रविवार, 18 सितंबर 2016

वर्चश्व का कुरुक्षेत्र

वर्चश्व का कुरुक्षेत्र
फिर से मित्रों उत्तर प्रदेश में धर्म संकट आ गया है वह धर्म संकट जो सत्ता की चाहत में भाईचारे और पुत्र प्रेम के बीच खडा हुआ है. यादवबंधुओं की सता अब मध्यस्थ में खडी हुई है समाजवादी पार्टी नित नये रूप में आगामी चुनाव की रामलीला के लिये पात्र तैयार कर रही है. यह आपसी कलह और उत्तपन्न विवाद कुर्सी की लुटने से ज्यादा टीआरपी बटोरने में सफल हो रही है. मुलायम सिंह अपने परिवार और रिस्तेदारों द्वारा संचालित दल में वर्चश्व का कुरुक्षेत्र के लिये धृष्टराष्ट्र बनने के लिये मजबूर से नजर आरहे है. बनाने वाले भी अपने है और पीडित होने वाले वाले भी अपने ही हैं. किसके लिये वो यह तय करें कि क्या सच है क्या झूठ. कौन सही और कौन गलत दोनों में फांसी उन्ही को होनी है.भाई से पंगा लेने से आधी ताकत जाती है और पुत्र से पंगा लेने से एक और विरोधी बनने के आसार को बढा देना. फुटव्वल की नौमत ज्यादा आने की कगार में है. इस रामलीला के मुख्य पात्र शिवपाल यादव, अखिलेश यादव, रामगोपाल यादव और खुद मुलायम सिंह इस तरह आपस में उलझ गये हैं कि सबको अपने अपने अधिकारों के अनुरूप संतुष्ट करना या होना कदापि संभव नहीं नजर आ रहा है. जब अखिलेश यादव जी ने अपने अधिकारों का प्रयोग करके सात मंत्रालय छीन कर अलग कर दिया. साथ में मुलायम सिंह जी ने मुख्यमंत्री को ही प्रदेश अध्यक्ष से ह्टा कर अपने कलह को और भाईचारे को बेटे के सामने ला दिया.यह पारिवारिक विवाद अब धीरे धीरे सत्ता का विवाद बनने के लिये तैयार हो चुका है.
    जिस तरह का विवाद है उसमें रामगोपाल यादव जी अपने भतीजे का साथ देकर अपने दोनो भाइयों का जिस तरह से विरोध दर्शाया है वह सिद्ध करता है कि वो आने वाले समय में भतीजावाद को सार्थक करने का विचार कर रहे हैं.समाजवादी पार्टी के अंदर ही समाज वाद गायब हो रहा है. विवाद जितना सुलझ गया सा महसूस होता है उतना है नहीं क्योंकि अंततः मुद्दा अटकने वाला है कि टिकट वितरण और चुनाव का बिगुल कौन थाम कर विजेता बनने का सपना देखेगा. ऐसा महसूस हो रहा है कि पावर आफ एटार्नी की यह लडाई आगे चलकर मुलायम अखिलेश और शिवपाल की तिकटी के बीच आकर अटक जायेगी.सत्ता पक्ष से देखें तो समझ में आयेगा कि मुलायम और शिवपाल जी के पास मुस्लिम वोटों का बैंक मजबूत है जबकि अखिलेश के पास युवा नेतृत्व और युवाओं और कट्टर समाजवादियों का वोट बैंक है साफ सुथरी छवि भी उनके लिये प्लस प्वाइंट है. रही बात शिवपाल सिंह यादव जी की तो वो वह वजीर की भूमिका में है जो जब चाहे तब सत्ता के बादशाह को सडक का बादशाह बना सकता है.समाजवादी पार्टी के नीव के पत्थरों में से एक मजबूत वटवृक्ष जो यदि मुलायम सिंह नहीं हैं तो उनसे उनका कद भी कम नहीं है. अब यह लडाई हर हाल में कद और पद की लडाई बन चुकी है. देखना यह है कि पद से कलह खत्म होता है या कद से कलह का अंत होता है.वंशवाद की बात करें तो स्व पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से यह परंपरा चली आरही है  जिसका जन्म उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के द्वारा हुआ और बिहार में लालू प्रसाद यादव के द्वारा किया गया. वंशवाद का परिणाम और लाभ हानि यहां पर जिक्र करने की ज्यादा आवश्यकता मुझे महसूस नहीं होता है और अब मुद्दा उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी पर आकर जैसे अटक गया है.ऐसा लगता है संवैधानिक आचार विचार और संहिता की धज्जियां उडाई जा रही है. और सब समाजवाद की अर्थी उठाकर सत्ता सुख का दिवास्वप्न देखने के लिये लालायित हो रहे हैं.
    अब देखना यह है कि राहुल गांधी और शीला दीक्षित की खाट में वोट गिरते हैं या फिर इस कलह कथा के अनुरूप जनता दो बारा समाजवादीयों को अपना बहुमत देकर सत्ता सौंपती है. इन सब विवादों की जड और चेतन दोनों विधानसभा चुनाव का केंद्र बिंदु हैं सत्ता की लोलुपता इस तरह राजनैतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञो पर हावी है कि क्या भाई क्या भतीजा क्या पिता और क्या पुत्र कुर्सी की कलह अब मसालेदार कथा बनकर चैनलों के लिये टीआरपी की फेवरेट डिश के रूप में बेहतरीन काम कर रही है. मामला चाहे मुलायम जी के भाई के पक्ष में हो या फिर उनके सुपुत्र के पक्ष में कहीं ना कहीं हानि तो मुलायम सिंह की विचारधारा रूपी पार्टी को होगा. उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मुलायम सिंह जैसे दो शेर ही थे जिन्होने वहां की सत्ता को हमेशा गर्म तवे की तरह इस्तेमाल करके भरपूर चपातियां सेकीं हैं. अब देखना यह है कि इस चुनाव में यह तुरुप का इक्का एक कलह बनकर विच्छेदन का कारण बनता है अथवा संविलयन और समझौते की राजनीति में बदल कर आगे की सत्ता कुरुक्षेत्र को विजयी बनाने का धर्मयुद्ध बनता है. वैसे एक बात तो है कि धर्मसंकट हमेशा ही हानिकारक सिद्ध नहीं होता है.आगे आगे देखिये कि होता है क्या इस धर्मसंकट में और इस कलह कथा में.
अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

नदी के आड में,राज्यों की टकरार

नदी के आड में,राज्यों की टकरार
अकाल में पानी के लिये लडते लोगों के बारे में सुना होगा.पानी टैंकरों के लिये लडते लोगों को देखा भी होगा,परन्तु आज की ऐसी स्थिति हो गई है कि राजनीति अब नदियों के बहाव में भी हावी हो गई है. नदियों की स्वतंत्रता पर राजनैतिक प्रतिबंध लगाने का अप्राकृतिक काम किया जा रहा है। भारत के अंदर अधिक्तर नदियों में और उसके बहने वाले जल में राज्यों का क्षेत्रवाद हावी होने लगा है. ऐसा नहीं है कि यह काम पहली बार सरकारों के द्वारा किया जा रहा है. परन्तु जिस उद्देश्यों की पूर्ति के लिये ये हथकंडे अपनाये जा रहे हैं वह कहीं ना कहीं देश की आंतरिक प्राकृतिक सामनजस्य के लिये बहुत ही नुकसान देह है। जल विवाद एक नये रूप में भारत के राज्यों को टोडने में लगा हुआ है. बहुत साल पहले उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा के बीच देखने को मिला था.जब सतलुज और यमुना नदी के जल को जोड नहर से लाने का प्रयास किया गया और अंततः उस जोड नहर का काम अधूरा छोडना पडा.,आज भी पंजाब यह नहीं चाहता कि यह नहर बने और सतलुज और यमुना का जुडाव होकर अन्य राज्यों को उसका लाभ मिले.हमें याद होना चाहिये कि पंजाब में अस्सी के दसक में उपजे गृह आतंकवाद की एक वजह यह जल कलह भी थी.आज भी पंजाब विधानसभा ने उस नहर की अधिसूचना रद्द करके अपने इस मामले को सुप्रीमकोर्त की झोली में डाल दिया.यह बस ऐसा मामला नहीं है आज के समय में पल रहे क्षेत्रवाद का तूफान हर राज्य को इसी आदत का आदी बना दिया है.
      कावेरी जल विवाद इसी तरह का कुछ मामला आजकल तूल पकडा हुआ है.कर्नाटक और तमिलनाडू की इस लडाई में राष्ट्रीयता प्रभावित हो रही है.इस मामले में हम पडोसी राज्य को अपना संबंधी मानने की सोच रखते ही नहीं हैं. हम उसे अपने देश का हिस्सा मानने को स्वीकार करते ही नहीं हैं. जैसे ही सुप्रीम कोरट ने कर्नाटक को तमिल नाडू के लिये कावेरी से ज्यादा जल छोडने का आदेश सुनाया तो कर्नाटक के निवासी अपनी औकात में आगये. तमिलनाडू अपने क्षेत्र को भी इस आग से बचा नहीं सका. बेगलूरू और चेन्नई के हालात बेकाबू होना यह शाबित करते हैं कि दोनो राज्यों की पानीदारी मात्र नदी के पानी की वजह से खतम सी हो गई.यह विवाद भी देश में अभी का नहीं है. अट्ठारहवी सदी का यह विवाद आजाद भारत के बाद भी  शांत न्हीं हो सका.उस समय पर मंद्रास कर्नाटक और मैसूर थे आज केरला और पांडुचेरी भी अपना अधिकार जमाने पहुंच गये.इन सब झगडों के लिये जल विवाद कानून भी बना किंतु यह कानून भी इस विवाद की भयावह आग को शांत नहीं करा पाया.कावेरी जल पंचात जैसे समूह भी खाली हांथ लौट आये.कर्नाटक है कि शेषनाग की तरह कावेरी स्नान करने में लगा हुआ है.
      अजीब स्थिति है हमारे देश के राज्य उन मसलों में उर्जा बरबाद कर रहे हैं जिसको प्रकृति ने हमें उपहार के लिये दिया है.अगर हम इस उपहार को बांटने की बजाय हथियाने की सोचेंगें तो कैसे देश का हाल सुधरेगा.वह तो बदहाल ही होता रहेगा.कावेरी जैसी नदियां जिसमें अथाह जल भरा हुआ है उसके बावजूद इस तरह के विवाद मात्र सरकार की राजनैतिक जिद है.सरकार को इस मुद्दे कोलेकर अपना क्षेत्रवाद वोट बैंक बचाने की पडी है.और इधर राज्यों की टकरार में एक राज्य के लोग दूसरे राज्य के अत्याचारों को झेल रहे हैं.हमारे राज्यों को यह समझना होगा कि हमारा देश जिन स्थितियों को अपने में समेटे हुये है उसमें हम किसी भी जल स्रोत को और उसके प्राकृतिक प्रवाह को बाधित नहीं कर सकते हैं. यदि हम कभी भी ऐसा करते हैं को हमारे न्यायालय का निर्णय तो बाद में होगा किंतु प्रकृति का निर्णय उसी समय हो जायेगा.और जब प्रकृति का निर्णय होता तब सिर्फ राज्यों और राष्ट्रों के पास पछताने के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचता है. देश में जल संकट के लिये संघर्ष करना एक तरफ है.किंतु जलकलह और जल विवाद को बढाना अपने अंत को न्योता देने की तरह है. हमारी राज्य सरकारों को चाहिये कि चाहिये कि जल कलह को खत्म करके प्रकृति को निर्बाध रूप से चलने दे. राजनीति का अड्डा यदि नदियां बन गई तो आने वाले समय में पानी को रानी बनाकर क्षेत्रवाद अपने कब्जे में कर लेगा और हर तरफ त्राहि त्राहि ही मचेगी.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७