सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

शिक्षा का अधिकार, हुआ बडा लाचार

शिक्षा का अधिकार, हुआ बडा लाचार
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ के सभी विद्यालयों में शिक्षा के अधिकार योजना के लिये बहुत से नियम कानून बनाये गये है.बहुत सी कार्ययोजना बन कर तैयार हुई है.परन्तु इन कार्ययोजनाओं का सुखद परिणाम नहीं प्राप्त हो सके है.कागजी तौर पर भले ही इसकी भरपाई की जा सकी हो परन्तु जमीनी हकीकत बहुत ही शर्मनाक है.शिक्षा के सिपेहसलार भले ही इसके संदर्भ में एक दूसरे को दोषी बनाते रहे, लेकिन दाल पूरी की पूरी काली ही नजर आ रही है.इसका फायदा गैरसरकारी विद्यालय भर पूर उठा रहे है.
शिक्षा संहिता के अनुसार शिक्षा का अधिकार हर बच्चे को प्राप्त है जिसमें प्राथमिक और पूर्वमाध्यमिक शिक्षा तक सब को समुचित शिक्षा का प्रावधान है.यह प्रावधान सिर्फ शासकीय विद्यालयों में ही बस नहीं लागू होता है वरन अशासकीय विद्यालयो पर भी बखूबी लागू होता है.भारत सरकार के सिटीजन चार्टर के अंतर्गत  सीबीएसई और आईसीएसई काउंसिल की नियमावली में यह बात स्पष्ट रूप से लिखी गई है कि भारत में रहने वाले हर बच्चे को किसी भी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार होता है.और कोई भी संस्था किसी जाति धर्म,अर्थ और समाजिक स्तर को कारक मानकर किसी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती है.इसका अर्थ यह हुआ कि हर संस्था को यह शैक्षिक दायित्व निर्वहन करना ही पडेगा जिसके अंतर्गत वह किसी भी बच्चे को उसके अभिवावक की गरीबी रेखा,वार्षिक आय आदि कारको की वजह से प्रवेश देने से रोक नहीं सकती है.परन्तु इतने वर्षों के बाद भी इस आरटीई का क्या हाल है वह हम सबसे छिपा नहीं है.हर रोज किसी ना जिले या कस्बे के गैरसरकारी विद्यालयों की स्थिति और इस नियम के उल्लंघन के समाचार सुनने को मिलते है.
मध्यप्रदेश में 40 विद्यालय इंडियन काउंसिल आफ सेकेण्डरी एजूकेशन से मान्यताप्राप्त है.और सेंट्रल काउंसिल आफ सेकेण्डरी एजूकेशन से बहुत से विद्यालय संचालित है.माध्यमिक शिक्षा मंडल से भी विद्यालय संचालित होते है. शासकीय और अशासकीय विद्यालयों का अनुपात देखा जाये तो 60-40 का अनुपात आज बना हुआ है.बहुत से पैरेंट्स अपने बच्चों को अशासकीय विद्यालयों मे दाखिला दिलवाना चाहते है.प्रबंधन के पास दाखिला ना देने केलिये बहुत से बहाने होते है.शिक्षा के अधिकार को या तो बहुत से पैरेंट्स जानते नहीं है, और यदि जानते है तो उनकी प्रक्रिया को देख कर लगने वाले समय से बचने के लिये मजबूरी में कोई कदम नहीं उठा पाते है.
शिक्षा के अधिकार के लिये नियुक्त संकुल और ब्लाक के शिक्षा विभागीय अधिकारी जब तक इस काम के लिये समय निकाल पाते है तब तक इन विद्यालयों में प्रवेश प्रक्रिया पूरी हो चुकी होती है.क्योंकि सीबीएसई और आईसीएसई के विद्यालयों में प्रवेशप्रक्रिया अप्रैल में ही पूरी कर ली जाती है.उसके लिये भी इतनी सारी फार्मेलटीज होती है कि उसे पूरा करने में ही पैरेंट्स असुविधा महसूस करते है.शिक्षा का अधिकार क्या माध्यमिक शिक्षा मंडल के द्वारा संचालित विद्यालयों के लिये होता  है.अन्य मान्यता प्राप्त विद्यालयों के लिये इस योजना कोई महत्व नहीं है.इसका जवाब किसी के पास नहीं है.कई बार तो वार्षिक आय,माता पिता की शिक्षा,सामाजिक स्तर को प्रमुख कारण बनाकर इन विद्यालयों में पैरेंट्स को इस अधिकार के तहत खाली हाथ ही वापस लौटना पडता है.दोगला चेहरा रखने वाला यह अधिकार वास्तव में उन विद्यार्थियो को मदद नहीं कर ही नहीं पाता जिनकी समस्या को दूर करने के लिये बनाया गया था.माध्यमिक शिक्षा मंडल के द्वार संचालित विद्यालयों की स्थिति यह है कि यदि इन विद्यालयों में प्रवेश मिल भी गया तो अगले सत्र का कोई ठिकाना नहीं होता कि उसे नियमित रखा जायेगा कि नहीं क्योंकि फीस की राशि दे पाना बच्चों के पैरेंट्स के बस की बात नहीं हो पाती है.
एक प्रश्न अभी भी जरूरत मंदो के दिमाग में गूँजता है कि क्या यह अधिकार सिर्फ शासकीय विद्यालयों तक सीमित होचुका है.या इसका इसी तरह दोहन गैरसरकारी विद्यालय करते रहेंगें.और इस तरह के दोहन के लिये शिक्षा विभाग के बेबस नियम कानून से बंधे अधिकारी और कर्मचारी वर्ग है,या मान्यता प्राप्त बोर्ड के नियम कानूनों की आड में जरूरत मंदो की आँखों में धूल झोंकने वाले ये विभिन्न अशासकीय विद्यालयों के प्रबंधन अधिकारी.शासन को जब कभी कुंभकर्णी नींद से जागने की फुरसत मिलती है तब इस अधिकार की विवेचना,और पर्यवेक्षण समितियाँ बनती है.बैठकें होती है.आदेश निकाले जाते है और वह भी इस अधिकार की तरह फाइलॊं में कैद होकर रह जाते है.कब इस तरह के अधिकार मासूम बेबस बच्चॊं तक पहुँचेंगें .कब वो स्वस्थ माहौल में शिक्षा प्राप्त कर पायेंगें यह कोई नहीं जान पाया है.आज इस चर्चा करने की आवश्यकता से कहीं ज्यादा अशासकीय विद्यालयों के प्रबंधन में शासन की पकड को मजबूत बनाने की आवश्यकता है.तभी परिणाम लाभकारी बन पायेगा
अनिल अयान.

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