सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

विदेश यात्राओं से लाभ किसे

विदेश यात्राओं से लाभ किसे
फ्रांस जर्मनी और कनाडा जैसे विकसित सोच रखने वाले राष्ट्रों की यात्रा करने के बाद पूरा विदेश मंत्रालय और देश इस बात से प्रसन्न है कि यह यात्रा अब तक की पूर्व यात्राओं से ज्यादा सुखद रही है। हमारे प्रधानमंत्री जी अपने प्रधानमंत्रित्व काल में पहले पडोसी मुल्कों को अपने मोदी मय आचरण का कायल बनाया और उसके बाद पूर्व देशों की यात्रा कर कुछ चमत्कार करने की कोशिश की और अब यूरोप के पश्चिमी देशों की यात्रा करके अन्योक्ति पूर्ण परिणाम लाने की पहल करने में तथाकथित सफलता प्राप्त की है।
कनाडा यात्रा से हमारे प्रधानमंत्री ने कनाडाई यूरेनियम भारत में आयातित करने में सफल रहे,जो इंदिरा गांधी के शासन काल के पश्चात कनाडाई सरकार के द्वारा रुका हुआ था।अगले पांच साल में तीन  हजार टन रेडियोएक्टिव यूरेनियम की प्राप्ति भारत को इस यात्रा से हुई।कनाडा खनिज का बादशाह है और आने वाले समय में खनिज मित्रता का एक रास्ता खुलता नजर आता है। जर्मनी में आर्थिक और राजनैतिक समझ के गहरे होने की बात की जा रही है।आतंकवाद पर दोनो  के उठे एक सुर सकारात्मक पहल साबित हुई। यह भी संभव है कि संयुक्त राष्ट्र में जर्मनी भारत को अपना सहयोगी बना सके। फ्रांस से राफेल के ३६ विमानों का आयात भी भारत के लिये चमत्कारिक मानी जा रही है।फ्रांस के अरेवा द्वारा जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाना और पांडुचेरी और नागपुर को चुस्त शहर बनाने की भी पहल हुई है। पिछली यात्राओं की  तरह ही इस बार वादों का ताज महल खडा हुआ है। अब देखना यह है कि क्या इन वादों के ताज महल में ये देश भारत का साथ दे पाते हैं कि नहीं। क्योंकि समय गवाह रहा है कि अभी तक जितने भी वादे विदेश यात्राओं मे हुये वो अधिक्तर फाइलों तक सीमित रह गये।
कनाडा पहले भी भारत का यूरेनियम निर्यातक रहा परन्तु सत्तर के दशक में उसने भारत के साथ यह संधि इसलिये तोड दिया क्योंकि भारत ने उस समय परमाणु करार के विरोध में जाकर कार्य किये।जर्मनी से भारत की कभी भी नहीं बनी परन्तु इस यात्रा ने सिर्फ और सिर्फ लीपापोती करने का काम किया है।क्योंकि वो भारत को ज्यादा पसंद नहीं करता है।ना ही व्यावसायिकता को बढाना चाहता है।रही बात फ्रांस की तो वो सिर्फ भारत को बाजार बना कर अपना व्यवसाय कर रहा है।उसने कभी भारत के साथ मिलकर सेना के लिये आवश्यक औजारों के निर्माण हेतु उद्योंगों के बारे में कोई करार नहीं किया। उसने परमाणु संयंत्र लगाने की बात की परन्तु आयुध और विमानन निर्माण उद्योगों में मौन रहा।
और कभी कभी लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री देश में मेक इन इंडिया का राग अलापते हैं और फिर विदेश यात्राओं के दौरान वही वादे जो उन्होने देशवासियों के साथ किये है, भूलकर आयात संधि में हस्ताक्षर करते हैं।क्या यह दोहरा व्यक्तित्व नहीं है।भारत को चाहिये था कि इन देशों से तकनीकि और संयंत्र हेतु करार करता। खुद का अर्थ खर्च करके इन देशों के वायदों का पुलिंदा साथ लाना देश के व्यापारियों और उद्योगपतियों के खाते वाहवाही जा सकती है परन्तु आम जन के लिये सिर्फ ठेंगा दिखाया है। आप खुद सोचिये राफेल विमानो को अयात करने में जितना खर्च आ रहा है उतने में इस संयंत्र की तकनीकि को संधि के द्वारा भारत तक लाया जा सकता था। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि ये देश विकसित देश हैं। और विकासशील देशों के साथ सिर्फ व्यावसायिक समझौते ही करेंगें।वो कभी भी नहीं चाहेंगें कि एक विकासशील देश जो कभी उपनिवेशीय गुलाम था वह उनके कद में बैठे।
विदेशी दौरे में गये मोदी जी के भाषणों को सुनकर ऐसा लगा कि वो चुनावी रैली को संबोधित कर रहें हो।जिसमें स्वगुणगान अधिक था और तथ्यात्मक विचारधारा का समावेश कम था। अंततः भारत वह देश है जहाँ बीपीएल में लोग दो जून की रोटी को मोहताज है और आईपीएल में लोग करोडों सिर्फ मनोरंजन के लिये खर्च कर रहें है।भारत विदेशों से भले ही आयात कर अपने को सर्वशक्तिमान घोषित करके संयुक्त राष्ट्र संघ में झूठी शान बना ले परन्तु इस प्रकार के दौरों से भारत सिर्फ अपना ही व्यय करता है।परिणाम हमेशा वायदों के रूप में भारत को मिला है जिसका क्रियानवयन भारत के हाथ में नहीं रहा।आज आवश्यकता है कि मौलिक रूप से भारत बुनियादी मजबूती के लिये काम करे और अन्य देशों से सहयोग प्राप्त करे।
अनिल अयान

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