सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

साहित्यकारों का राजनैतिक धतकरम

साहित्यकारों का राजनैतिक धतकरम
हम सब जानते हैं कि जिन साहित्यकारों के द्वारा साहित्य अकादमी पुरुस्कार लौटाये जाने की घोषणा मीडिया में की गई वो कांग्रेस समर्थित लोग हैं। और कहीं ना कहीं उन्हें इस बात का मलाल भी है कि देश की सत्ता में उनकी समर्थित सरकार का सूपडा साफ हो चुका है। कलबर्गी और दाभोलकर जैसे साहित्यकारों की हत्या के पश्चात अखलाक और अन्य लोगों की हत्या का घडियाली आंसुओं वाला विरोध, सम्मान लौटाकर करने का स्वांग इन साहित्यकारों के द्वारा रचा जा रहा है। जो तथाकथित आधा सैकडा साहित्यकारों ने पुरुस्कार लौटाने की घोषणा मीडिया में करके रातो रात देश के हर चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बन गये, उनमें से बहुत से साहित्यकार फुल टाइम वामपंथी सरकारों के कार्यकर्ता रहे और साहित्य की ओर ध्यान कम देकर वामपंथ को मिशन बनाकर देश में फैलाने का काम किया। एमरजेंसी के समय पर ये साहित्यकार सरकार का समर्थन करते नजर आये और जनता को शोषित होने दिया। इन्होने मजदूरों की पैरवी करनी उचित समझी परन्तु किसानों को किनारे नेपथ्य में पहुँचा दिया।परन्तु उस समय में भी धरातलीय साहित्यकारों के द्वारा विरोध किया गया। उस समय पुरुस्कार लौटाने की बजाय मन की पीडा और  दंश को लिखकर जनता के सामने लाया गया जिसे पढकर जनता ने चिंतन किया और ऐमरजेंसी की स्थिति को समझकर अपने निर्णय किये। पुरुस्कार लौटाने  वाले कुछ साहित्यकारों के आज भी बडे बडे एनजीओ चल रहे हैं।पहले की सरकार ने इनको विदेशो से धन एकत्र करने की खूब छूट दे रखी थी। जब मोदी सरकार ने इनके विदेशों की फंडिंग बंद कर दिया तो इनकी स्थिति खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे वाली हो गई और उसी का विरोध प्रदर्शन साहित्य अकादमी पुरुस्कारों को लौटाने के धतकरम करके किया जा रहा है। इन साहित्यकारों के पाठक चाहे गिने चुने हों परन्तु अकादमी में एक अच्छी पकड होने की वजह से इनके पुरुस्कारों की होड मची हुई है। यह कोई लेखक का सम्मान नहीं है। सम्मान तो पाठकों के द्वारा लेखक को मिलता है।आज की स्थिति असंतोष,संप्रदायिकता,और गृहयुद्ध की बन रही है। सरकार के पास की पकड धीरे धीरे कमजोर होती जा रही है। धार्मिक कट्टरता अपने पंजे और पैने कर रही है,सहनशक्ति छींण हो चुकी है। ऐसे में विरोध के स्वर लेखक की कलम से फूटने चाहिये। परंतु अभी तक किये गये विरोध में राजनैतिक धतकरम ज्यादा हैं और विरोध के वास्तविक स्वर रत्ती भर भी नहीं है।
हम सब जानते हैं कि चाहे वो अकादमी हो या कोई भी शासकीय संगढन सभी में किस तरह से पुरुस्कार दिये जाते हैं। आम जन और सर्वहारा वर्ग का कलमकार इतनी पहुँच नही रखता और ना ही कोई पकड रखता है। सबसे बडी बात ये एवार्ड्स कोई सम्मान है ही नहीं क्योंकि यदि ये साहित्यकार खुद आवेदन करते हैं एवार्ड्स के लिये और ज्यूडी मेंबर्स की टीम इनके आवेदनों में चयन करके इनके नामों की घोषणा करती है। तो इन्होने कौन सा तीर मार लिया है। ये सम्मान तब ज्यादा सार्थक होता जब अकादमी स्वयंमेव ही इनका नाम किसी एवार्ड के लिये चिंन्हित करती। ये तो चयनित हुये है। यदि घिघियाने के बाद आपको कोई पुरुस्कार मिलता है तो उसे आप वापिस कर रहे हैं तो ये ढकोसले के अलावा कुछ भी नहीं। कुछ बातों को साझा करना चाहुंगा जो यहां बहुत मायने रखती है,आज तक अकादमी ने एक हजार चार पुरुस्कार दिये हैं,जिसमें से पच्चीस लेखकों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इन्हें लौटाने की बात किये हैं,पच्चीस में से आठ लेखकों ने लौटाने के लिये अकादमी से लिखित रूप से संपर्क किया है और इसमें से तीन साहित्यकारों ने एक लाख का चेक अकादमी को लौटाया है। ये साहित्यकारों में नयनतारा सहगल,उदय प्रकाश,आशोक वाजपेयी,कृष्णा सोबती और राजेस जोशी प्रमुख हैं।ये सब रामराज्य की परिकल्पना,दाभोलकर हत्या,आदि को मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। अब जानने वाली बात यह है कि क्या १९८४ में सिख दंगे, १९९० में काश्मीरी पंडितों का वहां से पलायन, २०१२ में असम दंगें ,२०१३ में मुजफ्फरपुर दंगें ,२०१२ में जयपुर लेट्रेचल फेस्टीवल में सलमान रुस्दी को रोका गया, तसलीमा नसरीन के साथ २००७ में बदसलूकी की गई। इन सब घटनाओं में इनकी भावनायें आहत नहीं हुई थी। उस समय में पुरुस्कार लेकर सम्मान का अनुभव कैसे कर लिया गया। क्या लेखक दंगों और असमाजिक घटनाओं में भाजपा और कांग्रेस सरकार के अनुसार अंतर करते हैं। यदि ऐसा नहीं है तो फिर ये सब कुंभकर्णी नींद से कैसे जाग गये।
हमें यह समझ लेना चाहिये कि यह सब विरोध इन भावनाओं के आहत होने से कम नजर आ रहा है बल्कि भाजपा की नीतियों की वजह से ज्यादा है।पर यह कैसा विरोध है इसमें कलमकार कलम चलाने की बजाय ,घिघियाने पर मिले पुरुस्कार लौटाकर दिखा रहे है। विरोध ऐसा होना चाहिये जिससे जनता को जगाया जा सके और वो लिखकर ही दिखाया जा सकता है। मीडिया के माध्यम से राजनैतिक प्रोपेगेंडा करके विरोध कम और दिखावे का धतकरम ज्यादा नजर आता है। यदि उपर्युक्त असमाजिक घटनाओं पर ये साहित्यकार चूडियां पहनकर कोठे में मुजरा करने में लिप्त थे क्योंकि इनकी विचारधारा वाली कांग्रेस की सरकार थी और अब ये मीडिया में एवार्ड लौटाने का डंका पीट रहे है। तो यह लेखन और कलम के साथ बलात्कार है। क्योंकि लेखक का विरोध सिर्फ और सिर्फ लिखकर ही हो सकता है।आज के समय में किया जा रहा विरोध सिर्फ और सिर्फ सरकार को ध्यानाकर्षण के लिये है। जिससे सरकार को कोई फर्क नहीं पड रहा है।साहित्य समाज के लिये है ना कि सरकार के समर्थन के लिये। जो लोग राजनीति में लिप्त होकर तथाकथित महान लेखक की पदवी लिये हैं उनके पुरुस्कार वापिस करने से कोई बदलाव नहीं होगा। यह स्वीकार्य है कि गलत बातों का और समाज विरोधी बातों का विरोध हो परन्तु वो हर कालखंड में होना चाहिये।सरकार के चेहरे और नीतियों से प्राप्त हुये लाभों के बल पर कदापि नहीं होना चाहिये। जो तथाकथित महान साहित्यकार ऐसा करने में तुले है उन्हें शर्म के मारे चुल्लू भर पानी में डूब जाना चाहिये।
अनिल अयान,९४७९४११४०७

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