सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

वैचारिक स्वतंत्रता की वर्षगांठ

वैचारिक स्वतंत्रता की वर्षगांठ
आजाद भारत के ६८वी वर्षगांठ हम मना रहे हैं। वर्तमान देश की वास्तविक स्थिति हम सब से छिपी नहीं है।आजकल समय सापेक्ष जिस स्वतंत्रता की सबसे ज्यादा विध्वंसक स्थिति बनी हुई है, वह वैचारिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। समाज में हर वर्ग में इसके मायने बदले हुये नजर आ रहे हैं। हर क्षेत्र में विचारों के आदान प्रदान और इसकी स्वच्छंदतावादी नीति असफल नजर आरही है। किसी वर्ग के लिये यह स्वतंत्रता वरदान शाबित हो रही है किसी के लिये यह अभिशाप के रूप में सामने आ रही है। इसकी वजह यह है कि उच्च और प्रतिस्पर्धी वर्ग अपने विचारों को व्यक्त करते समय अपना आप खोते नजर आते हैं। बाजारवाद और राजनैतिक लाभ इसका प्रमुख कारण है। विगत दिनों हमारा देश जिन परिस्थितियों से गुजरा वह जितना चिंता का विषय रहा उससे कहीं ज्यादा चिंता का विषय यह रहा कि तथाकथित राजनैतिक,सामाजिक,और धार्मिक सत्ताधीन लोग अपने विचारों को लोगों तक पहुँचाने या मीडिया के सामने प्रस्तुत करने से पहले यह भूल गये कि वो किस बात का समर्थन कर रहे हैं और इसका भारत की वर्तमान यथास्थिति पर क्या प्रभाव पडेगा। आज के समय पर विचारों को जनता के सामने लाने से पहले लोगों के द्वारा सोचने की प्रवृति छोडी जा चुकी है।
वैचारिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे ज्यादा बेडा गर्त राजनीति में हुई है। कुर्सी पा जाने का दंभ और ना पाने का क्षोभ राजनैतिक व्यक्तित्व की मिट्टी पलीत कर देता है। राजनैतिक फायदे के लिये ये लोग देश के विरोध में कुछ भी बोल देते हैं।भाषागत जूतम पैजार देखने को अधिक मिलती है।विगत दिनों याकूब मेमन की फाँसी हो या व्यापम घोटाले। संसद में सांसदों का निष्कासन हो या बिहार चुनावों की गर्मागर्मी। राधे माँ जैसे तथाकथित महाम्ंडलेश्वर विवाद हो या फिल्म इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष का विवाद सभी में वैचारिक अभिव्यक्ति की आजादी दुरुपयोग दिखा है। जहाँ पर वैचारिक आजादी का सही असर दिखना चाहिये वहाँ विलुप्त नजर आरही है। हमारे देश के पास आंतरिक कलह की चर्चा अधिक फैल रही है। मीडिया द्वारा परोसे जा रहे समसामायिक विमर्श भी सिर्फ बहसबाजी का रूप लेकर दम टोड देते हैं। सार्थक और स्वस्थ विमर्श और चर्चा का युग जा चुका है। आज के समय में वैचारिक आजादी के मायने विचारों की लीपापोती और विचारों के माध्यम से निकले शब्दों को आक्रामक बनाकर प्रहार करने की राजनीति की जा रही है।आज हम स्वतंत्रता की ६८वीं वर्षगाँठ मनाने जा रहे है और यह भी जानते है कि आज के समय में कितना जरूरी हो गया है यह समझना कि आजादी के मायने क्या है। जिस तरह के संघर्ष के चलते अंग्रेज भारत छॊड कर गये और भारत को उस समय क्या खोकर यह कीमती आजादी मिली। आज  ६७ वर्ष के ऊपर हो गया है स्वतंत्र भारत जो अपने विकसित होने की राह सुनिश्चित करने की उहापोह में संघर्ष कर रहा है। वैज्ञानिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण के नये आयाम गढ रहा है। आज के समय समाज, राज्य, राष्ट्र और अन्य विदेशी मुद्दे ऐसे है कि आज के समय में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान में पानी फिरता नजर आ रहा है।ऐसा महसूस होता है कि पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और आज अपने राजनेताओं के गुलाम हो गये हैं, और दूसरी तरफ आतंकवाद, और आंतरिक सुरक्षा के लगातार बढते मुद्दे भी कहीं ना कहीं भारत को घुन के समान खत्म करने में लगे हुये है. आज जो भी राज्य और केंद्र की कुर्सी में बैठ रहा है वह सब अपने राजनैतिक समीकरण बनाने में लगे हुये है।आज के समय में भारत का संविधान भी सुरक्षित नहीं है।इसके साथ साथ भी खिलवाड करने, बलात्कार करने से राजनेता बाज नहीं आ रहे है,आज के समय में भाषागत मुद्दे, क्षेत्र के मुद्दे ,जाति धर्म के मुद्दे इस तरह छाये हुये है कि उसके सामने देश को प्रगति और विकास के विचार विमर्श करने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है। आज के समय मे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस सब मुद्दों पर अपने प्रभावी होने का स्वांग भर रही हैं। संसद में सरकार और विपक्ष के बीच होने वाले संवाद इस बात की शत प्रतिशत पुष्टि करते हैं।आज सिर्फ भारत को भौतिक रूप से आजादी मिल गयी है परन्तु सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक,आजादी के सामने भारत आज भी पाश्चात देशों के पीछे घिघिया रहा है। 
आजादी के बाद आज के समय मे एक सर्वहारा वर्ग से पूँछे की बाबा तुम्हे आजादी के पहले और बाद में क्या अंतर दिखाई पडता है, तो चाहे किसान हो, मजदूर हो, बुजुर्ग हो, या कामगार हो वो सब यही कहेंगें कि पहले जमींनदारों, साहूकारों से, बिचैलियों से कर्जा लेकर अपना जीवनयापन करते थे, आज सरकार घर आकर जबरन कर्जा दे जाती है और फिर उम्रभर इस कर्ज की ब्याज तले हमारी स्वतंत्रता कुचली जाती है।आज के समय बौद्धिक आजादी के नाम पर लोग अन्य जातियों धर्मों को गाली देने में अपनी शान समझते है।आज लोकतंत्र में तंत्रलोक मिलता नजर आरहा है।पूरा देश अपनी आजादी के गुमान और गुरूर में इतना मादक होगया है कि उसे ना अपने अतीत के संघर्ष की फिक्र है और ना इस बात का भान है कि भविष्य में भी कोई उसे फिर किसी तरीके से अपना उपनिवेश बना सकता और वो कुछ भी नहीं कर सकता है। आज के समय में भारत के  तथाकथित पडोसी ही दुश्मन बने हुये है, और तब पर भी भारत उनसे भाई चारे की बाँह फैलाये गले लगाने के लिये आतुर नजर आता है। इतने वर्ष होने के बाद भारत आज भी वैचारिक रूप से गुलाम है। बस गुलाम बनाने वाले अपना नकाब बदल लेते है। आने वाले यह प्रयास किया जाये कि नजर लग चुकी आजादी को अपने प्रयासों के द्वारा अपने स्तर सार्वभौमिक बनाया जाए।हम सब भारत के नागरिक है वैचारिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को देश के विकास में लगायें। देश के विकास को खुद का विकास मान कर हर कार्य करें तो देश निश्चित ही स्वमेव विकास करेगा। 
अनिल अयान,सतना

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