रविवार, 4 दिसंबर 2016

"स्वर्ण-टकसाल" बने देवस्थानों की सोनाबंदी कब

"स्वर्ण-टकसाल" बने देवस्थानों की सोनाबंदी कब
देव स्थान हमारी आस्था के प्रतीक हैं हम अपनी आस्थानुरूप मंदिरों में भगवान से कुछ ना कुछ मनोकामना मांगने जाते हैं.हमारी आस्था इतनी प्रबल है कि हम अपने कार्यों और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये आस्थानुरूप धन धान्य देव स्थानों को दान के रूप में अर्पित करके चले आते हैं.कितने लोग इसका हिसाब कितना रखते है यह समझ के परे है.शायद कोई नहीं.अराध्य से मांगने की परंपरा में हम जाने अनजाने धन (चाहे वह सफेद हो या काला- अपरिभाषित ) या फिर आभूषण दान करते हैं त्योहारों में यह आस्था मंदिरों में बखूबी परवान चढते आप सबने देखा ही होगा.यहां पर प्रश्न इस बात का नहीं है कि हम इस तरह की दान दक्षिणा का विरोध कर रहे हैं.किंतु इस तरह का आराध्य को चढावा और उसकी देश हित में आर्थिक उपयोगिता देश हित में कितनी है?इस विषय पर कुछ पल के लिये तो विचार कर ही सकते हैं.इस समय जब सरकार नोटों के विमुद्रीकरण के बाद सोने के रखने की सीमा तय कर चुकी है.पुरुष और महिला का सोने के आधार पर वर्गीकरण किया जा चुका है. इन संदर्भों के मध्य सरकार को यह भी संज्ञान में लेना चाहिये कि देवस्थानों में भी दानपेटी और पात्रों में इसके अलावा ट्रस्टों को कितना सोना और हीरे-जवाहरात बिना किसी कागजात के पुजारियों को आस्था के नाम दान कर दिया जाता है.विशेषकर जनता तो ठीक है किंतु जनता से जनताजनार्दनों और उद्योगपतियों की आस्थाये कहीं ना कहीं अचानक जागृत अवस्था में आ जाना और इन देव स्थानों से टैक्स रिलैक्सेशन की उम्मीद लगा बैठना भी अन्य प्रकार की कमाई के क्या संकेत सरकार को नहीं देते हैं.मंदिरों के ट्रस्ट इसे देश के विकास में उपयोग करने से परहेज इस लिये करते हैं क्योंकि वह चढावा है.जनता की आस्था की आहुति हैं किंतु जहां मोदी जी डिजिटल मनी और कालेधन के पीछे हाथ धोकर पडे हैं. उस बीच यह विषय किनारा कर जाये यह शायद जनता की आस्था के साथ खिलवाड होगा.
हमारे देश में ऐसे बहुत से उत्तर और दक्षिण भारत में देव स्थान हैं जहां पर हर जाति धर्म के लोग अपनी आस्थावश जाकर चढावा चढाते हैं.किंतु इसका देश के विकास में कोई योगदान नहीं समझ में आता है.उदाहरण की बात करें तो पद्मनाभस्वामी मंदिर, व्यंकटेश मंदिर,अयप्पा मंदिर, साई बाबा मंदिर इस्कान मंदिर आदि बहुत से उदाहरण हैं जहां आस्थाओं से मिला सोना हीरा जवाहरात और आभूषण देवताओं और आराध्यों को स्पर्श कराकर  तिजोडियों  में कैद कर दिया जाता है.इनका कागजी रूप से कोई दस्तावेज अमूमन मंदिरों के पास नहीं होता है.वार्षिक रूप से ट्रस्टों का आय व्यय ही बस इनके पास दस्तावेजी सबूत होता है.दक्षिण भारत के अमूमन देवस्थान के प्रबंध ट्रस्टी इसकी ब्याज तक लेना पाप मानते हैं.किंतुट्रस्ट के लिये इसका उपयोग बखूबी किया जाता है.मंदिर और देवस्थाओं के विकास के लिये इस धन का उपयोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करना पुण्य माना जाता है,धनवान लोग इसके लिये जमीन धन दान करते हैं.वह पापपुण्य की सीमा से परे होता है.सिर्फ तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ऐसा अपवाद है जहां का स्वर्ण चढावे को बाइस कैरेट के सोने के सिक्कों मेंबदल कर पूरे देश में वितरण किया जाता है. किंतु अधिक्तर देवस्थान ट्रस्ट इससे परहेज करते हैं.हिंदुस्तानी सोने के सबसे बडे आयातकों में स्थान रखते हैं.दोहजार पंद्रह सोलह  में नौ सौ टन सोना आयात किया गया.तथा एक सौ पचहत्तर टन सोने की तस्करी भी की गई.विश्व में सोने के भंडारक के रूप में भारत ग्यारवें स्थान पर काबिज है.तीन हजार टन से भी अधिक सोना भारत के विभिन्न स्थानों में स्थित देवस्थानों के पास तिजोडियों में जमा है.जिसका भारत की अर्थव्यवस्था को स्पर्श तक करने का अधिकार धर्माधिकारियों ने नहीं दिया.भारत की जमीन में फल फूल रहे ये सब आस्था के देवस्थान भारत के लिये जितना धार्मिक महत्व रखते हैं.आर्थिक महत्वहीन शाबित हो रहे हैं.आयात नीति को कहीं का कहीं कम करने की बजाय ये देव स्थान निर्यात नीति को भी रोक कर ये देव स्थान बैठे हुए हैं.
जब सरकार वर्तमान में सक्रिय मुद्रा में सोने को लाने के फिराक में हैं तो अब हम सबको यह अपेक्षा सरकार से हो रही है कि सोनाबंदी की अगली कडी देवस्थानों के नाम पर बंद पडे स्वर्ण टकसाल देश की आर्थिक व्यवस्था के लिये खोल दिये जाये.दान और चैरिटी की श्रेणी में देवस्थानों और ट्रस्टों को भी लाया जाये,मेरे ये विचार किसी की आस्था को ठेस पहुंचाने के लिये नहीं बल्कि आस्था के बहाने दान दक्षिणा को को प्रायोगिक रूप से मानव निर्माण और उत्थान के पावन उद्देश्य की पूर्ति हेतु राष्ट्र के विकास में शामिल करने की पहल करना मात्र है.जो शासन की और धर्माधिकारियों की आपसी सामन्जस्य के बिना कदापि संभव नहीं.यह भी संभव है कि मेरे विचारों से देवस्थान ट्रस्ट कदापि समान्जस्य ना बिठा पाये.किंतु अब समय आ गया है. कि देव स्थान के मानव संसाधन को भी भक्तों के मानव निर्माण और राष्ट्र के धनधान्य निरूपण के माध्यम से विकास कदम में सहयोग करें.आस्था के चिंतन में बदलाव लाकर सोलिड मनी को लिक्विड मनी में बदलने की.जो सरकार के अलावा कोई नहीं कर सकता.जब सरकार आम जन से सोने की आवश्यकता और भंडारण की सीमा की उम्मीद कर सकती है और कानून बना सकती है.तो फिर देव स्थानों के रूप में स्वर्ण टकसालों की धरोहर को भी इस सापेक्ष खडा कर देश की आर्थिक नीति अर्थात स्वर्ण नीति को लागू करे. वित्त मंत्रालय इसमें मध्यस्थ का काम करे.जनता की दान दक्षिणा -देवस्थान ट्रस्ट की आमदनी -राष्ट्र अर्थव्यवस्था आपस में अंतर्संबंधित हो तो जनता और सरकार दोनों की आस्था देव स्थानों के प्रति ज्यादा प्रबल होगी. तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जैसे ही अन्य देव स्थान ट्रस्टों को भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

एक और "अनुशासन पर्व"

एक और "अनुशासन पर्व"
नोटों के विमुद्रीकरण का प्रभाव कम हुआ ही नहीं कि सरकार के औचक फैसले कहीं ना कहीं पर नागरिकों को आश्चर्य में डाल रहीं है.विनोवा भावे आज अगर होती तो निश्चित ही इस लहर को एक और अनुशासन पर्व का नाम जरूर देती.विमुद्रीकरण से ना उबर पाने वाली जनता और बैंक अब इस बात का हिसाब लगायेंगें कि किस लाकर में कितना सोना भरा हुआ है.पुस्तैनी से लेकर अपनी गाढी कमाई से खरीदा गया सोना भी अब सरकार को काले धन की बदबू फेंकता नजर आने लगा.वैसे सरकार ने जो सोना रखने लिमिट तय की है वह कहीं ना कहीं आम जन पर मार कम पडने वाली है.परन्तु शादी और अन्य उत्सवों में आभूषणों के लिये खर्च किये जाने वाले सोने की दर परिवारों के लिये गले का फांस बनने वाली है.यह तो सच है कि सोना और चांदी हर घर में कुछ ना कुछ पुस्तैनी रूप से एक पीढी से दूसरी पीढी में स्थानांतरित होती हैं किंतु इसका पूरी हिसाब सरकार को दे पाना यथा संभव बहुत कठिन होगा.अब सवाल यह उठता है कि सोने के साथ साथ चांदी और प्लेटिनम और हीरे को क्यों किनारे कर दिया गया. क्या काला धन सिर्फ सोने के साथ ही बदला जा सकता.कहीं ना कहीं इनके साथ तटस्थ फैसला नहीं.कभी कभी तो लगता है.की हीरा भी एक माध्यम है जहां काला धन चमक के सामने सरकार को नहीं दिखाई दे रहा है.सोने के सामने अधिक्तर हीरे जवाहरात की भी जांच होनी चाहिये ताकि धन्ना सेठों की तिजोडियों की भी जांच होनी चाहिये.भगवान को दान दिये जाने वाले आभूषण और हीरे जवाहरात पर सरकार क्यों मौन हो जाती है.यह कैसा अनुशासन पर्व है.जिसमें सोने को अनुशासन में लाकर अन्य रत्नों और जवाहरातों को इसके बाहर कर दिया गया.
इंदिरा जी की एमर्जेंसी समय और अब का  आर्थिक एमर्जेंसी कहीं ना कहीं पर कई अर्थों में समता रखती हैं.इस अनुशासन में आम जन के साथ साथ राजनेता भी फरमान के दायरे  में आते जान पडते हैं.जबकी दायरे से वास्तविक रूप से बाहर हैं,मीसाबंदी का यह अनुशासन पर्व जेल भरो आंदोलनों से काफी दूर है.इसमें अर्थ को मूल मानकर सरकार काले धन की जुगत भिडा रही है.किंतु आज तक विदेशों का कालाधन हमारी नजर में नहीं आ पाया.क्या जन धन में कुछ रुपये की रेवडी बांट देने से यह विषय कहीं दब जाता है,क्या आम जनता की परेशानियों की माला बढने वाली है.यह तो आने वाला वक्त बतायेगा.किंतु सरकार के नियमों में हो रहे बदलाव,व्यवसाय को कैशलेस करने की कवायद कहां तक व्यवसाइयों और आम जनता के पक्ष में गई.इस बात को कोई नहीं समझ पाया है.सब सरकार को अपने पक्ष में मान कर सुखद भविष्य की आशा के साथ अपने दुखद वर्तमान को झेलने के लिये तैयार बैठे हैं,उपचुनाव के नतीजे इसके सबूत हैं.किंतु कैश लेस करने की कवायद में इससे जुडे उद्योग फले फूले हैं.किंतु आज भी एक महीने होने को हैं.किंतु बैंक के अधिक्ततर कर्मचारी जनता की विमुद्रीकरण सेवा में व्यस्त हैं.आम जनता आज भी लेश कैश के लिये एटीएम की राह तक रही है.अनुशासन की ऐसी कदमताल जल्दबाजी का परिणाम तो है ही.रही बात सोने की खपत को टैक्स की जंजीरों में कैद करने तो सोने के अलावा भी बहुत सी धातुए और रत्न हैं जिनका उपयोग काले धन को सफेदकरने के लिये हथियार के रूप में हो रहा है.उसे भी इस दायरे में आना चाहिये.जमीन भी कुछ इसी तरह का हथियार है.इनके साथ साथ विदेशों में छिपा काला धन कब जनता के सामने आयेगा.इसका इंतजार है.यही आर्थिक अनुशासन जनता के मन को धैर्य प्रदान कर रहा है.हमारा वर्तमान तो यही कह रहा है.कि चाहे जितना कैशलेस अर्थव्यवस्था की धुन छेडी जाये किंतु भारत की अधिक्तर जनसंख्या कैश के सहारे ही जीवन यापन कर रही है.काला धन कैश लेस अर्थव्यवस्था में आम जनता को ना उलझाये और काले धन के स्रोत को देश में घर वापसी करें यही सरकार का ध्येय होना चाहिये.

अनिल अयान,सतना९४७९४११४०७

सोमवार, 21 नवंबर 2016

कभी "मुन्नी-शीला" कभी "सोनम" और अगली बार हमारी बेटी

कभी "मुन्नी-शीला" कभी "सोनम" और अगली बार हमारी बेटी
यह अप्रत्याशित मुद्दा ही था कि इस बार "सोनम" के कथानक को बाजार में नोट के ऊपर रखकर काफी उछाला गया.जब से नोटों का विमुद्रीकरण हुआ तब से इस नाम को इतनी लोकप्रियता मिली की कि हमारे समाज में रहने वाली इस नाम की औरतें, बहने, बेटियां,भाभियां,सालियां खुद बखुद लोगों की जुबां में आने लग गई.परिवार में मजाक करने वाले रिश्तों के बीच में रोजाना ही मजाक बन गया.पहले एक हजार की नोट,फिर पांच सौ और उसके बाद यह प्रक्रिया लगातार हर नोटों में यह लिख कर कि "सोनम गुप्ता बेवफा हैं" रातों रात कांट्रोवर्सी में आगई.सवाल यह खडा हुआ कि मीडिया ने यह मुद्दा इतना क्यों फैलाया.देश की सभी नेटवर्किंग साइट्स में यह मुद्दा काफी उछाल में आया. इसकी जड कहां से शुरू हुई यह किसी ने जानने की कोशिश नहीं की बस अपने अपने प्रोफाइल में साझा करना शुरू कर दिया. इस कथानक के जरिये जिस वैचारिक महामारी का फैलाव हुआ वह कहीं ना कहीं प्लेग से भी ज्यादा भयावह है.प्लेग का एक बार तो इलाज हो सकता है किंतु इस प्रकार की सस्ती लोकप्रियता को पाने के लिये देखा गया उत्साह सोनम के हर रिश्ते से जुडे लोगों को समाज में शर्म आने लगी.बिना दूरगामी परिणाम सोचे इस तरह की हरकत समाज में जिस झूठे ग्लोबलाइजेशन की हवा बह रही है वह किस दिशा में जा रही है यह सोचने का विषय है.चरित्र और सम्मान के नाम पर यह एक गहरी चोंट है जो मनो वैज्ञानिक रूप से एक बीमार व्यक्ति की आंतरिक व्यथा को समाज के सामने सिर्फ मजे लेने के बहाने फैला दिया गया। बिना यह सोचे कि असहज भाव का उस नाम की स्त्री पर क्या प्रभाव पडेगा।
बालीवुड में स्त्रियों के नामों को लेकर शुरू हुए अश्लील गानों की धुन पर नाचने वाले युवा अगर "मुन्नी बदनाम हुई  डार्लिंग तेरे लिये." और "शीला की जवानी" हमारी फीचर फिलमों के एक अंधकारमय पक्ष को उजागर करने में सफल रहे। तो दूसरी तरफ "सोनम गुप्ता" का विषय हमारे समाज में हाईटेक युवा दिल दिमाग और जिस्म की आंतरिक आग को शांत करने का केंद्र बिंदु बन जाता है.इन मामलों को हमारा समाज संज्ञान में नहीं लेता.हर घर ,हर कालोनी,हर कस्बे में इस नाम को रखने में पैरेंट्स हजार बार सोचेंगें कि हमारे घर की इज्जत के साथ भी वैचारिक बलात्कार हो सकता है.और अगला नाम क्या होगा यह कोई नहीं जानता, बार बार यह कहना कि अरे हो गया लोग जो कह रहे हैं कहने दो हमें कोई फर्क नहीं पडता.बेटियां सब जानती हैं. साहब सच्ची बात तो यह है कि हर सोनम गुप्ता का पिता भाई और पति कुछ पल के लिये झेप जाता होगा,यदि इस तरह के मुद्दों में यह नाम बार बार उसके सामने सुर्खी बनकर आता होगा. जब कोई यह कहता है कोई बात नहीं "इट्स ओके" तो यह मान कर चलिये कि उसका सब कुछ ओके नहीं है.यह एक मात्र घटना नहीं है.यदि हम इस घटना पर मौन हैं तो यह तो तय है कि अगला नंबर हमारे घर के बहन बेटी और मां का लगने वाला है. इस प्रकार की प्रसिद्धि किसी काम की नहीं है.इस मुद्दे में महिला समूह,उनसे जुडे हुए संस्थाये जिस चुप्पी को साधे बैठी हुई हैं वो हृदय विदारक है.यह किसी वैचारिक अत्याचार कम नहीं है.कभी कभी तो मै यह सोचता हूं कि सोनम गुप्ता तो इस मुद्दे में क्या सोचती होगी.कि अपने ही घर में अपने ही समाज में हमें नोटों में एक प्रेस नोट बनाकर छॊड दिया गया.हमने किसी से प्यार किया या नहीं किया हमारी प्राइवेसी को सार्वजनिक कर दिया गया. उसके बावजूद भी हमारे आसपास के भाई पट्टीदार और हमारी सुरक्षा के लिये प्रतिबद्ध संस्थायें भी इस लिये मौन हो गई क्योंकि हम से उन्हें कोई फेम नहीं मिलने वाला था. कोई लोकप्रियता नहीं मिलेगी. हमें सोशल मीडिया में सोसाइटी से उठा कर मजाक और घिनौने आनंद का हिस्सा बना लिया गया.एक खिलौने की तरह हमें खेलकर हमारी धज्जी धज्जी करके हाथ का मैल "रुपया पैसा" बनाकर सडक में फैंक दिया गया. वो भूल गये कि जिन्होने यह हरकत की कि आज तो सोनम गुप्ता है कल कोई और इसी तरह वैचारिक बलात्कार का हिस्सा बनेगी.और हमारा समाज हाथ में हाथ धरे अपनी बारी का इंतजार करता रहेगा.एक रात में मुझे मिस वर्ल्ड या सेलीब्रेटी बना दिया गया।मतलब यह कि मुझे अपनी अंदरूनी आग को भडकाने के बहाने पेट्रोल के रूप में उपयोग किया गया.लोगों की इस प्रवृति को रोकने की बजाय लोगों ने खूब उछाला.आखिर कब तक मेरा इस तरह जीना दूभर होता रहेगा.मै इस बात से आत्म हत्या भी कर सकती थी.किंतु इस लिये कदम रुक गये कि मेरे पिता का उसके बाद क्या होगा जब लोग कहेंगें कि इसी की बेटी असली सोनम गुप्ता रही होगी.इस लिये जब इसका जवाब मेरे पास भी नहीं इस लिये मै सिर्फ यही कह देती हूं कि लोगों का यही काम है वो कहते रहते हैं. लेकिन मै यह जरूर भगवान से प्रार्थना करूंगी कि दोषी को सोनम गुप्ता का पिता भाई और पति जरूर बनाये.इस जनम या अगले जनम इससे मुझे ज्यादा फर्क नहीं पडता, बालीवुड से शुरू हुई यह प्रथा कहीं ना कहीं आज सोशलमीडिया की नाक बनकर कटने के लिये सामने खडी है.
दुराचार का यह रूप बलात्कार के दैहिक रूप, ऐसिड अटैक,और यौन शोषण से ज्यादा दुष्कर है. पहले इस दंश की पीडा,फिर न्याय के गुहार के लिये पीडा और संघर्ष,और अंततः क्लेश के वजह से आत्महत्याकरने के बाद माता पिता के दिल में गिरने वाली चट्टान,एक बार विचार करके देखिये कितना दर्द है इस दर्दनाक सोशल मीडिया की करतूत पर,नोट में लिखकर इस किरदार इस नाम को भले ही अप्रत्याशित शेयर मिला हो,मीडिया को अप्रत्याशित टीआरपी टेलीवीजन रेटिंग प्वाइंट मिली हो. परन्तुयह ठीक उसी तरह लिखा गया जिस तरह की कोई हर दीवार में यह लिख दे "आप अपने मां- बहन- बेटी" के बलात्कारी है.और समाज आपको मुंह दिखाने लायक ना छॊडे.प्यार में किसी को छॊड देने को बेवफा कहना पुराने जमाने की बातें हो गई पर उस समय पर भी यह लिखा गया कि "जरूर कोई मजबूरियां रही होगी तेरी सनम, वरना यूं ही तू बेवफा नहीं होती",.आज इसके मायने जिस्मानी रिश्तों की दहलीज के दायरे में आगये हैं. महिला संगठन,एनजीओ,सुधार ग्रह और संस्थाये,इस प्रकार के मामलों में अगर चुप्पी साधे बैठी हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि हम सब मौन साध लें मौन ही अंतिम स्वीकृति होती है.हमारी जिम्मेवारी बनती हैं कि ऐसे यूजर्स को ब्लाक करने या उसका एकाउंट बंद करने की पहल करनी चाहिये.हमारा यह कदम समाज की चुप्पी टोडने की एक पहल तो हो ही सकता है. क्योंकि हमारे समाज में हमारे  परिवार में स्त्री हर रिश्तें में हमसे गहरा संबंध रखती है.इस लिये ऐसे भ्रामक और नीचता वाले प्रचार प्रसार को अपने मजबूत निर्णयों के माध्यम से बंद करे.ताकि उपर्युक्त नाम जैसे और किसी बहन बेटी और अन्य रिस्तों की धज्जी ना उडाई जाये सरे राह सरे चौराहे और सरे सोशल बाजार में.हमारे घर की इज्जत घर की ही नहीं हमारे समाज की भी मर्यादा है.सोशलमीडिया के बाजार में यह नीलाम हो यह तो किसी भी अभिभावक को गंवारा नहीं होना चाहिये.क्योंकि वह भी कभी किसी सोनम का पिता भाई और पति तो बनेगा ही.

अनिल अयान,सतना

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

नमक से नमकहरामी

नमक से नमकहरामी
देखते ही देखते नमक का नमकीनपन छिनने लगा.एक ही रात में नमक २०० रुपये से ३०० रुपये किलो क्या बिका सभी लोग बोरियों में नमक रखकर सुकून की नींद सोने की तैयारी करने लगे स्वतंत्रता पूर्व एक बार महात्मा गांधी ने नमक के कर को समाप्त करने के लिये अंग्रेजी हुकूमत से लडने हेतु डांडी यात्रा की और देश को नमक के नमकीन स्वाद को और बढाया था.पर यहा तो नमक से ही तथाकथित लोग नमकहरामी करने के लिये उतारू हो गए. कभी कभी तो मुंशी प्रेमचंद्र के द्वारा लिखित कहानी नमक का दरोगा की याद आ जाती है.वैसे तो वो बेचारा अंततः पंडित अलोपी दीन के साथ होने को मजबूर हो जाता है.किंतु यहां तो ऐसे कथानकों की फौज खडी नजर आई जो कालाबाजारी और जमाखोरी के जरिये नमकहरामी करने की जुगत में लगे हुए थे.चाहकर भी जनता इनके चक्रव्यूह से बाहर ना आसकी।भ्रम का ऐसा मायाजाल इन्होने फैलाया कि लोग नमक के लिये भी तरसने को मोहताज हो गये.दिल्ली उत्तर प्रदेश और बिहार सहित उत्तर भारत के लगभग छ राज्यों में जिस तरह की नमक के नाम पर लोगों के घावों में नमक की नमकीन सतह लगाई गई वो चर्चा का विषय बन गया था. मीडिया ने भी इस नमक को अपनी पानी दारी से धुल ना सकी,उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो नमकीन राजनीति करके यह भी बता दिया कि इसमे कहीं ना कहीं तथाकथित भाजपा और उनके समर्थकों का हांथ है ताकि नोटफ्लू और नोट बंदी के प्रभाव से ध्यान हटाया जा सके।
लोग जिस तरह जमा धन को निकालने के लिये पसीना बहा रहे हैं। उसी तरह लोग नमक खरीदने के लिये किराने की दुकानों में घूमते नजर आये.पर इस पर यकीन कर पाना कैसे संभव हैं जब भारत दुनिया में नमक उत्पादन और विक्रय में टाप पांच देशॊं की सूची में अपना स्थान बनाये हुये हैं.साथ ही साथ उसके उत्पादन का  वार्षिक टर्न ओवर ३ हजार करोड टन से ज्यादा है.अब देखने वाली बात यह है कि क्यों इस तरह की भ्रमयुक्त बातें जनता के पास तक पहुंचाई गई.क्या मीडिया इसमें योगदान नहीं दे रहा है.क्या राजनेता और बडे व्यवसाई पंडित अलोपीदीन का सम्राज्य दोबारा खडा हो रहा है. प्रेमचंद की कथा इस देश की वास्तविक स्थिति को घेरने के लिये दोबारा आतुर नजर आई.कुल मिलाकर इस तरह की घटनायें देश में कालाबाजारी और जमाखोरी की आवोहवा को बढाने का काम करती हैं.चाहकर भी कोई आम जनता को सुकून से जीने नहीं देना चाहता है.नमक के बहाने जनता के साथ गुस्ताखी करने की जहमत उठाकर एक और मुद्दे को गर्म तवें में परोसा जा रहा है.अब तो जनता जिस तरह परेशान है वह आशंकाओं के चक्रव्यूह में फंस कर कुछ भी कदम उठा सकती है.परन्तु बडी नोट को रद्दी में बदलने से पूर्व जनता लाइन में खडे होकर सरकार के निर्णय को सही भी ठहरा सकती है.किंतु सफेद नमक के काले रूप को कैसे बर्दास्त करे.जनता के लिये इस समय जो आर्थिक आपातकालीन स्थितियां बनी हैं उस बीच  काला बाजारी और और जमाखोरी को रोकने वाले नियामक और उनसे संबंधित नियम कानून ऐसे सोते हुए क्यों नजर आ रहे हैं जिसकी नाक के नीचे नमक से नमक हलाली घट गई.क्या नमक के दरोगे कहानी की तरह प्रशासन भी अलोपी दीन जैसे किरदारों की जागीर बनकर रह गया है.क्या यह शीतकालीन सत्र के समय उठने वाले सदन के भीतर के तूफान की आशंका है.इन सब प्रश्नों के जवाब खोजना ही होगा।
नमक तो एक मात्र सामान है.यदि राजनीति इसी तरह हावी रही तो आर्थिक के साथ साथ गृहस्त जरूरतों का आपातकाल ना शुरू हो जाये.नमक शक्कर,तेल आदि मूल भूत रसोई के सामानों को सामान्य रूप से पूर्ति बनाये रखना ही इसका मुख्य रास्ता है.उपभोक्ता और रिटेल मार्केटिंग से जुडे नियामकों को इसमें नजर रखने की आवश्यकता है ताकि इस प्रकार की स्थिति ना पैदा हो.भले ही हमारे पडोसी राज्य में चुनाव है तो इस प्रकार की स्थितियों से हमें रूबरू होने की आदत हमें डाल लेना चाहिये किंतु यदि हमारे राज्य में चुनाव की स्थिति में ऐसे दर्शन देखने को मिलेंगें तो कैसा महसूस होगा.अर्थ में अपना अर्थ खोजती आम जनता फिलहाल तो अपने अर्थ को सही ठिकाने लगाकर रोजाना रोजमर्रा की जरूरतों को सुलझाने में जुटी है.इसलिये संवैधानिक पद और समाज की चेतना ही इस तरह की अफवाहों और आशंकाओं का निवारण करा सकती है.हमारी चेतना ही हमें यह समझने के लिये समय देगी कि हमारे आसपास क्या हो रहा है और हमें उससे कैसे निपटना है.इसलिये नमक की कालाबाजारी और जमाखोरी को हम सब मिलकर शासन की मददसे छुटकारा पासकते हैं.हमारे बीच में बहुत से कथानक अलोपीदीन मौजूद हैं उनको खोजकर बेपर्दा करने की बस देर हैं.और नमक से नमकहरामी को रोकने की पहल करने जरूरत है।
अनिल् अयान
९४७९४११४०७

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मंगलवार, 8 नवंबर 2016

भैया चुप रहो ! सियासत हावी है

भैया चुप रहो ! सियासत हावी है
दीवाली चकाचौंध में और पटाखों की गूंज के बीच, झीलों की नगरी और मध्य प्रदेश की राजधानी में, जिस प्रकार नाटकीय अंदाज में सिमी के खूंखार आतंकियों का हमारे राज्य की पुलिस ने चौबीस घंटे से भी कम समय में मामला रफा दफा किया। वह वाकयै काबिले तारीफ हैं। यह घटना पूरे देश को अपने केंद्र में समेट ली.राजनैतिक पार्टी दीवाली की स्याह अमावस में भी स्पष्टद्रष्टा बन गये। देश के शुप्तावस्था में पडे नेता अपने अपने दल बल के साथ सरकार की इस प्रशंसायुक्त कार्य में दाग ढूंढने या यह कहूं कि कोलतार की मदद से दाग लगाने की मैराथन दौड में ऐसे आगे आने की कोशिश करने लगे मानो यूपी की रामलीला के साथ एम.पी की रामलीला का पटाक्षेप वही करेंगें।वहरहाल माहौल तो उनके मरने से इतना गर्म नहीं हुआ जितना कि सियासत के हावी होने से हो चुका है.सच जानने की बजाय केंद्र से जांच कमेटी बैठाने और निष्पक्ष जांच करने के लिये केंद्र की भाजपा सरकार से गुजारिस की जा रही है.अब देखना यह है कि सरकार किस तरह अपने अधीनस्थ और भाजपा की मजबूत शिवराज सरकार के जेल मंत्रालय की जांच बैठाती है.मध्यप्रदेश के जेल मंत्रालय की तो पहले ही घिघ्घी बंधी हुई है इस लिये वो चुपचाप अपनी गलती को और लापरवाही को कुबूल कर लिया है पहले ही और बाद में पुलिस की उस टीम को शाबासी दी जिसने यह कृत्य अथवा विपक्ष की नजर में कुकृत्य किया है. देखिये साहब हम ठहरे आम जनता ,अब हम तो यह कह नहीं सकते कि यह एनकाउंटर फर्जी था.जो इस विषय के ज्ञाता है वो तो मीडिया में गोहारी मार मार कर चिल्ला रहे हैं कि यह फर्जी एनकाउंटर था.सरकार ने गुजरात का विकास माडल अपनाया है.वहां भी इसी तरह कुछ सालों पहले फर्जी एनकाउंटर करवा के सरकार ने खूब रस मलाई झेली है.और पुलिस वाले अफसरों के कंधों के स्टार बढाये हैं. इसलिये यह समझ में आता है कि भैया देश की सियासत चल रही है अर्थात जनता पर हावी है इसलिये मैया चुप रहो।
ऐसी घटनाये कभी कभी हमें अंदर से सोचने के लिये हिलाती जरूर हैं.हमारा अंतस ना जाने क्यों कुछ ना कुछ अस्वीकार कर देता है.देखता कुछ और है और सोचता कुछ और है और पूंछता बहुत कुछ है।इस ट्वेंटी ट्वेटी के मैच की तरह के एनकाउंटर में मारे गये सिमी आतंकियों का हूरों से मिलाप करवाना तो हमारे लिये फायदेमंद ही था.कोर्ट में होता तो उनको अभी कई साल और वंचित होना पडता अपनी पसंद की हूरों से.किंतु एनकाउंटर के पूर्व की लापरवाहियां और बाद की तेजगी दोनों विरोधाभाष के रूप में सामने आकर खडे हो जाते हैं.पूर्व की लापरवाहियों की वजह से कहीं ना कहीं जेल के सिस्टम का पोस्ट मार्टम करने का मन करता है और बाद की तेजगी के लिये पुलिस की पीठ को कूटने का मन करता है. मेरे जेहन में जो विचार सवाल के रूप में कौंधते हैं उनको मै आपके सामने रखना चाहता हूं. राजधानी की जेल के कैमरे से लेकर डिजिटल सिस्टम क्यों फेल था?जेल की एमरजेंसी ड्यूटी और कर्मचारी इतने लाचार कैसे थे?पेट्रोलिंग टीम कहां गुम गई थी? जिन आतंकवादियों की पेशी भी वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये होती थी (वकील आयेशा अकबर के अनुसार) निगरानी को को धूल झोंक कर ऊंची दीवाल कैसे कूद गये.उनको जरूरी हथियार कैसे उपलबध करवाये गये? रात में दो बजे से भागे आतंकवादी चार घंटे में मात्र दस किलोमीटर का सफर पहाडियों तक ही तय कर पाये.उन्हे तो शहर से बाहर जाना चाहिये? पुलिस ने उन्हें जिंदा क्यों नहीं पकड सकी? शहीद होने वाला पुलिस कर्मी एक ही निकला,क्या भा़गते समय अन्य पुलिस कर्मी उनके सामने नहीं आये उनको चोंटे क्यों नहीं आई? सबसे बडे यक्ष प्रश्न जो दिमाग की बत्ती जलाते हैं वो है कि सभी एक साथ एक जैसे कपडे पहन कर टोली में क्यों गये. अलग अलग भाग कर एक निश्चित समय में एक स्थान में मिलते फिल्मों में हमने देखा है.जेल में तो कैदियों के कपडे अलग होते हैं तो फिर उन्हें उनके व्यक्तिगत कपडे मिले कैसे? क्या जेल में भी उनसे घूसखोरी की गई थी? एनकाउंटर का वीडिओ बनानेवाला क्या पुलिसवाला ही था? या उसे वीडियो सूटिंग के लिये ही रखा गया था? क्या इतना समय पुलिस को था? और अभी के लिये अंतिम प्रश्न फिलहाल जिस जेल पुलिस ने आतंकवादियों को जेल के अंदर रोकने के लिये पहल नहीं की वो वीडियों के अनुसार बहुत नजदीक से गोलिया दागने का अनुशासन और साहस कैसे जुटा पाई? वाकयै मित्रों हमारी पुलिस व्यवस्था और जेल प्रहरियों की इस लापरवाही और एनकाउंटर के समय मुस्तैदी और जाबांजी को मै भी सलाम करता हूं
इस प्रथा से जहां एक ओर हमारी जेलों में फिल्मिस्तान वाला सिस्टम लागू होने कीमहक आती है जिसमें नो एफ आई आर,नो इनवेस्टीगेशन,फैसला आन दा स्पाट,विथ लाइव वीडियों, और दूसरी तरफ अव्यवस्था,लापरवाही,फर्जीपन का दंश,और सियासी शतरंज के मजबूर प्यादे बनने के की बदबू भी आरही है.कुल मिलाकर जेल विभाग और पुलिस विभाग इस घटना और एनकाउंटर के बाद सरकार की और अन्य राजनैतिक पार्टियों की सियासी महत्वाकांक्षाओं की बलि के रूप में चढती नजर आरही है.रही बात जांच कमेटी और जांच की जिसकी सिफारस विपक्ष पार्टियां कर रही हैं. वो तो सियासी काम है उसमें हमारा क्या दखल.हां लेकिन यह तो सच है कि अगर कमेटी बैठे तो उन्हें इन प्रश्नों को ढूंढने में मदद करनी चाहिये अपने देश की परिस्थितियों के प्रति नजर रखने वाले युवाओं के जेहन में ये प्रश्न जरूर गूंजे होंगें.हो सकता है कई लोग इसके जवाब भी जान चुके हों किंतु कुछ काम हमें जांच कमेटियों के लिये भी छोड देना चाहिये.इस प्रथा से यदि फर्जी का अस्तित्व खत्म हो जाये तो देश हित में है और अगर फर्जी शब्द का अस्तित्व बढता है तो मात्र सियासी सतरंज की चाल के रूप में जनता के सामने आयेगा.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७


नोटों के खेल में जनता बनी रखैल

नोटों के खेल में जनता बनी रखैल
विगत रात से पांच सौ और एक हजार की करेंसी का कागज के रूप में परिवर्तित हो जाना, भारत की अर्थव्यवस्था के लिये अगर बेहतरी का संकेत बनकर आयेगी तो जनता के लिये आने वाले सन दो हजार सोलह के अंतिम महीने मुसीबत का पहाड लेकर आयेंगें. हम तब भी खुश हुये की चलो किसी तरह काले धन का ऊंट पहाड के नीचे तो आयेगा. किंतु हमने ऊंट पाला ही क्यों भाई और अगर पाला तो फिर उसके पहाड के नीचे आने का इंतजार करने की क्या मजबूरी थी. बहरहाल अब देखना यह है कि ऊंट बैठेगा तो किस करवट बैठेगा. किंतु जब माननीय प्रधानमंत्री जी और वित्त सचिव के बयानों के बाद उठी आर्थिक सुनामी ने जनता की अर्थव्यवस्था के त्राहि त्राहि की स्थिति बन गई है. दोनों करेंसी का अचानक एक साथ ही चलन से हटा देना हाहाकार मचा चुकी है.कहने को यह विचार और उद्देश्य देश की भलाई के लिये है. लेकिन आने वाली जनता की परेशानियां कम होने का नाम नहीं लेंगीं. राजधानी से बैठकर ऐसे फैसले किस तरह देस के आम नागरिकों की जेब और मेहनत की कमाई पर शासन करते हैं इसका नमूना इस फैसले से देखने को मिल गया है.बार बार यह कहना कि इस निर्णय से देश में मुद्रा का चलन और बढेगा.बैंक में करेंसी का जमाव होगा और काला धन निकल कर सरकार की नजर में आयेगा आदि जुमले क्या साकार हो पायेंगें.सरकार को भी यह पता है कि हमारे देश में काला धन जमा किया गया है जो असंवैधानिक है. परन्तु उन पर कार्यवाही करने की बजाय मौका दिया जा रहा है कि आओ और काले धन को सफेद धन में बदलाव करो और फिर काला धन बनाने की होड में लग जाओ. उद्बोधनों में बार बार इस बात का जिक्र आना कि काला धन इस माध्यम से बैंको तक पहुंचेगा.यह साबित करता है कि सरकार ही काले धन का पोषण करना चाहती है. इस प्रकार काले धन के गेहूं के साथ आदेश की चक्की में जनता जैसे घुन भी पिस जायेंगें/. पूर्व में मोरार जी देसाई सरकार ने एक हजार की नोट बंद करने का ऐलान किया था और कांग्रेस सरकार ने पचीस और पचास पैसे के सिक्कों को चलन से बेदखल कर दिया था. उस समय इतनी समस्याये नहीं थी. मीडिया भी उस समय इतना सक्रिय नहीं था.
आज देश की जनसंख्या लगातार बढ रही है.समाज का हर तबका विशेष रूप से गरीब और मध्यम वर्ग रोजगार में लगकर लेनदेन कैश में करने का आदी हो चुका है.एक गरीब के पास मजदूरी के पांच सौ और एक हजार के नोट उपलब्ध होते हैं. बैंकों के बंद हो जाने के बाद सरकार के द्वार शाम को घोषणा करना, महीने की ७-१० तारीख का इस हेतु चुनाव करना औपचारिक और अनौपचारिक रूप से जनता की कमर टॊडने की पहल जैसे ही लगी.यह वही समय था जब अधिक्तर नौकरी पेशे के लोगों के पास तनख्वाह आती है.इन्ही महीनों में पारिवारिक कार्यक्रम होते हैं.इन्ही महीनों में खरीदारी होती है.अक्टूबर के महीने में दो त्योहार होने के बाद नवंबर माह में हर परिवार की आर्थिक स्थिति जितनी कमजोर थी उस पर इस फैसले का बिल्कुल विपरीत प्रभाव पडेगा. नौ तारीख को बैंकरों का बंद होना, एटीएम का बंद होना. और आगामी दिनों में छुट्टी का आना मुसीबत का सम्राज्य लेकर जनता के लिये आने वाला है.काला धन कितना आने वाला है इससे जनता का कोई सरोकार नहीं है. जनता को तो अपनी मुसीबतों से दो दो हांथ करना है मुझे इस बात की खुशी है कि चलो जनता से किये वायदे पर मोदी जी ने ऐसा कदम उठाया कि जनता को भी याद आ जाये कि अगर मोदी सरकार बनी तो हर खाते में सत्रह लाख जमा कराये जायेंगें और सौ दिनों में काला धन वापिस लाया जायेगा. जनता के बढती आर्थिक मुसीबतों के बीच नई करेंसी का आना अच्छे बदलाव के संकेत हैं.जनता को भी नई नोटों से सामना करने का मौका मिलेगा.किंतु एक हजार रुपये को चलन से समाप्त करना आर्थिक स्थिरता को और जटिल बनाना ही है.काला धन आने का स्रोत क्या है.उन स्रोतो को बंद कैसे किया जायेगा.काला धन रखने वालों को क्या सजा होगी. काले धन को सफेद करने के अर्थव्यवस्था के कौन से क्षेत्र हैं और सबसे बडी बात भारतीय उद्योगपति ब्यूरोक्रेट्स और राजनीतिज्ञ काला धन बनाने के आदी क्यों हुए.इन्हें कैसे रोका जाये इसके बारे में कोई रास्ता सरकार ने नहीं दिखाया.काले धन के चक्कर में लो जी जनता को मार झेलनी पड रही है.
नई करेंसी लाने के लिये पांच सौ और एक हजार की नोट को एक साथ चलन से हटाना जनता के साथ सरासर अन्याय है.क्रमश: मुद्रा को चलन से हटाना जनता की मुसीबतों को कम कर सकता था.यह फरमान तुगलकी फरमान की तरह जनता के ऊपर प्रभाव डाल रही है.इसके अलावा नोटों को जमा करना और स्थानांतरित करने के लिये बैंकों के अलावा सहकारी सोशायटी, ग्राम पंचायतों और ब्लाक के सुनिश्चित कैंप लगाकर सरकार को जनता की मुसीबतों को कम करना चाहिये. आम जनता से यह उम्मीद करना कि वो पांच सौ एक हजार के दम पर काला धन लाने में मदद कर सकते हैं. तो यह सरकार का भ्रम हैं.काले धन को ना ला पाने के लिये इस तरह का तुगलकी फरमान कहीं ना कहीं आम जनता के कंधे में बंदूख रखके काले धन्नासेठों को बचाने की पहल तो नहीं हैं? जनता अब नोटों के खेल में सरकार की रखैल बन कर रह गई है.अब देखना यह है कि उपर्युक्त उल्लेखित ऊंट आने वाले समय में किस करवट में बैठता है यह देखने का समय है.क्योंकि हम सबने देखा है कि सरकार के खिलाफ उठने वाले विरोधी सुरों को रोकने के लिये उनको बंद नहीं किया जाता बल्कि देश के सामने नये मुद्दों को रख दिया जाता है जिसकी वजह से सरकार के खिलाफ सुर बंद हो जाते हैं. उठे हुये मुद्दों में सब उलझ जाते हैं.बहरहाल सरकार की नई करेंसी लाने की नीति स्वागत योग्य हैं किंतु इस माध्यम से बढी जनता की मुसीबतों का आंकलन अगर राजधानी में बैथकर किया गया है तो वह सरासर जनता के साथ अन्याय हुआ है.रहीबात काले धन की तो इस माध्यम से काले धन और उनके धन्नासेठों के धन को निकाल पाने का भ्रम और काले धन बनाने की फैक्ट्रियों पर लगाम लगाने की कोशिश सफलता नहीं दिला पायेगी. अब तो हमें भी एटीएम से नई कडक कडक नोटों के निकलने का इंतजार है.
अनिल अयान सतना

९४७९४११४०७  

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

तलाक की राजनैतिक जग्दोजहद

तलाक की राजनैतिक जग्दोजहद.
बहुत दिनों से तीन तलाक के कहन पर काफी घमासान मचा हुआ है.देश में संप्रदाय में शामिल और गैर संप्रदाय के लोग जानबूझ कर अपनी बयान बाजी करने पर उतारू हो रहे थे.विशेष रूप से मुस्लिम संप्रदाय में प्रचलित यह प्रथा,उसका संवैधानिक अस्तित्व और स्त्री स्वतंत्रता पर काफी उद्बोधन दिये गये.महिला सशक्तीकरण के नाम पर महिला संगठनों ने और महिला नेत्रियों ने इस मुद्दे को उछालने वालों पर काफी फब्तियां कसी.मुद्दे के परे जाकर कुछ मुस्लिम बाहुल्य इलाकों को इस पर जबरन घसीटने की कोशिश भी मीडिया के द्वारा की गई.चर्चाओं का बाजार गरम रखने के लिये एक से एक विशेषज्ञ बुलाये गये.परन्तु यह परिणाम नहीं निकाला जा सका कि क्या तीन तलाक कह देन भर से मुस्लिम संप्रदाय से परिवार विघटित हुये या फिर मात्र सरियत में लिखे होने की वजह से इसका राजनैतिक फायदा उठाया गया.यह सब सोचने का विषय था कि हमारे आस पास कितने मुस्लिम परिवार इस तीन तलाक कहने बस से जीवन भर के लिये अलग हो गये.क्या हमारा समाज उन परिवारों को दोबारा जोडने के लिये कोई पहल नहीं किया.इस पर कभी कोई चर्चा नहीं की गई.ना ही इस विभेदनकारी शब्द की समाज में या समुदाय में होने वाले प्रभावों की प्रायोगिकता की जांच करना उचित समझा गया.
      वास्तविकता तो यह है कि हर धर्म और संप्रदाय में पति पत्नी के बीच के संबंधों को बनाने और विच्छेदन के लिये अपने अपने तरीके से नियम कानून बनाये गये हैं.मुस्लिम पर्शनल ला बोर्ड कहीं ना कहीं इस मामले को अपने संज्ञान में हमेशा से रखता चला आया है.जो उस संप्रदाय के लिये आला कमान और सांप्रदायिक कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिये मदद करता है,.इस्लाम में अरबी शब्द तलाक के लिये यह कहा गया कि कोई भी पति अपनी पत्नी को तीन बार तलाक कहकर अलग रहने के लिये कह सकता है.लेकिन इसमें यह भी कहा गया कि यह तीन बार तलाक के जरिये अलग रहने की स्थिति तीन माह अर्थात तीनमाहवारी के अंतराल में ही संभव है.जिसे कुरान में तलाक हलाला कहा गया(कुरान:६५:१)और यह कानून साउदी अरब में बहुत पहले से चला आ रहा है.कितु पहले दो बार तलाक देने के बाद यदि उनके परिवार और मौलवियों के सानिध्य में उनकी काउंसिलिंग करके पति पत्नी दो बारा भी साथ में तीन माह के अंतराल के बाद रह सकते हैं. किंतु सिया और सुन्नी मुस्लिम संप्रदाय इस मामले में भिन्न मत रखते हैं.सुन्नी संप्रदाय का यह मानना है कि तीन बार तकाल कह देने बस से कोई भी पति पत्नी को एक बार में अलग नहीं कर सकता .बल्कि उसे अपने मौलवियों और अपने परिवार के बुजुर्ग लोगों से काउंसिलिंग करके साथ में रहने की इस्लाह भी पालन करना होता है.इसे ही. तीन महीनों की यह अवधि विचार करने के लिये होती है इसे ही इस्लाम में इद्दाह और इद्दत कहा जता है.शिया मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक का कोई भी प्रावधान नहीं रखा गया.उनके यहां दो गवाहों की मदद से और पारिवारिक सलाह मसविरे के जरिये मामले को सुलझाने का प्रयास किया जाता है.और अंततः जब मामला नहीं सुलझता तो उन्हीं गवाहों और मौलवियों की उपस्थिति में तलाक मान लिया जाता है.इसमें यह जरूरी नही है कि पति पत्नी का सारा जीवन यापन का खर्च वहन करे.महिलाओ के द्वारा भी तलाक के लिये मैरिज कांटेक्ट को खारिज करने का प्रावधान गाजी और गादी के सामने संज्ञान में लाने के बाद  इस संप्रदाय में रखा गया जो कई मुस्लिम देश मान रहे हैं
      मुस्लिम संप्रदाय में सिया और सुन्नी के अलग प्रावधानों के बीच तलाक के तीन स्टेप्स बताये गये.(कुरान सुरा.३/६५/३३/ (अलनिसा/अल अजब/अलतलाक आदि.) तलाक की शुरुआत,इस्लाह,और अंजाम तक पहुचाना. शिया में अल्पकालिक निकाह को अनुमति है जबकि सुन्नी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं रखा गया. तलाक के लिये महिलाओं(खुला दरार और अगादी) और पुरुषों को बराबरी के अधिकार सरियत में दिये गये. तो फिर हम यह क्यों कहते हैं कि मुस्लिम समुदाय में महिला सशक्तीकरण की बात नहीं की गई.और वहां सिर्फ पुरुषवादी सोच हावी है. सवाल यह है कि हम अपने मुद्दे को इतना धर्म और संप्रदाय के ग्रंथों के तथ्यों के आधार पर देख्ते हैं.इस लिये इस तरह के मुद्दे सिर्फ धार्मिक विश्वास को राजनैतिक मिलावट के स्तर तक लाने की तरह है. संप्रदाय कोई भी हो किंतु स्त्री और पुरुष दोनों के सामाजिक और पारिवारिक अधिकारों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया है.

अनिल अयान सतना.

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

"मोदी-पुतिन" के मजबूत रिश्तों के ब्रिक्स

 "मोदी-पुतिन" के मजबूत रिश्तों के ब्रिक्स
गोवा को जब आठवें ब्रिक्स सम्मेलन की मेजबानी का अवसर सौंपा गया तब वह भाग्यशाली उतना नहीं हुआ होगा जितना कि ब्रिक्स सम्मेलन के इतर भारत और रूस के प्रतिनिधि अर्थात मोदी और पुतिन के रिश्तों की मजबूती के लिये रखे गये नीव के पत्थर के लिये भाग्यशाली सिद्ध हुआ. चीन की हरकतों के बाद उसका बायकाट करने के बाद रूस और फ्रांस का भारत के प्रति नजदीकी भारत की रक्षा शक्ति को सुदृढ बनाने के लिये बहुत जरूरी था. वैसे तो ब्राजील रूस भारत चीन और साउथ अफ्रीका  के संयोजन के बीच भारत और रूस के बीच की नजदीकियां अन्य देशों के लिये सबक बनी हैं.इस सम्मेलन में आतंकवाद को लडने के लिये जिसतरह भौगोलिक सीमाओं को परे रखने की बात की गई है वह भारत की पैरवी और चीन के द्वारा पाकिस्तान सहित आतंकवादी देशों के लिये सबक भी है. ब्रिक्स सम्मेलन में जहां महत्वपूर्ण रूप से  जीडीपी और अर्थव्यवस्था के विकास के लिये जोर दिया जाता है वहीं दूसरी ओर आपसी सौहार्द और भाईचारे को बनाये रखने के लिये भारत की पहल के लिये विश्व परक सम्मान की नजर देश को गौरव प्रदान करता है.साउथ अफ्रीका से शुरू हुआ सफर भारत के हाथों में जब पहुंचा तो देश की सरकार वाकयै इसका लाभ लेने के लिये लालायित नजर आई. भारत का मेजबान के रूप में शामिल होने के अलावा.देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने की पहल काबिले तारीफ थी.भारत को पता था कि एशिया के अलावा देशों के साथ अपने रिश्तों की पहल को आगें मंजिल तक पहुंचाना है.इस लिये भारत को रूस का साथ और हाथ थामना पडा. हमे यह स्वीकार करना होगा कि रूस से पांच सूत्रीय करार और इसके पूर्व फ़्रांस से राफेल फाइटर प्लेन का करार देश की सुरक्षा को मजबूत करना ही है.
      ब्रिक्स सम्मेलन के बहाने भारत ने रूस को अपना निर्यातक बनाने के लिये कोई कसर नहीं छोडा. इसके पीछे हमारे प्रधानमंत्री जी की पहल रक्षा मसौदों को मजबूत बनाती है.इसके पहले हमारे देश में रक्षा के बडे बडे घोटाले हुये हैं जिन्हें हम नजरंदाज नहीं कर सकते हैं किंतु यह कोशिश भारत जैसे विकासशील देश की विकसित सोच को विश्व में प्रदर्शित करता है. एक माह में दो मसौदों को वास्तविक रूप से जमीन देना भारत की प्रगति की निशानी ही है.रूस वैसे भी भारत की सैन्य आपूर्ति वाला देश रहा है परन्तु यह भरोसा भारत की आयातक व्यवस्था को तकनीकि रूप से मजबूत करता है.राफेल प्लेन के बाद फाइव एस डिफेंस सिस्टम जो दो हजार बीस तक भारत के सुपुर्द रूस करेगा.इतना ही नहीं के ए २२६ जैसे नई तकनीकि वाले हेलीकाप्टर के निर्माण के लिये रोस्टेक एयरोनाटिक्स लिमिटेड के साथ संयुक्त निर्माण और आयात दोनो मारक छमता को बढाने और मजबूत करने के लिये महत्वपूर्ण समझौता है.एफडीआई जैसे मुद्दे भारत को स्वदेशी के खिलाफ जाने के लिये विवश करती है.मेड इन इंडिया जैसी पालिशी को निस्तोनाबूत करने वाली इस योजना के चलते भारत को पेट्रोलियम क्षेत्र में भी रूस की मदद मिलेगी.जो भारत की आंतरिक पालिसी जो परिवर्तित करने जैसा ही होगा.इस पर सरकार के विषय विशेषज्ञों को विचार करना चाहिये.सितंबर और अक्टूबर के बीच में दो मजबूत और परिणामजन्य समझौतों की जमीन तैयार हो चुकी है.अब यह देखना है कि भारत और रूस के रिश्तों को सुरखाब के पंख लगाने में मोदी और पुतिन कितने सफल सिद्ध होते हैं. विदेशी संबंधों को मजबूत करने की पहल मोदी जी की पहचान बनी हुई है परन्तु देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तले इसमें भी कमियां निकल ही आती हैं.संसद के सांसदों और जिम्मेवार राजनैतिक पार्टियों को यह चाहिये कि इस प्रकार के मसौदों को देश हित के लिये सकारात्मक रूप से देखें और सरकार को तटस्थ होकर कामकरने के लिये स्वतंत्र करें बस सरकार की स्वतंत्रता घोटाला ना बनने पाये इस बात का अवलोकन करना भी संसद के तत्वों का प्रमुख दायित्व होगा.
      भारत में रहते हुये प्रधानमंत्री जी के द्वारा यह कहा जाना कि एक पुराना दोस्त दो नये दोस्तों से बेहतर होता है,किस वैश्विक नीति को विश्वपटल पर प्रदर्शित करती है यह विचार करने का विषय है.ब्रिक्स के बहाने कई निशाने साधने की नीति कहां तक अंजाम तक पहुंचती है यह तो भविष्य बतायेगा.परन्तु भारत जैसे उपमहाद्वीप में पाक की कमर के नीचे रूस को पुराना दोस्त बनाना. उधर अमेरिका में ट्रंप का मोदीमय होजाना. रूस और फ्रांस की भारत के प्रति नजदीकी,सार्क सम्मेलन का पाकिस्तान से कैंसिल होना,ब्रिक्स में आतंकवाद का मुद्दा आर्थव्यवस्था के मुद्दे के बराबर उठना और इस मसले में चीन के मौन को एक त्रिकोण के रूप में देख सकते हैं जिसमें भारत दुश्मन के दोस्त को भी अपने साथ रखा है और एशिया के परे युरोपीय देशों को मिलाना जिसमें फ्रांस और रूस प्रमुख हैं एक चक्र्व्यूह की तरह है आतंक वाद  के लिये.,रूस जिसने युरोपियन रिपब्लिक के मुख्य देश है उसका सहयोग देश की लडाई के लिये मजबूत और महत्वपूर्ण पक्ष होगा.भारत की आंतरिक विद्वेश्वता को छोड देंतो इस बार का ब्रिक्स सम्मेलन भारत के लिये रक्षा मसौदों का वैदिक मंत्र बनकर उभरा है.एशिया के आतंकपरस्त देशों को यह सम्मेलन कहीं ना कहीं कुरेदा जरूर.अब देखना यह है कि करार और डील के प्रभाव से आतंवादी देश और संगढन क्या फील करते हैं.और भारत इन डील्स को कहां तक अपने फायदे और सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिये उपयोग कर पाता है.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

      

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

समिट के करार पर नतीजा बेकार

समिट के करार पर नतीजा बेकार

सन दो हजार दस से ग्लोबल इंनवेस्टर मीट का सफर खजुराहो से प्रारंभ होकर इस साल तीसरी किस्त अदा की जारही है.अनुदान के पीले चावल इंनवेस्टरों को वितरित करवा दिया गया है.मखमली जाजम दो साल के बाद दोबारा निकाल कर बिछा दी गई है. ऐसा लग रहा है कि मध्यप्रदेश राज्य के व्यापारिक नगरी इंदौर की तस्वीर बदलने वाली है और अन्य शहर भी उद्योगों की आवक की रेवडी खाकर ही रहेंगें.सन दस, बारह और चौदह के बाद इन्वेस्टरोम की आवक फिर से इंदौर की चकाचौध बढायेगी.हमारे मुख्यमंत्री जी नये दिवास्वप्न देख रहें है.विदेशों में अध्ययन करने गये ब्यूरोक्रेट्स वापिस लौट चुके हैं.मध्यप्रदेश को देश की अर्थव्यवस्था का स्वर्ग बनाने के लिये कोई कसर नई छोडी जा रही है.परन्तु क्या इस बार भी पिछली बैठकों की भांति निर्णय सिफर होगा,इंनवेस्टर्स के हाथ में अच्छे खासे कार्यक्रम और मीट के बाद सिर्फ कपिल शर्मा के वचनों के अनुरूप बाबा जी का ठुल्लू ही हाथ लगेगा.पिछली मीटिंग्स का परिणाम देखें तो हवाई सपने देखने वाले इन्वेस्टर्स नंगे हाथों को निहारते रह गये, और जमीनी तौर पर प्रतिशत के नाम पर शून्य इतरा रहा था.शासन भले ही कोई भी आंकडे दिखाये परन्तु हकीकत कुछ और ही रही.हम उम्मीदें लगाये रहे और राजनीति और ज्यादा परिपक्व होती चली गई.सहारा से लेकर टाटा तक मध्य प्रदेश को टाटा बाय बाय करके चलते बने और हमारी सरकार कुछ भी ना कर सकी.खजुराहो से शुरू हुआ यह सफर बीच के ब्रेकर्स में ऐसा उलझा कि अपनी स्पीड को पैसेंजर्स गाडी की तरह कर लिया. कभी इस आफिस कभी उस आफिस.कभी इस विभाग कभी उस विभाग,कभी इस मंत्रीऔर कभी उस मंत्री के यहां से लेट लतीफी का ऐसा ब्रेकर्स लगा कि इन्वेस्टर्स का घोडा रास्ता ही भूल गया.
            आंकडों के अनुसार पिछले तीन मीटिंग्स में तीन सौ निन्न्यानवे परियोजनाओं में से लगभग ढाई सौ परियोजनाये हकीकत में काम नहीं शुरू कर सकी.वजह समय से शासन की तरफ से जमीनी कार्यवाही ना करने की वजह से उनकी लागत में बढोत्तरी हो जाना जो मध्यप्रदेश में शुरु करने का मतलब उनका घाटा ही था. दो हजार बारह में सहारा का एमओयू,फ्यूचर ग्रुप का फूड पार्क निर्मित करने के सपने,महिंद्रा का आटोमोबाइल्स प्लांट जो भोपाल में निर्मित करना,इजराइल की दवा कंपनी टेवा का मेडिकल प्लांट जो पीथमपुर में बनना तय हुआ.जी ग्रुप के एस्सेल ब्रांच का सर्विस कालोनीज का प्लान,सब धरा का धरा रह गया.इतना ही नहीं अंबानी,अडानी,पतंजलि,टाटा के आने वाले समय में प्लांट डालने की बात किये परन्तु इनके साथ मध्यप्रदेश के मंत्रियों और अधिकारियों ने कोई इच्छा नहीं दिखाई.इस समिट में शायद इनकी तरफ से कोई पहल की जाये.एसोशियेटेड चैबर्स कामर्स एंड इडस्ट्रीज आफ इंडिया के अनुसार मध्यप्रदेश में देरी की वजह से इन तीनों इस्वेस्टर्स मीट में  लगभग लगभग एक लाख करोड ली लागत बढी और इसकी वजह से लगभग ३०० इन्वेस्टर्स ने अपने हाथ खींच लिये और उसमें से ५० से ज्यादा फीसदी इन्वेस्टर्स अन्य राज्यों में अपना इन्वेस्टमेंट करने में कामयाबी हासिल की.जिसकी वजह से मध्यप्रदेश आर्थिक रूप से अन्य राज्यों की तुलना में पांच दर्जा नीचे खिसक गया.मध्य प्रदेश में हुये घोटाले और देरी की वजह से इन्वेस्टर्स के दिलो दिमाग में एक गहरी दुविधा पैदा कर दी है.वो चाहकर भी खुद को यह नहीं समझा पा रहे हैं कि क्या इस बार कुछ चमत्कार हो पायेगा. या पिछली बार की तरह आर्थिक बलात्कार ही उन्हें भोगना पडेगा.
            इस सब रामलीला का मंचन तो सफल होता है किंतु इसमें कभी फूड पार्क के सुनहरे सपने दिखाये जाते हैं.कभी पांच मिलियन टन का दूध उत्पादन करके हरियाणा जैसे राज्यों को पीछे करने का सफेद झूठ बोला जाता है.कभी सर्विस कालोनीज के सपने दिखाये जाते हैं कभी आटोमोबाइल्स इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में इनवेस्टमेंट के चलते एक बार में एक लाख से अधिक युवाओं को रोजगार दिलाने के रोचक और आभासी डायलाग इसी रामलीला के मंच से बोले जाते हैं.किंतु परिणाम सिफर होता है.इसके पीछे हमारे सरकारी दफ्तरों में जिस लालफीताशाही की परंपरा वाली रावणीय विचारधारा पोषित हो रही है.मंत्रियों की नजर राज्य के फायदे की बजाय खुद के फायदों पर अधिक हो जाये तो.सरकारी कामों में लेट लतीफी,एक विभाग से अन्य विभागों का सामन्जस्य ना स्थापित हो पाना,आदि प्रमुख कारण है जो लाल जाजम बिछाने के बाद भी मध्यप्रदेश के उद्योगों में इन्वेस्टर्स अपना अनुदान करने के लिये अपने हाथ पीछे खींच लेते हैं.यही तो सबसे बडी कमी है जिसे हम पिछली तीन बैठकों में दूर नहीं कर पाये.शायद इस बार भी इन्ही कारणों से बहुत कुछ प्रभावित होने की संभावना इंदौर सम्मिट की अधिक है. मध्य प्रदेश को चाहिये कि यदि उसे इस क्षेत्र में आगे बढना है तो अपनी लेट लतीफी को इससे दूर ही रखना होगा.वायदे तो बहुत किये जाते हैं परन्तु तीन चार दिन की सम्मिट के बाद जब एमओयू जमीनी रूप से अपने जूते रगडना शुरू करता है वो इन्वेस्टर्स को गंवारा नहीं होता.इसलिये इस बार सरकार को ध्यान में रखना होगा कि अपने इन्वेस्टर्स को भगवान के दर्जे के अनुसार लेकर उनका स्वागत करें.उनका साथ योजनाओं के चालू होने तक बस नहीं बल्कि योजनाओं के फलीभूत होने तक प्रदान करें.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७



मंगलवार, 4 अक्तूबर 2016

आओ आपस में हमलें करें

आओ आपस में हमलें करें
कभी कोई बस से इस्लामाबाद की यात्रा करता है. कभी कोई विशेष रेल चलाता, कभी कोई मजार में जाकर कसीदे पढता है कभी कोई जन्मदिन की बधाई देने बिना देश को सूचित किये दुश्मन देश के पीएम के साथ सेल्फी सेशन कराता है.कांग्रेस इस मामले में कुछ हद तक ठीक था कि उनके संगठन यूपीए के प्रधानमंत्री जी अपने कार्यकाल में पाक की धरती में कदम तक नहीं रखे.,हमारा देश भी अजीब है कभी आतंकी हमलों के लिये वहां की जांच कमेटी बुलाने के लिये पडोसी को आमंत्रित करता है. कभी विदेश मंत्री काश्मीर को अभिन्न अंग बता कर संयुक्त राष्ट्र संघ में पडोसी को समझाइस देता है. कभी हमारे प्रधान मंत्री जी पडोसी देश को आपस में लडने की बजाय गरीबी से लडने की समझाइस देते हैं. पठानकोट ,ऊरी और दोबारा पठानकोट, कभी पंजाब कभी तटीय इलाके में संदिग्ध घटनाये और लोगों के काफिलों का आना,देश को अपने अंतर्राष्ट्रीय संकट की एक अजीब सी महक आने लगती है. एक तरफ पाकिस्तान के प्रमुख सैन्य तैयारियों का जायजा लेते हैं तो दूसरी तरफ वहां के रक्षा मंत्री दोनों देशों के बीच बिना परमाणु हथियारों के समझौते की नीति को अपनाने की पहल करते हैं.कभी बालीवुड का मुस्लिम समुदाय के अभिनेता इस मामले में अपनी टांग फंसा कर मीडिया की सुर्खियां बनते हैं. तो कभी खिलाडियों का पाक दौरा रद्द हो जाता है. कभी कूटनीतिक तरीके से दक्षेश का सम्मेलन रद्द कर दिया जाता है. कभी चीन हमें सतलुज के पानी को रोकने की कोशिश करके अपने दुश्मन होने के संकेत देता है.
      हमने सर्जिकल स्ट्राइक क्या कर दी पडोसी दुश्मन देश जो आतंक का गढ है वो युद्ध विराम के चीथडे उडाकर सेना को अपना निशाना बना लिया. पंजाब बार्डर से सटे गांवों को इस लिये खाली करा लिया गया और सेना की निगरानी में खेती की जाने लगी मानो पैसठ के युद्द की पूरी तैयारी कर ली गई हो.देश का मीडिया पुराने सेना के अधिकारियों से पुनः लाहौर फतेह करने के आंकडे और अनुभव देश में बांटने लगा.कभी कबूतर कभी गुब्बारों से पडोसी देश हमारी सेना को धमकियां भेजने का फिल्मी स्टाइल वाला काम करने के लिये ऐसे विवष हुआ कि मुझे लगा कि खिसियाती हुई बिल्ली कुछ नहीं कर पा रही है तो खंबा नोचनें के लिये उतारू हो रही है.प्रधानमंत्री के द्वारा बराक ओबामा के बाद संयुक्त राष्ट्र अमीरात के प्रिंस को गणतंत्र दिवस के मुख्य आतिथ्य के लिये आमंत्रित करके अरब को भारत में उपनिवेशीय ताकत के रूप में आमंत्रित करने की तरह ही है.अब देखना यह है कि वो मुस्लिम होकर मुस्लिम देशों के लिये ज्यादा वफादार बनते हैं या फिर भारत के साथ खडे होकर मुस्लिम देशों के तथाकथित आतंकवाद को नकेल कसने में कुछ नये कदम उठाने की कोशिश करता है.चीन का हाल उस मध्यस्थ की तरह हो चुका है जो सफेद नकाबपोश दुश्मन का है. एक तरफ भारत को लाली पाप देकर अपने मकसद को हल करने के जुगाड में हमेशा विश्व स्तर पर मित्रता का स्वेत पत्र लिखता है और दूसरी तरफ पडोसी दुश्मन देशों के जरिये पाक अधिकृत काश्मीर और उससे सटे हुये चीन और पाकिस्तान अफगानिस्तान के रास्ते अपनी शक्ति को भारत के विरुद्ध प्रगाढ करने की पुरजोर कोशिश कर रहे है. मेड इन जापान,कोरिया और अन्य देशों के माल का आयात तो देश को तकनीकि रूप से मजबूत करता है परन्तु मेड इन चाइना के उत्पादों का आयात करना,वहां की कंपनियों को अपने देश में व्यापार करने का निमंत्रण देना क्या संदेश देता है.
      हमारी सरकार कहीं ना कहीं चीन को भी अपना मित्र बनाने के लिये मजबूर है और गाहे बगाहे उसकी करतूतों के बावजूद उसको दुश्मन मानने के लिये परहेज करना दोयम दर्जे का अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार ही तो है.हम हमेशा यह मानते चले आये हैं कि दुश्मन का मित्र भी दुश्मन ही होता है. यदि हम पाकिस्तान को दुश्मन मानने के लिये राजी हैं चीन को भी दुश्मन मानने के लिये परहेज क्यों करते हैं.क्या हम चीन से डर रहे हैं क्या हम सर्जिकल स्ट्राइक के द्वारा चीन के द्वारा सैकडों किलोमीटर कब्जा कर चुके चीनी सेना के कब्जे वाले भारत के टुकडे को अलग नहीं करा सकते हैं.हम इस बात से डर रहे हैं कि कहीं चीन और पाकिस्तान दोनो मिलकर भारत को चारो तरफ से घेर लें तो भारत की मदद अमेरिका भी शायद नहीं करेगा. पाकिस्तान तब तक नहीं बाज नहीं आयेगा जब तक हम चीन को तवज्जो देते रहेंगें.चीन के बढते कदम पाकिस्तान के लिये छद्म युद्ध का रास्ता बनाने में भरपूर मदद करता रहेगा.यह सच है कि प्रायोगिक रूप से भारत काश्मीर की पीछे पाकिस्तान के ऊपर युद्ध नहीं कर सकता है.कहना जितना सरल है उसे उतारना उतना की कठिन.कहीं ना कहीं भारत को इस युद्ध को करने के बाद वैश्विक विरोध और मुश्लिम देशों की कट्टरता को भी झेलना पडेगा. अब तो हमारे देश को चाहिये कि वो ऐसा रास्ता खोजे की सांप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे.अर्थात रूस और प्फ्रांस जैसे देश का साथ लेकर इस समस्या का समाधान करना.
अनिल अयान सतना

९४७९४११४०७आओ आपस में हमलें करें
कभी कोई बस से इस्लामाबाद की यात्रा करता है. कभी कोई विशेष रेल चलाता, कभी कोई मजार में जाकर कसीदे पढता है कभी कोई जन्मदिन की बधाई देने बिना देश को सूचित किये दुश्मन देश के पीएम के साथ सेल्फी सेशन कराता है.कांग्रेस इस मामले में कुछ हद तक ठीक था कि उनके संगठन यूपीए के प्रधानमंत्री जी अपने कार्यकाल में पाक की धरती में कदम तक नहीं रखे.,हमारा देश भी अजीब है कभी आतंकी हमलों के लिये वहां की जांच कमेटी बुलाने के लिये पडोसी को आमंत्रित करता है. कभी विदेश मंत्री काश्मीर को अभिन्न अंग बता कर संयुक्त राष्ट्र संघ में पडोसी को समझाइस देता है. कभी हमारे प्रधान मंत्री जी पडोसी देश को आपस में लडने की बजाय गरीबी से लडने की समझाइस देते हैं. पठानकोट ,ऊरी और दोबारा पठानकोट, कभी पंजाब कभी तटीय इलाके में संदिग्ध घटनाये और लोगों के काफिलों का आना,देश को अपने अंतर्राष्ट्रीय संकट की एक अजीब सी महक आने लगती है. एक तरफ पाकिस्तान के प्रमुख सैन्य तैयारियों का जायजा लेते हैं तो दूसरी तरफ वहां के रक्षा मंत्री दोनों देशों के बीच बिना परमाणु हथियारों के समझौते की नीति को अपनाने की पहल करते हैं.कभी बालीवुड का मुस्लिम समुदाय के अभिनेता इस मामले में अपनी टांग फंसा कर मीडिया की सुर्खियां बनते हैं. तो कभी खिलाडियों का पाक दौरा रद्द हो जाता है. कभी कूटनीतिक तरीके से दक्षेश का सम्मेलन रद्द कर दिया जाता है. कभी चीन हमें सतलुज के पानी को रोकने की कोशिश करके अपने दुश्मन होने के संकेत देता है.
      हमने सर्जिकल स्ट्राइक क्या कर दी पडोसी दुश्मन देश जो आतंक का गढ है वो युद्ध विराम के चीथडे उडाकर सेना को अपना निशाना बना लिया. पंजाब बार्डर से सटे गांवों को इस लिये खाली करा लिया गया और सेना की निगरानी में खेती की जाने लगी मानो पैसठ के युद्द की पूरी तैयारी कर ली गई हो.देश का मीडिया पुराने सेना के अधिकारियों से पुनः लाहौर फतेह करने के आंकडे और अनुभव देश में बांटने लगा.कभी कबूतर कभी गुब्बारों से पडोसी देश हमारी सेना को धमकियां भेजने का फिल्मी स्टाइल वाला काम करने के लिये ऐसे विवष हुआ कि मुझे लगा कि खिसियाती हुई बिल्ली कुछ नहीं कर पा रही है तो खंबा नोचनें के लिये उतारू हो रही है.प्रधानमंत्री के द्वारा बराक ओबामा के बाद संयुक्त राष्ट्र अमीरात के प्रिंस को गणतंत्र दिवस के मुख्य आतिथ्य के लिये आमंत्रित करके अरब को भारत में उपनिवेशीय ताकत के रूप में आमंत्रित करने की तरह ही है.अब देखना यह है कि वो मुस्लिम होकर मुस्लिम देशों के लिये ज्यादा वफादार बनते हैं या फिर भारत के साथ खडे होकर मुस्लिम देशों के तथाकथित आतंकवाद को नकेल कसने में कुछ नये कदम उठाने की कोशिश करता है.चीन का हाल उस मध्यस्थ की तरह हो चुका है जो सफेद नकाबपोश दुश्मन का है. एक तरफ भारत को लाली पाप देकर अपने मकसद को हल करने के जुगाड में हमेशा विश्व स्तर पर मित्रता का स्वेत पत्र लिखता है और दूसरी तरफ पडोसी दुश्मन देशों के जरिये पाक अधिकृत काश्मीर और उससे सटे हुये चीन और पाकिस्तान अफगानिस्तान के रास्ते अपनी शक्ति को भारत के विरुद्ध प्रगाढ करने की पुरजोर कोशिश कर रहे है. मेड इन जापान,कोरिया और अन्य देशों के माल का आयात तो देश को तकनीकि रूप से मजबूत करता है परन्तु मेड इन चाइना के उत्पादों का आयात करना,वहां की कंपनियों को अपने देश में व्यापार करने का निमंत्रण देना क्या संदेश देता है.
      हमारी सरकार कहीं ना कहीं चीन को भी अपना मित्र बनाने के लिये मजबूर है और गाहे बगाहे उसकी करतूतों के बावजूद उसको दुश्मन मानने के लिये परहेज करना दोयम दर्जे का अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार ही तो है.हम हमेशा यह मानते चले आये हैं कि दुश्मन का मित्र भी दुश्मन ही होता है. यदि हम पाकिस्तान को दुश्मन मानने के लिये राजी हैं चीन को भी दुश्मन मानने के लिये परहेज क्यों करते हैं.क्या हम चीन से डर रहे हैं क्या हम सर्जिकल स्ट्राइक के द्वारा चीन के द्वारा सैकडों किलोमीटर कब्जा कर चुके चीनी सेना के कब्जे वाले भारत के टुकडे को अलग नहीं करा सकते हैं.हम इस बात से डर रहे हैं कि कहीं चीन और पाकिस्तान दोनो मिलकर भारत को चारो तरफ से घेर लें तो भारत की मदद अमेरिका भी शायद नहीं करेगा. पाकिस्तान तब तक नहीं बाज नहीं आयेगा जब तक हम चीन को तवज्जो देते रहेंगें.चीन के बढते कदम पाकिस्तान के लिये छद्म युद्ध का रास्ता बनाने में भरपूर मदद करता रहेगा.यह सच है कि प्रायोगिक रूप से भारत काश्मीर की पीछे पाकिस्तान के ऊपर युद्ध नहीं कर सकता है.कहना जितना सरल है उसे उतारना उतना की कठिन.कहीं ना कहीं भारत को इस युद्ध को करने के बाद वैश्विक विरोध और मुश्लिम देशों की कट्टरता को भी झेलना पडेगा. अब तो हमारे देश को चाहिये कि वो ऐसा रास्ता खोजे की सांप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे.अर्थात रूस और प्फ्रांस जैसे देश का साथ लेकर इस समस्या का समाधान करना.
अनिल अयान सतना
९४७९४११४०७ 

रविवार, 18 सितंबर 2016

वर्चश्व का कुरुक्षेत्र

वर्चश्व का कुरुक्षेत्र
फिर से मित्रों उत्तर प्रदेश में धर्म संकट आ गया है वह धर्म संकट जो सत्ता की चाहत में भाईचारे और पुत्र प्रेम के बीच खडा हुआ है. यादवबंधुओं की सता अब मध्यस्थ में खडी हुई है समाजवादी पार्टी नित नये रूप में आगामी चुनाव की रामलीला के लिये पात्र तैयार कर रही है. यह आपसी कलह और उत्तपन्न विवाद कुर्सी की लुटने से ज्यादा टीआरपी बटोरने में सफल हो रही है. मुलायम सिंह अपने परिवार और रिस्तेदारों द्वारा संचालित दल में वर्चश्व का कुरुक्षेत्र के लिये धृष्टराष्ट्र बनने के लिये मजबूर से नजर आरहे है. बनाने वाले भी अपने है और पीडित होने वाले वाले भी अपने ही हैं. किसके लिये वो यह तय करें कि क्या सच है क्या झूठ. कौन सही और कौन गलत दोनों में फांसी उन्ही को होनी है.भाई से पंगा लेने से आधी ताकत जाती है और पुत्र से पंगा लेने से एक और विरोधी बनने के आसार को बढा देना. फुटव्वल की नौमत ज्यादा आने की कगार में है. इस रामलीला के मुख्य पात्र शिवपाल यादव, अखिलेश यादव, रामगोपाल यादव और खुद मुलायम सिंह इस तरह आपस में उलझ गये हैं कि सबको अपने अपने अधिकारों के अनुरूप संतुष्ट करना या होना कदापि संभव नहीं नजर आ रहा है. जब अखिलेश यादव जी ने अपने अधिकारों का प्रयोग करके सात मंत्रालय छीन कर अलग कर दिया. साथ में मुलायम सिंह जी ने मुख्यमंत्री को ही प्रदेश अध्यक्ष से ह्टा कर अपने कलह को और भाईचारे को बेटे के सामने ला दिया.यह पारिवारिक विवाद अब धीरे धीरे सत्ता का विवाद बनने के लिये तैयार हो चुका है.
    जिस तरह का विवाद है उसमें रामगोपाल यादव जी अपने भतीजे का साथ देकर अपने दोनो भाइयों का जिस तरह से विरोध दर्शाया है वह सिद्ध करता है कि वो आने वाले समय में भतीजावाद को सार्थक करने का विचार कर रहे हैं.समाजवादी पार्टी के अंदर ही समाज वाद गायब हो रहा है. विवाद जितना सुलझ गया सा महसूस होता है उतना है नहीं क्योंकि अंततः मुद्दा अटकने वाला है कि टिकट वितरण और चुनाव का बिगुल कौन थाम कर विजेता बनने का सपना देखेगा. ऐसा महसूस हो रहा है कि पावर आफ एटार्नी की यह लडाई आगे चलकर मुलायम अखिलेश और शिवपाल की तिकटी के बीच आकर अटक जायेगी.सत्ता पक्ष से देखें तो समझ में आयेगा कि मुलायम और शिवपाल जी के पास मुस्लिम वोटों का बैंक मजबूत है जबकि अखिलेश के पास युवा नेतृत्व और युवाओं और कट्टर समाजवादियों का वोट बैंक है साफ सुथरी छवि भी उनके लिये प्लस प्वाइंट है. रही बात शिवपाल सिंह यादव जी की तो वो वह वजीर की भूमिका में है जो जब चाहे तब सत्ता के बादशाह को सडक का बादशाह बना सकता है.समाजवादी पार्टी के नीव के पत्थरों में से एक मजबूत वटवृक्ष जो यदि मुलायम सिंह नहीं हैं तो उनसे उनका कद भी कम नहीं है. अब यह लडाई हर हाल में कद और पद की लडाई बन चुकी है. देखना यह है कि पद से कलह खत्म होता है या कद से कलह का अंत होता है.वंशवाद की बात करें तो स्व पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से यह परंपरा चली आरही है  जिसका जन्म उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के द्वारा हुआ और बिहार में लालू प्रसाद यादव के द्वारा किया गया. वंशवाद का परिणाम और लाभ हानि यहां पर जिक्र करने की ज्यादा आवश्यकता मुझे महसूस नहीं होता है और अब मुद्दा उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी पर आकर जैसे अटक गया है.ऐसा लगता है संवैधानिक आचार विचार और संहिता की धज्जियां उडाई जा रही है. और सब समाजवाद की अर्थी उठाकर सत्ता सुख का दिवास्वप्न देखने के लिये लालायित हो रहे हैं.
    अब देखना यह है कि राहुल गांधी और शीला दीक्षित की खाट में वोट गिरते हैं या फिर इस कलह कथा के अनुरूप जनता दो बारा समाजवादीयों को अपना बहुमत देकर सत्ता सौंपती है. इन सब विवादों की जड और चेतन दोनों विधानसभा चुनाव का केंद्र बिंदु हैं सत्ता की लोलुपता इस तरह राजनैतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञो पर हावी है कि क्या भाई क्या भतीजा क्या पिता और क्या पुत्र कुर्सी की कलह अब मसालेदार कथा बनकर चैनलों के लिये टीआरपी की फेवरेट डिश के रूप में बेहतरीन काम कर रही है. मामला चाहे मुलायम जी के भाई के पक्ष में हो या फिर उनके सुपुत्र के पक्ष में कहीं ना कहीं हानि तो मुलायम सिंह की विचारधारा रूपी पार्टी को होगा. उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मुलायम सिंह जैसे दो शेर ही थे जिन्होने वहां की सत्ता को हमेशा गर्म तवे की तरह इस्तेमाल करके भरपूर चपातियां सेकीं हैं. अब देखना यह है कि इस चुनाव में यह तुरुप का इक्का एक कलह बनकर विच्छेदन का कारण बनता है अथवा संविलयन और समझौते की राजनीति में बदल कर आगे की सत्ता कुरुक्षेत्र को विजयी बनाने का धर्मयुद्ध बनता है. वैसे एक बात तो है कि धर्मसंकट हमेशा ही हानिकारक सिद्ध नहीं होता है.आगे आगे देखिये कि होता है क्या इस धर्मसंकट में और इस कलह कथा में.
अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

नदी के आड में,राज्यों की टकरार

नदी के आड में,राज्यों की टकरार
अकाल में पानी के लिये लडते लोगों के बारे में सुना होगा.पानी टैंकरों के लिये लडते लोगों को देखा भी होगा,परन्तु आज की ऐसी स्थिति हो गई है कि राजनीति अब नदियों के बहाव में भी हावी हो गई है. नदियों की स्वतंत्रता पर राजनैतिक प्रतिबंध लगाने का अप्राकृतिक काम किया जा रहा है। भारत के अंदर अधिक्तर नदियों में और उसके बहने वाले जल में राज्यों का क्षेत्रवाद हावी होने लगा है. ऐसा नहीं है कि यह काम पहली बार सरकारों के द्वारा किया जा रहा है. परन्तु जिस उद्देश्यों की पूर्ति के लिये ये हथकंडे अपनाये जा रहे हैं वह कहीं ना कहीं देश की आंतरिक प्राकृतिक सामनजस्य के लिये बहुत ही नुकसान देह है। जल विवाद एक नये रूप में भारत के राज्यों को टोडने में लगा हुआ है. बहुत साल पहले उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा के बीच देखने को मिला था.जब सतलुज और यमुना नदी के जल को जोड नहर से लाने का प्रयास किया गया और अंततः उस जोड नहर का काम अधूरा छोडना पडा.,आज भी पंजाब यह नहीं चाहता कि यह नहर बने और सतलुज और यमुना का जुडाव होकर अन्य राज्यों को उसका लाभ मिले.हमें याद होना चाहिये कि पंजाब में अस्सी के दसक में उपजे गृह आतंकवाद की एक वजह यह जल कलह भी थी.आज भी पंजाब विधानसभा ने उस नहर की अधिसूचना रद्द करके अपने इस मामले को सुप्रीमकोर्त की झोली में डाल दिया.यह बस ऐसा मामला नहीं है आज के समय में पल रहे क्षेत्रवाद का तूफान हर राज्य को इसी आदत का आदी बना दिया है.
      कावेरी जल विवाद इसी तरह का कुछ मामला आजकल तूल पकडा हुआ है.कर्नाटक और तमिलनाडू की इस लडाई में राष्ट्रीयता प्रभावित हो रही है.इस मामले में हम पडोसी राज्य को अपना संबंधी मानने की सोच रखते ही नहीं हैं. हम उसे अपने देश का हिस्सा मानने को स्वीकार करते ही नहीं हैं. जैसे ही सुप्रीम कोरट ने कर्नाटक को तमिल नाडू के लिये कावेरी से ज्यादा जल छोडने का आदेश सुनाया तो कर्नाटक के निवासी अपनी औकात में आगये. तमिलनाडू अपने क्षेत्र को भी इस आग से बचा नहीं सका. बेगलूरू और चेन्नई के हालात बेकाबू होना यह शाबित करते हैं कि दोनो राज्यों की पानीदारी मात्र नदी के पानी की वजह से खतम सी हो गई.यह विवाद भी देश में अभी का नहीं है. अट्ठारहवी सदी का यह विवाद आजाद भारत के बाद भी  शांत न्हीं हो सका.उस समय पर मंद्रास कर्नाटक और मैसूर थे आज केरला और पांडुचेरी भी अपना अधिकार जमाने पहुंच गये.इन सब झगडों के लिये जल विवाद कानून भी बना किंतु यह कानून भी इस विवाद की भयावह आग को शांत नहीं करा पाया.कावेरी जल पंचात जैसे समूह भी खाली हांथ लौट आये.कर्नाटक है कि शेषनाग की तरह कावेरी स्नान करने में लगा हुआ है.
      अजीब स्थिति है हमारे देश के राज्य उन मसलों में उर्जा बरबाद कर रहे हैं जिसको प्रकृति ने हमें उपहार के लिये दिया है.अगर हम इस उपहार को बांटने की बजाय हथियाने की सोचेंगें तो कैसे देश का हाल सुधरेगा.वह तो बदहाल ही होता रहेगा.कावेरी जैसी नदियां जिसमें अथाह जल भरा हुआ है उसके बावजूद इस तरह के विवाद मात्र सरकार की राजनैतिक जिद है.सरकार को इस मुद्दे कोलेकर अपना क्षेत्रवाद वोट बैंक बचाने की पडी है.और इधर राज्यों की टकरार में एक राज्य के लोग दूसरे राज्य के अत्याचारों को झेल रहे हैं.हमारे राज्यों को यह समझना होगा कि हमारा देश जिन स्थितियों को अपने में समेटे हुये है उसमें हम किसी भी जल स्रोत को और उसके प्राकृतिक प्रवाह को बाधित नहीं कर सकते हैं. यदि हम कभी भी ऐसा करते हैं को हमारे न्यायालय का निर्णय तो बाद में होगा किंतु प्रकृति का निर्णय उसी समय हो जायेगा.और जब प्रकृति का निर्णय होता तब सिर्फ राज्यों और राष्ट्रों के पास पछताने के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचता है. देश में जल संकट के लिये संघर्ष करना एक तरफ है.किंतु जलकलह और जल विवाद को बढाना अपने अंत को न्योता देने की तरह है. हमारी राज्य सरकारों को चाहिये कि चाहिये कि जल कलह को खत्म करके प्रकृति को निर्बाध रूप से चलने दे. राजनीति का अड्डा यदि नदियां बन गई तो आने वाले समय में पानी को रानी बनाकर क्षेत्रवाद अपने कब्जे में कर लेगा और हर तरफ त्राहि त्राहि ही मचेगी.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७


शनिवार, 20 अगस्त 2016

हर धतकरम को ललकारता परसाई

हर धतकरम को ललकारता परसाई
आज के तथाकथित साहित्यकारों को हरिशंकर परसाई को याद करने का कोई अधिकार नहीं है.क्योंकि क्षोभ होता है कि परसाई के वंशज आज सत्ता की हरी मखमली कालीन में अपनी लेखनी को नतमस्तक किये हुये हैं.परसाई के लेखन के एक भी कण नजर नहीं आ रहा. व्यंग्य को विधा से निकाल कर शैली बनाने वाले परसाई आज जैसे अकेले हो चुके हैं. क्योंकि उनके वंशज आज चुक चुके हैं. जहां पर व्यंग्य की मार करनी चाहिये वहा पर फूल बिखेरे जा रहे हैं. हम मजबूर हैं कि परसाई को हमे पढना ही पडेगा क्योंकि उनके जैसे लिखने वाला उनके पहले नही हुये और और भविषय में भी नहीं होगा.उनके पहले शरद जोशी जहां एक ओर यह कहते नजर आते हैं कि कमियां और झूठ कहां हैं. वो झूठ को यह कहते हैं कि यह सच नहीं है, परन्तु परसाई ने सच को सच कहने का जज्बा अपने लेखन में दिखाया. उन्होने अपने साहित्यकार मित्रों पर भी व्यंग्य करने और खुद पर भी व्यंग्य करने से नहीं छोडा. उन्होने व्यंग्य को अन्य विधाओं जैसे कहानियों कविताओं आलेखों और उपन्यासों में पिरोकर रख दिया.वर्तमान समय में अखबारी कालम लेखन ने व्यंग्य की धार को कम कर दिया है.व्यंग्य को सार्वकालिक की तरह तात्कालिक कर दिया. डा ज्ञान चतुर्वेदी जैसे व्यंग्यकारों को छोड दें तो देश में अधिक्तर लेखक अपनी छपासरोग की आपूर्ति कर रहे हैं. व्यंग्य के बने हुये कुनबे व्यंग्य को हर दिशा में खींच कर परसाई की आत्मा को हर पल दुखी कर रहे हैं. परसाई ने जो कुछ भी लिखा उसकी उपस्थिति आज भी समाज और सत्ता में उपस्थित है. व्यंग्य के नाम पर सपाटबयानी और हास्य की फुहार मात्र लिखी जा रही है. व्यंग्यकार आज अपनी वरिष्ठता के चलते मित्रों, पत्नी, और सत्ता के सतही विषयों में व्यंग्य लिख रहे हैं.
    हरिशंकर परसायी जो लिखा , जैसा लिखा , जिस समय लिखा वह इतना महत्व नहीं रखता है जितना कि यह महत्व रखता है कि उसकी जरूरत आज भी बहुत ज्यादा है. आज के समय में उनकी रचनाये एक आईने की तरह काम कर रही है. और यह भी सच है कि समाज की विशंगतियों के सामने उसके जैसा कलम का योद्धा ही है जो बिना हार माने आज भी खडा हुया है. लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषाशैली में खास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है. और उसकी विवशताओं के साथ अपने को साथ रख कर आक्रोशित भी होता है और दुखी भी होता है.हम चाहें कहानी संग्रह हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव, पढे. या फिर नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल ,तब की बात और थी भूत के पाँव पीछे, बईमानी  की परत, पगडण्डियों का जमाना,शिकायत मुझे भी है ,सदाचार का ताबीज ,प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ावैष्णव की फिसलन ,तिरछी रेखाये , ठिठुरता हुआ गड्तन्त्र, विकलांग श्रद्धा का दौरा |सभी में आज के समय में चल रहा भ्रष्टाचार, पाखंड , बईमानी आदि पर परसाई जी ने अपने व्यंगो से गहरी चोट की है | वे बोलचाल की सामन्य भाषा का प्रयोग करते है चुटीला व्यंग करने में परसाई बेजोड़ है |हरिशंकर परसाई की भाषा मे व्यंग की प्रधानता है उनकी भाषा सामान्यबी और सरंचना के कारण विशेष शमता रखती है | उनके एक -एक शब्द मे व्यंग के तीखेपन को देखा जा सकता है |लोकप्रचलित हिंदी के साथ साथ उर्दू ,अंग्रेजी शब्दों का भी उन्होने खुलकर प्रयोग किया है |पारसायी के  जीवन का हर अनुभव एक व्यंग्य रहा है. परसाई ने अपने जीवन के अनुभव को रचनाओं में उकेरा है. समाज की विशंगतियों को अपने नजरिये से देखा है. उसे कलम की ताकत से दबोचा है, और फिर पोस्टमार्टम करके पाठकों के सामने रखा है. आज परसाई नहीं है आज भी उनकी रचनाओं को मंचन किया जा रहा है. आज भी उनके दरद . उनके रचना कर्म को समझ कर समाज को दिखाया जारहा है.उन्होने समाज के हर उस धतकरम को ललकारा है.चुनौती दी है और उसके खिलाफ आवाज उठाई है जिसमें आम लेखक और कलम कार अपनी कलम फसाने को जान फसाने की तरह मानते है.हरिशंकर परसाई ने बता दिया है कि व्यंग्य वह विधा है और उस कंबल की तरह है जो शरीर में गडता तो है परन्तु समाज को ठंड से बचाता भी है. उनकी हर रचना कालजयी है. और भविष्य़ में भी रहेगी. जब तक इस समाज में मठाधीश रहेंगें और आम जनों के चूल्हे में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते रहेंगे. तब तक हर रचना दरद अत्याचार बेबसी और विवशता को चीख चींख कर बयान करती रहेगी. परसाई वो कलम कार है जिन्होने साहित्यकारों को भी आडे हाथों लिया है. उन्हे बहुत गुस्सा आती थी जो साहित्यकार सम्मान के पीछी भागता था. उनका मानना था, कि हर अच्छे कलमकार का वास्तविक पुरुस्कार पाठकों और समाज के द्वारा दिया जाने वाला सम्मान है. बाकी सब तो चाटुकारिता के अलावा कुछ नहीं है. आज के समय में जो घट रहा है वह परसाई ने पहले हीं भाँफ लिया था.
    आज के समय के लेखकों का यह मानना है कि परसाई ने जो भी किया वह सिर्फ उनके समय की माँग थी और कुछ नहीं जो भी लिखा गया वह सिर्फ उनहे मन के फितूर के अलावा कुछ भी नहीं है. परन्तु यह नहीं है. उन्होने अपनी रचनाओं में प्रगतिशीलता की बात की है. और उन प्रगतिशीलों की लंगोट को विशेश रूप से जाँची है जिन्होने प्रगतिशीलता के नाम पर अस्लीलता और नंगेपन को ओढा हुआ है और इसको साथ में रखना और रचनाओं में दिखाना अपनी प्रतिष्ठा का मूल मंत्र समझते है.परसाई देखते है कि वो अपनी लंगोट को कितना सूखा रख पाने में सफल है इस तरह की प्रगतिशीलता का केशरिया चोला ओढने के बाद. सच तो यह है कि परसाई उस प्रगतिशीलता को अपनाये हुये थे जो समाज को परिवर्तित कर नये आयाम से जोड सके परन्तु आज के समय में इस प्रथा को लेकर है अपने अपने झंडे और डंडे गाडे उनके नाम को कैश कर रहे है और उस पर सरे आम ऐश कर रहे है. आज के समय में प्रेमचंद्र और परसाई समाज की जरूरत है और माँग जब ज्यादा हो तो जरूरी है कि सही रूप में हम आगामी पीढी को विरासत का सही रूप सही सलामत सौपें नहीं तो आज तक इतिहास लिखने वाले प्रभावी रहे है. और साहित्य का इतिहास भी इसी तरह से मठाधीशों के हाथ के द्वारा लिखा जायेगा तो परसाई जयंतियों में याद करने के योग्य ही बचेगें आज के समय में हर पाठक को परसाई को प्ढना चाहिये जिससे उसके ह्रदय में जल रही आग की गर्मी को कुछ सुकून मिलेगा.....उसकी प्रमुख वजह यह है कि परसाई ने हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। ......

अनिल अयान,सतना ९४७९४११४०७

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...
हमारी आजादी सत्तर साल की होने को है.साठ्योत्तर स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाने के लिये हर भारतवासी उत्सुक नजर आ रहा है. पर इस स्वतंत्रता की परिपाटी अपने सत्तरवें वर्ष में कई नये आयाम खोजने को आतुर है.एक समय वह था जब भारत अविभाज्य होकर परतंत्रता की बेडियों में कसक रहा था और एक आज का समय है जब भारत विभाजित होकर विश्वगुरु और सोने की चिडिया की उपाधि को बचाने के लिये संघर्षरत है.यूं तो कहने को भारत की स्वतंत्रता की सत्तरवी सालगिरह है.पर इस सात दशकों में भारत क्या था क्या हो गया है और आने वाले दशकों भारत किन परिस्थितियों को अपने सामने सुरसा की तरह खडा पायेगा,यह भी एक यक्ष प्रश्न की तरह खडा हुआ है. भारत अपने प्रारंभिक काल से ही लोकतंत्रीय प्रणाली से चलने वाला राष्ट्र बनकर विकासपथ पर आगें बढा.उस समय तात्कालिक सरकार को जहां अपने अस्तित्व की लडाई लडने के लिये प्रयासरत रहना था.कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका और न्यायपालिका से विधायिका तक सब प्रारंभिक बाल्यावस्था में विकसित हो रहे थे.स्व तंत्र होने की वजह से जनता को यह अहसास था कि उनके द्वारा बनाया जाने वाला तंत्र उनकी फिक्र भी करता है और उनके विकास के लिये कार्य भी हर पंचवर्षीय में करता है.उस समय जय जवान और जय किसान दोनो को सम्मानित स्थान भारत में प्राप्त था.भारत अपनी स्वतंत्रता को पोषित करने में लगा हुआ था.उस समय जहां राज्य कम थे तो राजनैतिक दल भी कम थे.सत्ता की राजनैतिक चालबाजियां भी अपनी हद तक थी.संविधान में प्रारंभिक अवस्थागत मूलचूल बदलाव या नवीनीकरण किया जा रहा था.आजादी के तीन दशक भारत के नागरिकों को इस बात का विश्वास दिला चुके थे कि स्व तंत्र में स्व अर्थात जनता जनार्दन को वाकयै जनार्दन की तरह अर्थात केंद्र बिंदु मानकर काम किये जा रहे हैं.
      समय बदला तो आजादी के दशक भी बढने लगे.समय सापेक्ष राजनैतिक दलों स्व तंत्र के बिंदु में बैठे नागरिकों को धक्के मार कर नेपथ्य में ढकेल दिये.समय सापेक्ष कांग्रेस और जनसंघ अपने टुकडों में टूटते चले गये.विद्रोही अपनी विचारधारा और स्वार्थपरता के चलते नये राजनैतिक संगढन बनाना प्रारंभ कर दिये.देश के राज्य विभाजित होते चले गये. नब्बे के दशक तक भारत की स्वतंत्रता अपनी शैशव अवस्था में पहुंच तो गई परन्तु भारत में जातिवाद,क्षेत्रवाद रूप परिवर्तित करके नक्सलवाद का रूप लेने लगा.नये राज्य जैसे जैसे बनते चले गये वैसे वैसे राजनीति में न्यायपालिका में विधायिका का दबाव बढने लगा, विदेशी पूंजी का आधिपत्य बढा तो रुपया अन्य देशों की तुलना में अपनी कमर टोड बैठा.अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति की दर और विकास दर लडखडा सी गई.अब कुर्सी की माया देश को जाल में फंसा ली.सत्ता धारियों पर विपक्ष,,समय समय पर वैचारिक युद्ध जारी रखा.सत्ता बदलाव होते ही यही दांव उलटा पडने से दलों के बीच नैतिक भाईचारा घटता गया और राजनैतिक स्वार्थ का तवा गरम होता गया.महिला सशक्तीकरण मात्र अभियान बनकर रह गया.राजनेताओं ने महिलाओं, धर्म, जाति,और धर्मग्रंथों को अपने वोट बैंक की सिक्योरिटी बना लिये,हर चुनाव में इन कारकों को इस्तेमाल करके कहीं ना कहीं आजादी के नाम पर अधिकारों और कर्तव्यों की की व्याख्या को तोड मरोड कर प्रस्तुत किया गया. समय लगातार रेत की तरह फिसलता चला गया और आजादी का मूल्य अपने मूल रूप को खोकर राजनैतिक चश्में से देखा जाने लगा.स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदानों को भी शक की नजर से और नजरिये से देखा जाने लगा.भारत के विवादित स्थलों जिसमें राम मंदिर और बाबरी मस्जिद से लेकर अविभाज्य काश्मीर को चुनावरथ में बिठाकर सत्ता हाशिल करने की कवायद शुरू कर दी गई.हमारी आजादी उस समय ज्यादा धार्मिक हो गई जब वर्तमान प्रधानमंत्री जी को सत्ता का बहुमत मिला तब से वामपंथ और दक्षिणपंथ नदी के वो दो किनारे हो गये जो चले तो साथ साथ किंतु मिले कभी भी नहीं. आज कल तो भारत की जनता को अपनी आजादी पर भी शक होने लगा. उसे यह समझ में नहीं आता कि वो किसका पक्ष ले.एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाईं नजर आने लगी.विचारधारा के नाम पर ढोंग प्रबल होता चला गया.देश में धार्मिक कट्टरता अपनी चरम सीमा में पहुंच गई.
      सात दशक के अंतिम वर्षों में तो ऐसा महसूस होने लगा कि भारत अपने भीतर ही गृहयुद्द का शिकार हो रहा है. कभी विधायिका कार्यपालिका को अपने पैरों की जूती के स्तर  पर समझने का भ्रम पाल बैठी.कभी न्यायपालिका विधायिका के अनावश्यक दखलंदाजी से तंग आकर गुहार मारते नजर आयी.कभी युवाओं में राजनैतिक विचार धारा विश्वविद्यालयों के ब्लैकबोर्डों से निकल कर आतंकवादी सोच में परिणित होती नजर आई.कभी कट्टर भाजपा महाराष्ट्र में अपने विरोधी पार्टी और काश्मीर में तथागत स्थिति में नजर आई. और दलितों  स्वतंत्रता तो सवणों के घर की रखैल बनी नजर आई.देश का आंतरिक कलह अपनी चरम सीमा में नजर आया.वाक्पट्टु प्रधानमंत्री जी की समय सापेक्ष खामोशी भी जनता जनार्दन को खलने लगी.राजनैतिक सरगर्मी मीडिया के लिये पैसे कमाने का सरल माध्यम बन गया.राजनीति के नये इक्के दिल्ली में जो खल बली मचाये वो तो मीडिया की स्रुर्खियां इस लिये भी बनी ताकी टीआरपी के खेल में वो विजेता बने रहे.आने वाले भविष्य में भारत की आजादी मात्र उस गुट के पास गिरवी रहने वाली है जिसके हाथों में बल होगा.संविधान का विधान भी राजनैतिक पार्टियों के हांथ की कटपुतली बन कर रह रहा है.अब स्व तंत्र में जनता अपने आप को पर तंत्र में जीवन जीने वाला वोट बैंक ही मानती है. जैसे वो राजनैतिक पार्टियों की लगोंट हो.समय के साथ आजादी के मायने भौतिक आजादी के रूप में बदल गई. आजादी साठ साल पार करने के बाद बुढा गई. भारत आज भी अपने वैचारिक स्वतंत्रता के लिये संघर्ष कर रहा है. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता तो अपने सूर्योदय के इंतजार में बुढा गये हैं. भविष्य में भारत की स्थिति विश्व में उसी तरह होगी जैसे की भारत में स्थिति राममंदिर और बाबरी मस्जिद की है.हां हमारे देश का युवा वर्ग आज भी एक उर्जा से भरा हुआ है.उसकी उर्जा आज के समय में चिंतन में गुजर रही है.वह चिंतन कैरियर बनाने की बजाय नेटवर्किंग साइट्स में भरपूर दिख जाता है.उनके पास हर मुद्दे का टोड मौजूद है. लेकिन एक बात की दाद देनी होगी हम भारतीयों की. हम कल भी गर्व से कहते थे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है.आज भी कहते हैं कि हमें भारतीय होने पर गर्व है और भविष्य में मरते दम तक यही कहते रहेंगें कि हमें भारतीय होने पर गर्व है. हम आजाद भारत के निवासी हैं.

अनिल अयान.सतना.