेलने कूदने के लिये भी अपने माता पिता से भीख मांगना पडता है.जैसे मजदूर अपने मालिक से गिडगिडाता है पर उसे निराशा ही हाथ लगती है.
पाँचवी तक बच्चों को सिर्फ ऐसे ही पास नहीं किया जाता था.बच्चों से मेहनत करायी जाती है.और परिणाम यह होता था कि पैरेंट्स को अच्छा रिजल्ट मिलता था.किताबों में बच्चों को बोझ नहीं महसूस होता था. बस्तों का बोझ भी बहुत कम होता था.गर्मी में दो महीने की छुट्टी भी मिलती थी. और जब जुलाई से स्कूल शुरू होता था तो उनके चेहरे में मुस्कान होती थी.और सबसे बडी बात स्कूल में पढाई के घंटे भी कम हुआ करते थे.पैरेंट्स के जेब पर डाँका भी नहीं पडता था.पर आज दो दशक के बाद विद्यालय शिक्षा उद्योगों में बदल गये है. बस्तों का बोझ किसी पल्ले दार के बोरे से कम नहीं है. बच्चों के बीच में कम बल्कि उनके पैरेंट्स में अधिक काप्टीशन होता है ताकि उनके बच्चे से उनका नाम समाज में कम ना हो जाये.बच्चों को हर तरफ का विकास करने केलिये तीन चार ट्यूशन दिलाये जाते है.स्कूल से ज्यादा फीस ट्यूशन वाले ले जाते है. बच्चों को प्रोजेक्ट से ज्ञान मिला हो या ना मिला हो पर बच्चों की माँओं को अपने पढाई के दिन याद जरूर आ जाते है.इन विद्यालयों में शिक्षा का अधिकार अपने लाचार होने पर चींखता रहता है. विद्यालयों की फीस में बहुत सा भाग अप्रत्यक्ष रूप से छिपा होता है.
बाल केद्रित शिक्षा,करके सीखना,और मानव निर्माण की शिक्षा,जैसे विचार और नीतियाँ अब सिर्फ शिक्षा शास्त्र की किताबों में गुम हो गयी है.सीसीई पद्धति पर बच्चों का ऐकेडमिक विकास शून्य हो जाता है.बच्चों में पासिंग प्रतिशत तो बढ जाता है पर प्रतियोगी परीक्षाओं में उनका परिणाम औसत से भी कम होता है.आज के समय की माँग है कि बच्चों को स्किलफुल बनाया जाये.ना कि कोर्स को रटा कर परीक्षा पास करने के ट्रेंड किया जाये.इसके लिये सरकार,शिक्षा विशेषज्ञो,और शिक्षा अनुसंधान परिषद को कदम बढाना ही होगा. आज के समय के पैरेंट्स को अपनी अपेक्षाये सीमित करनी चाहिये.बच्चों को अपनी आयु और समय के अनुसार विकास करने का अवसर देना चाहिये.वर्ना हम सब जानते है कि यदि अंकुरित बीज को किसान ज्यादा खाद,पानी देता है तो फसल की उपज बोये गये बीज के बराबर भी नहीं हो पाती है. आइये बच्चों को एक स्वस्थ वातावरण पढाई के लिये दें ना कि उन्हें मजदूर या रोबोट बनाकर अपनी अपेक्षाओं को उन पर लादें.निर्णय हम सब को लेना है कि हम बच्चों को ज्ञान देना चाहते है या मानसिक मजदूरी करवाना चाहते है.

अनिल अयान,सतना.
९४०६७८१०४०
 

मँहगाई का पैगाम,मोहि कहाँ विश्राम

मँहगाई का पैगाम,मोहि कहाँ विश्राम
१८५७ से प्रारंभ हुई भारतीय रेल सेवा का यह वर्ष सुरसा की तरह अपना मुँह खोले आम  जनता को निगलने के लिये उत्साहित नजर आरहा है.और यह अवसर है जब बिना रेल बजट के किराये भाडे में उम्मीद से अधिक वृद्धि करना.१४.२ प्रतिशत किराये में वृद्धि और ६.५ प्रतिशत माल भाडे में वृद्धि ने जनता और सत्ता को झकझोर कर रख दिया है.मोदी सरकार के द्वारा बढाए गयी दरों को यह कह कर बचाव किया जा रहा है कि देश को पुराने किराये भाडे से हर दिन ९०० करोड का आर्थिक बोझ देश पर पड रहा था.और इस फैसले से ८ करोड प्रतिदिन का अतिरिक्त बोझ कम होगा. सरकार का यह कहना कि यह वृद्धि यूपीए सरकार के द्वारा ही लागू की जा चुकी थी.हमने सिर्फ उसे लागू किया है. ऐसा लगा कि उन्होने उत्तराधिकार का भरपूर उपयोग कर जनता का खून जोंक की तरह चूसने की परंपरा का निर्वहन किया है.रेल सेवा का मँहगा होना यातायात,परिवहन और आवागमन को आम जन की जेब से कहीं ज्यादा दूर कर दिया है.सरकार के द्वारा बजट सत्र का इंतजार ना कर पाने का कार्य और अनर्गल प्रलाप करके अपनी जिम्मेवारियों और वादों के प्रति विस्मरण भी कहीं ना कहीं आम जन के गले से नींचे नहीं उतर रहा है.विपक्षी दलों के लिये ही भले ही यह कुम्भकर्णी नींद से जागने वाले छण की तरह हो जो उन्हें राजनीति में पुनः सुबह की बेला की तरह एहसास करवा रहा है.पर उनका इन सब से वास्तविक रूप में कोई लेना देना नहीं है.ना उन्हें मँहगाई से कोई लेनादेना है और ना ही किराये भाडे से.वो तो इसमे भी वोट फैक्ट्री का नया दरवाजा बनाने की सोच रख रहें है.

किराया वृद्धि और भाडे में बढोत्तरी के घटाने के पक्ष में मै नहीं हूँ पर इस कदर से एकदम फर्श से अर्श तक पहुँचा देना जनता और औसतन रूप से लोगों की जेब में डाँका डालने से कम भी नहीं है. दोगला चरित्र दिखाने वाले जन प्रतिनिधि विपक्ष में बैठने पर बढोत्तरी की तीखी आलोचना करते है और अब सत्ता में है तो अमृत का रूप देकर रेल मंत्रालय के विकास  लबादा उठा कर कर्मचारियों की सहानुभूति लेकर जनता को पिलाना चाहते है.इस तरह की परिस्थितियों में जनता की आवश्यकता को बट्टा ही लगा है.बेबस जनता को हर सामान जिसका परिवहन रेल मंत्रालय के द्वारा किया जाता है मँहगा ही मिलेगा.यह तो प्रस्तावना है मँहगाई की अभी तो आम बजट और रेल बजट का आना बाकी है.एनडीए सरकार के अच्छे दिन की प्रस्तावना इस तरह से जनता को प्रथम उपहार के रूप में मिलेगी. इसके बारे में मध्यमवर्गीय और सर्वहारा वर्ग के लोग सोचे भी नहीं थे. सरकार के इतने दिन होने को आये है परन्तु अभी तक आम जन के पक्ष में सिर्फ वादे ही हुये है.इसका कार्य रूप में रूपांतरण अब तक तो नहीं हुआ है.और पहला निर्णय भी आया तो आर्थिक सुनामी लाकर पूरे देश में रख दिया है.कुछ वर्ष पहले एक फिल्म आई थी पीपली लाइव,जिसका एक गीत था. मँहगाई डायन खाये जात है. तो क्या इस डायन को पोषण का कार्य मोदी सरकार कर रही है.यदि आम जनता की जेब पर डाँका डाल कर ही मँहगाई को बढाने के लिये कदम उठाये जायेंगे तो जनता के द्वारा किये गये सत्ता परिवर्तन का परिणाम बहुत दुखद होगा.क्योंकि जनता के सामने मँहगाई चिल्लाते हुये कह रही है कि रोक सको तो रोक लो मोहि कहाँ विश्राम.१९८९ में बने रेलवे एक्ट में बदलाव की आवश्यकता है जिसके अंतर्गत रेलवे डेवलेपमेंट अथारटी को स्वायत्ता पर गंभीरता से विचार और विमर्श करना होगा.

हम सब जानते है कि भाडे से हर सामान मँहगा होगा, अमीर और अमीर होते चले जायेंगे और  गरीब तथा मध्यम वर्गीय जनता और गरीब होती चली जायेगी.और अर्थशास्त्र के अनुसार माँग बढेगी ,बाजार में आपूर्ति इस लिये कम हो जायेगी क्योंकि विभिन्न टैक्स से सामान मँहगा होगा . यह कदम  कालाबाजारी के लिये भी व्यवसाइयों को नई राह खोल दिया है.कुल मिला कर मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भी जनता को अप्रत्यक्ष रूप से कडा संघर्ष करना होगा.क्योंकि जब बजट जनता के सामने आयेगा तो सरकार इसी भाडे से उत्पन्न मँहगाई की दुहाई देकर पल्ला झाड लेगी. अभी भी २५ जून के लिये समय है. हम सब जानते है कि किराये का बजट से कोई ज्यादा संबंध नहीं है. यदि हमारा रेल मंत्रालय गरीब हो गया है. और संकट में है तो उसे और अधिक बजट मिलना चाहिये.राज्यों  से मदद लेना चाहिये. ना कि जनता के आवागमन और दैनिक उपयोग के सामान के भाडे में बढोत्तरी कर कमर टॊड देना चाहिये.नई सरकार से बहुत उम्मीदे है मतदाताओं को.इस तरह के तात्कालिक निर्णय कहीं ना कहीं सरकार के पंचवर्षीय रिपोर्टकार्ड में लाल चिन्ह लगा सकते है, २५ जून के पहले यदि जनता को कारगर छूट मिलती है तो कुछ तो जेब को राहत मिलेगी.वरना मँहगाई डायन अपने भोजन में रेल की गति से आम जनता का सुकून और विकास निगलती रहेगी.जनता को जिस नारे के तहत अच्छे दिन आने वाले है के स्वप्न लोक में सरकार ने बैठाया हुआ है उस लोक से हर परिस्थिति में जनता को सरकार से अपने पक्ष में निर्णयों की उम्मीद है और यदि अपेक्षायें अधिक की जाने लगे तो पूरी होने पर सरकार को जितना लाभ होगा,वहीं दूसरी ओर ना पूरी होने पर सरकार अधिक हानि होगी क्योंकि यह पब्लिक है यह सब जानती है सबका हिसाब रखती है और निर्णय समय आने पर जब देती है तो राजनैतिक पार्टियों के रोंगटे खडे नजर आते है.जनता को सीधी बातें जल्दी समझ में आती हैं. अर्थशास्त्र,विकास दर,मुद्रा स्फीति दर आदि परिभाषाये और दलीलें जनता की सोच से परे है. सरकार को अब यह सोचना होगा कि उसके वादे और विकास  मंत्र किस तरह जनता को संतुष्ट करते है और मँहगाई से निजात दिलाते है.
अंत में
मँहगाई को देख कर जनता हुई अधीर.
अच्छे दिन के पहले ही बढ गई है पीर.
भाडे से मँहगा हुआ जरूरत का हर सामान.
किराये ने धीमा किया आगमन और प्रस्थान.


अनिल अयान,
सतना, म.प्र.
९४०६७८१०४०