शनिवार, 2 अप्रैल 2016

बचत पर सरकारी डांका

बचत पर सरकारी डांका
अच्छे दिन का स्वांग भरने वाली सरकार अब आम जन की बचत पर घातक वार कर चुकी है. अच्छे दिन का रामराज्य कितने दिन तक आम जन ने भोगा है यह तो जनता नहीं जानती है परन्तु यह तो वह समझ गई है कि अब उनकी बचत की थैली में सरकार ने डांका डाल कर बैंको के लाकर्स में में जप्त कर ली गई है. सरकार ने जिस तरह भविष्य निधि को निकालने की उम्र ५८ साल करने का निर्णय लिया और मार्च गुजरते गुजरते वो डाकघरों की प्रमुख योजनाओं की ब्याज दरों में अच्छी खासी और भारी भरकम कटौती करके आम जन और सर्वहारा वर्ग की कमर तोडने का काम भी बखूबी पूरा कर लिया है. अच्छे दिन की झलक और बचत में बुरे दिनों के अढैया और सारे साती की नजर बाजारवाद के सहारे जरूर आम जन को दिखने लगी है. सरकार को आज के समय में बैंको से सरोकार सबसे ज्यादा है. जहां पर एक तरफ सरकार स्विस बैंकों में जमा काला धन ला नहीं पाई और सिर्फ ढकोसलों से ही काम चलता रहा  वहीं दूसरी ओर देश का सफेद धन उद्योग पतियों की काली नजर से काला होकर जरूर विदेश में ऐश करने के लिये सदुपयोग किया जा रहा है.यह सब देश की सत्ता और सरकार को उद्योग पतियों के घर की तिजोडियों के अंदर वैचारिक रूप से  गिरवी होने का अप्रत्यक्ष संकेत ही तो है. हम सबको पता है कि आम जन वोटबैंक बनाने के काम में आता है जबकी उद्योगपति चुनाव के समय में राजनैतिक पार्टियों की आर्थिक रीढ की हड्डी को मजबूत करने का महत्वपूर्ण दायित्व हर वर्ष ही निभाते हैं.
      सरकार ने रिजर्व बैंक की अनुसंशा में जिस तरह से एक दो नहीं बल्कि डाकघर की सभी ११ योजनाओं की ब्याज दरों में थोक के भाव छटनी और कटौती किया वह आम जन की समझ के परे है.  भले ही सरकार तीन महीने में ब्याज दरों की जितनी भी समीक्षा कर ले परन्तु यह तो तय है कि आम जन अपनी छोटी छोटी बचत से जो थोडा बहुत भविष्य के लिये जमा करके रखता है उसमें भी सरकार ज्यादा कुछ लाभ देने के पक्ष में नहीं है. हां सरकार बैंको के द्वारा मिलने वाले लोन और विभिन्न प्रकार की योजनाओं में भारी भरकम छूट का मन बनाये हुये है. मासिक आय योजना से लेकर वरिष्ठ नागरिक बचत योजना सहित १२ योजनाओं की ब्याज दरें जिस तरह १.३-१.५ प्रतिशत कम कर दी गई है. उसके चलते एक अप्रैल से आम जन को बाजार के भाव अपनी बचत योजनाओं को गिरवी रखना पडेगा. सरकार यह बिल्कुल भी नहीं चाहती कि आम जन अपने पैसे से कोई भी विकास का काम, या समाज में स्तर सुधारने की पहल कर सके. वो चाहती है कि हर व्यक्ति घर बनवाने से लेकर बच्चे की पढाई तक के लिये सरकार के द्वारा बैको के माध्यम से कर्ज ले. और उम्र भर बैंको की किस्त और ईएमआई भरता रहे.सरकार हर इंसान को बैंको की जटिल प्रणाली के कब्जे में रखना चाहती है.सरकार चाहे जिस भी पार्टी की हो परन्तु कुछ प्रश्न इस प्रकार के निर्णयों से जरूर जेहन में घूमते हैं. कि यदि नौकरी पेशा व्यक्ति पीएफ ५८ साल तक निकाल नहीं पायेगा. इन योजनाओं से उसे खास कर लाभ नहीं होगा तो कर्ज में वो कब तक खुद को स्वतंत्र महसूस करेगा. इस फैसले से फायदा किस सेक्टर को सबसे अधिक और सबसे ज्यादा नुकसान किसे है. क्या बैंक सरकार के सरकारी दामाद हैं जिनको इस दायरे से कोसों दूर रखा गया है.और सबसे बडा सवाल तो यही है कि सरकार इस तरह की कटौती आम जन की बचत की थैली में ही क्यों की है.     
      रिजर्व बैंक पिछले साल से चार बार रैपो रेट कम कर चुका है. बैंक उधर अपनी कर्ज की ब्याज दरों में कमी करना नहीं चाहते हैं. सरकार भी इस सब कटौतियों से सारा धन बैंक के पास भेजने के लिये भूल भुलैया तैयार कर रही है. जिसमें फंस कर आम इंसान अपनी अंतिम सांस लेने के लिये विवश होगा.सरकार को यह नहीं भूलना चाहिये कि आज भी भारत देश में पोस्ट आफिस की सुविधाओं का लाभ लेने वाला जनता का बडा भाग मौजूद है. जो अपनी बचत के कुछ लाभ के लिये इस प्रकार की योजनाओं में फुटकर किस्तों से पैसा लगाकर भविष्य को सुखी बनाने का सपना उम्र भर बुनता रहता है. इस पूरे मुद्दे में सरकार ने जनता को मजबूर किया है कि वो बैंक के पास जाकर कर्ज ले अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करें और उम्र भर कर्ज की किस्त अपनी तनख्वाह से कटाते हुये स्वर्गवासी हो जाये. वो पोस्ट आफिसों की सुविधाओं से दूर होकर बाजारवाद के विकास के लिये देश के बैंको को अपनी कमाई का अधिक्तर रकम सुपुर्द करें.क्या बैंक अपनी ब्याज दरों को कर्ज के अनुसार इस निर्णय के बाद कम करेंगें.यह प्रश्न अब भी बरकरार है. इस पर ना सरकार कुछ बोल रही है. और ना ही रिजर्व बैंक अपनी चुप्पी तोडने का मूड बना रहा है. सरकार भले ही इस निर्णय के लिये जितना खोखला दावा कर ले  कि बचत की ब्याज दर घटाने से पूरी अर्थव्यवथा की ब्याजदरें अपने आप नीचे आयेंगी.और बैक आम जन के सहयोगी के रूप में काम करेंगें.यह तो वही बात हुई कि कब तेली की तीस मन तेल होगा और कब राधिका नाचेगी.भविष्य निधि पर आम नौकरी पेशा वाले कर्मचारियों पर मार और अब उनकी बचत के रुपयों पर मिलने वाली सरकारी ब्याजदरों की कटौती दोहरे तरीके से रोटी कपडा मकान और जीवन शैली को बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित करेगी. अब सरकार को सोचना है कि क्या वो अर्थव्यवस्था के शेख चिल्ली के सपनों वाले फायदे के लिये आम जनता और नौकरी पेशे के कर्मचारियों को आर्थिक रूप से गुलाम बनाकर बाजार में नीलाम करेगी. या सफेद धन को वापिस भारत में लाकर बैंको की प्यास को बुझाकर जनता को कुछ चैन की सांस और राहत मुहैया करने के लिये पहल करेगी.
अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

कोई टिप्पणी नहीं: