सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

नेपथ्य में बिलखती हिंदी

नेपथ्य में बिलखती हिंदी
आज हिंदी दिवस है। अभी अभी मध्य प्रदेश की राजधानी विश्व हिंदी दिवस मनाकर फुरसत की सांस ले रहा है। भोपाल नाम का नगर दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन को अपने नाम करने के लिये इतिहास में अमर हो गया। भारत में यह दो बारा हिंदी का महाकुंभ आयोजित किया गया। सन उन्नीस सौ पचहत्तर से आज तक का समय कुल चालीस वर्षों का है परन्तु इस सदी जनक छंलाग से हिंदी के मायने बदल दिये हैं। राजभाषा पखवाडा मनाते हमें कितने दशक हो गये परन्तु यह निश्चित नहीं हो पाया कि हिंदी को राष्ट्र भाषागत स्थान कब प्राप्त होगा। जिस राजभाषा पखवाडे की गूँज हर वर्ष सितंबर के दो सप्ताहों में शासकीय संस्थानों में दिखाई देता है वो कितना सफल होता है वो आयोजक खुद जानते हैं।यह भारत का दुर्भाग्य है कि तथाकथित इंटरनेट के माध्यम से हिंदी को विश्व की चैथी बहुतायत भाषा का स्थान दिया गया किंतु वह खुद भारत में अपने कुछ हिंदी भाषी राज्यों के दम पर अंतिम सांसे गिनती नजर आती है। भारत में जितनी भी भाषायें आज अपना आधिपत्य जमायें हुये हैं उनमें से हिंदी की स्थिति नेपथ्य में पर्दे के पीछे खडी उस नायिका की तरह है जो मंच में अपने अभिनय के आने की प्रतीक्षा में हर क्षण भारी महसूस करते हुये बिलखती है।
विगत दस से बारह सितंबर को विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें हिंदी के महारथी विश्व भर से शामिल हुये। मै यह महसूस करता रहा कि विदेश मंत्रालय और भारत सरकार के इस संयुक्त आयोजन में हिंदी बोलने वालों को प्राथमिकता दी गयी या हिंदी भाषा के साहित्य सृजन करने वाले साहित्यकारों को स्थान मिला क्योंकि दोनो ही खेमें इस आयोजन से खिन्न नजर आये और अपना विरोध कई माध्यमों तक सम्मेलन तक पहुँचाया गया। इन तीन दिनों के सम्मेलन में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक मान्यता दिलाने के लिये कसीदे पढे गये। परन्तु हिंदी के भाषा विज्ञान,हिंदी की वर्तमान आवश्यकता,हिंदी की दशा और भविश्य गत दिशा,आदि पर कोई चर्चा या विमर्श नहीं हुआ। हिंदी साहित्य की चर्चा भी सिर्फ नाम मात्र की करके पुरुस्कारों का वितरण किया गया।हम जिस बहुभाषावाद के सिकंजे में फंसते जा रहे हैं उससे यही परिणाम निकलेगा कि मूल हिंदी के शब्द बिलखते नजर आयेगें और अन्य भाषाओं जैसे फारसी, उर्दू,अरबी, के मिश्रण से हिंदी अपने में ही गुम हो जायेगी। आज के परिवेष में भले ही हम  इस बात के लिये दंभ भरते हों कि हिंदी सिर्फ भाषा नहीं वरन बाजारवाद का पर्याय बन चुकी है तो उन्हे मै इस बात से अवगत कराना चाहता हूँ कि हिंदी आज के समय में अपनी राजभाषा की अस्मिता बचाने में असफल हैं। आज के समय में अधिक्तर राजकाज हिंदी की बजाय हिंदी और अंग्रेजी में हो रहा है। राजस्व और न्यायालय की भाषा आम जन से कोसों दूर नजर आती है। और उच्च शिक्षा,बाजार,तकनीकि तक में हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रण हिंगलिश पर्याप्त सुख भोग रही है।
कितना हास्यास्पद लगता है कि भोपाल में जहाँ हिंदी भाषा का प्रचुर भंडार है,विदेश और भारत के कुछ गिने चुने आदमकद तथाकथित तीन दिवसीय भ्रमण करके चले जाते हैं और भारत को राष्ट्रभाषा का हक दिलाने के लिये प्रधानमंत्रीजी के सामने किसी के मुंह से एक वाक्य तक नहीं निकलता है।हिंदी दिवस तो ऐसा लगता है कि हिंदी भाषा की सालाना बरसी का दिवस बन गया है। आप यकीन नहीं करेंगें कि हिंदी के लम्बरदारों द्वारा किये गये धतकरमों के परिणामस्वरूप हिंदी की तुलना में हिंदी की सहायक बोलियाँ अधिक फलफूल रही हैं जिसमें भोजपुरी,अवधी,हरियाणवी,मैथिली,और बुंदेली प्रमुख हैं। हिंदी को अपनो से और अन्य भाषाओं से ही संघर्ष करना पड रहा है।समाज की यह स्थिति है कि हिंदी माध्यम के विद्यालयों को छोड अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को शिक्षा दिलाने की होड लगी हुई है।क्यों ना लगे ये होड क्योंकि आज के समाज में हिंदी की थाली में खाने वाले ही हिंदी के विरोध में गुट बनाकर अपना अहम सहला रहे हैं।हिंदी से जुडे संस्थान हिंदी की बपौती की विरासत को बेंच कर विदेश में हिंदी को वैश्विक भाषा और संयुक्त राष्ट्र संघ में आधिकारिक हक दिलाने की बात तो सीना ठोक कर करते हैं परन्तु अपने ही देश में हिंदी,हिंदी भाषा,हिंदी भाषी राज्यों,और अन्य भाषायी राज्यों में हिंदी भाषी लोगों की स्थितियों को सुधारने के समय दुल्हन की तरह चूडियाँ पहन कर मेंहदी सजालेते हैं।हिंदी साहित्य भी वाम और दक्षिण पंथ में बंट कर बंगाल के विभाजन की तरह अपना अपना राग अलाप रहे हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी का बिलखना प्रलाप में बदल जायेगा। विश्व हिंदी सम्मेलन यदि भारत में भाषागत संवैधानिक परिवर्तन हेतु कुछ परिणाम प्रधान मंत्री जी के सामने रखता तो यह अपनी सार्थकता की ओर एक कदम और बढ जाता।
हिंदी को यदि वास्तविक स्थान दिलाना है तो हिंदी के सिंहासन में बैठे हिंदी की तंदूर में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकना बंद करना होगा। सर्वप्रथम हिंदी को भारत में सम्मानजनक स्थान और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिये राजनैतिक और संवैधानिक पहल करनी होगी।इस हेतु अन्य राज्यों का भी समर्थन जरूरी होगा।।जब हिंदी को अन्य भाषी राज्यों में भी उतना ही स्नेह मिलेगा जितना कि गिनती के हिंदी भाषी राज्यों में मिल रहा है तभी कुछ बेहतर हो सकता है। अन्यताः यह पखवाडा पितृ पक्ष के पंद्रह दिनों की तरह हर वर्ष मनाया जाता रहेगा और संबंधित संस्थान,विभाग,विश्वविद्यालय और हिंदी के चाटुकार सेवक लाभान्वित होते रहेंगें।अंग्रेजी हिंदी का अपहरण कर अपना लबादा उसे पहनाती रहेगी और हम बाजार में खडे होकर अपनी सहूलियत के लिये हिंगलिश को ससम्मान से अपनाते रहेंगें।हिंदी का बिलखना कब विलाप और उसके अंतिम सांसों की डोर बन जायेगा हम पहचान नहीं पायेंगें।
अनिल अयान,सतना
संपर्कः९४७९४११४०७

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