शीला का बुढापा बनाम यूपी विजय
कांग्रेस ने विगत दिनों साढ्योत्तर पीढी की उम्मीदवार
श्रीमति शीला दीक्षित को आखिरकार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया
अब वो राजनीति में राज बब्बर के साथ अपना विजय घोष करने की तैयारी मे लीन हो चुकी हैं.आखिरकार
१९८९ के नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मंत्रित्व काल के बाद कांग्रेस ने क्या सोचकर
इस चुनाव में अपना दाखिला करवाया है यह समझ के परे है. वर्तमान में हाथ का पंजा चौथे
नंबर पर विराजमान है. परन्तु वोटों का खेल में अनिश्चित बदलाव करने वाले युवाओं के
लिये कांग्रेस के पास कुछ नहीं बचा.शीला दीक्षित के पास युवाओं के लिये क्या संदेश
है.हमे नहीं भूलना चाहिये कि दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री केजरीवाल जी के पास युवाओं का बहुमत था इस वजह से वो दिल्ली
में दूसरी बार सफलता हासिल कर शीला दीक्षित को भारी मतों से पराजित किया था.वर्तमान
कांग्रेस की उम्मीदवार को उनसे जरूर गुरुमंत्र सीखना चाहिये था.घोषणा के पूर्व उनके
पास उत्तर प्रदेश के रहवासी होने का कोई मुद्दा नहीं था. परन्तु घोषणा होते ही उन्होने
उत्तर प्रदेश को अपना मायका बनाने मे रत्ती भर पीछे नहीं रही.वो जहां एक ओर कुशल प्रशासक
रही वहीं दूसरी ओर दिल्ली को महानगर से केंद्र शासित प्रदेश बनाने में दादी अम्मा का
काम किया.परन्तु अब जहां राहुल गांधी युवाओं को प्रेरित करने में जी जान लगा देते हैं
वहां पर बूढी आदरणीय शीला जी क्या कमाल कर पायेगीं यह समझ के परे है.
यह सच है
कि कपूरथला में जन्मी और दिल्ली में पली बढी शीला जी का उत्तर प्रदेश से भी नाता रहा
है.उमाकांत दीक्षित जी की बहू के रूप से इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होने अपना राजनैतिक
कैरियर प्रारंभ किया था,.कन्नौज से सांसद और केंद्र सरकार में मंत्री भी रही.कांग्रेस
का यह फैसला इस लिये भी हारे प्यादों से जंग जीतने की ख्वाहिश जैसे है क्योंकि सबसे
पहले दिल्ली में केजरीवाल जी ने उनके राजनैतिक तख्ते को धरासायी कर दिया साथ ही साथ
जब उन्हे केरल का राज्यपाल जैसा संवैधानिक पद की जिम्मेवारी सौंपी गई तब वो उसमें भी
खुद को भ्रष्टाचार जैसे आरोपों से नहीं बचा सकीं.यह उनका राजनैतिक बुढापा ही कहा जा
सकता है. मै तो यह सोचता हूं किउनके चयन के बाद अब राहुल गांधी कैसे अपनी चुनावी रैली
में कहेंगें कि वो यह चाहते हैं कि आम युवा कांग्रेस के जरिये राजनीति में आगे आयें?
मुझे अफसोस इस बात पर भी है कि प्रशांत किशोर ने भी युवा मुख्यमंत्री पद के लिये प्रियंका
गांधी का नाम सुझाया था किंतु कांग्रेस ने क्यों नहीं उनकी बात को स्वीकार किया जबकि
उन्हें कांग्रेस के द्वारा उप्र के लिये ही नियुक्त किया गया था. इस निर्णय से यह तो
तय है कि कांग्रेस ने अपने पुराने समय की रणनीति वाला तुरुप का इक्का इस्तेमाल किया
है. जैसे कि वो सत्तर और अस्सी के दशक में हमेशा सवर्णों के दम पर खुद को मजबूत बनाती
थी. एक बात और महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस जिस तरह से मुस्लिम वोट के लालच में बोटी
बोटी करने वाले उकसाऊ भाषण देने वाले इमरान मसूद को जिस तरह कमेटी में जगह दी है उससे
तो साफ है कि कांग्रेस हर जाति के वोट को अपनी झोली मे डालने के लिये हर दांव उपयोग
कर चुकी है.
हम यदि
याद करें तो कांग्रेस में गांधी और नेहरू परिवार के सभी सदस्य उत्तर प्रदेश की राजनीति
से केंद्र तक का सफर तय किये थे.लेकिन पिछले लगभग तीन दशक से कांग्रेस अपनी जमीन खो
चुकी है. जहां एक ओर उप्र. की राजनीति जातियों के समीकरणों पर आधारित राज्यों में अव्वल
दर्जे में आती है.इसी लिये यहां का समाज राजनैतिक पार्टियों के दम पर जातियों में बंटा
ही बस नहीं होता बल्कि सौहार्द को मिट्टी पलीत करने में कोई कसर नहीं छोडता है. वही
दूसरी ओर आजादी के कुछ पंच वर्षीय के बाद कांग्रेस ने खुद को जातीय राजनीति का भामाशाह
बना लिया था.इस भामाशाह को बसपा के कांसीराम ने दीमक की तरह नष्ट कर दिया.उन्होने अपनी
दत्तक उत्तराधिकारी बहनजी मायावती के साथ चुनावी समीकरणों को कांग्रेस के पाले से अपने
अधिकार में लेने में एक पल को देर नहीं की.प्रदेश कांग्रेस के लिये राजबब्बर को भले
ही कमान सौंप दी गई हो परन्तु सच तो यह है कि वो अच्छे अभिनेता हो सकते हैं कि वो उन
युवाओं के आदर्श नहीं बन सकते जिनके वोट कांग्रेस को मिलने चाहिये, हमे नहीं भूलना
चाहिये कि सपा की अखिलेश सरकार की सफलता के पीछे भी अविश्वसनीय युवाओं का जातीय ध्रुवीकरण
ही था. कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिये कि नवासी के दशक में उनकी सत्ता और आज दो
दशक के बाद उप्र के हालात बदल चुके हैं. युवा अंध विश्वासी कम और अपने कैरियर रोजगार
को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं. वो जातीय समीकरणों को समझते हैं परन्तु उसके पीछे भेडचाल
से नहीं भागते हैं. राहुल गांधी के बदलाव के नारे,प्रियंका गांधी की सादगी भरी छवि
और युवाओं के मुद्दे जैसे शीला जी चयन से नेपथ्य में जा चुके हैं. अब तो इस परिस्थिति
में चुनाव में जीत हाशिल करना आग के दरिया को पार करके जाने जैसा ही कठिन है.
(लेखक के अपने विचार हैं,लेखक युवा साहित्यकार एवं स्तंभ
लेखक हैं.)
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७
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