सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

शिक्षा का अधिकार, हुआ बडा लाचार

शिक्षा का अधिकार, हुआ बडा लाचार
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ के सभी विद्यालयों में शिक्षा के अधिकार योजना के लिये बहुत से नियम कानून बनाये गये है.बहुत सी कार्ययोजना बन कर तैयार हुई है.परन्तु इन कार्ययोजनाओं का सुखद परिणाम नहीं प्राप्त हो सके है.कागजी तौर पर भले ही इसकी भरपाई की जा सकी हो परन्तु जमीनी हकीकत बहुत ही शर्मनाक है.शिक्षा के सिपेहसलार भले ही इसके संदर्भ में एक दूसरे को दोषी बनाते रहे, लेकिन दाल पूरी की पूरी काली ही नजर आ रही है.इसका फायदा गैरसरकारी विद्यालय भर पूर उठा रहे है.
शिक्षा संहिता के अनुसार शिक्षा का अधिकार हर बच्चे को प्राप्त है जिसमें प्राथमिक और पूर्वमाध्यमिक शिक्षा तक सब को समुचित शिक्षा का प्रावधान है.यह प्रावधान सिर्फ शासकीय विद्यालयों में ही बस नहीं लागू होता है वरन अशासकीय विद्यालयो पर भी बखूबी लागू होता है.भारत सरकार के सिटीजन चार्टर के अंतर्गत  सीबीएसई और आईसीएसई काउंसिल की नियमावली में यह बात स्पष्ट रूप से लिखी गई है कि भारत में रहने वाले हर बच्चे को किसी भी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार होता है.और कोई भी संस्था किसी जाति धर्म,अर्थ और समाजिक स्तर को कारक मानकर किसी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती है.इसका अर्थ यह हुआ कि हर संस्था को यह शैक्षिक दायित्व निर्वहन करना ही पडेगा जिसके अंतर्गत वह किसी भी बच्चे को उसके अभिवावक की गरीबी रेखा,वार्षिक आय आदि कारको की वजह से प्रवेश देने से रोक नहीं सकती है.परन्तु इतने वर्षों के बाद भी इस आरटीई का क्या हाल है वह हम सबसे छिपा नहीं है.हर रोज किसी ना जिले या कस्बे के गैरसरकारी विद्यालयों की स्थिति और इस नियम के उल्लंघन के समाचार सुनने को मिलते है.
मध्यप्रदेश में 40 विद्यालय इंडियन काउंसिल आफ सेकेण्डरी एजूकेशन से मान्यताप्राप्त है.और सेंट्रल काउंसिल आफ सेकेण्डरी एजूकेशन से बहुत से विद्यालय संचालित है.माध्यमिक शिक्षा मंडल से भी विद्यालय संचालित होते है. शासकीय और अशासकीय विद्यालयों का अनुपात देखा जाये तो 60-40 का अनुपात आज बना हुआ है.बहुत से पैरेंट्स अपने बच्चों को अशासकीय विद्यालयों मे दाखिला दिलवाना चाहते है.प्रबंधन के पास दाखिला ना देने केलिये बहुत से बहाने होते है.शिक्षा के अधिकार को या तो बहुत से पैरेंट्स जानते नहीं है, और यदि जानते है तो उनकी प्रक्रिया को देख कर लगने वाले समय से बचने के लिये मजबूरी में कोई कदम नहीं उठा पाते है.
शिक्षा के अधिकार के लिये नियुक्त संकुल और ब्लाक के शिक्षा विभागीय अधिकारी जब तक इस काम के लिये समय निकाल पाते है तब तक इन विद्यालयों में प्रवेश प्रक्रिया पूरी हो चुकी होती है.क्योंकि सीबीएसई और आईसीएसई के विद्यालयों में प्रवेशप्रक्रिया अप्रैल में ही पूरी कर ली जाती है.उसके लिये भी इतनी सारी फार्मेलटीज होती है कि उसे पूरा करने में ही पैरेंट्स असुविधा महसूस करते है.शिक्षा का अधिकार क्या माध्यमिक शिक्षा मंडल के द्वारा संचालित विद्यालयों के लिये होता  है.अन्य मान्यता प्राप्त विद्यालयों के लिये इस योजना कोई महत्व नहीं है.इसका जवाब किसी के पास नहीं है.कई बार तो वार्षिक आय,माता पिता की शिक्षा,सामाजिक स्तर को प्रमुख कारण बनाकर इन विद्यालयों में पैरेंट्स को इस अधिकार के तहत खाली हाथ ही वापस लौटना पडता है.दोगला चेहरा रखने वाला यह अधिकार वास्तव में उन विद्यार्थियो को मदद नहीं कर ही नहीं पाता जिनकी समस्या को दूर करने के लिये बनाया गया था.माध्यमिक शिक्षा मंडल के द्वार संचालित विद्यालयों की स्थिति यह है कि यदि इन विद्यालयों में प्रवेश मिल भी गया तो अगले सत्र का कोई ठिकाना नहीं होता कि उसे नियमित रखा जायेगा कि नहीं क्योंकि फीस की राशि दे पाना बच्चों के पैरेंट्स के बस की बात नहीं हो पाती है.
एक प्रश्न अभी भी जरूरत मंदो के दिमाग में गूँजता है कि क्या यह अधिकार सिर्फ शासकीय विद्यालयों तक सीमित होचुका है.या इसका इसी तरह दोहन गैरसरकारी विद्यालय करते रहेंगें.और इस तरह के दोहन के लिये शिक्षा विभाग के बेबस नियम कानून से बंधे अधिकारी और कर्मचारी वर्ग है,या मान्यता प्राप्त बोर्ड के नियम कानूनों की आड में जरूरत मंदो की आँखों में धूल झोंकने वाले ये विभिन्न अशासकीय विद्यालयों के प्रबंधन अधिकारी.शासन को जब कभी कुंभकर्णी नींद से जागने की फुरसत मिलती है तब इस अधिकार की विवेचना,और पर्यवेक्षण समितियाँ बनती है.बैठकें होती है.आदेश निकाले जाते है और वह भी इस अधिकार की तरह फाइलॊं में कैद होकर रह जाते है.कब इस तरह के अधिकार मासूम बेबस बच्चॊं तक पहुँचेंगें .कब वो स्वस्थ माहौल में शिक्षा प्राप्त कर पायेंगें यह कोई नहीं जान पाया है.आज इस चर्चा करने की आवश्यकता से कहीं ज्यादा अशासकीय विद्यालयों के प्रबंधन में शासन की पकड को मजबूत बनाने की आवश्यकता है.तभी परिणाम लाभकारी बन पायेगा
अनिल अयान.

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता
मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया.अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी.क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ.अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था.उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है.आजादी ६५ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे.शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.
स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने यह कभी सपने में भी ना सोचा होगा कि आने वाले समय में उन्हें आतंक वादी की तरह पाठ्यक्रमों में बच्चों के सामने लाया जायेगा.वो भी इस लिये क्योकि सरकार वामपंथ और दक्षिण पंथी रवैया अपनाये हुये है.जो सरकार आती है वह अपने पंथ के सेनानियों को शहीद और अन्य को आतंकवादी के रूप में पाठ्यक्रम में सुमार कर देती है.उस समय बिना किसी स्वार्थ के बलिदान देने वाले सच्चे सपूतों को आज स्वार्थपरिता के तले गुटने टेकने पड रहे है. आज लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान जय किसान का नारा बेमानी हो चुका है.बापू का भारत के कृषि प्रधान होने का सपना मिट्टी में मिल चुका है. आज ना किसान की जय है और ना ही जवान की जय है.किसान आज भुखमरी,लाचारी और बेबसी से आत्महत्या करने के लिये मजबूर है.पहले के समय में लगान ना देने में जमीदार लोग किसानों को पेडों से लटकाकर कोडे मरवाते थे.पुलिस के जवान उन्हे जूते की मार देते थे.आज के समय में यदि कर ना दिया जाये तो पटवारी और राजस्व विभाग उनकी जमीन की जप्ती कर लेते है.किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ छलावा है.यदि पटवारियों और सरपंचों को घूस ना दी जाय तो किसानी का मुआवजा भी नहीं मिल पाता है.शास्त्री जी का किसान,और बापू के कृषि प्रधान देश में कृषि और कृषक ही आत्महत्या करने के लिये बेबस है.
जवानों की स्थिति यह है कि युवा वर्ग आज अपनी आभासी दुनिया में व्यस्त है.कैरियर में शार्टकट रवैया उन्हें मंजिलों से ज्यादा दूर कर दिया है.युवा जवान वर्ग अपने रोजगार के लिये भटक रहे है.प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये सरकार के द्वारा की गई मनमानी के जवाब में अहिंसात्मक आंदोलन ,धरना प्रदर्शन करने में व्यस्त है.समाज में उनके लिये ना कोई सकारात्मक स्थान है और ना ही समर्थन है.सुरक्षा के जवानों की यह स्थिति है कि आजादी इतने वर्षों के बाद भी उनको ना सुविधाये मुहैया कराई गई और तो और उनके शस्त्रों में भी धांधलेबाजी और घोटाले किये गये.जिन दुश्मन देशो से वो भारत को बचाने के लिये हर मौसम में सीमा में डटे रहे,आतंकवादियों और घुसबैठियों को भारत की सीमा के नजदीक ना आने दिया.हमारे देश के रहनुमा उन्ही देशो के साथ मित्रता का संबंध बनाने के लिये योजनाये बनाते रहे राजनैयिक सलाहकार आतंकवादियों से मिलकर उन्ही की भाषा में बात करने लगे.
आजादी के इतने सालों के बाद स्त्री सुरक्षा और सशक्तीकरण का स्वांग भरने वाला भारतीय गणतंत्र राष्ट्र, गनतंत्र की व्यवस्था को पालन करने में लग गया.जिसकी लाठी उसी की भैंस की कहावत का पालन होने लगा.जब गणतंत्र, गनतंत्र में परिवर्तित हुआ तो उसमें दिल्ली,उ.प्र.और बिहार,सबसे आगे निकल गये.बंदूखों की नोक में अत्याचार होने लगे,अस्मिता लूटे जाने लगी,हमारा देश विकास की होड में इतना आगे निकल गया कि,मूल्यों के लिये जगह ही नहीं बची,आजाद भारत की यही परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने देखी रही होगी,धर्मनिरपेक्षता का यह हाल है कि लोग धर्म को अपनी स्वार्थ की रोटियाँ सेकने और हवस मिटाने का स्थान बना लिया.कोई धर्म के नाम को कैश करने लगा और कोई धर्म की आड लेकर राजनीति के अखाडे में दाँव आजमाने लगा.धरम के नाम पर दंगो और अराजकता की आग ने अमन,शांति सुख,चैन,सब को जला कर खाक कर दिया. यहा पर  स्वतंत्रता का अधिकार किसी को मिला तो इतना मिला कि वो इतना अमीर होता चला गया और इतना अमीर होगया जिसके दम पर वो सरकार को झुकाने लगा.और दूसरे की स्वतंत्रता पर डांका डालने लगा.वैचारिक स्वतंत्रता और भाषा गत आजादी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा वोट बैंक के लिये राजनेताओं के द्वारा किया गया..वाक युद्ध में तो मर्यादा तार तार होती रही.
इस आजाद मुल्क के शुरुआती दिनों में भारत के राजनेता भी ईमानदार,लोकतंत्र और गणतंत्र की परंपरा का निर्वहन करने वाले हुआ करते थे.समाज में धर्म निरपेक्षता और आजादी का जश्न हर गली मोहल्ले में देखा जा सकता था.पंद्रह अगस्त को छुट्टी की तरह राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया जाता था.आज बाजारवाद और वैश्वीकरण ने इस राष्ट्रीय त्योहार को निगल लिया है.आज के समय पर पंद्रह अगस्त छुट्टी का दिन अधिक और आजादी की वर्षगांठ कम नजर आता है.आज हर जगह सब अपने अपने में व्यस्त है.देश के बारे में जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के ८० प्रतिशत युवाओ और बच्चों को अभी यह नहीं पता की देश का राष्ट्रगान और राष्ट्र गीत क्या है राष्ट्र चिन्हों की कोई जानकारी ही नहीं है.इनसबके लिये जितना सरकार दोषी है उतना हम सब भी गुनहगार है.यदि हम आने वाली पीढी को समुचित जानकारी नहीं प्रदान करेंगें तो वह भारत में तो रहेगी परन्तु भारत के बारे में जानेगी कुछ भी नही.स्वतंत्रता दिवस मनाना , स्वतंत्रता की रक्षा के लिये वचन बद्ध होना,और स्वतंत्रता की कीमत को समझकर उसकी रक्षा करना तीनो में बहुत ही बडा अंतर है.आजादी के इस जश्न को आज व्यापक बनाने की आवश्यकता है ताकि इसकी याद और गूँज आने वाली पीढी के जहन में लंबे समय तक बनी रहे.

अनिल अयान ,सतना

लव-जेहाद, हकीकत या फसाद ?

लव-जेहाद, हकीकत या फसाद ?

भारत में इस वक्त सबसे ज्यादा खतरा, हमारी बहनों और बेटियों के जीवन में लगातार नजर गडाये संकट की आँधी से है.आतंक के जेहाद का रिस्तों के माध्यम से जीवन में प्रवेश करते ही उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और अन्य राज्यों में हाहाकार मच गया.कभी कभी मै सोचता हूँ जब इस चक्रव्यूह में महिला खिलाडी जैसी जागरुक लडकी फंस गई तो अन्य मासूम लडकियों का क्या होगा. हमारे देश की विडंबना है कि हमारे यहाँ ख्वाहिशों से खिलवाड करके अधिक्तर महिलायें शिकार हो जाती है.कभी यह सुनने को नहीं मिला कि किसी लडके ने किसी मुस्लिम लडकी को हिंदू धर्म में सम्मिलित करने के लिये उस पर जोर जबरजस्ती किया हो.यह काम अधिक्तर ईसाई और मुस्लिम संप्रदाय से अधिक्तर सुनने को मिला है.इसकी वजह चाहे हिंदू धर्म की अतिउदारवादिता हो या अन्य धर्मों की अति सक्रियता हो.
प्रेम में जेहाद की कल्पना नहीं की जा सकती है.क्योंकी प्रेम जिस्मानी हो सकता है या रूहानी हो सकता है.और जेहाद में प्रेम नहीं हो सकता है.जेहाद का मूल अर्थ है जगदोजहद अपने अस्तित्व के लिये जगदोजहद करना.परन्तु आतंक के साथ इसके अर्थ बदल गये है.जेहाद का अर्थ बदल कर आतंक का भय हर धर्म के अनुयायियों में पैदा कर देना. भारत में हिंदुओं के मन में मुस्लिम धर्म हेतु समर्पण पैदा करने के लिये डराना धमकाना और प्रताडित करके मजबूर कर देना.अलकायदा और हिजबुल मुजाहिद्दीन के जारी किये गये वीडियो में यही उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये भारत में आतंकी संगढन की स्थापना करने की बात की गयी है.प्रेम को जेहाद के साथ जोडने के मायने प्रेम का अपमान है.भारत में इश्क जेहाद का असर जितना दिखा है.उसमें दोषी कौन है यह सोचने का विषय है.यदि हम उस महिला खिलाडी की बात करें जो इश्क जेहाद में अपने जीवन के सारे सपनो को खत्म कर लिया,उसके यदि विवाह प्रसंग को गौर करें तो समझ में आयेगा कि उसने रंजीत नाम के तथाकथित हिंदू युवक से महज एक सप्ताह के अंदर विवाह वंधन में बंध गई.यह कैसा विवाह है जिसमे एक चट मंगनी पट ब्याह से भी ज्यादा जल्दबाजी की गई.मुझे लगता है कि जितना गल्ती उस तथा कथित रंजीत नाम के युवक की है.उतनी ही गल्ती उस महिला खिलाडी की भी है.क्योंकी विवाह जैसे संस्कार जान पहचान वाले परिवार के साथ किये जाते है.
यदि इस तरह का जेहाद आतंकवाद का एक और जिंदा मानव हथियार है तो यह भारत के लिये आने वाले समय में बहुत बडा खतरा है.इसके बारे में भारत की सरकार को यथोचित निर्णय लेना होगा.परन्तु इस मामले को सियासी रंग देना बहुत गलत है.क्योंकि चैनल वालों ने पीडिताओं के जीवन के बारे में जिस तरह कार्यक्रम बना कर लाईव टेलीकास्ट किया उससे यह तो साफ है कि धर्म परिवर्तन करवाने के लिये किया जाने वाला कृत्य धार्मिक और सामाजिक रूप से बहुत बडा गुनाह है.इस तरह की सर्रियत ना तो कुर’आन में लिखी हुई है और ना ही अन्य धर्म ग्रंथों में.लेकिन इस संदर्भ के जितने भी केस सामने आये है उसमें लडकी वालों के परिवार के तरफ से कोई भी बयान नहीं आये.ऐसा क्यों हुआ.इसका जवाब इस लडकियों के पास भी नहीं था.जब भी हम अपने माता पिता के निर्णयों के विरोध में आकर कदम उठाते है तो इसका परिणाम यही निकलता है. इस पूरे मामले में महिला आयोग के किसी भी अधिकारी या सदस्य का कोई बयान क्यों नहीं आया.क्या वो इस मामले से अनभिग्य थी.संसद मे महिला सांसदों और मंत्रियों की तरफ से कोई  बयान नहीं आया.ऐसा लगा कि इस प्रकार के विवाह में धोखा खाई इन महिलाओं की जल्दबाजी को सब लोगों ने बखूबी  समझ लिया हो. लेकिन मीडिया और सियासत जिस तरह इस मुद्दे को सियासी रंग दिया जा रहा है और इस अपराध के लिये पूरे मुस्लिम धर्म को कटघरे में खडा किया जा रहा है वह गलत है.क्योंकि कोई धर्म जेहाद की ट्रेनिंग नहीं देता है.लवजेहाद के जितने भी पहलू निकल कर सामने आये है उसमें एक बात तो साफ है कि विवाह करके जेहाद के मकसद को पूरा करने से हम तभी रोक सकते है जब हम अपने परिवार में पारिवारिक संस्कार विकसित करेंगें बेटे-बेटियों को भी यह बात समझना होगा कि संस्कारों को पूर्णकरने में परिवार पूर्ण सहमति लेनी ही चाहिये.सरकार को चाहिये कि इस प्रकार के अपराधों को रोकने के लिये कडाई से नियम और कानून बनाये जाये और जल्द से जल्द निर्णय हो,धर्म के धर्म गुरुओं को चाहिये कि एक दूसरे पे छीटाकसी करने की बजाय अपने धर्म की परिधि को पार ना करने की सलाह दे और आतंक के खिलाफ मिलकर जंग लडें.मिल जुल कर जंग लडेंगें तो लव जेहाद जैसे आतंकवाद के नये नये शस्त्र भी हमारे साहस के सामने घुटने टेक लेंगें.हमें हर हालत में अपनी युवा पीढी को जागरुक बनाना पडेगा.

अनिल अयान.सतना.

राजभाषा पखवाडा बना कमाई का अखाडा

राजभाषा पखवाडा बना कमाई का अखाडा
विगत दिनों राजभाषा पखवाडा का आयोजन किया गया. एक सितम्बर से १४ सितम्बर तक की गतिविधियाँ हिंदी के लिये समर्पित रही.राजकाज की भाषा के विकास और उत्थान के कसीदे सीमा से परे हो कर पढे गये.हिंदी के सेवक हिंदी की सेवा करते दिखे.अन्य लहजे में कहें तो गाहे बगाहे हिंदी से अपनी सेवा करवाने वाले इस पखवाडे में हीं सिर्फ हिंदी की दिखावटी सेवा कर मेवा पाने का प्रयास हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी करके कल ही फुरसत हुये.यदि हम परिणाम की बात करेंगें तो यह भी बेमानी होगा.
संविधान सभा में जब हिंदी की स्थिति को लेकर जब दो दिवसीय चर्चा का आयोजन १२ सितम्बर १९४९ से १४ सितम्बर १९४९ तक हुआ तब भी तत्कालिक राष्ट्रपति स्व.डा राजेन्द्र प्रसाद, ने अंग्रेजी में ही अपना उद्बोधन दिया.प्रधान मंत्री स्व.जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजी की पैरवी ज्यादा की थी.तब से लेकर आज तक भाषा संबंधी अनुच्छेदों राजभाषा अनुच्छेद ३ ग और १४ क में तीन सौ से अधिक बार संशोधन किया गया जो आज के समय में भाग १७ के रूप में संविधान में उपस्थित है.संवैधानिक स्थिति के अनुसार तब से आज तक भारत की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेजी सह भाषा है.तब से लेकर आज तक संविधान सभा की अनुशंसा में इस १४ दिन राजभाषा पखवाडे के रूप में मनाये जाने लगे.उस वक्त डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देवनागरी लिपि को भारत की राष्ट्रीय लिपि बनाने की भी अनुशंसा की थी परन्तु उस बात को आज भी दबा कर खत्म कर दिया गया.
एक वह दिन था और एक आज का दिन, राज भाषा पखवाडा का चलन जगत में चलने लगा .हर छोटी बडी संस्था राजभाषा के प्रचार प्रसार के साथ राष्ट्रभाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिये हर वर्ष एक नाटक का मंचन करते है.परन्तु परिणाम सिफर होता है.प्रायोगिक रूप से देखे.कि हिंदी हमारी रोजमर्रा की भाषा रही है.परन्तु आज के समय में भागदौड और बाजारवाद के अवसरो के दरमियान यह भी हिंदी और इंगलिश का मिश्रित रूप हो गई है.जिसे आज के समय हिंगलिश के रूप में जाना जाने लगा है.जो आज भी चलन में है.विशुद्ध हिंदी या यह कहें की तत्सम और तद्भव शब्दों से बनी हिंदी से कार्य और ज्यादा दुरूह् हो रहे है.अधिक्तर हिंदी माध्यम विद्यालय अंग्रेजी माध्यम मे बदल गये है.यहाँ तक आगामी पीढी को अंग्रेज बनाने की कवायद हम नर्शरी से शुरू कर देते है.आज के समय में अंग्रेजी ना बाँच पाने और बोल पाने वाला व्यक्ति अनपढ और गंवार समझा जाने लगा है.सिविल सर्विसेस परीक्षा का बखेडा अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है.ऐसी स्थित में राष्ट्र भाषा तक पहुँचने की कवायद बेमानी सी नजर आती है.आज के समय में अधिक्तर राजकीय काम अंग्रेजी से होता है.ऐसा लगता है कि हिंदी पहले कभी भाषा की माकान मालिक थी आज तो वह अंग्रेजी के फ्लैट में किराये से रहने को मजबूर हो चुकी है.
राजभाषा के पखवाडे में जितने लोग और विद्वान दिखने वाले लोग माइक के सामने हिंदी को ऊपर उठाने की बात करते है वो ही सही मायनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा न बनाये जाने के पैरोकार है.क्योंकी यदि हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित हो गई तो उनकी अच्छी खासी आमदनी वाली दुकान में ताला लगा समझिये.कहने को आज के समय में हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा,और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जैसी कई संस्थायें है जिनको शासन और सरकार ने हिंदी के विकास के लिये बहुत सी जिम्मेवारी सौपी है.परन्तु यहाँ भी रेवडियाँ ही बाँटी जा रही है.अपने अपने दफ्तरों में बैठ कर इनके अधिकारी सरकारी दामाद बने बैठे है  अधिक्तर योजनायें और खर्च करने के लिये सरकार के द्वारा दिये जाने वाला फंड लैप्स हो जाता है और गाहे बगाहे सितम्बर माह मे हिंदी के कसीदे पढने के लिये समाज और देश भर में निकलते है.
क्या इसी तरह से हिंदी का विकास होगा.आज जरूरत है कि यह प्रयास हो कि इस तरह की संस्थाओ के अस्तित्व को समाप्त कर संयुक्त आयोग गठित करने की. जमीनी स्तर पर प्रयास किया जाये.जागरुकता अभियान चलाये जाये. शिक्षा विभाग उच्च शिक्षा विभाग का सहयोग बच्चों और युवाओं में हिंदी के प्रति रूझान बढाने में मदद करे.अन्य राज्यों में भी हिंदी भाषियों को स्थान और सम्मान मिलने के साथ साथ रोजगार मिले.वरना हिंदी का अस्तित्व खतरे में आन पडा है कुछ राज्यों को छोड कर हिंदी के बोलने वाले वख्ता कम होते जा रहे है.अन्य भाषी राज्य हिंदी को अपने राज्य के लिये कलंक समझते है.हमें अपने मन के भ्रम को टॊड कर वास्तविकता की जमीन मे कदम बढाना होगा और हिंदी को पहले धरातल मे घर घर की बोली बनानी होगी.राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिये अन्य भाषा भाषी राज्यों को अपने पक्ष में करना होगा.अभी फिल हाल यह प्रयास होना चाहिये कि हर दिवस हिंदी दिवस हो.

अनिल अयान.सतना.

क्या भारत दिखायेगा, चाइना को आइना

क्या भारत दिखायेगा, चाइना को आइना
विगत दिनों चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा ने भारत के प्रधानमंत्री मोदी को उनके जन्म दिन का तोह्फा प्रदान किया .वह निवेश और  गुजरात को गुआंगडोंग को सिस्टर प्रोविंस राज्य के रूप में सहमति के रूप मे रहा.निवेश के नाम पर भारत को ६-७ लाख करोड का मसौदा भारत के पक्ष में रहा.भारत में चाइना की औपचारिक प्रतिनिधि मंडल सदस्यों की यात्रा का लाभ सबसे अधिक गुजरात को मिला.जिसमे बरोडरा के के करीब ४०० एकड जमीन पर बनेगा जिसमे चाइना के द्वारा किये गये करार के अनुसार भारत मे वह निवेश करेगा.सबसे अधिक समय जिनपिंग ने भारत के प्रधान मंत्री मोदी को दिया और जाते जाते चाइना की जमीन में भी कदम रखने के लिये आमंत्रित करके गये.इस यात्रा से भारत की राजनीति भी पुनः एक बार गर्मा गई.इस यात्रा से भारत को कितना लाभ हो गा इस का प्रभाव तो आने वाला समय बतायेगा.जो भी परन्तु भारत के हर नागरिक को इस मुलाकात के परिणाम का इंतजार है.
वहीं दूसरी तरफ लेह लद्दाख में फ्लैग मीटिंग मे भारत और चाइना के  सैन्य अधिकारियों की बैठक राष्ट्रपति की मुलाकात की सफलता को धता बता कर बेनतीजा खत्म कर दिये भारत की मनाही और रोक-टोक के बाद भी चाइना अपने सैनिकों और घुसबैठियों को पीछे करने के फिराक में नजर नहीं आया.चाइना मे इस बार तो भारत के हिंद महासागर से आने वाले जलमार्ग को भी अपने देश का हिस्सा बताने में लगा हुआ है.भारत की इंटेलिजेंस ब्यूरो को उतनी जानकारी नहीं है जितनी की चाइना के द्वारा भारत की सरजमीन और सैनिकों की जानकारी रखी जाती है.चाइना ने भारत की सीमा रेखा में आने वाले भूभाग को चाइना अपना बता रहा है और ना जाने कितने वर्ग किलोमीटर का इलाका भारत से छीन कर चाइना अपने देश में मिला चुका है.परन्तु भारत के प्रधान मंत्री जी ने इस संदर्भ में जिनपिंग से कोई गहरी चर्चा नहीं की.ना ही कोई विदेशी सुरक्षा नीति और संधि पर समझौता हुआ.
भारत में चाइना का व्यवसाय जितना तेजी से फैला है सामान जितना सस्ता है उतना ही ना भरोसा करने वाला है.चीनी सामान ने भारत की कम्पनियों को इलेक्ट्रानिक,मोबाइल और टेलीकाम,इलेक्ट्रिक उत्पादों में जमींजोद कर दिया उसके बाजजूद एफ,डी.आई.का पल्लू पकडे हमारे प्रधान मंत्री जी चाइना का प्रचार प्रसार करने में कोई कसर नहीं छोडे.क्या निवेश करके भारत को चाइना अपना उपनिवेश देश बनाने की फिराक में है.यह प्रश्न आज हर भारत वासी के मन मे है.हम पहले भी व्यवसाय के आड में ब्रिटिश देश की उपनिवेशवादिता के शिकार कई शतक वर्षों तक रहे है.आज फिर अपना इतिहास दुहराने की कोशिश में लगे हुये है.हमारे टीवी चैनल भारत और चाइना की जितनी भी तुलना कर लें.परन्तु भारत का अस्तित्व का सबसे बडा ग्रहण चाइना का प्रतिबिंब है हमारी आजादी के कुछ वर्षों के बाद भी भारत चीन युद्ध हो चुके है. परन्तु हम अपनी आर्थिक दृढता के लिये अपनी सुरक्षा के सबसे बडे घातक पडॊसी देश के साथ हाथ मिलाने के लिये तैयार है.उसे मित्र बनाने की कगार में है.पर क्या वह देश हमारा मित्र देश बनने के लायक है इस बात पर भी विचार करना चाहिये.हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिस घुसबैठ के लिये लेह लद्दाख मे हमारी हजारों की संख्या  मे सैनिक इसी चाइना की सुरक्षा सैनिको की घुसबैठ के खिलाफ मोर्चा खोले बैठी हुई है.हमें चाइना से सतर्क रह कर उसके सीमा में किये गये घुस बैठ का जबाब देना चाहिये.पर हम उसे अपने ही घर में बुला कर मेहमान बनाकर अपनी सुरक्षा के साथ मजाक कर रहे है.प्रधान मंत्री जी भी अपने गुजरात के विकास के लिये देश की सुरक्षा के संदर्भ मे मौन रह कर चीनी भारत भाई भाई का भाव दिखाया है.
यदि चाइना भारत को अपना मित्रदेश बनाना चाहता है तो भारत की सीमा विवाद और घुसबैठ को पूरी तरह से समाप्त करके सुरक्षा संधि का प्रस्ताव मानना चाहिये.उसके बाद ही अन्य आर्थिक और राजनैयिक करार होने चाहिये.वर्ना वह दिन दूर नहीं कि चाइना भारत की वायु सीमारेखा को भी जल और जमीन की सीमा में घुसपैठ की तरह अपने देश में मिला लेगा.मै इस मुलाकात के विरोध मे नहीं हूँ.लेकिन मेरा मानना है कि किसी भी देश को सबसे पहले किसी से हाथ मिलाने से पहले पूर्व मे उस देश के साथ संबंध को जरूर एक बार बाचना चाहिये.और भारत की सुरक्षा का मामला वह मामला है जो भारत के लिये सबसे ज्यादा महत्व पूर्ण है और इस कटघरे मे चाइना भारत के साथ किसी तरह की मित्रता ना तो पूर्व मे दिखाया है और ना ही इस मुलाकात के बाद दिखायेगा.हाँ हमारा देश अपनी उदारवादी सोच के चलते हर बार  उसके स्वागत में स्वागत गीत गाता रहेगा.और धीरे धीरे वो भारत को अपना उपनिवेशित देश बना लेगा तब भी हम उससे किस निवेश की अपेक्षा करेंगे.
अनिल अयान.सतना

श्रम सुधारो में विलुप्त होता श्रमिक



श्रम सुधारो में विलुप्त होता श्रमिक

श्रमेव जयते का प्रारम्भ  हमारे प्रधान मंत्री जी की नवीनतम योजनाओं में से एक है.इस  योजना का उद्देश्य श्रमिको को अपने जीवन स्तर सुधारने के लिए सरकार के योगदान  को बढ़ाना है.वास्तविकता में आज के समाज में श्रम और श्रमिक की परिभाषा परिवर्तित हो गयी है. श्रम का रूप भी बदला है.

 गौरतलब है कि श्रम सुधार हमेशा से विवादित मुद्दा रहा है। इस पर तब तक कोई मतैक्य नहीं हो सकता, जब तक सरकार कोई ऐसा एजेंडा सामने ना रख दे, जो निवेशकों और श्रमिकों दोनों को अपने हित में लगे। प्रधानमंत्री ने जो कहा, उसका संकेत है कि वह इस अंतर्विरोध से परिचित हैं। उनके द्वारा पेश नजरिए में दो मुख्य बिंदु तलाशे जा सकते हैं। पहला यह कि कारोबार की स्थितियां आसान बनाना आज भारत की सबसे बड़ी जरूरत है। यह मेक इन इंडिया अभियान की सफलता के लिए अनिवार्य है। दूसरा यह कि श्रम सुधारों को श्रमिक वर्ग के नजरिए से देखा जाना चाहिए।


भारत में हम ढाबों, रेस्तरां, बाजारों व होटलों में अक्सर बच्चों को काम करते देखते हैं। ये दृश्य हम में से बहुतों की अंतरात्मा को कचोटते हैं, परंतु कुछ ही समय में हम सब कुछ भूलकर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं। बल्कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में हम सब कहीं न कहीं इन बाल श्रमिकों की सेवाएं ले रहे होते हैं।
विश्व श्रम संगठन के अनुसार, दुनिया भर में 5 से 10 करोड तक घरेलू कामगार हैं, जिनमें से बाल श्रमिकों की संख्या 30 फीसदी तक है। ये बच्चे अक्सर बहुत कम वेतन पर काम करते हैं। इनमें से बहुत से बच्चों से जबरन क्षमता से अधिक काम कराया जाता है। कई बच्चे शारीरिक व यौन शोषण का शिकार होते हैं। भारत में आजादी के बाद बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए बहुत से सांविधानिक प्रावधान किए गए हैं, जिनमें सबसे प्रमुख बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 है।

पं्रधानमंत्री ने इंस्पेक्टर राज को खत्म करने, भविष्य निधि संबंधी प्रक्रियाओं को सरल बनाने और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए तकनीकी समाधानों का एलान किया है। मगर अभी ये साफ नहीं है कि फैक्टरी इंस्पेक्टर जो निरीक्षण करते हैं, उनके बारे में कंपनियों के स्व-प्रमाणन की विश्वसनीयता को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा? औचक निरीक्षण के लिए कंप्यूटर से कारखानों की चयन प्रणाली पर्याप्त होगी, इस बारे में आशंकाओं के निवारण की जरूरत पायेगी। यूनिवर्सल अकाउंट नंबर से बेशक भविष्य निधि का संचालन कर्मचारियों के अनुकूल हो जाएगा। प्रशिक्षण (एपरेंटिसशिप) को प्रोत्साहित करने के बारे में घोषणा भी महत्वपूर्ण है, जिसके मुताबिक प्रशिक्षुओं को दिए गए भत्तों पर खर्च हुई रकम का आधा हिस्सा सरकार कंपनियों को लौटा देगी। इससे कारखाने अधिक से अधिक कर्मियों को व्यावहारिक प्रशिक्षण देने के लिए प्रोत्साहित होंगे, जिससे उन कर्मियों को बेहतर रोजगार मिलने की संभावना बनेगी।हर वक्त की आवश्यकता रही श्रम की आवश्यकता को समझे परखे और उसे नियोजित करे. हम आई आई टी की तरफ भागते है पर हम आई टी आई को भूल जाते है.यहाँ पर यह कैसी विषंगति है.

मोदी के चुनावी नारों में अधिकतम प्रशासन, लघुतम शासन भी शामिल था। यदि वे गैरउत्पादक विभागों को समाप्त कर सकें, अतिरिक्त स्टाफ की सेवाएं ग्रामीण विकास में ले पाएं, गरीबों से ज्यादा अमीरों को फायदा पहुंचाने वाली सबसिडियों में कटौती कर सकें और सामाजिक विकास के ऐसे कार्यक्रमों को समाप्त कर सकें, जो बजट का एक बड़ा हिस्सा निगल लेते हैं और इसके बावजूद जरूरतमंदों की मदद नहीं कर पाते, तो यह एक अच्छी शुरुआत होगी।बहरहाल, मजदूरों के नजरिए से एक बड़ा मुद्दा कारखानों में न्यूनतम मजदूरी, निर्धारित कार्य-स्थितियों और सामूहिक सौदेबाजी के प्रावधानों पर कारगर अमल कराने का भी है। सरकार इसके लिए क्या व्यवस्था करती है, यह देखने की बात होगी। श्श्रमेव जयतेष् के प्रधानमंत्री के नए नारे को साकार करने के लिए यह करना आवश्यक होगा।अन्यथा नारो का उपयोग कहा कहा होता है हम सब इससे वाकिफ है.

अनिल अयान

विंध्य को ठेंगा दिखाती, इंदौर इनवेस्टमेंट समिट

विंध्य को ठेंगा दिखाती, इंदौर इनवेस्टमेंट समिट
ग्लोबल इनवेस्टमेंट समिट का परिणाम आ चुका है.।मध्यप्रदेश को  डिजिटल कैपिटल बनाने का प्रयास २०१५ तक करने का वादा करके इनवेस्टर्स वापिस लौट चुके है।एक लाख करोड से अधिक निवेश का प्रस्ताव पारित किया गया है।मध्य प्रदेश का भविष्य अब क्या निर्धारित होगा? यह प्रश्न आज से आने वाले भविष्य में छिपा हुआ है। हम सब को पता है कि शिवराज सिंह के मुख्य मंत्रित्व काल में इसके पूर्व भी दो बार निवेश हेतु अखिल भारतीय स्तर की मीटिंग कराई जा चुकी है। परन्तु वह समय था और यह समय है जिसमें हम आंकलन कर सकते है कि मध्य प्रदेश में औद्योगिक विकास का बोया गया पौधा आज किस हाल में है।
मध्य प्रदेश का दुर्भाग्य उस समय प्रारंभ हुआ था जब मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ विभाजित होकर अलग राज्य बना। आज भले ही लोग गर्व से विकास दर ११.८ बताई जा रही हो परन्तु छत्तीसगढ के संसाधनात्मक योगदान ना मिल पाने का दुख हमें आज भी है।हमारे प्रशासन की सबसे बडी कमजोरी है कि बैठकें अधिक होतीं है और उस पर अमल कम होता है। इसके पहले देश के अधिक्तर सुप्रसिद्ध उद्योगपतियों ने बहुत से वादे किये परन्तु वादे कभी मजबूत इरादे नहीं बन पाये। वजह वही,उपयुक्त सुविधायें और अवसर उपलब्ध ना कर पाना।हमें यह बात स्वीकार कर लेना चाहिये कि हमारे संसाधन का ६० प्रतिशत भाग आज भी छत्तीसगढ के पास जा चुका है।हम अपने संसाधनों का समुचित प्रयोग नहीं  कर पा रहे है।
हमारे पास गुड गवर्नेंस और कृषि का प्रमुख हथियार है। परन्तु हमारे पास इन शक्ति पुँजो को प्रयोग कर पाने की ललक नहीं है.सरकार के मंत्रीगण कार्यक्रमों में मुख्य आतिथ्य की आसंदी को सुशोभित करने से फुरसत नहीं है। आज हमें आवश्यकता है एक कारगर और प्रभावी नेतृत्व की, एक सशक्त नीति और मजबूत इरादों की। अपने लक्ष्य को निर्धारित करने और उसको सही लोकेशन के साथ उपयोग में लाने की प्रवृति को विकसित करने की।अब विंध्य को ही ले लीजिये। हम सब जानते है कि वर्तमान परिदृश्य में हमारे विंध्य से कितने प्रभावी राजनीतिज्ञ विधानसभा में बैठे है. कई लोग तो इस समिट में भी मौजूद थे।परन्तु आज  तक विंध्य को अपने खाली हाथ के साथ सरकार और राजनीतिज्ञों का चेहरा निहारने के अलावा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है।एक लाख करोड में उतना भी हिस्सा हमारे हाथ में नहीं आया जितने प्रतिशत में  पूरे मध्य प्रदेश मे विध्य प्रदेश का अस्तित्व है। हम सब जानते है कि सतना जिले में कई स्थानों में उद्योग लगाने के वादे हमारे मुख्यमंत्री जी कर के गये थे परन्तु आज तक वह वादे ठंडे बस्ते में है या प्रक्रिया बहुत धीमी है।
विंध्य प्रदेश कृषि,उद्योग,सब्जी,कोल्ड स्टोरेज,और वेयरहाउसिंग के क्षेत्र में बहुत सी संभावनायें है.उद्योगों के लिये चूना पत्थर,कोयला,बाक्साइड,और अन्य प्रकार के खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में हैं। परन्तु आज भी इन संसाधनों को आज इस समिट में सरकार,हमारे जन प्रतिनिधियों और उद्योगपतियों के द्वारा सरासर नकार दिया गया.यह विंध्य के साथ सौतेला रवैये से बढकर व्यवहार मध्य प्रदेश के द्वारा किया गया है।हमेशा से होता चला आया है कि विंध्य प्रदेश हर  मामले मे कहीं ना कहीं सौतेले रवैये से प्रताडित होता रहा है.यही वजह है कि पन्ना और छतरपुर जिले से सीधी जिले की स्थिति उद्योगों के मद्देनजर बहुत ही कमजोर रही है।इस सब स्थानों मे उद्योग और कृषि परिष्करण उद्योग विकसित होने की असीम संभावनाये है।यहाँ से उद्यमी युवाओं के निर्माण की महत्तम संभावनायें मौजूद है।सतना जिले में परसमनिया,मझगवाँ,और पन्ना जैसे स्थानों मे कृषि आधारित उद्योगों और खनिज तत्वों के प्रचुर स्रोत मौजूद है.मुख्यमंत्री जी जब परसमनिया आये थे अब उन्होने सतनावासियों से बहुत से उद्योगों और कृषि से संबंधित विकास की बात और वादे किये परन्तु उसका कोई लाभ सतना और विंध्य प्रदेश को नहीं प्राप्त हो पाया है.
अब समय आ गया है कि मध्य प्रदेश सरकार विंध्य प्रदेश को अनदेखा ना करे और अवसरों को परिणामों में परिवर्तित करे.कयोंकि यही हाल सन २००० से पहले छत्तीसगढ में आने वाले जिलों का भोपाल के द्वारा किया जाता था. हमें नहीं भूलना चाहिये कि विंध्य की भूमिका वही बता सकता है जो विंध्य की भूमि का है. और आज परिणाम हम सबके सामने है. विंध्य की अनदेखी करना मध्य प्रदेश की राजनैतिक,आर्थिक,सामाजिक और शैक्षिक प्रगति में सबसे बडा रिक्त स्थान निर्मित करेगा.इस लिये समय से पहले प्रशासन को जब जागे तभी सवेरा की कहावत को सार्थक करते हुये विंध्य प्रदेश को मालवा और भोपाल अंचल की तरह संमृद्ध बनाया जाये और संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग कर निवेश का सर्वोत्तम अवसर उपलब्ध कराया जाये.

अनिल अयान

उत्तर भारतीयों की महाराष्ट्र सरकार से अपेक्षा

उत्तर भारतीयों की महाराष्ट्र सरकार से अपेक्षा

देवेन्द्र फडनवीस महाराष्ट्र के नव मुख्यमंत्री के रूप में उभर कर सामने आने वाले है।पिछले एक पखवाडे से ज्यादा समय महाराष्ट्र की राजनैतिक रामलीला का मंचन टीवी चैनलो से लाइव प्रसारित किया गया था।अब चुनाव भी अपने परिणाम के साथ हम सबके सामने खडा हुआ है।अब सोचने की बात है कि इस राजनीति का भविष्य क्या होगा।यदि हम राजनीति के महाराष्ट्र संस्करण का जिक्र करें तो हम सब जानते है कि किस तरह सीट के लिये दोनो पार्टियों के बीच में वैचारिक और बौद्धिक कुरुक्षेत्र हुआ और आज दोनो मिल कर सरकार बना रहें है।और इसका प्रतिनिधित्व देवेंद्र फडनवीस ने करने जा रहे है।
महाराष्ट्र, शिवसेना के उदय,विकास और प्रचार-प्रसार का जीता जागता उदीयमान राज्य है।यह वही महाराष्ट्र है जहाँ मुम्बई के समुद्र तट के किनारे पर्यटकों के समूह देखे जा सकते है।यहीं पर बालीवुड फिल्म इडस्ट्री से इफरात धन और वैभव भारत के हिस्से मे आती है। बाम्बे स्टाक एक्सेंच जैसे मुद्रा स्पीथि को मजबूत करने वाले संस्थान भी महाराष्ट्र राज्य के खाते में आते है।आई.आई.टी जैसे तकनीकि से पारंगत संस्थान भी महाराष्ट्र में आते है।महाराष्ट्र भारत के सर्वांगीण विकास के लिये रीड की हड्डी का काम करता नजर आ रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था के अनुरूप महाराष्ट्र के कई शहरों का अर्थव्यवसथा के विकास में महती भूमिका है।महाराष्ट्र समुद्र तटीय राज्य होने के कारण व्यापार का अच्छा माध्यम बनकर पूरे देश में उभरा है।विभिन्न प्रकार के बंदरगाह भी आयात और निर्यात की बढोत्तर करते है।जल और वायुमार्ग की मौजूदगी का ही परिणाम है कि देश की तरक्की का ज्यादा दारोमदार दिल्ली की बजाय महराष्ट्र के महानगरों और बडे नगरों के कंधों में अधिक है.पूरा देश इस बात से वाकिफ है कि महाराष्ट्र की सत्ता जिस दल के पास होगी वह दल भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है।यही वजह रही है कि भारतीय जनता पार्टी ने अमित शाह को उत्तर प्रदेश की भांति महाराष्ट्र के चुनाव को सफल बनाने की बागडोर सौंपी. भाजपा को पूर्ण बहुमत की आशा थी ।परन्तु कहीं ना कहीं मोदी का नमों नमों उतना कारगर साबित नहीं हुआ ।इसी वजह से उसे गठजोर करने की आवश्यकता महसूस हुई.इस राजनीति यह इंद्र धनुष था जिसके चलते राजनीति के साम दाम दंड भेद के रंग हमें इस विधानसभाचुनाव में स्पष्ट दिखाई पडा।भाजपा को पूर्ण बहुतमत की आशा थी ।
हम सब जानते है कि महराष्ट्र जैसे मराठी भाषा बाहुल्य राज्य पर आज भी बाला साहब ठाकरे, और उनके उत्तराधिकारी,उद्धव ठाकरे एवं राज ठाकरे की तूती बोलती है।यही वजह है कि भारत में वो समय आ चुका है जब महाराष्ट्र के कई महानगरों में गैर मराठी भाषियों को बहुत बडे विरोधात्मक आंदोलनों और अराजकता का सामना करना पडा था।इसको लेकर सबसे ज्यादा उत्पात,भाषावाद,क्षेत्रवाद फैलाने वाले दल के रूप में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख थी।एक वो समय था जब महाराष्ट्र में इन्ही दोनो राजनैतिक दलों का राज चलता था।मराठी ना बोलने में अंग्रेजों जैसे सजा देने के लिये इन पार्टियों के गुर्गे उत्तर भारतीयॊं पर धावा बोल देते थे। अब जब वहाँ पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार वानखेडे स्टेडियम में शपथ लेने जा रही है।इस अवसर मे भारतीय जनता पार्टी में राजनैतिक चक्रव्यूह को भेद रही है।यह वही पार्टी है जिसने चुनाव के पहले सीटों के बटवारे से खफा होकर शिवसेना के हाथ मिलाने से साफ तौर से इंकार कर दिया था।और किसी हालत में गठबंधन के लिये गोहार लगाने से परहेज करने का वचन देश वासियों को दिया था.और उसका परिणाम हम सबके सामने है।
इस मौके में उत्तर भारतीयों को एक संबल मिला ।जिसके अंतर्गत उत्तर भारतीय नागरिक इस बात से आस्वस्त हों कि वो महाराष्ट्र से संबंधित महानगरों में अपने भविष्य को उज्जवल बनाने की रेस में अपनी जिंदगी की रेस को भाषावाद और क्षेत्रवाद के तले खत्म ना कर पायेंगें।उन्हें भी वहाँ जीवन यापन करने और धनोपार्जन करने का उतना ही अधिकार होगा जितना की मराठी बोलने वाले नागरिकों को है। यह विडंबना आज की नहीं परन्तु पहले भी कई बार देखने को मिली है कि महाराष्ट्र में भाषावाद का जहर घोल कर संप्रदायिकता को मराठियों की नशों में टीकाकरण किया जाता रहा है और इसका लाभ इन पार्टियों को चुनाव में मिला भी है।अप भाजपा को देखना है कि वो अपना स्वार्थ साध कर अपने गठबंधन बचाने के लिये शिवसेना के विधायकों का साथ देती है।या अपने निर्णयों में अन्य दलों की सहमति बनाकर क्षेत्रवाद और भाषावाद को खत्म करने की मुहिम छेडती है।जिससे उत्तरभारतीयों को कुछ नहीं तो मुम्बई जैसे महानगरों में चैन की सांस लेने का अवसर मिलेगा।
अनिल अयान . 

अभियान बनी एक परंपरा का सच


अभियान बनी एक परंपरा का सच
बहुत समय से देख रहा हूँ कि बच्चों को हाथ धुलाने का अभियान शासकीय विद्यालयों में चलाया जा रहा है।बच्चे हाथ धोकर अपने जीवन को शुद्ध करने का भ्रम पाल कर विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। बच्चे पढने में कम और मध्यान भोजन और हाथ धोने में ज्यादा ध्यान लगाते है। यूँ तो हाथ धुलाने की परंपरा का निर्वहन आदि काल से ही भारत वर्ष में चली आरही है। मेजबान अपने काम को खत्म करने के बाद और भोजन ग्रहण करने के पूर्व अपने हाथ पैर जरूर साफ करते थे।आज भी यह परंपरा का निर्वहन देश के हर घर में किया जाता है।हमारी सुबह हाथ धोने से होती है और सोने से पहले हम सब हाथ धोकर ही बिस्तर में जाते हैं।शिक्षा विभाग की यह पहल का क्या उद्देश्य है यह सोचने का विषय है।क्या सिर्फ स्वच्छता,और बच्चों को बीमारियों से बचाने के लिये यह अभियान चलाया जा रहा है या फिर इसके पीछे भी एक उच्च स्तरीय व्यापार नीति का संचालन सरकार द्वारा किया जा रहा है।
हाथ धुलाने के अभियान में हर स्कूल में विशेष प्रकार का साबुन,जग,बाल्टी,नल कनेक्शन,और पानी की टंकी की व्यवस्था की जाती है।साथ हर बच्चे का अपना अलग तौलिया निर्धारित किया जाता है।इसके लिये विद्यालय एक निविदा निकाल कर टॆडर बुलाता है और सस्ते रुपयों की दर में ये सब उचित दाम में खरीदा जाता है।यह प्रक्रिया हर विद्यालय में अपनाया जाता है।गाँव का वो बच्चा जो अपने परिवार की गरीबी को मिटाने के लिये सरकारी स्कूल में जाता है वह इस प्रकार लग्जरी तरीके से हाथ धोने में बहुत आनंद आता है और वह इस काम को घर में भी करने के लिये अपने गरीब माता पिता को बोलता है।अब उसके माता पिता की जिम्मेवारी बनती है कि यह सरकारी तरीका वह अपने घर में अपनाये।और इस तरह से इस व्यापार की प्रथम बिसात सफल होती है।इस सफलता का परिणाम है कि आज के समय में मध्यान भोजन के लिये स्वसहायता समूह शिक्षा विभाग के नजदीकी लोगों द्वारा चलाये जा रहे हैं। फिर मँहगे किस्म के साबुन,तौलिये आदि का आयात प्रारंभ किया जाता है।बच्चों की सुरक्षा और साफ सफाई के साथ साथ इस तरह का लाभ अन्य सामाजिक धन्ना सेठों को भी आकर्षित करता है।लोगों को किसी चीज का आदी बनाना है तो उन्हे इसी तरह से लग्जरी सामान उपयोग करने की आदत डलवाई जाती है ताकि बच्चों की सह में ही सही लोग अपने दैनिक जीवन में इस तरह के मँहगे और लग्जरी सामान की खपत कर सकें और शिक्षा के मंदिर को व्यापारिक प्रतिष्ठान बनाया जा सके।
इस अभियान के पूर्व में भी बच्चे हाथ धोते थे।इस के लिये कही नहीं लिखा कि मँहगे हाथ धोने वाले साबुन और मंहगे तौलिये इस्तेमाल किये जायें।प्राचीन काल में हाथ धोने के लिये राख का इस्तेमाल किया जाता था। कभी-कभी नीबू का पानी और ताजा पानी भी इस काम के लिये इस्तेमाल किया जाता था।फिर यह काम देशी निरमें से पूरा किया जाने लगा।और धीरे धीरे शहरी जीवन शैली में हैंड वाश सोप और हैंड वाश लिक्विड का इस्तेमाल किया जाने लगा।भारतीयता को अपनाने वाले शासकीय विद्यालय के ग्रामीण बालकों को शहरीय जीवन शैली की तरफ मोडने की यह साजिस सिर्फ इस लिये है क्योंकि हम भारत को इंडिया के रूप में परिभाषित करने की फिराक में लगे हुये है।ग्रामीण बालक जिन्हे अपनी सामान्य जीवन शैली को सुधारने और सर्वकालिक विकास के लिये विद्यालय के दरवाजे खटखटाता है।उसे बाजारवाद के इस प्रकार के पैने  हथियार परिवार वालों के साथ अपने गिरफ्त में जकड लेता है।शासन और प्रशासन विद्यालय को संबंधित व्यापारियों के हाथों धीरे धीरे सुपुर्द करने में लगे हुये है।कुल मिलाकर यह कहा जाये कि विद्यालय को व्यावसायिक प्रतिष्ठान के रूप में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोडी जा रही है तो बेमानी कुछ भी नहीं है।इस प्रक्रिया के चलते बच्चे के हाथों की सुरक्षा और साफ सफाई किस हद तक होती है यह तो अनुमान लगाना कठिन है परन्तु व्यापारियों की जेबों की भरपाई होना तय माना जा सकता है।
इस प्रकार के अभियान छात्र छात्राओं के विकास में कितना कारगर है यह तो विद्यालय की स्थिति देख कर समझा जा सकता है।विद्यालय में जहाँ शासकीय स्तर पर शौचालय,पीने के पानी की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती है।मध्याहन भोजन में मिलावट का खेल खेला जाता। बच्चे बस्ता लेकर आते है और खाना खाकर घर बिना पढे चले जाते है।जहाँ बच्चों को अपने मास्टर साहब का नाम नहीं पता होता है।बच्चों की जगह पर उनके छोटे भाई बहन थाली में भोजन करते है।जहाँ बच्चों के फर्जी नाम रजिस्टर में सिर्फ संख्या की बढोत्तरी के लिये लिखे जाते है।वहाँ पर हाथ धुलाकर अपनी और व्यापारियों की जेब भरने की प्रक्रिया षडयंत्रकारी और बेमानी लगती है। अभियान होतो पारदर्शी हो अन्यथा बच्चों को विद्यालय लाने के लिये अच्छी पढाई और ज्ञान देकर आकर्षित किया जाना चाहिये ना कि उनके गरीब माता पिता की जेब खाली करने की चाल चल कर उन्हें धोका दिया जाना चाहिये।विद्यालय में यदि पठन पाठन से अधिक इन सब अभियानों में शिक्षक ध्यान देंगें तो फिर बच्चों का कैरियर तो ग्रामीण परिवेश में दम तोड देगा।
अनिल अयान,सतना        

जातियों के सांप्रदायीकरण से उपजता चक्रव्यूह

जातियों के सांप्रदायीकरण से उपजता चक्रव्यूह
धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद में टिका भारत का जाति.वर्णात्मक अस्तित्व खतरे में आ रहा है।भारत के सभी राज्य आज इस ओर अंधी दौड में भागे जा रहे है।आज की स्थिति यह है कि हर तरफ जातियों का  पराक्रम दिखा कर उसके प्रभाव से अन्य जातियों को अपनी जूतियों तले रौंदने का प्रयास जारी है।इतिहास गवाह रहा है कि जो जातियाँ अंग्रेजों के पहले से बहुसंख्यक रूप में राज्य करती थी आज वह अल्प संख्यक वर्ग में आचुकी है।परन्तु आज जाति के नाम पर राजनैतिक पार्टियाँ या तो ऐश कर रही है या तो जाति को उग्रवाद बनाकर उसके नाम को कैश कर रही है।
लार्ड क्लाइव से शुरू होकर आज की इस ग्लोबल पीढी तक जिनका इतिहास नहीं आया वो बखूबी जानते हैं कि दलितों के राजा वैदिक काल से मध्य काल तक पाये जाते थे।कई जातियाँ अपने राजवंश को सुरक्षित रखे हुई थी।धनगर मराठे एहोलकर राज्य के संस्थापक खुद चरवाहे का काम किया करते थे।आज जितने भी ओबीसी और पिछडे वर्ग के अंतर्गत जातियाँ आती है उनकी सत्ता द्क्षिणी और पूर्वोत्तर राज्यों में शासन करती रही है।इतिहास यह भी जानता है कि कभी पूरे देश में राजपूतों और ब्राह्मणों का राज नहीं रहा इन रियासतों में ये जातियाँ एक रहवासी के रूप में ससम्मान पूर्वक निवास करती थीं।समय सापेक्ष जाति का संविलियन और विघटन हुआ है।बडी जातियों से कई छॊटी छोटी जातियों का पुनर्जन्म हुआ।आज जातिगत समूहों से जिस प्रकार क्षेत्रवाद उतपन्न हो रहा है वह देश की अर्थव्यवस्था और समाजिक व्यवस्था के लिये खतरनाक चक्रव्यूह की तरह है।
जब से मनुष्य संगढित होकर रहना शुरू किया तभी से वर्णव्यवस्था के अंतर्गत जाति वर्ग व्यवस्था का अनावरण हुआ था।हर व्यक्ति का अपना अपना काम निर्धारित कर दिया गया।जाति भारतीय संस्कृति की पुरातन और नीव के पत्थर के समान है।हर इंसान की पीढ में यह पूर्वजों के द्वारा अमिट रूप से कुरेद दी गयी है।कोई चाहकर भी इस दर्दनाक हकीकत से मुँह नहीं मोड सकता कि वो जाति से हटकर अपने अस्तित्व को कायम कर सकता है।यह भी सच है कि जड और रूढ स्थिति में जाति कभी नहीं रही है अन्यथा गैरलचीली व्यवस्था कभी भी समाज में ज्यादा देर तक टिक नहीं सकती है।जो संगठन या लोगों के समूहों ने जाति को टोडने का प्रयास किया वो खुद समाज के एक हासिये में चले गये वो संगढन समाप्त हो गये है। और अंत में उन्हें अपनी अपनी जाति के अंतर्गत कुनबों में वापिस लौटना ही पडा है।देश में आज भी ऐसे स्थान है जिनके अंतर्गत जाति के हाहाकारी प्रभाव भी गाहे बगाहे दिख ही ही जाते है।हिंदू धर्म जिसे हम सब सनातन धर्म के रूप मे जानते है इसके अंतर्गत सबसे अधिक जातियाँ आती है और इन जातियों का विद्रोह भी देखने को मिल जाता है।पहले जातियों के नाटक का पटाक्षेप समाज में ही हो जाया करता था परन्तु आज इसका भी राष्ट्रीय स्वरूप देखने को मिलता है।
जब तक हम जाति को सामाजिक नजरिये से ना देखेंगें तब तक जतियों से सांप्रदायीकरण की चिंगारी धधकती रहेगी।भारतीय समाज की एक परंपरा के रूप में जाति को लेकर चलने से समाज की अनुकूलता बनी रहेगी।आज के समय में राजनैतिक पार्टियाँ जाति को परिवर्तित करके जातिगत समीकरण बनाने में लग गये।कई राजनैतिक पार्टियाँ तो जातिगत राजनीति की संवाहक बनी हुई है।वो जाति को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने मे पीछे नहीं हटती है।आज के समय में जातिगत असर साहित्य में भी दिखाई देने लगा है।जातियों को राजनैतिक स्वार्थ के तहत एससीएएसटीएऔर ओबीसी में बाँट दिया गया है।
राजनीति के साथ जाति सांप्रदायीकरण उत्प्लावित होकर क्षेत्रवाद के रूप  देश की संप्रभुता के लिये चक्रव्यूह के रूप में उपजा है।पूरे समाज को सवर्ण और अवर्ण के रूप में विघटित करके यह सांप्रदायीकरण देश को टुकडे टुकडे करने में भागीदार जरूर बनेगा।आज भारतीय उपमहाद्वीप की प्रमुख आवश्यकता है कि जाति को समाज के एक घटक के रूप में देखे और इसको सांप्रदायिक बनाने से बचे।यदि जातियों का इसी तरह साप्रदायी करण होता रहेगा तो लोग जाति के नाम में एक दूसरे के खून के प्यासे इस वजह से हो जायेंगें ताकि वो अपनी जाति का वर्चस्व पूरे भूभाग में कायम कर सकें।आज के समय मे राजनैतिक पार्टियों के सह पर सवर्ण और अवर्ण के मध्य साम्प्रदायिक विद्वेष सांप्रदायीकरण का तीक्ष्ण प्रहार है।और इससे हमे बचकर रहना होगा।

अनिल अयानण्सतनाण्



अतिउत्साहित बयानों से उठते विवाद
राजनीति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से समाज को अब खतरे नजर आने लगे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माध्यम अब गलत दिशा की ओर जाने लगा है। पदलोलुपता के चलते राजनीतिज्ञ अपनी मर्यादा को भूलकर कुछ भी,किसी के बारे में और कभी भी बयान देने से बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते है।वो यह नही सोचते हैं कि दिये जाने वाले बयानों से राजनीति के मैदान में क्या उहापोह की स्थिति निर्मित हो जायेगी।उसका समाज में क्या प्रभाव पडेगा और तो और उनकी पार्टी और सरकार पर कितना दुष्प्रभाव पडेगा।अब वक्त आ गया है कि भविष्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पुर्नपरिभाषित किया जाना चाहिये।
बयानबाजी में पश्चिम बंगाल के मंत्रियों की बात की जाये,उत्तर प्रदेश के मंत्रियों की बात की जाये,या फिर भारत की केंद्र सरकार के मंत्रियों और सांसदों की बात की जाय सभी एक से बढकर एक बयान देकर सुर्खियों में बने रहने की चेष्टा करते है और गाहे बगाहे विवादों में घिर जाते हैं।इस सरकार के बनने के बाद और नरेंद्र मोदी जी के कहने के बाद भी सांसद अपनी सीमा को लाँघ कर अभद्र बयान देते हैं।कभी राष्ट्रपिता बापू को गोली मारने वाले नाथू राम गोडसे को देशभक्त कहते हैं।कभी महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी की जाती है।कभी महिलाओं के पहनावे और उनकी नौकरी करने पर रोक की बात की जाती है।कभी पश्चिम बंगाल में महिला सांसदों के द्वारा अपने कपडे खुद फाडकर दूसरे पार्टी सांसदो के द्वारा किये जाने वाले बलात्कार की बात की जाती है। कभी निर्भया दुष्कर्म को बहुत छोटी घटना का रूप दिया जाता है। और कभी सांई के ऊपर अभद्र बयान दिये जाते है।कभी साधू,कभी संत,कभी साध्वी और कभी सांसद महिलाओं को केंद्र बिंदु बना कर अनाब सनाब ,अनर्गल प्रलाप करने से बाज नहीं आते है।
इस बार तो हद इस बात पे हो गई की साध्वी प्राची और साक्षी महराज वर्तमान सांसद भारतीयों को कितने बच्चे पैदा करने चाहिये इसका निर्णय कर बैठे।भले ही भाजपा के द्वारा साक्षी महराज को नोटिस दी गई पर साध्वी प्राची की जुबान पर कौन लगाम लगायेगा।क्या स्त्री को सिर्फ जननी का कार्य सौंपना चाहते है।और कोई दंपति कितने बच्चे पैदा करेंगें यह निर्णय करने और इसके माध्यम से हिंदू कहलाने की पुष्टि करने का अधिकार इन धर्म के ठेकेदारों को किसने प्रदान किया है।हम सब जानते है कि यह मुद्दा नितांत ही व्यतिगत है और इस तरह से बयान बाजी सरकार की गरिमा को धूमिल कर रहा है।साध्वी प्राची का इस बयान में टिके रहने का क्या तात्पर्य है क्या वो महिला होकर महिलाओं की पीडा और संघर्ष को नजरंदाज करना चाहती है।इस प्रकार के बयान अविवाहित सांसदों चाहे वह स्त्री हों या पुरुष हो के मुँह से शोभा नहीं देते है। उन्हें नहीं पता कि आज के समय में बच्चों को पैदा करने में ,पालन पोषण करने में और उनको इस समाज में सम्मान जनक स्थान दिलाने में कितनी मेहनत,संघर्ष और नियोजन करना पडता है।
एक तरफ प्रधानमंत्री जी वाईब्रेंट गुजरात के माध्यम से विदेशों को भारत की सर्वसत्ता का भान करा रहें हैं और दूसरी तरफ ये लोग अपने अनर्गल बयान बाजी से स्त्री को अपशब्द और व्यक्ति की नितांत व्यक्तिगत बातों और उनके बेडरूम तक घुसने की बात करते है। यदि ऐसा होने लगा तो छोटा परिवार सुखी परिवार,और परिवार नियोजन जैसी स्वास्थ्य मंत्रालय की योजनाओं को ठेंगा दिखाती नजर आती है।आज इस वर्तमान भारत में इस प्रकार के बयान बाजी करने में हिंदूवादी संगढनों को सरकार की नीतियों के विरोध में आकर बयान देने से कौन रोकेगा। नरेंद्र मोदी खुद सरकार के मुखिया इस प्रकार के अनर्गल अतिवादिता से ग्रसित नहीं है तो सरकार के सभी टीम मेंबर्स को उन्हें फालो करना चाहिये।आज के विकास के युग में भारत को हिंदूवादी राष्ट्र बनाने की जिदवाले बयान देना सर्वधर्म संभाव और सुशासन की परिकल्पना को फाँसी देने जैसा है।इसी तरह की बयान बाजी यदि होती रही तो वह दिन दूर नहीं है कि जब लोग नरेद्र मोदी को पसंद करेंगें परन्तु उनकी टीम के लीडरों से नफरत करेंगें।और मोदीमय भारत सिर्फ इनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण वोटों की गणित बिगड जायेगी।इस उदाहरण वाराणसी के निकाय चुनावों में भाजपा को मिली करारी हार है। इस लिये यह ध्यान रखना चाहिये कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यदि अधिकार है तो मर्यादा में रहकर जुबान खोलना इस समाज के लिये एक कर्तव्य है जिसे सरकार में बैठे हर व्यक्ति को अच्छी तरह से समझ लेना होगा।
सोच समझकर बोलिये, जग में हर एक बोल।
वरना मिट ही जायेगा, इस जग से तेरा मोल।
अनिल अयान,सतना

अतिउत्साहित बयानों से उठते विवाद

अतिउत्साहित बयानों से उठते विवाद
राजनीति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से समाज को अब खतरे नजर आने लगे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माध्यम अब गलत दिशा की ओर जाने लगा है। पदलोलुपता के चलते राजनीतिज्ञ अपनी मर्यादा को भूलकर कुछ भी,किसी के बारे में और कभी भी बयान देने से बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते है।वो यह नही सोचते हैं कि दिये जाने वाले बयानों से राजनीति के मैदान में क्या उहापोह की स्थिति निर्मित हो जायेगी।उसका समाज में क्या प्रभाव पडेगा और तो और उनकी पार्टी और सरकार पर कितना दुष्प्रभाव पडेगा।अब वक्त आ गया है कि भविष्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पुर्नपरिभाषित किया जाना चाहिये।
बयानबाजी में पश्चिम बंगाल के मंत्रियों की बात की जाये,उत्तर प्रदेश के मंत्रियों की बात की जाये,या फिर भारत की केंद्र सरकार के मंत्रियों और सांसदों की बात की जाय सभी एक से बढकर एक बयान देकर सुर्खियों में बने रहने की चेष्टा करते है और गाहे बगाहे विवादों में घिर जाते हैं।इस सरकार के बनने के बाद और नरेंद्र मोदी जी के कहने के बाद भी सांसद अपनी सीमा को लाँघ कर अभद्र बयान देते हैं।कभी राष्ट्रपिता बापू को गोली मारने वाले नाथू राम गोडसे को देशभक्त कहते हैं।कभी महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी की जाती है।कभी महिलाओं के पहनावे और उनकी नौकरी करने पर रोक की बात की जाती है।कभी पश्चिम बंगाल में महिला सांसदों के द्वारा अपने कपडे खुद फाडकर दूसरे पार्टी सांसदो के द्वारा किये जाने वाले बलात्कार की बात की जाती है। कभी निर्भया दुष्कर्म को बहुत छोटी घटना का रूप दिया जाता है। और कभी सांई के ऊपर अभद्र बयान दिये जाते है।कभी साधू,कभी संत,कभी साध्वी और कभी सांसद महिलाओं को केंद्र बिंदु बना कर अनाब सनाब ,अनर्गल प्रलाप करने से बाज नहीं आते है।
इस बार तो हद इस बात पे हो गई की साध्वी प्राची और साक्षी महराज वर्तमान सांसद भारतीयों को कितने बच्चे पैदा करने चाहिये इसका निर्णय कर बैठे।भले ही भाजपा के द्वारा साक्षी महराज को नोटिस दी गई पर साध्वी प्राची की जुबान पर कौन लगाम लगायेगा।क्या स्त्री को सिर्फ जननी का कार्य सौंपना चाहते है।और कोई दंपति कितने बच्चे पैदा करेंगें यह निर्णय करने और इसके माध्यम से हिंदू कहलाने की पुष्टि करने का अधिकार इन धर्म के ठेकेदारों को किसने प्रदान किया है।हम सब जानते है कि यह मुद्दा नितांत ही व्यतिगत है और इस तरह से बयान बाजी सरकार की गरिमा को धूमिल कर रहा है।साध्वी प्राची का इस बयान में टिके रहने का क्या तात्पर्य है क्या वो महिला होकर महिलाओं की पीडा और संघर्ष को नजरंदाज करना चाहती है।इस प्रकार के बयान अविवाहित सांसदों चाहे वह स्त्री हों या पुरुष हो के मुँह से शोभा नहीं देते है। उन्हें नहीं पता कि आज के समय में बच्चों को पैदा करने में ,पालन पोषण करने में और उनको इस समाज में सम्मान जनक स्थान दिलाने में कितनी मेहनत,संघर्ष और नियोजन करना पडता है।
एक तरफ प्रधानमंत्री जी वाईब्रेंट गुजरात के माध्यम से विदेशों को भारत की सर्वसत्ता का भान करा रहें हैं और दूसरी तरफ ये लोग अपने अनर्गल बयान बाजी से स्त्री को अपशब्द और व्यक्ति की नितांत व्यक्तिगत बातों और उनके बेडरूम तक घुसने की बात करते है। यदि ऐसा होने लगा तो छोटा परिवार सुखी परिवार,और परिवार नियोजन जैसी स्वास्थ्य मंत्रालय की योजनाओं को ठेंगा दिखाती नजर आती है।आज इस वर्तमान भारत में इस प्रकार के बयान बाजी करने में हिंदूवादी संगढनों को सरकार की नीतियों के विरोध में आकर बयान देने से कौन रोकेगा। नरेंद्र मोदी खुद सरकार के मुखिया इस प्रकार के अनर्गल अतिवादिता से ग्रसित नहीं है तो सरकार के सभी टीम मेंबर्स को उन्हें फालो करना चाहिये।आज के विकास के युग में भारत को हिंदूवादी राष्ट्र बनाने की जिदवाले बयान देना सर्वधर्म संभाव और सुशासन की परिकल्पना को फाँसी देने जैसा है।इसी तरह की बयान बाजी यदि होती रही तो वह दिन दूर नहीं है कि जब लोग नरेद्र मोदी को पसंद करेंगें परन्तु उनकी टीम के लीडरों से नफरत करेंगें।और मोदीमय भारत सिर्फ इनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण वोटों की गणित बिगड जायेगी।इस उदाहरण वाराणसी के निकाय चुनावों में भाजपा को मिली करारी हार है। इस लिये यह ध्यान रखना चाहिये कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यदि अधिकार है तो मर्यादा में रहकर जुबान खोलना इस समाज के लिये एक कर्तव्य है जिसे सरकार में बैठे हर व्यक्ति को अच्छी तरह से समझ लेना होगा।
सोच समझकर बोलिये, जग में हर एक बोल।
वरना मिट ही जायेगा, इस जग से तेरा मोल।
अनिल अयान,सतना

‘‘साठ्योत्तर संविधान’’ की मुबारकबाद

‘‘साठ्योत्तर संविधान’’ की मुबारकबाद
पैंसठ वर्ष हो चुके हैं हमें हमारा संविधान प्राप्त किये हुये,परन्तु आज भी हमारी सामजिक स्थिति किसी पूंजीवादी व्यवस्था के पीछे चलती नजर आती है।आज भी आम इंसान अपने अधिकारों और कर्तव्यों के किनारा करता नजर आता है।ऐसा लगता है कि ये संविधान सिर्फ शिक्षित लोगों और सत्ता में बैठे लोगों के लिये बना कर सौंपा गया है।साक्षर लोगों को आज भी रोटी ,कपडा और मकान के लिये चिंता होती आज भी सर्वहारा वर्ग और अविकसित स्थानों की जनता आम सुविधा के नाम पर ठेगा देखती हुई नजर आती है।हमारा संविधान भले ही पाँच देशों की संवैधानिक खूबियों से संवर गया हो परन्तु हमारे देश की औसतन जनता उन देशों की जनता से सैकडों साल पीछे जी रही है।
ब्रिटिष एक्ट के अनुसार जब देश चलाने में अछमता नजर आई तब तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी ने संविधान सभा को जन्म दिया । इसका प्रमुख कारण यह भी था कि ब्रिटिश शासन के द्वारा दिया गया यह एक्ट  जो १९३५ में बना था सिर्फ आयातित नियम कायदों का दस्तावेज ही था इससे उपनिवेशीय सोच तो तैयार की जा सकती थी परन्तु अच्छे नागरिक तैयार नहीं किये जा सकते थे।कांग्रेस की जिद के चलते २६ नवंबर १९४९ में तैयार हो चुका संविधान २६ जनवरी को लागू किया गया क्योंकि उसने 1935 को इसी दिन पूर्ण स्वराज की घोषणा की थीे।संविधान सभा चुने हुये तत्कालिक राजनीतिज्ञ ब्रिटेन,संयुक्त राष्ट्र अमेरिका यूएसए,आयरलैंड,कनाडा और फ्रांस की यात्रा करके संविधान की अच्छी बातें तो आयातित किये। परन्तु अफसोस जनता को भारत के लायक ही बने रहने दिया गया।उनके लिये कोई भी नीति और योजना का आयात नहीं किया गया। आज तक 122 परिवर्तन होने के बाद भी हमारे संविधान में ३९५ आर्टिकल्स और १२ अनुभाग है। भारत की विकासशील स्थिति आज भी विकसित राष्ट्रों में परिवर्तित नहीं हो सकी है।
आज भी संविधान की ऐसी धारायें है जो कुछ समय के लिये रखी जानी चाहिये थे परन्तु उन पर ध्यान ना देने के कारण गले की हड्डी बन चुकी हैं।इसका उदाहरण धारा-370-72 और धारा 374-78 जिसमें आज भी कानून और न्याय व्यवस्था उहापोह में है।इतने सारे अमेंडमेंट एक्ट पास हो चुके हैं कि आयातित संविधान पूरी तरह से संकरित हो चुका है। आज की वर्तमान परिस्थितियों की आवश्यकता है कि हमारे देश का संविधान हमारे देश की सामाजिक आर्थिक राजनैतिक व्यवस्था को ध्यान में रख कर निर्मित की जाये।क्योंकि वर्तमान संविधान में आज भी आयातित होने की छाप दिखाई देती है।जो हमारे देश के देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार एक रत्ती भर भी मिलान नहीं खाता है।यदि हमें अपने देश को विकसित राष्ट्र की श्रेंणी में खडा करना है तो यह आवश्यक है कि संविधान निर्मात्री सभा का पुर्नगठन किया जाये और वर्तमान संविधान का पुनरावलोकन करके वांछनीय परिवर्तन किये जायें। वो परिवर्तन आम जन मानस के लिये लाभप्रद हों
वर्तमान भारत में गणतंत्र होने के बावजूद हर राज्य अपने शासन  के लिये स्वतंत्र नहीं है।उसे केंद्र की भूमिका को मानना ही पडता है।यदि केंद्र में विपक्षी सरकार है तो उसे अपने कोश के लिये संघर्ष करना पडता है।ऐसा लोकतंत्र किस मतलब का है जिसमें राज्यों को सरकार बनाने का अधिकार है परन्तु उसका उपभोग करने का अधिकार पूँछ कर मिलता है।सत्ता का विकेंद्रीकरण आज के समय की माँग है।हमारा संविधान ऐसा होना चाहिये कि गलत काम करने में सजा और निर्दोष के लिये माफी हो।फास्ट ट्रैक कोर्ट को मुख्य धारा में आना चाहिये।न्याय व्यवस्था में आतंकवाद,नक्सलवाद,और अन्य आंतरिक राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान त्वरित होना चाहिये।संविधान के परिवर्तनशील करने और अधिक सख्त करने की जरूरत है।राज और काज में एकरूपता होनी चाहिये।मंत्रालयों में संबंधित विषय विशेषज्ञों को उच्च पदों में पदासीन करना चाहिये।अंततः सीधी शब्दों में बात की जाय तो प्रशासन और सरकार के बीच सामन्जस्य इतना तीव्र होना चाहिये की योजनायें बिना सरकारी बिचैलियों और दलालों के हाथ में गये जरूरतमंदों के हाथों में नियत समय में पहुँच सके।सरकार और नागरिकों के मध्य सीधा संवाद स्थापित किया जा सके।तभी राजनीतिशास्त्र का यह लैटिन भाषा का शब्द रिपब्लिका का सही अर्थ भारत को समझ में आयेगा। वरना नाम के लिये गणतंत्र बनने से और गणतंत्र दिवस मनाने से हम अपने देश को विकसित राष्ट्र में सुमार नहीं कर पायेंगें।क्योंकि हमारे देश के संविधान के मूल तत्व,धर्मनिरपेक्षता, अधिकार और कर्तव्य ,सौहार्दता ,भाईचारा ,विश्वबंधुता,एकता और अखंडता सभी खतरे में हैं क्योंकि जिस समय संविधान बना था उस समय का परिवेश और आज के समय के परिवेश में जमीन और आसमान का अंतर है।क्योंकि जनसंख्या विस्फोट की कगार में खडा हमारा देश आज भी अपने आर्थिक संघर्ष से पीछा नहीं छुडा पाया है इस लिये इस सरकार की समझदारी इसी में है कि इस पंचवर्षीय में  संविधान के अनावश्यक तत्वों को जरूरतमंद एक्टों से परिवर्तित करके कानून और व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करें तभी पैसठ वर्ष पुराना  साठ्योत्तर संविधान खुद को जवान महसूस करेगा।
अनिल अयान,सतना
9479411408

प्राथमिक शिक्षा की अपंग दीक्षा

प्राथमिक शिक्षा की अपंग दीक्षा
माँ हर बालक की प्रथम गुरु होती है।वह हर उस बात को अपने बच्चे को सिखाती है जिससे उसकी जीवन शैली सर्वोत्तम बन सके।बालक घर की दहलीज पार कर ज्ञानार्जन के लिये प्राथमिक विद्यालय के द्वार में दस्तक देता है। यहीं पर वह साक्षर होता है,यहीं से उसे शिक्षा का प्रमाण पत्र प्रदान किया जाता है। आज के समय में वह प्रमाण पत्र हर बालक के लिये उपलब्ध है।इसके वितरण में किसी प्रकार की भी अड़चन नहीं है।क्योंकि शासन का आदेश हर विद्यालय मानता है जिसके अनुसार हर बच्चे को उत्तीर्ण करना आवश्यक है, जैसे यह अधिकार उन्हें जन्म से ही शासन दे चुका है कि वह प्राथमिक शिक्षा में उत्तीर्ण तभी से हो जाता है जब से उसे अक्षर ज्ञान आना प्रारंभ हो जाता है।
मुझे वह समय अच्छी तरह याद है जब मै पाँचवीं और आठवी की परीक्षा देने किसी शासकीय विद्यालय में देने जाता था। उस समय प्राथमिक शिक्षा का अस्तित्व सिर्फ साक्षर करना ही मात्र नहीं था, बल्कि बच्चे को ज्ञानार्जन का अवसर देना भी था।उसका उचित मूल्याँकन करना भी उसके उत्तीर्ण होने में शामिल हुआ करता था।उस समय में ज्यादा शिक्षा अभियान या शिक्षा मिशन नहीं चलते थे।ना ही शिक्षा गारंटी शालाओं की संख्या अधिक थी।बाकायदे परीक्षा के लिये बच्चे की तैयारी उसका शिक्षक और पालक दोनो करवाते थे और उसके उत्तीर्ण होने के बाद ही छठवीं कक्षा में एडमीशन होता था। परन्तु समयसापेक्ष परिवर्तनों के चलते प्राथमिक शिक्षा अब साक्षरता मूलक शिक्षा में परिवर्तित हो गयी है।एक समय था जब पाँचवीं पास करना कठिन होता था। बच्चे दिन रात एक करके परीक्षा की तैयारी की जाती थी।परन्तु जैसे जैसे परीक्षा परिणाम बिगडने लगे, वैसे वैसे सरकार का सरकारी शिक्षकों से मोहभंग होने लगा या यह करें कि प्राथमिक शाला के शिक्षक शिक्षिकाओं के कौशल से यकीन हटने लगा और उसके चलते जितने प्रवेशित उतने उत्तीर्ण की परंपरा का निर्वहन प्रारंभ हो गया।और यह काम पाँचवी क्या आठवीं तक की कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिये भी लागू कर दिया गया। 
आज की वास्तुस्थिति यह है कि ये परीक्षायें जो कि जिला स्तरीक्ष शिक्षा विभाग के अधीनस्थ आयोजित होती थी,वो अब विद्यालयीन स्तरीय हो चुकी हैं।परीक्षा सिर्फ कापी भरने की खाना पूर्ति तक सीमित होकर रह गई है क्योंकि वार्षिक परीक्षाफल शत प्रतिशत लाना एक मात्र ध्येय हो चुका है। उस समय के मोह भंग का आधार पूर्णतः निराधार था।वास्तविकता यह है कि शिक्षक मेहनत तब करेगा जब उसे पढाने का अवसर मिलेगा। वो सुबह से शाम तक विभागीय कार्यों में उलझा रह जाता है।जो काम कार्यालय सहायक और लिपिक का है उसे सरकारी शिक्षक और शिक्षिकायें कर रहीं है तब इन परिस्थितियों में  गुणवत्तायुक्त प्राथमिक शिक्षा कहाँ से आ पायेगी।आज की वर्तमान स्थिति में समग्र आई डी इसका सबसे बडा उदाहरण शिक्षा विभाग के पास है जिसके अंतर्गत विद्यालय के शिक्षक शिक्षिकाओं की प्राथमिकता यह पहले है बाद में पढाना क्योंकि इसमें ऊपर से पूर्ण करने का ज्यादा दबाव है।
सर्व शिक्षा अभियान,सब पढे सब बढे,और शिक्षा का अधिकार दिग्भ्रमित हो चुके हैं,दूसरे अर्थों में साक्षरता के चारो तरफ चक्कर लगाते नजर आते हैं।हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिये कि यदि विद्यालयीन शिक्षा की प्रथम सीढी में ही रेवडी बाँटी जायेगी तो उत्पाद गुणवत्ताहीन ही निकलेगा।और उसका परिणाम यह निकलता है कि कमजोर बच्चे दसवीं की परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के भी काबिल नहीं बन पाते हैं। अब इस स्तर पर शत प्रतिशत उत्तीर्ण का मिशन शून्यतम स्तर पर पहुँच जाता है।
अब शिक्षा के झंडावरदारों को समझना होगा की आज के समय के जितने भी शिक्षक शासकीय सेवा में आ रहें है वो अतियोग्य और गुणवत्ता हेतु दी गई परीक्षा पास करके आ रहें हैं वो पाँचवीं और आँठवी पास पुराने जमाने के मास्टर साहब नहीं हैं।यदि इनकी योग्यता का इस्तेमाल आने वाली पीढी को ज्ञानार्जन हेतु नहीं किया जा रहा है तो इसके लिये दोषी कौन है।सरकार के ऐसे बहुत से विभाग है जिसमें कार्यरत कर्मचारियों का आने वाली पीढी के भविष्य से कोई लेना देना नहीं हैं यदि शिक्षकों की बजाय अन्यत्र कामों के लिये उन व्यक्तियों की सेवायें ली जायेगीं तो शिक्षकों का समय सही जगह लग पायेगा।परीक्षा नीतियों के बदलाव की नितांत आवश्यकता समाज को महसूस होती है।यदि प्रारंभ से ही उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता खत्म कर दी जायेगी तो बच्चा पढेगा भी और शिक्षक पढायेंगें भी। सरकार की पहल ही शिक्षकों की योग्यता का सही मूल्याँकन और आने वाली पीढी के द्वारा उपार्जित ज्ञान को सही दिशा निर्धारित करेगा।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

चाइना को हर बार आइना क्यों

चाइना को हर बार आइना क्यों
भारत की तरफ से फिर एक बार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज्य अपनी विदेश यात्रा के लिये चाइना को चुना।वो विगत दिनों भारत और चाइना के रिस्तों में नई उर्जा डालने की कोशिश कर रही थी।हम सब जानते हैं कि दिल्ली विधान सभा चुनावों की जीत के सपने के बाद अब हमारे प्रधान मंत्री जी मई में चाइना जाने की तैयारी में हैं।हमारी विदेश मंत्री की यह यात्रा उनकी प्रस्तावना के रूप में स्वीकार की  जा रही है। पर इस यात्रा का औचित्य क्या निकला यह मेरे समझ के परे है। क्योंकि चाइना के साथ हमारे संबंध छिपे नहीं हैं। आज भी भारत चाइना का सीमा विवाद ,भारत के गले की हड्डी बना हुआ है।
जिन छ सूत्रीय माडल को लेकर विदेश मंत्री बीजिंग गई थी उनकी तरफ नजर डालें तो उसमें दोनो देशों को परिणामोंन्मुखी कार्ययोजना बनाना,व्यापक आधार वाले द्विपक्षीय रिस्तों की शुरुआत करना,सामान्य क्षेत्रीय व वैश्विक हितों के लाभ की बात,व्यापार सहयोग के नए क्षेत्रों का विकास,राजनैतिक संवाद का दायरा और व्यापक बनाना, और एशियाई सदी का लक्ष्य पाने के लिये साझा रणनीति बनाना। इस छ सूत्रीय संवाद में भारत चाइना सीमा विवाद और कैलास मान सरोवर मार्ग जैसे वो मूलभूत मुद्दे किसी कोने में जम्हाई लेते नजर आये।विदेस मंत्रियों और सदस्य मंडल की बैठक में क्या सिर्फ मोदी की मई में चाइना यात्रा को फाइनल करना  और वांग सी को इंटरटेन करने का जिम्मा उनके पास था।वो कहती नजर आई कि यह चाइना में विजिट इंडिया २०१५ की शुरुआत है मतलब आने वाले समय में भारत सिर्फ चाइना को मनोरंजित करने का काम करेगा।अपने मूलभूत मुद्दों को भूल कर इस तरह की यात्राओं का मतलब कितना देश वासियों के हित में है।
वो चाइना मीडिया फोरम को संबोधित कहते हुये जब कहती हैं कि चाइना भारत का सबसे बडा  व्यापारिक साझेदार है तब उन्होने सीमा मामले पर अपनी जुबान पर ताला क्यों लगा रखीं।बार बार भारत के विदेश मंत्रालय का दावा करना कि बस से जासकेंगें कैलाश मान सरोवर, उन दावों का क्या होगा।क्या विदेश मंत्रालय आज तक अन्य रास्ता खोलने पर विचार करना बंद कर चुका है।अपने अंतिम संवाद में हमारे विदेश मंत्री का यह कहना कि सीमा पर शांतिपूर्णं शर्त जरूरी है कहाँ तक सही है।हम भूल जाते हैं कि चाइना लाइन आफ कंट्रोल को बार बार पार कर कथित भारत अधिकृत चाइना को हथियाने या ये कहें भारत में घुसबैठ करने में अपनी एडी चोटी का जोर लगा रहा है।वो वहाँ पर चैकियाँ, सडकें,टेलीफोन लाइन,और अपनी कालोनियाँ लगभग सौ किलोमीटर तक बना चुका है।और भारत के सैनिकों को आज तक यह अधिकार दिया गया कि वो उनको पीछे खदेड सके ।तब भारत के विदेश मंत्री का इस तरह घिघियाना कब बंद होगा।
एक ओर भारत २६ जनवरी को नारी शक्ति प्रदर्शित करता है और वहीं दूसरी तरफ विदेश मंत्री वो नारी शक्ति जिन्हें वास्तविक रूप से अधिकार है अपनी शक्ति और संबल का प्रदर्शन करने का वो वहाँ शांति पूर्ण शर्त की बात करती नजर आ रहीं हैं। क्या भारत को नहीं पता कि वो चाइना सीमा में कितना फंड खर्च कर रहा है।दोटूक बात करने का वादा जो हमारे प्रधान मंत्री जी चुनाव के उम्मीदवार के रूप में कर रहे थे उन वादों की तिलांजलि देने का क्या मतलब है। व्यावसायिक और वैश्विक निवेश और साझेदारी को द्वितीयक प्राथमिकता देते हुये पहले भारत को इन विवादों को सुलझाने के लिये सीधे संवाद कर परिणाम निकालना चाहिये।और अपने क्षेत्र को अपना बनाना चाहिये।इसके लिये भारत को चाहे जितना विरोध झेलना पडे।जितने रक्षा इतजाम करना पडे।भारत को अपने अतीत में मिले चाइना के युद्ध नहीं भूलना चाहिये।उसे यह नहीं भूलना चाहिये कि चाइना सिर्फ भारत के उपभोक्ताओं का उपभोग कर रहा है और करता रहेगा और जब भी उसके नुकसान की बात की जायेगी यानि सीमा और अन्य रक्षा सौदों की बात की जायेगी तब वो सीधे सीधे मुकर जायेगा और बात को घुमा फिरा देगा।आज विदेश मंत्री को चाहिये कि इन मुद्दों  सीधा संवाद भविष्य की यात्राओं में तय किया जाये और मसलों का हल निकाला जाये। ना कि उनको बातों से उलझाकर अपनी विदेशी यात्राओं के आँकडों में इजाफा मात्र किया जाये।
अनिल अयान,सतना,9479411407

‘आप’ के सपनों की दिल्लीc





‘आप’ के सपनों की दिल्ली
बनारस की हार का परिणाम दिल्ली में आ चुका है। दिल्ली को नया मुख्यमंत्री मिल चुका है।दिल्ली ने जिस तरह आम आदमी पार्टी को बहुमत दिया है वह अद्वितीय है।शपथ लेने के समय में जिस तरह अरविंद केजरीवाल बोल रहे थे उससे साफ लग रहा था कि वो अपने किये चुनावी कुम्भकर्णी वायदों को पूरा करने से डरने लगे हैं।उन्होने दिल्ली वासियों को अर्धशतकीय वादों के जहाज में चढा कर अपनी सत्ता तो हासिल कर लिया पर उनकी आपूर्ति कहीं ना कहीं चक्रव्यूह के समान उनके सामने खडी हुई है। एक बार दिल्ली में सत्ता में काबिज होने के बाद लोकसभा चुनाव की मृग मारीचिका ने उन्हें दिल्ली की जनता और भाजपा के चुनावी निगाहों में गुनहगार बना दिया था।उनकी बुराई ,उनके ऊपर शब्द कटाछ ,और खूब व्यंग्य बाण छोडे गए। परन्तु केजरीवाल जी ने अपने संयम को कायम रखा।जब उसके दो कदवार राजनीतिज्ञ भाजपा में शामिल हुए तब भी वो अपना संयम बनाये रखे।जब उनके ऊपर काले धन का वार हुआ तब भी वो संयमित होकर अपनी जुबान में लगाम रखे।उस समय दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वास्तविक जनसंघी याद आगये।
उसी समय भाजपा के दो महापुरुष सवाल पे सवाल और उत्तेजित होते नजर आये।जितनी ताकत भाजपा ने दिल्ली की जीत के लिये लगाई उसका परिणाम दिल्ली की जनता ने दे दिया। जनता ने बता दिया पार्टी के यदि कदवार उम्मीदवार नहीं है तो भगोडे उच्च कद के उम्मीदवार को भी जनता स्वीकार नहीं करेगी।जनता ने जिस तरह केजरीवाल जी को क्षमा दान देकर कुर्सी दान दिया वह दिल्ली के सांस्कारिक होने का पुख्ता सुबूत है।अब सवाल यह है कि भाजपा की कुंभकर्णी नींद इस हार से खुलेगी।उस को स्वीकार कर लेना चाहिये कि भाजपा अपनी ही राजधानी में किरायेदार की तरह हो गई है।और वहीं केजरीवाल को इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिये कि तालाब में बैरी मगरमच्छ के साथ अब आने वाला समय बिताना है।
उनके द्वारा पहली ही चाय भेंटवार्ता में पूर्ण राज्य की माँग करना कहीं ना कहीं महानगरीय क्षेत्रवाद को दिखाता है।हम सब जानते है कि ऐसा बहुत कम हुआ है कि किसी देश की राजधानी एक स्वतंत्र राज्य हो।राजनीतिशास्त्र और राष्ट्रीय परिकल्पना के अनुसार यह असंभव है कि मोदी जी दिल्ली को पूर्ण राज्य बना कर खुद को दिल्ली का किराये दार बना ले ।लोकतंत्रीय प्रणाली के अनुसार आज भी दिल्ली में अधिक्तम अधिकार पुलिस व्यवस्था के पास है।यह पर  जेड सुरक्षा क्षेत्र अधिक है।यहाँ पर अधिक्तर राज्य स्तरीय अधिकार द्वितीयक सरकार के पास होता है।अधिक्तर यहाँ पर केंद्र के निर्णय चलते है।परन्तु यह माँग केंद्र सरकार के लिये गले की हड्डी बनती जारही है।यदि माना जाये कि कभी ऐसा होता है तो क्या केद्र-राज्य संवैधानिक अधिकारों की पुनः समीक्षा की जायेगी।सुरक्षा और सामाजिक शांति व्यवस्था के साथ राष्ट्रीय मुद्दों की व्यवस्था साथ साथ पर विलगित होकर कार्य करेगी।यदि ऐसा होता है तो केंद्र के पास राजस्व और नीतियो के विलगन का बोझ बढेगा।
कभी कभी लगता है कि केजरीवाल जी अब भूल जाते है कि वो देश की संवैधानिक धारा से जुड चुके हैं।और वो केंद्र की अधीनस्थ विधानसभा के मुखिया है।इन सब परिस्थितियों के चलते उनकी इस तरह की नींवहीन माँग उनके अस्तित्व के खतरे को बढाता है। उनको इस हकीकत को स्वीकार करना होगा कि उनकी दीवार के सामने भाजपा के सारे के सारे धुरंधर परास्त हो चुके जरूर हैं पर काम उनको उसी पार्टी की केंद्र सरकार के साथ कदम से कदम मिला कर करना है।हाँ उनके और प्रयास सार्थक है परन्तु यह कहना की काले धन में अपने राज्य को मुक्त करना,भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन करना।आम जन की भागीदारी को बढाना।इस पर जोर देना होगा।उन्हें अपने मंत्रिमंडल में युवा चेहरों को स्थान देना होगा।केंद्र से मिल अपने राज्य के लिये नीतियों के अनुसार कार्यकरना होगा।और अपने अहंकार को नियंत्रित करते हुये अतिउत्साहित बयान बाजी से खुद और अपने मंत्रिमंडल को बचाने की मुहिम चलाना होगा तभी उनके उद्देश्य पूरे हो सकते है।अन्यथा वादों के महल में मोदी जी भी चुनाव जीते है और उनके नेतृत्व का परिणाम हमारे सामने है। राजनैतिक समझ और वैचारिक परामर्श के साथ ही केजरीवाल दिल्ली में स्थित होकर खुद की शाख बना सकते है वरना विरोधियों के बीच अपना अस्तित्व बनाये रखना कठिनतम होगा।ऐसे वायदे जो उनकी शाख को खराब करें और केद्र से गतिरोध बढायें ,उनको त्यागना ही दिल्ली हेतु आप के सपनों को साकार कर सकते है।संवैधानिक नियम कायदों के विरोध में जाकर माँग करने से टकराव की स्थिति ही बनती है हल नहीं निकलता है।


अनिल अयान,सतना.9479411407

अच्छे दिन बनाम मँहगे दिन

अच्छे दिन बनाम मँहगे दिन
बजट आने के बाद तस्वीर काफी कुछ साफ हो गई है।आम जनता को समझ में आने लगा है कि यह बजट सिर्फ उद्योगपतियों की चाटुकारिता करने वाला है।यह बजट यह बताता है कि किस तरह उद्योगपतियों और करोडपतियों से अरब पतियों की फिक्र सरकार को आम जन से ज्यादा है।आम जन तो सिर्फ ढेंगा देखने के लिये मजबूर है।बजट से पहले यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि शायद वित्त मंत्री जी आम जन की जेब का ध्यान रख कर कुछ रियायत देगें परन्तु उन्होने सीधे सीधे अपने भाषण में यह कह दिया कि आम जन अपना ध्यान खुद रखे।हम सिर्फ उनके जीवन को इंस्योर्ड करेंगे।सरकार शायद भूल चुकी है कि आम जन से किये वायदे इस बजट में धूल फाँकते नजर आये हैं।वोट के लिये किये गये झूटे वादों के ढोल की पोल खुलने लगी है।
सरकार ने आम दैनिक उपभोग की वस्तुओं को मँहगा कर आम जन की कमर टोड दी है।सरकार ने उन वस्तुओं के दाम को कम करने का ऐलान किया है जिसका आम जन से कम और खास वर्ग से अधिक ताल्लुकात है।सरकार ने मनरेगा और निर्भया के फंड में बढोत्तरी कर मन मोहने का प्रयास तो किया परन्तु वहीं दूसरी सबसे बडी चपत सर्विस टैक्स को १४ः करके लगा दिया है।इस बढोत्तरी से हर वस्तु और सेवा क्षेत्र का मूल्य अधिक्तम हो जायेगा।हम सब जानते हैं किं उत्पादन से ज्यादा बाजार सर्विसिंग के बूते पे चल रहा है।जहाँ पर आपको रसीद की बात याद आयेगी वहीं पर टैक्स आपको अदा करना होगा।आमजन का रोटी कपडा मकान इतना मँहगा हो गया है कि वो कई प्रकार के टैक्स देकर अपने जीवन को सिर्फ सुरक्षित ही कर सकता है।लोन की बात की जाय तो ब्याज दर मँहगी होने से लोगों का मोह भंग होना तय ही है। बाजार का ध्यान रखना,अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाना,देश का विदेशों से संबंध मजबूत करता,और जनता के अच्छे दिन की परिकल्पना को जनता के सामने रखने का जो कार्य सरकार ने इस बजट के माध्यम से किया है वह मंच से सुनने में प्रभावी और आकर्षक लगता है और कानों को बहुत सुकून देता है परन्तु आज जब सामने खडा है तो मँहगाई वाले ये दिन जेब और आम जन की दैनिक अर्थव्यवस्था को टोडने का काम अधिक कर रहा है।अब समझ से परे है कि जब आम जन की अर्थव्यवस्था ही डगमगाई हुई नजर आयेगी तो क्या पूँजी पतियों के उद्योगों के दम से देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो पायेगी।आम जन का उसमें कोई योगदान सरकार नहीं चाहती है क्या।
अन्य बजट की स्थित पे नजर डाला जाये तो समझ में आता है कि रेल बजट से जनता को कोई रियायत नहीं मिली है।ना किराया घटा है और ना ही कोई नई ट्रेन चलाने का प्रावधान और घोषणा की गई है।इस क्षेत्र में भी सर्विस और यातायात टैक्स बढने से जनता के जेब को नजरंदाज कर दिया गया है।सरकार का मध्य प्रदेश में भी यही हाल रहा है।कर्ज पर लदे होने के बाद भी वित्त मंत्री जी ने वो वायदे किये जिससे मध्य प्रदेश की जनता असंतुष्ट नजर आयी है।वायदों से आमजन की पेट पूजा तो होती नहीं है।सत्ता के मठाधीशों से जनता को अपेक्षा होती है कि वो उनके प्रतिनिधि है तो उनका भरपूर ख्याल रखेगें।परन्तु यहाँ तो दूसरा ही राग अलापा जा रहा है अच्छे दिन का राग अब मँहगे दिन की ओर बढ रहा है।बजट की उपलब्धि यही देखी जा सकती है कि इससे सेनसेक्स की बढोत्तरी ज्यादा नहीं आपायी ।उद्योगपतियों के बयान बजट को देश की अर्थव्यवस्था के अनुकूल बताया वहीं दूसरी ओर राजनेताओं ने इसे विकास दर को १०ः से ज्यादा ले जाने के लिये भागीरथ प्रयास का पहला चरण बताया।आम जन के मुँह से सिर्फ निराशावादी वि़चार ही निकल कर सामने आये।
अब तो ऐसा लगने लगा है कि सरकार का हर जन प्रतिनिधि मंत्री बनने के बाद प्रति जन निधि संचय करने की स्कीम चलाकर जनता की प्राप्त राशि को सरकार के खाते में पहुँचाने की कवायद में लगा हुआ है।क्या अच्छे दिन सिर्फ उद्योग पतियों और अरब पतियों के लिये बस सरकार देना चाहती है या अच्छे दिन का तात्पर्य मँहगे दिन से था। जो सुनने में तो बहुत मधुर था परन्तु जब सामने आया तो उतना ही कडवा होगया।अच्छे दिन का यह प्रथम बजट जनता का सरकार से मोहभंग करने वाला रहा।बजट के बाद पेट्रोल और डीजल का तीन रुपये बढ जाना कहीं ना कहीं व्यापार और बाजार को और ऊँचाई पर पहुँचा देगा। इन बजटों के बाद जनता के लिये अच्छे दिन की परिभाषा बदल चुकी है। ऐसे अच्छे दिन का परिणाम जनता की जेब से से निकलता नजर आयेगा।इंस्योरेंस के दम पर जीवन यापन करने की इस पहल में सरकार बहुत खुश हो सकती है परन्तु जनता दुखी है।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४0७

उपमहाद्वीप में वर्चस्व की खोज

उपमहाद्वीप में वर्चस्व की खोज
दक्षिण एशिया के अंतिम छोर में हिंद महासागर के नाम से चिन्हित हमारे प्रधानमंत्री की श्रीलंका,सेशल्स और मारीशस यात्रा पूरी होने के बाद इस उपमहाद्वीप में अपने वर्चस्व की खोज करती ज्यादा नजर आती है। भारत कहीं ना कहीं चीन को अपना प्रतिद्वंदी मानता रहा है। इस यात्रा में मालदीव को छोड देना इस वर्चस्व की लडाई की प्रमुख चाणक्य नीति है। भारत को अच्छी तरह से पता है कि चीनी सरकार ने आज कल सामुद्रिक रेशम पथ की नीति को अंजाम दे रहा है। जो भारत को कहीं ना कहीं खल रहा है।और उसे खलना भी चाहिये। क्योंकि सन 1902 में लार्ड कर्जन ने हिंद महासागर को भारतीय सामुद्री क्षेत्र कहा था।और आज के समय में रेशम पथ नीति के चलते चीन अपने वर्चस्व को इस क्षेत्र में दोहरा रहा है। भले ही उन्होने प्रति स्पर्धा की बात ना कहीं हो परन्तु हमारे प्रधानमंत्री जी को यह बात अच्छी तरह से पता है कि कान पकडना मूल उद्देश्य है कैसे पकडा गया है यह कोई मायने आज की राजनीति में नहीं रखता है।
मालदीव के राष्ट्रपति यामीन चीन के मुराद हैं और वो नहीं चाहते की भारत का साथ देकर वो चीन की नजरों में किरकिरी बनें।वहीं दूसरी तरफ विपक्ष के नेता और पूर्व राष्ट्रपति नशीद भारत के मुरीद थे इस वजह से हमारे प्रधानमंत्री जी ने मालदीव को नकार दिया और वहाँ की यात्रा को निरस्त करके श्रीलंका में बौद्ध अनुयायियों को संबोधित करने के साथ श्रीलंका का दिल जीत लिया। 28 वर्ष पहले समाप्त की गई इस तरह की यात्राओं को दोबारा प्रारंभ करके हमारे प्रधानमंत्री जी ने श्रीलंका को अपने पक्ष में मिलाने की प्रस्तावना रख दी है। मालदीव को नकारना और श्रीलंका को अपने पक्ष में मिलाना कितना सार्थक होगा यह सोचने वाली बात है।
पिछले पाँच दशक का चिट्ठा उठाकर देखें तो श्रीलंका में चीन 70 करोड डालर से अधिक निवेश कोलंबो और अन्य क्षेत्रों में निवेश सिर्फ इसलिये किया ताकि वो सामुद्री मार्ग में श्रीलंका की जमीन से अपना मार्ग प्रशस्त कर सके जो पूर्व में यूरोप होता हुआ पोलैंड तक जाता था।इस मार्ग में यदि चीन का वर्चस्व काबिज हो जाता है। तो अन्य देशों को चीन की चाटुकारिता करने के लिये मजबूर होंगें। हमारे प्रधानमंत्री मारीशस और सेशल्स की सरकार को अपने साथ लेकर इस सामुद्री आधिपत्य की पहल कितनी सफल होगी यह तो आने वाला वक्त बतायेगा। परन्तु हमारे प्रधानमंत्री जी को यह बात का भान होना चाहिये कि क्या चीन के विरोध में जाकर श्रीलंका भारत का खुलकर समर्थन देगा। वो भी जानता है कि भाई बंधु राजनीति के लिये ज्यादा वफादार नहीं होते बल्कि अपने धर्म के लिये ज्यादा वफादार होते हैं। भारत और श्रीलंका राजनैतिक भाई बंधु ठहरे जबकि चीन और श्रीलंका धार्मिक भाई बंधु हैं। भारत के इन देशों के साथ पूर्व इतिहास में कैसे रिस्ते रहें हैं यह हम सबसे छिपी नहीं है। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने भले ही इस देशों को भारत की सागर माला कहा हो परन्तु आज के समय में यह सागर माला भारत के वर्चस्व से बाहर जाती नजर आ रही है। इस क्षेत्र  में गाहे बगाहे चीन काबिज है। भारत की यह स्वस्थ वैश्विक विदेश नीति भले ही हो। भारत भले ही उन्हें वीजा और व्यवसायिक निवेश की खुली छूट दे पर भारत इस यात्रा से क्या खोया क्या पाया,इसका आंकलन करने में हम घाटे में नजर आते हैं।
आने वाले समय में क्या हिंदमहासागर यात्रा भारत के पक्ष में निर्णय दे पायेगी। क्योंकि भारत की राजनीति की पृष्ठभूमि और इन देशों की राजनैतिक पृष्ठभूमि में धार्मिक समानता का मूल विभेद है।चीन को मिला कर ये देश बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। धार्मिक आस्था के मायनों में ये देश परम मित्रों मे है। अब देखना है कि धार्मिक आस्था के रिस्ते ज्यादा वफादार हैं या राजनैतिक पडोसियों के रिस्ते ज्यादा वफादार हैं। इस उपमहाद्वीप में भारत और चीन की तुलना की जाये तो भारत चीन से ज्यादा शक्तिशाली है। हमारी पहल वाकयै काबिले तारीफ है। परन्तु चीन भी सामुद्र के सरताज का ओहदा यूँ ही नहीं छोडेगा। उपमहाद्वीप में वर्चस्व की खोज करती यह यात्रा हिंदमहासागर में भारत के व्यावसायिक लाभ को कितना बढा पायेगी इस बात की निर्भरता चीन श्रीलंका के राजनैतिक और धार्मिक रिश्ते की डोर पर टिकी है।
अनिल अयान, सतना
9479411407/9479411408

धर्मांतरण के ज्वलंत सवाल

धर्मांतरण के ज्वलंत सवाल
धर्मांतरण के नाम पर हमेशा से विरोध रहा है।विशेषकर ईसाइयों और मिशनरियों का विस्तार इस देश की राजनीति को हमेशा से गर्म करता रहा है।राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद भी हम सबसे छिपा नहीं है। हमेशा ही जब भी दो धर्मों के त्योहार एक ही दिन को पडते हैं तब प्रशासन के हाथ पाँव फूलने लगते हैं। वर्तमान केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बयान जिसमें उन्होने अल्पसंख्यकों के सुरक्षा का जिम्मा अपनी सरकार के हाथों में लेकर सभी अल्प संख्यकों को आस्वस्त किया है उसके बाद से ही उप्र और बिहार में चर्च में हमले और नन के साथ बलात्कार जैसी घटनाओं का प्रारंभ हुआ।इन घटनाओं ने धर्मांतरण के विषय पर नई बहस छेड दी है। और गृह मंत्रालय की यह कोशिश कितनी  प्रभावी होगी यह बताना कठिन है।क्योंकि दिया तले अंधेरा खुद नजर आ रहा है।
भाजपा का संबंध जिस विचारधारा से है उसमें देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की ही प्राथमिकता है।इसके लिये सारे हिंदू वादी संगढन एक मत हैं।यह उनके अनुसार सही है क्योंकि हिंदू धर्म पुरातन है और अन्य धर्म इसकी ही संतति है।उनके मत के अनुसार यह देश पहले हिंदुस्तान के नाम से जाना जाता था।जो विवेचना के तर्क सम्मत में खरा उतरता है।इन परिस्थितियों के चलते अपने अपने ढोल और अपने अपने पोल बजाने की कला का बेजोड उदाहरण जो सामने हम सबके आया है वह कितना सार्थक है यह सोचने का विषय है।या फिर राजनीति का एक हतकंडा है जो समय समय पर सभी राजनैतिक व्यक्तित्वों पर लागू होता है।
स्वतंत्रता के बाद सभी को संविधान सभा ने उपासना और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया था।जिसके अंतर्गत माननीय प्रधानमंत्री जी ने दिल्ली के एक अल्पसंख्यक मिशनरी कार्यक्रम में यह बयान दिया कि हर नागरिक के अपनी पसंद के धर्म को अपनाने और मानने के अधिकार की रक्षा के लिये उनकी सरकार वचन बद्ध है। वहीं दूसरी ओर उनकी पार्टी और विहिप जैसे हिंदू धर्म रक्षा मंच के उच्च पदाधिकारी भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं।उनकी तरफ से ये बयान आता है कि जहाँ पर ईसाई है हीं नहीं वहाँ पर चर्च का निर्माण गलत है।इस तरह एक ही पार्टी के अलग अलग छोरों से अलग तरह की बाते निकल कर सामने आती हैं।
 हमारे केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रदेश अल्प संख्यक आयोग के सामने कई सवाल रखे और बाद में ट्वीटर में उन्हें दुनिया के सामने रखा।हमें उन सवालों पर भी गौर करना चाहिये।क्या धर्मांतरण जरूरी है,क्या धर्म परिवर्तन के बिना समाज सेवा नहीं किया जा सकता है।क्या धर्म  परिवर्तन के बिना भारत में सभी धर्म फल फूल नहीं सकते,और क्या भारत देश अपनी जनसंख्या की पहचान एवं स्वरूप में बदलाव की इजाजत देता है।इन ज्वलंत सवालों पर एक स्वस्थ्य और गंभीर बहस की जरूरत है।यदि मीडिया में इस तरह की बहस होती है तो सभी प्रतिनिधि अपना अपना राग अलापते हैं और संयोजक उनका चेहरा देखता रह जाता है।
धर्म का स्ंबंध सदैव आत्मीय उन्न्यन से रहा है वो आस्था जिसे धारण किया जा सके उसे धर्म मानना चाहिये।और इस हेतु इच्छित मार्ग चुनने के लिये किसी को रोकना और व्यवधान उतपन्न करके उसे प्रताडित करना अनुचित है।धर्म का मूल अरथ धारण करने से है। गतिरोध तब आता है जब लालच, सुविधाये,और मुद्रा देकर या फिर जबरन दूसरा धर्म धारण करने के लिये कोशिश की जाती है।इसके लिये मिशनरीज और अन्य संगढन कैंप लगाते हैं।उन्हें वैचारिक रूप से परिवर्तित किया जाता है क्या इस प्रयासो के लिये देश में कानून बनने के बावजूद इसके सक्रियता के बारे में कार्य करना चाहियैं
घर वापसी जैसे कार्यक्रम ,केरल जैसे राज्य में धर्म परिवर्तन जैसे विषय इनका निदान क्या है।कई हलकों से य ेप्रश्न उभरकर आते हैं कि घरवापसी के गर्माये माहौल के बीच चर्च के हमलों के बीच इस तरह के सवालात और बयान धर्म निरपेक्षता का छिद्रान्वेषण है या कुछ और उनकी पहल और अल्प संख्यको की सुरक्षा का भार लेकर देश को सर्वधर्म सम्भाव का मसीहा बनाने कीपहल की गई है।परन्तु इस देश के धार्मिक ,सामाजिक,और शैक्षिक स्तर सुधारने के लिये यह जरूरी है कि इन ज्वलंत सवालों पर धार्मिक संगढन बैठ कर चर्चा करें अन्यथा इस सरकार के द्वारा किये ये वायदे आने वाले समय में व्यर्थ ही नजर आयेंगें।क्योंकि यह सहअस्तित्व की लडाई है जो अपने अंजाम तक पहुंचने के लिये बेचैन नजर आ रही है।
अनिल अयान सतना.

आप के उनचास दिन तब और अब

                                                                        आप के उनचास दिन तब और अब
इस बार केजरीवाल की आप पार्टी सरकार ने उनचास दिन पूर्ण कर लिया है। इस बार लोकसभा चुनावों के बाद मिली करारी हार के बाद से ही आप पार्टी ने विधानसभा चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। उसी का नतीजा था की पूर्ण बहुमत के साथ आप पार्टी की दिल्ली में सरकार बनी।सरकार इस बार आसानी से अपने कार्यकाल के उनचास दिन पूर्ण कर ली।समय के साथ यह कहा जा सकता है कि केजरीवाल और उसकी टीम ने पिछली बार की तरह इस बार आप को राजनीति के दांव पेंच से लैस करके ही चैन पायी। यही कारण था कि आप के उनचास दिनों में एक नजर डाले तों तब के उनचास दिन और अब के उनचास दिनों में सरकार काफी हद तक संयमित रही है।परन्तु आंतरिक उठापटक के चलते इस बार भी आप पार्टी मीडिया में छाई रही।केजरीवाल ने इस बार विरोधियों को पूर्णतः बायकाट कर दिया।समय रहते राजनैतिक समझ का प्रचलन इस सरकार को निश्चित ही एक अच्छे मुकाम तक ले जायेगी।एक तुलनात्मक तरीके से देखें तो पता चलेगा कि किस तरह केजरीवाल जी ने इस बार सरकार और पार्टी संयोजन दोनो के लिये सभी साथियों को अपने रास्ते से बेदखल कर दिया।       
            यदि तब की केजरीवाल सरकार पर नजर डालें तो कई बातें सामने आती है।तब की सरकार में आप ने गठबंधन का सहारा लेकर सरकार बनाई थी।आप के सारे मंत्री लगभग राजनीति में नये और अनुभवहीन थे।राजनीति की ए,बी,सी,डी तक वो नहीं जानते थे।कांग्रेस ने बीच भंवर में जिस तरह से आप का साथ छॊडा था वह आप के लिये एक सीख साबित हुई।आप पार्टी ने पिछली बार एक समाजिक सेवक से राजनैतिक पार्टी के रूप में खुद को बदली थी।पिछले बार आपके कई निर्णय और कार्य आम जनता के लिये कारगर सिद्ध हुये।उन्होने दिल्ली को सुरक्षित बनाने की पहल की और यदि विरोध किया तो धरने और आंदोलन के रूप में जनता के सामने आया।जनता को यह लगा कि सरकार उससे पूँछ कर उसके विकास के लिये कार्य कर रही है।जनत अके मन में संतोष था।केजरीवाल सरकार ने लोकपाल का पुरजोर समर्थन किया और उसके लिये जनता जनता जनार्दन और अन्य पार्टियों से चरचा भी की परन्तु कोई परिणाम नहीं मिला एक कमी की वजह से वो राजनीति की डगर से भटक गई वो थी जनता की सेवा करने की बजाय लोकसभा का ज्यादा मोह कर जाना और तो और जिस जनता से पूँछ कर सपथ लेना उसी से बिना पूँछे इस्तीफा दे देना।जनता को समझ में आ गया कि आप पार्टी लालची और अन्य पार्टियों की तरह कुर्सियों का मोह लिये हुये है।और इसी का परिणाम था कि उनचास दिन का अनुभव रखने वाली आप लोकसभा चुनाव में अपना मोहभंग करके हार का चेहरा देखने को मजबूर हुई।
            दिल्ली वासियों को लगा कि आप की पहली गल्ती थी जो अनुभवहीनता के बल पर की गई थी।वह मोदीमय भाजपा का कार्यकाल भी देख चुकी थी।और कांग्रेस के दस साल का दंश झेल चुकी थी।अतः इस विधानसभा चुनाव में उसने दोबारा आप को पूर्ण बहुमत देकर विजयी बनाया ताकि वो दिल्ली को देश का सबसे अच्छा राज्य बनाने में कुछ तो कदम उठाये।इस बार तो आप के अंदर ही जूतम पैजार देखने को मिल गई।एक व्यक्ति कुमार विश्वास को छोड कर अन्य लोगों ने यहाँ तक की केजरीवाल खुद अपना आपा खो बैठे।स्टिंग आपरेशन की ऐसी आंधी चली और विभीषणगिरी ऐसे चली की आप के आंतरिक कलह सडक में दिखाई पडा।परन्तु इस बार की सरकार ने पहले की तरह कोई गल्ती नहीं की।लोकपाल को कोसो दूर फेंक दिया।आम जनता की बजाय समाज के धन्ना सेठों को मनोरंजन करने का काम किया।अन्य पार्टियों के साथ सामन्जस्य बिठा कर काम किया।केंद्र सरकार से उसका गतिरोध जरूर रहा।स्वतंत्र राज्य की मांग और अन्य राजनैतिक मुद्दों में कहीं ना कहीं पार्टी को विरोध झेलना पडा।परन्तु पिछली बार से हुये कम विरोध की वजह से इस बार के उनचास दिन ज्यादा सरल थे।
            इस बार की सरकार के बाद केजरीवाल को एक अप्रैल को केजरीवाल दिवस का केंद्र बिंदु बनना पडा।जनता को मूर्ख बनाने के कदवार नेता के रूप में छवि लोगों के सामने प्रकाश में आयी।अपने विरोधियों को बेदखल करना पार्टी के लिये जन्मघुट्टी की तरह था।परन्तु लोकपाल को छोडना कहीं ना कहीं अन्ना आंदोलन और जनता के साथ छलावा के रूप में सामने आयी।सरकार भले ही इन दिनों को अच्छे दिन के रूप में ले रही हो परन्तु हकीकत यह है कि इस तरह की पार्टी का भविष्य़ कितना उज्ज्वल और कालजयी है यह विचार का विषय है।दिल्ली की दशा और दिशा आज के समय में क्या है और क्या होगी यह इसी पार्टी की जिम्मेवारी है।और यह भी हम सब जानते है किं दिल्ली सिर्फ राज्य नहीं है वरन केंद्र का नेतृत्व यहीं से हो रहा है।और यदि यहाँ पर अस्थिरता रहेगी तो देश में अस्थिरता बनी ही रहेगी।केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते केंद्र सरकार की भी जिम्मेवारी है कि दिल्ली हर मायने में देश के विकास के सहायक हो।

अनिल अयान सतना

किसान हुआ लाचार, है बेफिक्र सरकार

किसान हुआ लाचार, है बेफिक्र सरकार
भारत को कृषि प्रधान देश की श्रेणी में जब खडा किया गया और लाल बहादुर शास्त्री ने जब जय जवान जय किसान का संदेश दिया तब उन लोगों ने नहीं सोचा होगा कि कृषि प्रधान देश का अन्नदाता अपने ही देश में खून के आंसू रोने के लिये लाचार हो जायेगा। आज की स्थिति पूर्णतः विपरीत हो चुकी है। अनियमित बरसात के होने से किसानों की स्थिति बहुत ही ज्यादा गंभीर हो चुकी है। वो चाहकर भी उबर नहीं पा रहा है। देश के २० से अधिक राज्यों में बरसात की अनियमितता ने किसानों की कमर तोड कर रख दी है। किसान पूरी तरह से टूट चुका है और उसकी समझ से यह परे है कि इस वर्ष उसका चूल्हा कैसे जलेगा। इस साल की दोनो रबी और खरीफ की फसलें मौसम के बदले मिजाज के चलते खत्म हो चुकी है। पहले तो ठंड की फसल को कोहरा, ओला और कडकडाती ठंड ने तबाह कर दिया और अब गर्मी के मौसम में असमय बारिस ने किसानो और कृषि दोनों की हालत खस्ता कर दी है।
यूँ तो सरकारें कहने को फाइलों में सक्रियता दिखाई हैं, और हुये नुकसान का जायजा लेने के लिये अधिकारियों की टीम बनाकर मूल्यांकन करने के आदेश दे चुकी है। परन्तु वह मूल्यांकन कितना ज्यादा कठिन है कि अब तक हो ही नहीं पाया है। किसान अपनी फसल के लिये लिये गये कर्ज के बोझ से दम तोड रहें हैं। उनका सुनने वाला कोई नहीं है। यही वजह रही है कि मध्य प्रदेश मे आत्म हत्या करने वाले किसानों की संख्या दहाई के आंकडे से ऊपर पहुँच चुकी है। और पूरे देश में यह संख्या शतकीय पारी खेल चुकी है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या किसानों का पालनहार कोई नहीं बचा है। सरकार को माइक के सामने घोषणायें करने से फुरसर नहीं है और विपक्षी दलों को गैर सरकारी संगढनों की तरह दौरे कर सहानुभूति देने से फुरसत नहीं है। ताकि आने वाले समय में अन्नदाताओं के वोट तो कम से कम उन्हें मिल सकें।रही बात सहायता की तो उस जगह पर सिर्फ आश्वासनों की लंबी कतारें नजर आ रहीं है। यही वजह है कि दमोह और देवास से विगत चैबीस घंटों में दो और किसानों के आत्म हत्या करने की खबर ने संख्या में इजाफा किया है।
कृषि प्रधान देश में इतना सब कुछ होने के बाद जब केंद्रीय मंत्रियों और राज्य मंत्रियों के अटपटे बयान मीडिया के सामने आते हैं तो ऐसा लगता है कि वो इस देश के वासी हैं ही नहीं वो जैसे भारत में कुछ समय के लिये अपना समय व्यतीत करने के लिये आये है और भ्रमण करके चले जायेंगें। ऐसा लगता है कि वो कभी इन किसानों के पास वोट की भीख मांगने गये ही नहीं थे और भविष्य में ना कभी जायेंगें। बयान सुनने के कृषि मंत्री जी के बयान सुनने के बाद तो ऐसा महसूस होता है कि किसान उनके सबसे बडे दुश्मन हैं जो उनके घर का सारा धन लूटने आये हों।सरकार की तरफ से कोई ठोस सहायता निकल कर सामने नहीं आयी। जिन सरकारों ने मुआवजे की घोषणायें की भी हैं वो नुकसान की तुलना में बहुत ही कम है। ऐसा लगता है की ऊँट के मुँह में जैसे जीरा थमा दिया हो। हर सरकार को यह नहीं भूलना चाहिये कि किसान के खेतों से ही वो भूमि अधिग्रहण के सपने संजोये बैठी है और देश व्यापी बहस का मन बनाये बैठी है। किसानों की फसल से ही कृषि उपज मंडियाँ पूरे देश में धरल्ले से दौड रहीं है और जायज ना जायज लाभ भी मिल रहा है। देश के नागरिकों का पेट भरने की जिम्मेवारी कृषि पर केंद्रित उद्योगों की नींव यहीं से बनती है।सरकार का वोट बैंक गांवों से ही निर्मित होता है।तब भी किस बात का इंतजार किया जा रहा है यह समझ के परे है।
सरकार को चाहिये की समय रहते इस वर्ष को राष्ट्रीय कृषि आपदा वर्ष घोषित करके किसानों की मदद करे। अपने भंडार खोले और किसानों को आवश्यकतानुसार सहायता प्रदान करे। बहुत पहले एक फिल्म बनी थी पीपली लाइव।क्या सरकार पीपली लाइव की तरह किसानों की  आत्म हत्याओं के थोक आंकडों का इंतजार कर रही है। समय रहते यदि ऐसा नहीं होता है तो सामाजिक, कृषि संगढनों और आम लोगों को आगे आना होगा और इस आपदा से किसानों को बचाने के लिये उनसे साथ कुछ कदम साथ चलकर संबल तो बढा सकते हैं। यही इंसानियत और नागरिकता की गुहार भी है।
अनिल अयान,सतना


विदेश यात्राओं से लाभ किसे

विदेश यात्राओं से लाभ किसे
फ्रांस जर्मनी और कनाडा जैसे विकसित सोच रखने वाले राष्ट्रों की यात्रा करने के बाद पूरा विदेश मंत्रालय और देश इस बात से प्रसन्न है कि यह यात्रा अब तक की पूर्व यात्राओं से ज्यादा सुखद रही है। हमारे प्रधानमंत्री जी अपने प्रधानमंत्रित्व काल में पहले पडोसी मुल्कों को अपने मोदी मय आचरण का कायल बनाया और उसके बाद पूर्व देशों की यात्रा कर कुछ चमत्कार करने की कोशिश की और अब यूरोप के पश्चिमी देशों की यात्रा करके अन्योक्ति पूर्ण परिणाम लाने की पहल करने में तथाकथित सफलता प्राप्त की है।
कनाडा यात्रा से हमारे प्रधानमंत्री ने कनाडाई यूरेनियम भारत में आयातित करने में सफल रहे,जो इंदिरा गांधी के शासन काल के पश्चात कनाडाई सरकार के द्वारा रुका हुआ था।अगले पांच साल में तीन  हजार टन रेडियोएक्टिव यूरेनियम की प्राप्ति भारत को इस यात्रा से हुई।कनाडा खनिज का बादशाह है और आने वाले समय में खनिज मित्रता का एक रास्ता खुलता नजर आता है। जर्मनी में आर्थिक और राजनैतिक समझ के गहरे होने की बात की जा रही है।आतंकवाद पर दोनो  के उठे एक सुर सकारात्मक पहल साबित हुई। यह भी संभव है कि संयुक्त राष्ट्र में जर्मनी भारत को अपना सहयोगी बना सके। फ्रांस से राफेल के ३६ विमानों का आयात भी भारत के लिये चमत्कारिक मानी जा रही है।फ्रांस के अरेवा द्वारा जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाना और पांडुचेरी और नागपुर को चुस्त शहर बनाने की भी पहल हुई है। पिछली यात्राओं की  तरह ही इस बार वादों का ताज महल खडा हुआ है। अब देखना यह है कि क्या इन वादों के ताज महल में ये देश भारत का साथ दे पाते हैं कि नहीं। क्योंकि समय गवाह रहा है कि अभी तक जितने भी वादे विदेश यात्राओं मे हुये वो अधिक्तर फाइलों तक सीमित रह गये।
कनाडा पहले भी भारत का यूरेनियम निर्यातक रहा परन्तु सत्तर के दशक में उसने भारत के साथ यह संधि इसलिये तोड दिया क्योंकि भारत ने उस समय परमाणु करार के विरोध में जाकर कार्य किये।जर्मनी से भारत की कभी भी नहीं बनी परन्तु इस यात्रा ने सिर्फ और सिर्फ लीपापोती करने का काम किया है।क्योंकि वो भारत को ज्यादा पसंद नहीं करता है।ना ही व्यावसायिकता को बढाना चाहता है।रही बात फ्रांस की तो वो सिर्फ भारत को बाजार बना कर अपना व्यवसाय कर रहा है।उसने कभी भारत के साथ मिलकर सेना के लिये आवश्यक औजारों के निर्माण हेतु उद्योंगों के बारे में कोई करार नहीं किया। उसने परमाणु संयंत्र लगाने की बात की परन्तु आयुध और विमानन निर्माण उद्योगों में मौन रहा।
और कभी कभी लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री देश में मेक इन इंडिया का राग अलापते हैं और फिर विदेश यात्राओं के दौरान वही वादे जो उन्होने देशवासियों के साथ किये है, भूलकर आयात संधि में हस्ताक्षर करते हैं।क्या यह दोहरा व्यक्तित्व नहीं है।भारत को चाहिये था कि इन देशों से तकनीकि और संयंत्र हेतु करार करता। खुद का अर्थ खर्च करके इन देशों के वायदों का पुलिंदा साथ लाना देश के व्यापारियों और उद्योगपतियों के खाते वाहवाही जा सकती है परन्तु आम जन के लिये सिर्फ ठेंगा दिखाया है। आप खुद सोचिये राफेल विमानो को अयात करने में जितना खर्च आ रहा है उतने में इस संयंत्र की तकनीकि को संधि के द्वारा भारत तक लाया जा सकता था। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि ये देश विकसित देश हैं। और विकासशील देशों के साथ सिर्फ व्यावसायिक समझौते ही करेंगें।वो कभी भी नहीं चाहेंगें कि एक विकासशील देश जो कभी उपनिवेशीय गुलाम था वह उनके कद में बैठे।
विदेशी दौरे में गये मोदी जी के भाषणों को सुनकर ऐसा लगा कि वो चुनावी रैली को संबोधित कर रहें हो।जिसमें स्वगुणगान अधिक था और तथ्यात्मक विचारधारा का समावेश कम था। अंततः भारत वह देश है जहाँ बीपीएल में लोग दो जून की रोटी को मोहताज है और आईपीएल में लोग करोडों सिर्फ मनोरंजन के लिये खर्च कर रहें है।भारत विदेशों से भले ही आयात कर अपने को सर्वशक्तिमान घोषित करके संयुक्त राष्ट्र संघ में झूठी शान बना ले परन्तु इस प्रकार के दौरों से भारत सिर्फ अपना ही व्यय करता है।परिणाम हमेशा वायदों के रूप में भारत को मिला है जिसका क्रियानवयन भारत के हाथ में नहीं रहा।आज आवश्यकता है कि मौलिक रूप से भारत बुनियादी मजबूती के लिये काम करे और अन्य देशों से सहयोग प्राप्त करे।
अनिल अयान

क्यों मीडिया पे दोष मढ़ती है ‘आप’

क्यों मीडिया पे दोष मढ़ती है ‘आप’
जंतर मंतर का मैदान एक किसान की आत्म हत्या का गवाह बन चुका है। किस तरह अपना सब कुछ खोने के बाद मृतक किसान रैली में आया और अरविंद केजरीवाल से मिलकर अपनी समस्या का निदान खोजने की कोशिश करता रहा।कोशिश असफल रही तो उसने सभी पुलिसकर्मियों और आप पार्टी के संग आये कार्यकर्ताओं के सामने आत्म हत्या कर लिया। आप अगले अडतालिस घंटे तक कोई भी सहानुभूति व्यक्त नहीं कर पायी।अंततः जब कुछ बोल निकले तो वो भी मीडिया के विरोध में थे।यह पहली बार नहीं था कि जब आप पार्टी के संयोजक ने मीडिया को आड़े हाथों लिया हो। आप की शुरुआत भी कहीं ना कहीं मीडिया में प्रचार प्रसार से ही हुई थी। मीडिया वह माध्यम था जो आप को पूरे देश तक पहुँचाने का काम किया।आप के संघर्ष और किये गये अच्छे और बुरे कार्यों की समीक्षा भी मीडिया ने पूरी तरह से किया। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ था जब गजेंद्र की मौत के बाद हुये मीडिया कवरेज से पूरी पार्टी सकते में आ गयी। कभी यह आरोप लगाया गया कि मीडियाकर्मी अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे है।कभी यह आरोप लगाया गया कि मीडिया ने अन्य पार्टियों से हाथ मिलाकर आप को विवादों में खडा कर दिया। और भी बहुत कुछ जो मीडिया की शान के खिलाफ रहा।मीडिया ने इस बार भी घटना को घटना के नजरिये से प्रस्तुत करने की बजाय उसका छिद्रांणवेषण करके प्रस्तुत करने की कोशिश की ताकि जनता को इस घटना की गहराई के बारे में अधिक से अधिक जानने का अवसर मिले। किसानो की हितैषी बनी आप पार्टी के सामने एक किसान खुद को फांसी मे लटका लिया तो भी पूरी की पूरी पार्टी सिर्फ मूक दर्शक की भांति तमाशबीन बनी रही।जनता और पुलिस कर्मियों को अपने काम को ईमानदारी से करने की पैरवी करने वाली पार्टी खुद ही अपने दायित्वों को निर्वहन करने में असमर्थ रही।और कुंभकर्णी नींद से जगी भी तो अपने घडियाली आँशू बहाने से बाज नहीं आयी।
पत्रकारिता ही वह माध्यम है जो लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ है।इसके चलते ही पूरी दुनिया का हर व्यक्ति जागरुक बना हुआ है।वो समाज में घटने वाली हर घटना को जागरुकता से देखता है,समझता है और फिर अपनी प्रतिक्रिया देता है।मीडिया हर प्रकार से समाज, देश-दुनिया के प्रति जागरुकता को फैलाने का काम करती है।पार्टियों का बार बार यह दोष देना कि मीडिया ही दोषी है और वह दूध की धुली हुई है यह सरासर गलत है।प्रिंट मीडिया,इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया ऐसे माध्यम है जिसके चलते पढ़े लिखे आदमी से लेकर अनपढ,बच्चे से लेकर हर उमर का व्यक्ति इससे लाभान्वित होता है।समाचार पत्रों और समाचार चैनल अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये क्रमशः रीडरशिप और टीआरपी पर आधारित होते है और इन्हें होना भी चाहिये।क्योंकि वो बाजार में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये कार्य कर रहे हैं। मीडिया समाज के हर उस कोने तक पहुँचती है जहाँ पर उसे कुछ विशंगति दिखाई देती है।उसको खबर से खोजबीन करने तक ले जाने का काम भी मीडिया का ही है।कई लोगों का यह मानना कि मीडिया एक खबर को हर बार टेलीकास्ट करती है तो यह भी जरूरी है क्योंकि वह चैनल या समाचार पत्र पूरे देश के लिये होता है एक बार में यह आवश्यक नहीं है कि हर व्यक्ति प्रसारित होने वाली खबर को देखे ही।हाँ एक बात जरूर है कि लाइव चैनलों में आने वाली बहसों में भाषा और संयम दोनो की कमी देखने को मिलती है।निष्कर्ष निकले, ना निकले परन्तु आरोप प्रत्यारोप असंतुलित सा नजर आता है।प्रिंट मीडिया इस हद तक इलेक्ट्रानिक मीडिया से श्रेष्ठ हैं।
रही बात राजनीति की तो आज के समय में चुनाव से लेकर हर राजनैतिक पहलू को मीडिया लोगों के घरों तक पहुँचने के लिये अपना माध्यम चुनती है।मीडिया वह अस्त्र है जिसके सहारे आज के समय में चुनाव जीता जाता है।मीडिया जिसका समर्थन कर दे वह विजयपथ चलने के लिये तैयार खडा होता है।क्योंकि मीडिया से तेज कोई भी किसी के घर में संपर्क एक समय पर और एक साथ नहीं कर सकता है।पार्टियाँ अपने स्वार्थ की बात हमेशा से करती चली आयी हैं।जब उनके फायदे की बात होती है तो वह मीडिया के गुणगान करती है और जब उनकी कमी को मीडिया लोगों के सामने रखती है तब वह पार्टी मीडिया को कटघरे में खड़ी कर देती है।इस बार आप पार्टी का मीडिया को आडे हाथों लेना भी कुछ ऐसा ही था।आप के लिये यह आवश्यक है कि आने वाले समय में वो आंतरिक कलह से बचकर मीडिया को साथ लेकर चले और राजनैतिक क्षेत्र में अनुभव हासिल करे।समय सापेक्ष चल रही मीडिया पर यदि वो बार बार व्यवधान डालेगा तो उसकी राजनैतिक उम्र को खतरा हो सकता है।क्योंकि आप के लिये मीडिया से बैर लेना अपनी कार्यकुशलता में ब्रेकर लगाने की तरह ही है।
अनिल अयान,सतना