शनिवार, 20 अगस्त 2016

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...

गर्व से कहो... हम आजाद हैं...
हमारी आजादी सत्तर साल की होने को है.साठ्योत्तर स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाने के लिये हर भारतवासी उत्सुक नजर आ रहा है. पर इस स्वतंत्रता की परिपाटी अपने सत्तरवें वर्ष में कई नये आयाम खोजने को आतुर है.एक समय वह था जब भारत अविभाज्य होकर परतंत्रता की बेडियों में कसक रहा था और एक आज का समय है जब भारत विभाजित होकर विश्वगुरु और सोने की चिडिया की उपाधि को बचाने के लिये संघर्षरत है.यूं तो कहने को भारत की स्वतंत्रता की सत्तरवी सालगिरह है.पर इस सात दशकों में भारत क्या था क्या हो गया है और आने वाले दशकों भारत किन परिस्थितियों को अपने सामने सुरसा की तरह खडा पायेगा,यह भी एक यक्ष प्रश्न की तरह खडा हुआ है. भारत अपने प्रारंभिक काल से ही लोकतंत्रीय प्रणाली से चलने वाला राष्ट्र बनकर विकासपथ पर आगें बढा.उस समय तात्कालिक सरकार को जहां अपने अस्तित्व की लडाई लडने के लिये प्रयासरत रहना था.कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका और न्यायपालिका से विधायिका तक सब प्रारंभिक बाल्यावस्था में विकसित हो रहे थे.स्व तंत्र होने की वजह से जनता को यह अहसास था कि उनके द्वारा बनाया जाने वाला तंत्र उनकी फिक्र भी करता है और उनके विकास के लिये कार्य भी हर पंचवर्षीय में करता है.उस समय जय जवान और जय किसान दोनो को सम्मानित स्थान भारत में प्राप्त था.भारत अपनी स्वतंत्रता को पोषित करने में लगा हुआ था.उस समय जहां राज्य कम थे तो राजनैतिक दल भी कम थे.सत्ता की राजनैतिक चालबाजियां भी अपनी हद तक थी.संविधान में प्रारंभिक अवस्थागत मूलचूल बदलाव या नवीनीकरण किया जा रहा था.आजादी के तीन दशक भारत के नागरिकों को इस बात का विश्वास दिला चुके थे कि स्व तंत्र में स्व अर्थात जनता जनार्दन को वाकयै जनार्दन की तरह अर्थात केंद्र बिंदु मानकर काम किये जा रहे हैं.
      समय बदला तो आजादी के दशक भी बढने लगे.समय सापेक्ष राजनैतिक दलों स्व तंत्र के बिंदु में बैठे नागरिकों को धक्के मार कर नेपथ्य में ढकेल दिये.समय सापेक्ष कांग्रेस और जनसंघ अपने टुकडों में टूटते चले गये.विद्रोही अपनी विचारधारा और स्वार्थपरता के चलते नये राजनैतिक संगढन बनाना प्रारंभ कर दिये.देश के राज्य विभाजित होते चले गये. नब्बे के दशक तक भारत की स्वतंत्रता अपनी शैशव अवस्था में पहुंच तो गई परन्तु भारत में जातिवाद,क्षेत्रवाद रूप परिवर्तित करके नक्सलवाद का रूप लेने लगा.नये राज्य जैसे जैसे बनते चले गये वैसे वैसे राजनीति में न्यायपालिका में विधायिका का दबाव बढने लगा, विदेशी पूंजी का आधिपत्य बढा तो रुपया अन्य देशों की तुलना में अपनी कमर टोड बैठा.अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति की दर और विकास दर लडखडा सी गई.अब कुर्सी की माया देश को जाल में फंसा ली.सत्ता धारियों पर विपक्ष,,समय समय पर वैचारिक युद्ध जारी रखा.सत्ता बदलाव होते ही यही दांव उलटा पडने से दलों के बीच नैतिक भाईचारा घटता गया और राजनैतिक स्वार्थ का तवा गरम होता गया.महिला सशक्तीकरण मात्र अभियान बनकर रह गया.राजनेताओं ने महिलाओं, धर्म, जाति,और धर्मग्रंथों को अपने वोट बैंक की सिक्योरिटी बना लिये,हर चुनाव में इन कारकों को इस्तेमाल करके कहीं ना कहीं आजादी के नाम पर अधिकारों और कर्तव्यों की की व्याख्या को तोड मरोड कर प्रस्तुत किया गया. समय लगातार रेत की तरह फिसलता चला गया और आजादी का मूल्य अपने मूल रूप को खोकर राजनैतिक चश्में से देखा जाने लगा.स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदानों को भी शक की नजर से और नजरिये से देखा जाने लगा.भारत के विवादित स्थलों जिसमें राम मंदिर और बाबरी मस्जिद से लेकर अविभाज्य काश्मीर को चुनावरथ में बिठाकर सत्ता हाशिल करने की कवायद शुरू कर दी गई.हमारी आजादी उस समय ज्यादा धार्मिक हो गई जब वर्तमान प्रधानमंत्री जी को सत्ता का बहुमत मिला तब से वामपंथ और दक्षिणपंथ नदी के वो दो किनारे हो गये जो चले तो साथ साथ किंतु मिले कभी भी नहीं. आज कल तो भारत की जनता को अपनी आजादी पर भी शक होने लगा. उसे यह समझ में नहीं आता कि वो किसका पक्ष ले.एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाईं नजर आने लगी.विचारधारा के नाम पर ढोंग प्रबल होता चला गया.देश में धार्मिक कट्टरता अपनी चरम सीमा में पहुंच गई.
      सात दशक के अंतिम वर्षों में तो ऐसा महसूस होने लगा कि भारत अपने भीतर ही गृहयुद्द का शिकार हो रहा है. कभी विधायिका कार्यपालिका को अपने पैरों की जूती के स्तर  पर समझने का भ्रम पाल बैठी.कभी न्यायपालिका विधायिका के अनावश्यक दखलंदाजी से तंग आकर गुहार मारते नजर आयी.कभी युवाओं में राजनैतिक विचार धारा विश्वविद्यालयों के ब्लैकबोर्डों से निकल कर आतंकवादी सोच में परिणित होती नजर आई.कभी कट्टर भाजपा महाराष्ट्र में अपने विरोधी पार्टी और काश्मीर में तथागत स्थिति में नजर आई. और दलितों  स्वतंत्रता तो सवणों के घर की रखैल बनी नजर आई.देश का आंतरिक कलह अपनी चरम सीमा में नजर आया.वाक्पट्टु प्रधानमंत्री जी की समय सापेक्ष खामोशी भी जनता जनार्दन को खलने लगी.राजनैतिक सरगर्मी मीडिया के लिये पैसे कमाने का सरल माध्यम बन गया.राजनीति के नये इक्के दिल्ली में जो खल बली मचाये वो तो मीडिया की स्रुर्खियां इस लिये भी बनी ताकी टीआरपी के खेल में वो विजेता बने रहे.आने वाले भविष्य में भारत की आजादी मात्र उस गुट के पास गिरवी रहने वाली है जिसके हाथों में बल होगा.संविधान का विधान भी राजनैतिक पार्टियों के हांथ की कटपुतली बन कर रह रहा है.अब स्व तंत्र में जनता अपने आप को पर तंत्र में जीवन जीने वाला वोट बैंक ही मानती है. जैसे वो राजनैतिक पार्टियों की लगोंट हो.समय के साथ आजादी के मायने भौतिक आजादी के रूप में बदल गई. आजादी साठ साल पार करने के बाद बुढा गई. भारत आज भी अपने वैचारिक स्वतंत्रता के लिये संघर्ष कर रहा है. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता तो अपने सूर्योदय के इंतजार में बुढा गये हैं. भविष्य में भारत की स्थिति विश्व में उसी तरह होगी जैसे की भारत में स्थिति राममंदिर और बाबरी मस्जिद की है.हां हमारे देश का युवा वर्ग आज भी एक उर्जा से भरा हुआ है.उसकी उर्जा आज के समय में चिंतन में गुजर रही है.वह चिंतन कैरियर बनाने की बजाय नेटवर्किंग साइट्स में भरपूर दिख जाता है.उनके पास हर मुद्दे का टोड मौजूद है. लेकिन एक बात की दाद देनी होगी हम भारतीयों की. हम कल भी गर्व से कहते थे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है.आज भी कहते हैं कि हमें भारतीय होने पर गर्व है और भविष्य में मरते दम तक यही कहते रहेंगें कि हमें भारतीय होने पर गर्व है. हम आजाद भारत के निवासी हैं.

अनिल अयान.सतना. 

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