सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता

भारत बनाम इंडिया के बीच बेबस स्वतंत्रता
मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया.अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी.क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ.अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था.उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है.आजादी ६५ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे.शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.
स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने यह कभी सपने में भी ना सोचा होगा कि आने वाले समय में उन्हें आतंक वादी की तरह पाठ्यक्रमों में बच्चों के सामने लाया जायेगा.वो भी इस लिये क्योकि सरकार वामपंथ और दक्षिण पंथी रवैया अपनाये हुये है.जो सरकार आती है वह अपने पंथ के सेनानियों को शहीद और अन्य को आतंकवादी के रूप में पाठ्यक्रम में सुमार कर देती है.उस समय बिना किसी स्वार्थ के बलिदान देने वाले सच्चे सपूतों को आज स्वार्थपरिता के तले गुटने टेकने पड रहे है. आज लाल बहादुर शास्त्री जी का जय जवान जय किसान का नारा बेमानी हो चुका है.बापू का भारत के कृषि प्रधान होने का सपना मिट्टी में मिल चुका है. आज ना किसान की जय है और ना ही जवान की जय है.किसान आज भुखमरी,लाचारी और बेबसी से आत्महत्या करने के लिये मजबूर है.पहले के समय में लगान ना देने में जमीदार लोग किसानों को पेडों से लटकाकर कोडे मरवाते थे.पुलिस के जवान उन्हे जूते की मार देते थे.आज के समय में यदि कर ना दिया जाये तो पटवारी और राजस्व विभाग उनकी जमीन की जप्ती कर लेते है.किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ छलावा है.यदि पटवारियों और सरपंचों को घूस ना दी जाय तो किसानी का मुआवजा भी नहीं मिल पाता है.शास्त्री जी का किसान,और बापू के कृषि प्रधान देश में कृषि और कृषक ही आत्महत्या करने के लिये बेबस है.
जवानों की स्थिति यह है कि युवा वर्ग आज अपनी आभासी दुनिया में व्यस्त है.कैरियर में शार्टकट रवैया उन्हें मंजिलों से ज्यादा दूर कर दिया है.युवा जवान वर्ग अपने रोजगार के लिये भटक रहे है.प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये सरकार के द्वारा की गई मनमानी के जवाब में अहिंसात्मक आंदोलन ,धरना प्रदर्शन करने में व्यस्त है.समाज में उनके लिये ना कोई सकारात्मक स्थान है और ना ही समर्थन है.सुरक्षा के जवानों की यह स्थिति है कि आजादी इतने वर्षों के बाद भी उनको ना सुविधाये मुहैया कराई गई और तो और उनके शस्त्रों में भी धांधलेबाजी और घोटाले किये गये.जिन दुश्मन देशो से वो भारत को बचाने के लिये हर मौसम में सीमा में डटे रहे,आतंकवादियों और घुसबैठियों को भारत की सीमा के नजदीक ना आने दिया.हमारे देश के रहनुमा उन्ही देशो के साथ मित्रता का संबंध बनाने के लिये योजनाये बनाते रहे राजनैयिक सलाहकार आतंकवादियों से मिलकर उन्ही की भाषा में बात करने लगे.
आजादी के इतने सालों के बाद स्त्री सुरक्षा और सशक्तीकरण का स्वांग भरने वाला भारतीय गणतंत्र राष्ट्र, गनतंत्र की व्यवस्था को पालन करने में लग गया.जिसकी लाठी उसी की भैंस की कहावत का पालन होने लगा.जब गणतंत्र, गनतंत्र में परिवर्तित हुआ तो उसमें दिल्ली,उ.प्र.और बिहार,सबसे आगे निकल गये.बंदूखों की नोक में अत्याचार होने लगे,अस्मिता लूटे जाने लगी,हमारा देश विकास की होड में इतना आगे निकल गया कि,मूल्यों के लिये जगह ही नहीं बची,आजाद भारत की यही परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने देखी रही होगी,धर्मनिरपेक्षता का यह हाल है कि लोग धर्म को अपनी स्वार्थ की रोटियाँ सेकने और हवस मिटाने का स्थान बना लिया.कोई धर्म के नाम को कैश करने लगा और कोई धर्म की आड लेकर राजनीति के अखाडे में दाँव आजमाने लगा.धरम के नाम पर दंगो और अराजकता की आग ने अमन,शांति सुख,चैन,सब को जला कर खाक कर दिया. यहा पर  स्वतंत्रता का अधिकार किसी को मिला तो इतना मिला कि वो इतना अमीर होता चला गया और इतना अमीर होगया जिसके दम पर वो सरकार को झुकाने लगा.और दूसरे की स्वतंत्रता पर डांका डालने लगा.वैचारिक स्वतंत्रता और भाषा गत आजादी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा वोट बैंक के लिये राजनेताओं के द्वारा किया गया..वाक युद्ध में तो मर्यादा तार तार होती रही.
इस आजाद मुल्क के शुरुआती दिनों में भारत के राजनेता भी ईमानदार,लोकतंत्र और गणतंत्र की परंपरा का निर्वहन करने वाले हुआ करते थे.समाज में धर्म निरपेक्षता और आजादी का जश्न हर गली मोहल्ले में देखा जा सकता था.पंद्रह अगस्त को छुट्टी की तरह राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया जाता था.आज बाजारवाद और वैश्वीकरण ने इस राष्ट्रीय त्योहार को निगल लिया है.आज के समय पर पंद्रह अगस्त छुट्टी का दिन अधिक और आजादी की वर्षगांठ कम नजर आता है.आज हर जगह सब अपने अपने में व्यस्त है.देश के बारे में जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के ८० प्रतिशत युवाओ और बच्चों को अभी यह नहीं पता की देश का राष्ट्रगान और राष्ट्र गीत क्या है राष्ट्र चिन्हों की कोई जानकारी ही नहीं है.इनसबके लिये जितना सरकार दोषी है उतना हम सब भी गुनहगार है.यदि हम आने वाली पीढी को समुचित जानकारी नहीं प्रदान करेंगें तो वह भारत में तो रहेगी परन्तु भारत के बारे में जानेगी कुछ भी नही.स्वतंत्रता दिवस मनाना , स्वतंत्रता की रक्षा के लिये वचन बद्ध होना,और स्वतंत्रता की कीमत को समझकर उसकी रक्षा करना तीनो में बहुत ही बडा अंतर है.आजादी के इस जश्न को आज व्यापक बनाने की आवश्यकता है ताकि इसकी याद और गूँज आने वाली पीढी के जहन में लंबे समय तक बनी रहे.

अनिल अयान ,सतना

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