शनिवार, 2 अप्रैल 2016

कर्जदारों के स्टेटस सिंबल

कर्जदारों के स्टेटस सिंबल
हमारा देश इस वक्त हाई प्रोफाइल बैंकिंग कर्जदारों से जूझ रहा है.देश की अर्थव्यवस्था चाह करके भी इन लक्ष्मी पुत्रो से उबर नहीं पा रहा है.अभी हमारे माननीय विजय माल्य देश के बैंकरों के कर्ज को लेकर विदेश में ऐशो आराम कर रहे हैं.देश चाहकर भी इन कर्जदारों का बाल भी बांका नहीं कर पा रहा है.४०० करोड के ऊपर के कर्ज को चाहकर भी न चुकाने की बात करने वाले भारत के ऐसे कर्जदार अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से टोड मरोड कर रख दिया है. यदि हम इन कर्जदारों की बात करे तो समझ में आता है कि देश की सरकार और प्रशासन इनके सामने खुद को मजबूर और निम्न स्तर का मानकर मौन धारण कर लेता है.बैंकरों की नीतियां भी इस तरह की परिस्थितियों के चलते प्रश्नों के घेरे में आजाती हैं. सोचने वाली बात है कि इस प्रकार दोहरी नीति से भारत के नागरिकों और आम जन का जमा धन किस दिशा में जा रहा है.एक आम इंशान को यदि बैंक से कर्ज लेने का विचार आता है तो उसे उस कर्ज को बैंक से लेने के वास्ते बैंक मैनेजर के आफिस के इतने चक्कर काटने पडते हैं कि वो कर्ज की उम्मीद खो बैठता है. यदि धोखे ब धोखे उसे कर्ज मिल गया और समय पर उसकी किस्त नहीं अदा कर पाये तो उसकी जमीन जायजाद सब कुर्की कर लिया जाता है.वो सरकारी अमले के सामने गोहार लगाता रह जाता है तब भी कोई सुनवाई नहीं होती है. परन्तु यहां पर स्थिति कुछ और ही है. विजय माल्या जैसे उद्योगपति सिर्फ अकेले नहीं है इसके पूर्व भी उनके जैसे भारत में बहुत से उद्योगपति खुद दीवालिया दिखाकर रुपयों के गद्दों में रातें काटते हैं. सरकार की नजर में ये दीवालिया और असहाय बने रहते हैं.परन्तु आंतरिक रूप से ये लक्ष्मी के वरद पुत्र के रूप में सुख सुविधाओं को भोग रहे होते हैं.
      किंगफिशर जैसे उद्योगों की पूंजी से भी असंतोष होने पर जब कर्ज के लिये बैंकर्स के दरवाजे खटखटाये जाते हैं उस समय बैंक किस उदारवादिता का परिचय प्रदान करता है.क्या कर्ज की राशि और उसकी कुर्की की आवश्यकता बैंक को नहीं होती है.और जब ये बाहर जाकर विदेश के ऐशो आराम भोगते हैं तो भारत की सरकार विजय माल्या जैसे पूंजी पतियों को कैसे लुक आउट नोटिस तक समेट कर मामला रफा दफा कर देती है.हमें इस बात को संज्ञान में लेना होगा कि पूंजीपतियों का यह मंसूबा होता है कि सरकारी खजाने का प्रयोग करके अपना व्यापार खडा करें  और घाटा दिखाकर सरकार और जनता का पैसा हजम कर लिया जाये. सोचने वाली बात यह है कि बैंक की नीतियां क्या कर्ज कर्जदारों का स्टेटस सिंबल देखकर देती है और वसूली में उनका रुतबा और शोहरत की देखा सिखी काम होता है.आम कर्ज लेने वालों को कोई रियायत क्यों नहीं है जो समय पर अपनी हर किस्त देता है और उसे कर्ज के लिये इतना चक्कर क्यों लगाना पडता है.हमारे देश में जब चुनाव होते हैं तो इस प्रकार के पूंजीपतियों को कैसे संसद में जाने की अनुमति और जनमत मिलता है यह भी सोचने का मुद्दा है. मीडिया और राजनैतिक पार्टियों में इनका रुतबा तो इतना है कि आज ट्वीटर में इनके मिजाज ये बताते हैं कि मीडिया और राजनैतिक पार्टियां किस तरह इनकी आर्थिक गुलाम हैं. सीबीआई और न्यायालय को ये लोग ढेंगा दिखाकर देश को यह बता रहे हैं कि आज के समय में अर्थव्यवस्था और विकास सब इनकी झोली में सुरक्षित है.जब चाहे विजय माल्या जैसे लोग अपनी झोली के दम पर नियम कायदों को अपने जूतों के नीचे रौंद सकते हैं
      ४०० करोड का कर्ज क्या भारत के आईडीबीआई बैंक और अन्य बैंकरों को वापिस कैसे मिलेगा.यह जवाब किसी के पास नहीं है.यहां तक की सरकार के पास भी नहीं.भविष्य में देश में ऐसी घटनायें ना हो इस लिये आवश्यक है कि सरकार के साथ रिजर्व बैंक की  आर्थिक लोन नीतियों को हर वर्ग के लोगों के लिये समान होनी चाहिये.विजय माल्य जैसे कर्जदारों की नाक में नकेल कसने के लिये न्यायालय,सीबीआई और अर्थव्यवस्था से जुडे हुये हर जिम्मेवार ब्यूरोक्रेट्स को इनके दबदबे से बाहर निकल कर काम करना जरूरी है.सरकार का सरोकार यह भी है कि पूंजीपतियों को उनकी पूंजी के अनुरूप कर्ज दिया जाये तो नियमित समयावधि के अनुसार वापिस भी लिया जाये अन्यथा कठोर कार्यवाही की जाये.सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि कर्जदारों को यदि अपने स्टेटस सिंबल के अनुसार ओहदा और रुतबा प्रदान किया जायेगा तो घर-घर,शहर-शहर,ऐसे उद्योगपति तैयार होंगें और जिस थाली में खायेंगें उसी में छेद करके विदेश का ऐशो आराम भोगेगें .जनता का पैसा इसी तरह बैंक के हाथों से निकल कर इधर उधर फिरता रहेगा.ये लोग सरे आम संसद में अपना हक जताते रहेंगें और संसद की गरिमा अमीर लक्ष्मीपुत्रों के स्टेट्स सिंबल के चलते शर्मसार होती रहेगी.हम सिर्फ ढोल पीटते रहेंगें.जो हमारी नियति है और विधान भी है.
अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

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