शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

छिडा घमासान,धर्म व आस्था में कौन महान


छिडा घमासान,धर्म व आस्था में कौन महान
बहुत दिनों से वैचारिक कुरुक्षेत्र का जीताजागता उद्धरण देखने को  मिल रहा है.और उसका परिणाम यह है कि संवादों से विवादों का उदय हो रहा है. नित नूतन वाक युद्ध से आस्थाये और धर्म आहत हो रहे है. वाकयुद्ध के प्रहार इतने तगडे है कि इनकी आँच धर्मावलंबियों, धर्मशास्त्रियों और तो और भक्तों में भी दिख रही है.मामला सिर्फ इतना सा है कि धर्म की भक्ति पुरातन काल से चली आरही है परन्तु इसमें आस्था का केंद्र बिंदु परिवर्तित होने से धर्मगुरु खिन्न हो गये है.और वाकयुद्ध का प्रारंभ जाने अनजाने ही हो गया है.आपत्ति जनक संवाद किये जारहे है. आस्थायें और भक्ति दोनो ही परिचर्चाओं के घेरे में खडी हो गई है.यहाँ तक की अदालत तक का दरवाजा खटखटाना पडा है.साई बाबा भक्तों और सनातन धर्म गुरु शंकराचार्य के बीच का विवाद का कुछ परिणाम निकलने की संभावना अब कम नजर आ रही है
      सवाल कुछ भी हो ,सब परिस्थितियों का खेल नजर आता है. इतने वर्षों से मौन धारण करके रखना और अचानक इस तरह के संवेदनशील विषय पर वैचारिक और वाक युद्ध की स्थिति निर्मित करने का श्रेय धर्मगुरु को ही दिया जा सकता है.क्योंकि उनके ही बयान से यह स्थिति निर्मित हुई है.शिरडी की साई पीठ को अपने बयान में शामिल करना उनके आय व्यय के बारे में प्रश्न चिन्ह खडा करना,साई भक्तों को हिंदू देवी देवताओं की पूजा ना करके अपमान करने का श्रेय देना और तो और साई बाबा के धर्म को मुस्लिम धर्म की श्रेणी में लाना कहीं ना कहीं अराजकता को भी बढावा देने जैसा ही था.सनातन धर्म को मानने वाले किसी तरह के राग अलापने के मुहताज नहीं होते है.और किसी के कहने पर कोई अपनी पूजा अर्चना करना  नहीं बदल सकता है और ना ही छोड सकता है.हम सब जानते है कि हिन्दू धर्म नहीं बल्कि वैदिक कालीन परंपरा है जिसका असर हर भारतवासी के मन में है.इस परंपरा को हिंददेश में रहने वाला बखूबी जानता है.उसके प्रचार प्रसार या विज्ञापन के दम पर मजबूत नहीं किया जा सकता है.एक शेर याद आ रहा है.
      यूनान मिश्र रोमा सब मिट गये जहाँ से
      क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
हम सब जिस धर्म के अनुयायी है उसी धर्म को मानते हुये अन्य धर्मों का आदर करने की विरासत हमें अपने पूर्वजों से मिली है. परन्तु इस तरह  का वाकयुद्ध हमारी इस विरासत को छिन्न भिन्न करती है.संविधान में भी हमारे मौलिक अधिकारों में अपनी आस्था के अनुरूप धार्मिक अनुष्ठान करने और पूजा अर्चना करने का अधिकार प्राप्त है बशर्ते उससे अन्य लोगो की भावनाओं को ठेस न पहुँचे. कोई भी धर्म गुरु अपने प्रभाव से किसी भी व्यक्ति को यह बाध्य नहीं कर सकता है कि वो देवी देवताओं को यदि मानेगा तो उसे साई बाबा के दर में जाने और उनकी पूजा करने से परहेज करना होगा. क्योकि आस्था रक्त की तरह हमारी धमनियों में बहती है वो किसी भी उत्प्रेरक से प्रभावित होकर अपना बहाव बंद नहीं कर सकती है और ना ही दिशा बदल सकती है. हिंदू धर्म में ही हम अपने गुरु बाबा,कुल गुरुओ,और संतो का आदर करते है.पूजा करते है उन्हें भगवान का दर्जा देते है.देवभाषा संस्कृत में भी कई शुभाषित श्लोको में भी इस बात का जिक्र मिलता है और हम अपनी अगली पीढी को सिखाते है.क्या यह सब मिथ्या है या सिर्फ आदर्शवादी बातें ही है.जब हम अपने आसपास देखते है तो बहुत से ऐसे हिंदू धर्म के लोग है जो कभी चर्च में प्रेयर में शामिल होते है ,कभी गुरुद्वारे में अरदास में शामिल होते है और रोजा में मुस्लिम भाईयों के साथ रमजान  का हिस्सा बनते है. तो क्या धर्म गुरुओं के अनुसार इनको हिंदू धर्म से बहिस्कृत कर देना चाहिये क्योंकि ये हिन्दू देवी देवताओं के अलावा अन्य धर्म स्थलों में शामिल हो रहें है.शायद यह संभव नहीं है हिंदू धर्म इतना कट्टर नहीं है.कि इन लोगों का सिर कलम कर दिया जाये.यह विवाद सिर्फ अनुयाइयों को बरगलाने का एक प्रयास के अलावा कुछ नहीं है.
      यदि कोई भक्त शिरडी में जाकर किलो सोना भेंट करता है पूजा अर्चना करता है तो धर्मावलंबियों को इस बात का दुख नहीं होना चाहिये.शंकराचार्य जी सभी भारतवासियों के लिये सम्मान के पात्र है.परन्तु यह भी तय है कि वो इस तरह के बयान देकर वो इस सम्मान को कम कर रहें है.साई बाबा संत हो ,फकीर हो,या फिर कुछ और हो,उनकी पूजा करना किसी की आस्था का प्रश्न है आस्था पर प्रहार करना किसी धर्म के गुरु का दायित्व नहीं है.उनके अलावा उनके मठ के कई लोगों के यही बयान भी है कि सबको अपनी आस्था के अनुरूप पूजा अर्चना करने अधिकार है.और हम किसी को पूजा अर्चना करने के लिये बाध्य नहीं कर सकते है. साई बाबा है या ईश्वर ,उनके चमत्कार का कोई सबूत है या नहीं है.दस्तावेज है या नहीं है यह सब ऐसे प्रश्न है जिसका संबंध हिंदू धर्म ग्रंथों से भी उतना ही है.हमने ना भगवान देखा है और ना ही साई बाबा को परन्तु अपनी अपनी अभिरुचि के अनुसार किसी ना किसी देवी देवता और साई बाबा की पूजा करते है. मेरे यहाँ खुद दोनो की एक स्थान पर मूर्ति रख पूजा की जाती है. एक और बात आपसे कहना चाहता हूँ कि एक दोहा है.
      गुरु गोविंद दोऊ खडे काके लागो पाय
      बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय
इस में तो गुरु की चरण वंदना करने का निर्देश भगवान श्री कृष्ण ने खुद कवि को दिया ,तब हर गुरु की पूजा करने वाला भक्त,माता पिता की पूजा करने वाला पुत्र,सब हिंदू धर्म का अपमान कर रहें है.सबको इस धर्म से बहिष्कृत कर देना चाहिये.शकराचार्य जी के अनुसार तो ऐसा ही किया जाना एक मात्र रास्ता है हिंदू धर्म को कालजयी बनाने के लिये.उधर साई सेवा ट्रस्ट का माने तो यह सब खेल ट्रस्ट में ट्रस्टी बनने के लिये सरकार के कुछ सदस्यों की नियुक्ति के माध्यम से अपने प्रमुख और खास लोगों को उस स्थान पर बैठाने के लिये है. यथा संभव ट्रस्ट के द्वारा आमदनी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये यह सब वाककुरुक्षेत्र जारी है.वर्ना यह सब अभी तक प्रारंभ भी नहीं हुआ था.अचानक शंकराचार्य जी को क्या सूझा कि वो इतने उग्र हो उठे अभी तक वो  साई पूजा नामक चाय में पडी मक्खी को आंख बंद कर निगलते रहे.इस सवाल का फिर हाल कोई जवाब हमारे धर्म गुरु के नहीं है.इतने दिनों के घटना क्रम में ट्रस्ट ने हर सवाल का जवाब दिया है.परन्तु धर्म गुरु की तरफ से सवालो के लिये चुप्पी कहीं ना कहीं उनके ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाती है. और सोचने के लिये मजबूर करती है कि कहीं इस वाक युद का एक मात्र उद्देश्य धर्म और आस्था का सहारा लेकर ट्रस्ट के लाभ को अपने नाम करना तो नहीं है. खैर कुछ भी हो परन्तु  जैसा कि मैने प्रारंभ में कहा था कि धर्म आस्था में कोई भी महान नहीं हो सकता धर्म से आस्था उसी तरह से मिली हुई है जैसे हवा में इत्र की खुशबू.इस लिये सनातन धर्म को धर्मगुरु अदालत और बहस का मुद्दा ना बनाये.और किसी को धर्म से दखल करने,बाध्य करने का ऐलान उनहें नहीं करना चाहिये.क्योंकि भक्ति और आस्था बाध्यता का मुद्दा नही वरन हृदय की आंतरिक और वैचारिक समझ का विषय है. इस तरह के विवाद समाज में अराजकता और धर्म निरपेक्षता को तार तार करने के लिये कदम होते है.अपने लाभ के लिये धर्म आस्था शास्त्र और भक्ति को शस्त्र बनाना यथोचित नहीं है.
अनिल अयान.सतना.
९४०६७८१०४०

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