नदी के आड में,राज्यों की टकरार
अकाल में पानी के लिये लडते लोगों के बारे
में सुना होगा.पानी टैंकरों के लिये लडते लोगों को देखा भी होगा,परन्तु आज की ऐसी स्थिति
हो गई है कि राजनीति अब नदियों के बहाव में भी हावी हो गई है. नदियों की स्वतंत्रता
पर राजनैतिक प्रतिबंध लगाने का अप्राकृतिक काम किया जा रहा है। भारत के अंदर अधिक्तर
नदियों में और उसके बहने वाले जल में राज्यों का क्षेत्रवाद हावी होने लगा है. ऐसा
नहीं है कि यह काम पहली बार सरकारों के द्वारा किया जा रहा है. परन्तु जिस उद्देश्यों
की पूर्ति के लिये ये हथकंडे अपनाये जा रहे हैं वह कहीं ना कहीं देश की आंतरिक प्राकृतिक
सामनजस्य के लिये बहुत ही नुकसान देह है। जल विवाद एक नये रूप में भारत के राज्यों
को टोडने में लगा हुआ है. बहुत साल पहले उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा के बीच देखने
को मिला था.जब सतलुज और यमुना नदी के जल को जोड नहर से लाने का प्रयास किया गया और
अंततः उस जोड नहर का काम अधूरा छोडना पडा.,आज भी पंजाब यह नहीं चाहता कि यह नहर बने
और सतलुज और यमुना का जुडाव होकर अन्य राज्यों को उसका लाभ मिले.हमें याद होना चाहिये
कि पंजाब में अस्सी के दसक में उपजे गृह आतंकवाद की एक वजह यह जल कलह भी थी.आज भी पंजाब
विधानसभा ने उस नहर की अधिसूचना रद्द करके अपने इस मामले को सुप्रीमकोर्त की झोली में
डाल दिया.यह बस ऐसा मामला नहीं है आज के समय में पल रहे क्षेत्रवाद का तूफान हर राज्य
को इसी आदत का आदी बना दिया है.
कावेरी
जल विवाद इसी तरह का कुछ मामला आजकल तूल पकडा हुआ है.कर्नाटक और तमिलनाडू की इस लडाई
में राष्ट्रीयता प्रभावित हो रही है.इस मामले में हम पडोसी राज्य को अपना संबंधी मानने
की सोच रखते ही नहीं हैं. हम उसे अपने देश का हिस्सा मानने को स्वीकार करते ही नहीं
हैं. जैसे ही सुप्रीम कोरट ने कर्नाटक को तमिल नाडू के लिये कावेरी से ज्यादा जल छोडने
का आदेश सुनाया तो कर्नाटक के निवासी अपनी औकात में आगये. तमिलनाडू अपने क्षेत्र को
भी इस आग से बचा नहीं सका. बेगलूरू और चेन्नई के हालात बेकाबू होना यह शाबित करते हैं
कि दोनो राज्यों की पानीदारी मात्र नदी के पानी की वजह से खतम सी हो गई.यह विवाद भी
देश में अभी का नहीं है. अट्ठारहवी सदी का यह विवाद आजाद भारत के बाद भी शांत न्हीं हो सका.उस समय पर मंद्रास कर्नाटक और
मैसूर थे आज केरला और पांडुचेरी भी अपना अधिकार जमाने पहुंच गये.इन सब झगडों के लिये
जल विवाद कानून भी बना किंतु यह कानून भी इस विवाद की भयावह आग को शांत नहीं करा पाया.कावेरी
जल पंचात जैसे समूह भी खाली हांथ लौट आये.कर्नाटक है कि शेषनाग की तरह कावेरी स्नान
करने में लगा हुआ है.
अजीब
स्थिति है हमारे देश के राज्य उन मसलों में उर्जा बरबाद कर रहे हैं जिसको प्रकृति ने
हमें उपहार के लिये दिया है.अगर हम इस उपहार को बांटने की बजाय हथियाने की सोचेंगें
तो कैसे देश का हाल सुधरेगा.वह तो बदहाल ही होता रहेगा.कावेरी जैसी नदियां जिसमें अथाह
जल भरा हुआ है उसके बावजूद इस तरह के विवाद मात्र सरकार की राजनैतिक जिद है.सरकार को
इस मुद्दे कोलेकर अपना क्षेत्रवाद वोट बैंक बचाने की पडी है.और इधर राज्यों की टकरार
में एक राज्य के लोग दूसरे राज्य के अत्याचारों को झेल रहे हैं.हमारे राज्यों को यह
समझना होगा कि हमारा देश जिन स्थितियों को अपने में समेटे हुये है उसमें हम किसी भी
जल स्रोत को और उसके प्राकृतिक प्रवाह को बाधित नहीं कर सकते हैं. यदि हम कभी भी ऐसा
करते हैं को हमारे न्यायालय का निर्णय तो बाद में होगा किंतु प्रकृति का निर्णय उसी
समय हो जायेगा.और जब प्रकृति का निर्णय होता तब सिर्फ राज्यों और राष्ट्रों के पास
पछताने के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचता है. देश में जल संकट के लिये संघर्ष करना एक
तरफ है.किंतु जलकलह और जल विवाद को बढाना अपने अंत को न्योता देने की तरह है. हमारी
राज्य सरकारों को चाहिये कि चाहिये कि जल कलह को खत्म करके प्रकृति को निर्बाध रूप
से चलने दे. राजनीति का अड्डा यदि नदियां बन गई तो आने वाले समय में पानी को रानी बनाकर
क्षेत्रवाद अपने कब्जे में कर लेगा और हर तरफ त्राहि त्राहि ही मचेगी.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७
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