सोमवार, 21 नवंबर 2016

कभी "मुन्नी-शीला" कभी "सोनम" और अगली बार हमारी बेटी

कभी "मुन्नी-शीला" कभी "सोनम" और अगली बार हमारी बेटी
यह अप्रत्याशित मुद्दा ही था कि इस बार "सोनम" के कथानक को बाजार में नोट के ऊपर रखकर काफी उछाला गया.जब से नोटों का विमुद्रीकरण हुआ तब से इस नाम को इतनी लोकप्रियता मिली की कि हमारे समाज में रहने वाली इस नाम की औरतें, बहने, बेटियां,भाभियां,सालियां खुद बखुद लोगों की जुबां में आने लग गई.परिवार में मजाक करने वाले रिश्तों के बीच में रोजाना ही मजाक बन गया.पहले एक हजार की नोट,फिर पांच सौ और उसके बाद यह प्रक्रिया लगातार हर नोटों में यह लिख कर कि "सोनम गुप्ता बेवफा हैं" रातों रात कांट्रोवर्सी में आगई.सवाल यह खडा हुआ कि मीडिया ने यह मुद्दा इतना क्यों फैलाया.देश की सभी नेटवर्किंग साइट्स में यह मुद्दा काफी उछाल में आया. इसकी जड कहां से शुरू हुई यह किसी ने जानने की कोशिश नहीं की बस अपने अपने प्रोफाइल में साझा करना शुरू कर दिया. इस कथानक के जरिये जिस वैचारिक महामारी का फैलाव हुआ वह कहीं ना कहीं प्लेग से भी ज्यादा भयावह है.प्लेग का एक बार तो इलाज हो सकता है किंतु इस प्रकार की सस्ती लोकप्रियता को पाने के लिये देखा गया उत्साह सोनम के हर रिश्ते से जुडे लोगों को समाज में शर्म आने लगी.बिना दूरगामी परिणाम सोचे इस तरह की हरकत समाज में जिस झूठे ग्लोबलाइजेशन की हवा बह रही है वह किस दिशा में जा रही है यह सोचने का विषय है.चरित्र और सम्मान के नाम पर यह एक गहरी चोंट है जो मनो वैज्ञानिक रूप से एक बीमार व्यक्ति की आंतरिक व्यथा को समाज के सामने सिर्फ मजे लेने के बहाने फैला दिया गया। बिना यह सोचे कि असहज भाव का उस नाम की स्त्री पर क्या प्रभाव पडेगा।
बालीवुड में स्त्रियों के नामों को लेकर शुरू हुए अश्लील गानों की धुन पर नाचने वाले युवा अगर "मुन्नी बदनाम हुई  डार्लिंग तेरे लिये." और "शीला की जवानी" हमारी फीचर फिलमों के एक अंधकारमय पक्ष को उजागर करने में सफल रहे। तो दूसरी तरफ "सोनम गुप्ता" का विषय हमारे समाज में हाईटेक युवा दिल दिमाग और जिस्म की आंतरिक आग को शांत करने का केंद्र बिंदु बन जाता है.इन मामलों को हमारा समाज संज्ञान में नहीं लेता.हर घर ,हर कालोनी,हर कस्बे में इस नाम को रखने में पैरेंट्स हजार बार सोचेंगें कि हमारे घर की इज्जत के साथ भी वैचारिक बलात्कार हो सकता है.और अगला नाम क्या होगा यह कोई नहीं जानता, बार बार यह कहना कि अरे हो गया लोग जो कह रहे हैं कहने दो हमें कोई फर्क नहीं पडता.बेटियां सब जानती हैं. साहब सच्ची बात तो यह है कि हर सोनम गुप्ता का पिता भाई और पति कुछ पल के लिये झेप जाता होगा,यदि इस तरह के मुद्दों में यह नाम बार बार उसके सामने सुर्खी बनकर आता होगा. जब कोई यह कहता है कोई बात नहीं "इट्स ओके" तो यह मान कर चलिये कि उसका सब कुछ ओके नहीं है.यह एक मात्र घटना नहीं है.यदि हम इस घटना पर मौन हैं तो यह तो तय है कि अगला नंबर हमारे घर के बहन बेटी और मां का लगने वाला है. इस प्रकार की प्रसिद्धि किसी काम की नहीं है.इस मुद्दे में महिला समूह,उनसे जुडे हुए संस्थाये जिस चुप्पी को साधे बैठी हुई हैं वो हृदय विदारक है.यह किसी वैचारिक अत्याचार कम नहीं है.कभी कभी तो मै यह सोचता हूं कि सोनम गुप्ता तो इस मुद्दे में क्या सोचती होगी.कि अपने ही घर में अपने ही समाज में हमें नोटों में एक प्रेस नोट बनाकर छॊड दिया गया.हमने किसी से प्यार किया या नहीं किया हमारी प्राइवेसी को सार्वजनिक कर दिया गया. उसके बावजूद भी हमारे आसपास के भाई पट्टीदार और हमारी सुरक्षा के लिये प्रतिबद्ध संस्थायें भी इस लिये मौन हो गई क्योंकि हम से उन्हें कोई फेम नहीं मिलने वाला था. कोई लोकप्रियता नहीं मिलेगी. हमें सोशल मीडिया में सोसाइटी से उठा कर मजाक और घिनौने आनंद का हिस्सा बना लिया गया.एक खिलौने की तरह हमें खेलकर हमारी धज्जी धज्जी करके हाथ का मैल "रुपया पैसा" बनाकर सडक में फैंक दिया गया. वो भूल गये कि जिन्होने यह हरकत की कि आज तो सोनम गुप्ता है कल कोई और इसी तरह वैचारिक बलात्कार का हिस्सा बनेगी.और हमारा समाज हाथ में हाथ धरे अपनी बारी का इंतजार करता रहेगा.एक रात में मुझे मिस वर्ल्ड या सेलीब्रेटी बना दिया गया।मतलब यह कि मुझे अपनी अंदरूनी आग को भडकाने के बहाने पेट्रोल के रूप में उपयोग किया गया.लोगों की इस प्रवृति को रोकने की बजाय लोगों ने खूब उछाला.आखिर कब तक मेरा इस तरह जीना दूभर होता रहेगा.मै इस बात से आत्म हत्या भी कर सकती थी.किंतु इस लिये कदम रुक गये कि मेरे पिता का उसके बाद क्या होगा जब लोग कहेंगें कि इसी की बेटी असली सोनम गुप्ता रही होगी.इस लिये जब इसका जवाब मेरे पास भी नहीं इस लिये मै सिर्फ यही कह देती हूं कि लोगों का यही काम है वो कहते रहते हैं. लेकिन मै यह जरूर भगवान से प्रार्थना करूंगी कि दोषी को सोनम गुप्ता का पिता भाई और पति जरूर बनाये.इस जनम या अगले जनम इससे मुझे ज्यादा फर्क नहीं पडता, बालीवुड से शुरू हुई यह प्रथा कहीं ना कहीं आज सोशलमीडिया की नाक बनकर कटने के लिये सामने खडी है.
दुराचार का यह रूप बलात्कार के दैहिक रूप, ऐसिड अटैक,और यौन शोषण से ज्यादा दुष्कर है. पहले इस दंश की पीडा,फिर न्याय के गुहार के लिये पीडा और संघर्ष,और अंततः क्लेश के वजह से आत्महत्याकरने के बाद माता पिता के दिल में गिरने वाली चट्टान,एक बार विचार करके देखिये कितना दर्द है इस दर्दनाक सोशल मीडिया की करतूत पर,नोट में लिखकर इस किरदार इस नाम को भले ही अप्रत्याशित शेयर मिला हो,मीडिया को अप्रत्याशित टीआरपी टेलीवीजन रेटिंग प्वाइंट मिली हो. परन्तुयह ठीक उसी तरह लिखा गया जिस तरह की कोई हर दीवार में यह लिख दे "आप अपने मां- बहन- बेटी" के बलात्कारी है.और समाज आपको मुंह दिखाने लायक ना छॊडे.प्यार में किसी को छॊड देने को बेवफा कहना पुराने जमाने की बातें हो गई पर उस समय पर भी यह लिखा गया कि "जरूर कोई मजबूरियां रही होगी तेरी सनम, वरना यूं ही तू बेवफा नहीं होती",.आज इसके मायने जिस्मानी रिश्तों की दहलीज के दायरे में आगये हैं. महिला संगठन,एनजीओ,सुधार ग्रह और संस्थाये,इस प्रकार के मामलों में अगर चुप्पी साधे बैठी हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि हम सब मौन साध लें मौन ही अंतिम स्वीकृति होती है.हमारी जिम्मेवारी बनती हैं कि ऐसे यूजर्स को ब्लाक करने या उसका एकाउंट बंद करने की पहल करनी चाहिये.हमारा यह कदम समाज की चुप्पी टोडने की एक पहल तो हो ही सकता है. क्योंकि हमारे समाज में हमारे  परिवार में स्त्री हर रिश्तें में हमसे गहरा संबंध रखती है.इस लिये ऐसे भ्रामक और नीचता वाले प्रचार प्रसार को अपने मजबूत निर्णयों के माध्यम से बंद करे.ताकि उपर्युक्त नाम जैसे और किसी बहन बेटी और अन्य रिस्तों की धज्जी ना उडाई जाये सरे राह सरे चौराहे और सरे सोशल बाजार में.हमारे घर की इज्जत घर की ही नहीं हमारे समाज की भी मर्यादा है.सोशलमीडिया के बाजार में यह नीलाम हो यह तो किसी भी अभिभावक को गंवारा नहीं होना चाहिये.क्योंकि वह भी कभी किसी सोनम का पिता भाई और पति तो बनेगा ही.

अनिल अयान,सतना

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

नमक से नमकहरामी

नमक से नमकहरामी
देखते ही देखते नमक का नमकीनपन छिनने लगा.एक ही रात में नमक २०० रुपये से ३०० रुपये किलो क्या बिका सभी लोग बोरियों में नमक रखकर सुकून की नींद सोने की तैयारी करने लगे स्वतंत्रता पूर्व एक बार महात्मा गांधी ने नमक के कर को समाप्त करने के लिये अंग्रेजी हुकूमत से लडने हेतु डांडी यात्रा की और देश को नमक के नमकीन स्वाद को और बढाया था.पर यहा तो नमक से ही तथाकथित लोग नमकहरामी करने के लिये उतारू हो गए. कभी कभी तो मुंशी प्रेमचंद्र के द्वारा लिखित कहानी नमक का दरोगा की याद आ जाती है.वैसे तो वो बेचारा अंततः पंडित अलोपी दीन के साथ होने को मजबूर हो जाता है.किंतु यहां तो ऐसे कथानकों की फौज खडी नजर आई जो कालाबाजारी और जमाखोरी के जरिये नमकहरामी करने की जुगत में लगे हुए थे.चाहकर भी जनता इनके चक्रव्यूह से बाहर ना आसकी।भ्रम का ऐसा मायाजाल इन्होने फैलाया कि लोग नमक के लिये भी तरसने को मोहताज हो गये.दिल्ली उत्तर प्रदेश और बिहार सहित उत्तर भारत के लगभग छ राज्यों में जिस तरह की नमक के नाम पर लोगों के घावों में नमक की नमकीन सतह लगाई गई वो चर्चा का विषय बन गया था. मीडिया ने भी इस नमक को अपनी पानी दारी से धुल ना सकी,उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो नमकीन राजनीति करके यह भी बता दिया कि इसमे कहीं ना कहीं तथाकथित भाजपा और उनके समर्थकों का हांथ है ताकि नोटफ्लू और नोट बंदी के प्रभाव से ध्यान हटाया जा सके।
लोग जिस तरह जमा धन को निकालने के लिये पसीना बहा रहे हैं। उसी तरह लोग नमक खरीदने के लिये किराने की दुकानों में घूमते नजर आये.पर इस पर यकीन कर पाना कैसे संभव हैं जब भारत दुनिया में नमक उत्पादन और विक्रय में टाप पांच देशॊं की सूची में अपना स्थान बनाये हुये हैं.साथ ही साथ उसके उत्पादन का  वार्षिक टर्न ओवर ३ हजार करोड टन से ज्यादा है.अब देखने वाली बात यह है कि क्यों इस तरह की भ्रमयुक्त बातें जनता के पास तक पहुंचाई गई.क्या मीडिया इसमें योगदान नहीं दे रहा है.क्या राजनेता और बडे व्यवसाई पंडित अलोपीदीन का सम्राज्य दोबारा खडा हो रहा है. प्रेमचंद की कथा इस देश की वास्तविक स्थिति को घेरने के लिये दोबारा आतुर नजर आई.कुल मिलाकर इस तरह की घटनायें देश में कालाबाजारी और जमाखोरी की आवोहवा को बढाने का काम करती हैं.चाहकर भी कोई आम जनता को सुकून से जीने नहीं देना चाहता है.नमक के बहाने जनता के साथ गुस्ताखी करने की जहमत उठाकर एक और मुद्दे को गर्म तवें में परोसा जा रहा है.अब तो जनता जिस तरह परेशान है वह आशंकाओं के चक्रव्यूह में फंस कर कुछ भी कदम उठा सकती है.परन्तु बडी नोट को रद्दी में बदलने से पूर्व जनता लाइन में खडे होकर सरकार के निर्णय को सही भी ठहरा सकती है.किंतु सफेद नमक के काले रूप को कैसे बर्दास्त करे.जनता के लिये इस समय जो आर्थिक आपातकालीन स्थितियां बनी हैं उस बीच  काला बाजारी और और जमाखोरी को रोकने वाले नियामक और उनसे संबंधित नियम कानून ऐसे सोते हुए क्यों नजर आ रहे हैं जिसकी नाक के नीचे नमक से नमक हलाली घट गई.क्या नमक के दरोगे कहानी की तरह प्रशासन भी अलोपी दीन जैसे किरदारों की जागीर बनकर रह गया है.क्या यह शीतकालीन सत्र के समय उठने वाले सदन के भीतर के तूफान की आशंका है.इन सब प्रश्नों के जवाब खोजना ही होगा।
नमक तो एक मात्र सामान है.यदि राजनीति इसी तरह हावी रही तो आर्थिक के साथ साथ गृहस्त जरूरतों का आपातकाल ना शुरू हो जाये.नमक शक्कर,तेल आदि मूल भूत रसोई के सामानों को सामान्य रूप से पूर्ति बनाये रखना ही इसका मुख्य रास्ता है.उपभोक्ता और रिटेल मार्केटिंग से जुडे नियामकों को इसमें नजर रखने की आवश्यकता है ताकि इस प्रकार की स्थिति ना पैदा हो.भले ही हमारे पडोसी राज्य में चुनाव है तो इस प्रकार की स्थितियों से हमें रूबरू होने की आदत हमें डाल लेना चाहिये किंतु यदि हमारे राज्य में चुनाव की स्थिति में ऐसे दर्शन देखने को मिलेंगें तो कैसा महसूस होगा.अर्थ में अपना अर्थ खोजती आम जनता फिलहाल तो अपने अर्थ को सही ठिकाने लगाकर रोजाना रोजमर्रा की जरूरतों को सुलझाने में जुटी है.इसलिये संवैधानिक पद और समाज की चेतना ही इस तरह की अफवाहों और आशंकाओं का निवारण करा सकती है.हमारी चेतना ही हमें यह समझने के लिये समय देगी कि हमारे आसपास क्या हो रहा है और हमें उससे कैसे निपटना है.इसलिये नमक की कालाबाजारी और जमाखोरी को हम सब मिलकर शासन की मददसे छुटकारा पासकते हैं.हमारे बीच में बहुत से कथानक अलोपीदीन मौजूद हैं उनको खोजकर बेपर्दा करने की बस देर हैं.और नमक से नमकहरामी को रोकने की पहल करने जरूरत है।
अनिल् अयान
९४७९४११४०७

ayaananil@gmail.com

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

भैया चुप रहो ! सियासत हावी है

भैया चुप रहो ! सियासत हावी है
दीवाली चकाचौंध में और पटाखों की गूंज के बीच, झीलों की नगरी और मध्य प्रदेश की राजधानी में, जिस प्रकार नाटकीय अंदाज में सिमी के खूंखार आतंकियों का हमारे राज्य की पुलिस ने चौबीस घंटे से भी कम समय में मामला रफा दफा किया। वह वाकयै काबिले तारीफ हैं। यह घटना पूरे देश को अपने केंद्र में समेट ली.राजनैतिक पार्टी दीवाली की स्याह अमावस में भी स्पष्टद्रष्टा बन गये। देश के शुप्तावस्था में पडे नेता अपने अपने दल बल के साथ सरकार की इस प्रशंसायुक्त कार्य में दाग ढूंढने या यह कहूं कि कोलतार की मदद से दाग लगाने की मैराथन दौड में ऐसे आगे आने की कोशिश करने लगे मानो यूपी की रामलीला के साथ एम.पी की रामलीला का पटाक्षेप वही करेंगें।वहरहाल माहौल तो उनके मरने से इतना गर्म नहीं हुआ जितना कि सियासत के हावी होने से हो चुका है.सच जानने की बजाय केंद्र से जांच कमेटी बैठाने और निष्पक्ष जांच करने के लिये केंद्र की भाजपा सरकार से गुजारिस की जा रही है.अब देखना यह है कि सरकार किस तरह अपने अधीनस्थ और भाजपा की मजबूत शिवराज सरकार के जेल मंत्रालय की जांच बैठाती है.मध्यप्रदेश के जेल मंत्रालय की तो पहले ही घिघ्घी बंधी हुई है इस लिये वो चुपचाप अपनी गलती को और लापरवाही को कुबूल कर लिया है पहले ही और बाद में पुलिस की उस टीम को शाबासी दी जिसने यह कृत्य अथवा विपक्ष की नजर में कुकृत्य किया है. देखिये साहब हम ठहरे आम जनता ,अब हम तो यह कह नहीं सकते कि यह एनकाउंटर फर्जी था.जो इस विषय के ज्ञाता है वो तो मीडिया में गोहारी मार मार कर चिल्ला रहे हैं कि यह फर्जी एनकाउंटर था.सरकार ने गुजरात का विकास माडल अपनाया है.वहां भी इसी तरह कुछ सालों पहले फर्जी एनकाउंटर करवा के सरकार ने खूब रस मलाई झेली है.और पुलिस वाले अफसरों के कंधों के स्टार बढाये हैं. इसलिये यह समझ में आता है कि भैया देश की सियासत चल रही है अर्थात जनता पर हावी है इसलिये मैया चुप रहो।
ऐसी घटनाये कभी कभी हमें अंदर से सोचने के लिये हिलाती जरूर हैं.हमारा अंतस ना जाने क्यों कुछ ना कुछ अस्वीकार कर देता है.देखता कुछ और है और सोचता कुछ और है और पूंछता बहुत कुछ है।इस ट्वेंटी ट्वेटी के मैच की तरह के एनकाउंटर में मारे गये सिमी आतंकियों का हूरों से मिलाप करवाना तो हमारे लिये फायदेमंद ही था.कोर्ट में होता तो उनको अभी कई साल और वंचित होना पडता अपनी पसंद की हूरों से.किंतु एनकाउंटर के पूर्व की लापरवाहियां और बाद की तेजगी दोनों विरोधाभाष के रूप में सामने आकर खडे हो जाते हैं.पूर्व की लापरवाहियों की वजह से कहीं ना कहीं जेल के सिस्टम का पोस्ट मार्टम करने का मन करता है और बाद की तेजगी के लिये पुलिस की पीठ को कूटने का मन करता है. मेरे जेहन में जो विचार सवाल के रूप में कौंधते हैं उनको मै आपके सामने रखना चाहता हूं. राजधानी की जेल के कैमरे से लेकर डिजिटल सिस्टम क्यों फेल था?जेल की एमरजेंसी ड्यूटी और कर्मचारी इतने लाचार कैसे थे?पेट्रोलिंग टीम कहां गुम गई थी? जिन आतंकवादियों की पेशी भी वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये होती थी (वकील आयेशा अकबर के अनुसार) निगरानी को को धूल झोंक कर ऊंची दीवाल कैसे कूद गये.उनको जरूरी हथियार कैसे उपलबध करवाये गये? रात में दो बजे से भागे आतंकवादी चार घंटे में मात्र दस किलोमीटर का सफर पहाडियों तक ही तय कर पाये.उन्हे तो शहर से बाहर जाना चाहिये? पुलिस ने उन्हें जिंदा क्यों नहीं पकड सकी? शहीद होने वाला पुलिस कर्मी एक ही निकला,क्या भा़गते समय अन्य पुलिस कर्मी उनके सामने नहीं आये उनको चोंटे क्यों नहीं आई? सबसे बडे यक्ष प्रश्न जो दिमाग की बत्ती जलाते हैं वो है कि सभी एक साथ एक जैसे कपडे पहन कर टोली में क्यों गये. अलग अलग भाग कर एक निश्चित समय में एक स्थान में मिलते फिल्मों में हमने देखा है.जेल में तो कैदियों के कपडे अलग होते हैं तो फिर उन्हें उनके व्यक्तिगत कपडे मिले कैसे? क्या जेल में भी उनसे घूसखोरी की गई थी? एनकाउंटर का वीडिओ बनानेवाला क्या पुलिसवाला ही था? या उसे वीडियो सूटिंग के लिये ही रखा गया था? क्या इतना समय पुलिस को था? और अभी के लिये अंतिम प्रश्न फिलहाल जिस जेल पुलिस ने आतंकवादियों को जेल के अंदर रोकने के लिये पहल नहीं की वो वीडियों के अनुसार बहुत नजदीक से गोलिया दागने का अनुशासन और साहस कैसे जुटा पाई? वाकयै मित्रों हमारी पुलिस व्यवस्था और जेल प्रहरियों की इस लापरवाही और एनकाउंटर के समय मुस्तैदी और जाबांजी को मै भी सलाम करता हूं
इस प्रथा से जहां एक ओर हमारी जेलों में फिल्मिस्तान वाला सिस्टम लागू होने कीमहक आती है जिसमें नो एफ आई आर,नो इनवेस्टीगेशन,फैसला आन दा स्पाट,विथ लाइव वीडियों, और दूसरी तरफ अव्यवस्था,लापरवाही,फर्जीपन का दंश,और सियासी शतरंज के मजबूर प्यादे बनने के की बदबू भी आरही है.कुल मिलाकर जेल विभाग और पुलिस विभाग इस घटना और एनकाउंटर के बाद सरकार की और अन्य राजनैतिक पार्टियों की सियासी महत्वाकांक्षाओं की बलि के रूप में चढती नजर आरही है.रही बात जांच कमेटी और जांच की जिसकी सिफारस विपक्ष पार्टियां कर रही हैं. वो तो सियासी काम है उसमें हमारा क्या दखल.हां लेकिन यह तो सच है कि अगर कमेटी बैठे तो उन्हें इन प्रश्नों को ढूंढने में मदद करनी चाहिये अपने देश की परिस्थितियों के प्रति नजर रखने वाले युवाओं के जेहन में ये प्रश्न जरूर गूंजे होंगें.हो सकता है कई लोग इसके जवाब भी जान चुके हों किंतु कुछ काम हमें जांच कमेटियों के लिये भी छोड देना चाहिये.इस प्रथा से यदि फर्जी का अस्तित्व खत्म हो जाये तो देश हित में है और अगर फर्जी शब्द का अस्तित्व बढता है तो मात्र सियासी सतरंज की चाल के रूप में जनता के सामने आयेगा.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७


नोटों के खेल में जनता बनी रखैल

नोटों के खेल में जनता बनी रखैल
विगत रात से पांच सौ और एक हजार की करेंसी का कागज के रूप में परिवर्तित हो जाना, भारत की अर्थव्यवस्था के लिये अगर बेहतरी का संकेत बनकर आयेगी तो जनता के लिये आने वाले सन दो हजार सोलह के अंतिम महीने मुसीबत का पहाड लेकर आयेंगें. हम तब भी खुश हुये की चलो किसी तरह काले धन का ऊंट पहाड के नीचे तो आयेगा. किंतु हमने ऊंट पाला ही क्यों भाई और अगर पाला तो फिर उसके पहाड के नीचे आने का इंतजार करने की क्या मजबूरी थी. बहरहाल अब देखना यह है कि ऊंट बैठेगा तो किस करवट बैठेगा. किंतु जब माननीय प्रधानमंत्री जी और वित्त सचिव के बयानों के बाद उठी आर्थिक सुनामी ने जनता की अर्थव्यवस्था के त्राहि त्राहि की स्थिति बन गई है. दोनों करेंसी का अचानक एक साथ ही चलन से हटा देना हाहाकार मचा चुकी है.कहने को यह विचार और उद्देश्य देश की भलाई के लिये है. लेकिन आने वाली जनता की परेशानियां कम होने का नाम नहीं लेंगीं. राजधानी से बैठकर ऐसे फैसले किस तरह देस के आम नागरिकों की जेब और मेहनत की कमाई पर शासन करते हैं इसका नमूना इस फैसले से देखने को मिल गया है.बार बार यह कहना कि इस निर्णय से देश में मुद्रा का चलन और बढेगा.बैंक में करेंसी का जमाव होगा और काला धन निकल कर सरकार की नजर में आयेगा आदि जुमले क्या साकार हो पायेंगें.सरकार को भी यह पता है कि हमारे देश में काला धन जमा किया गया है जो असंवैधानिक है. परन्तु उन पर कार्यवाही करने की बजाय मौका दिया जा रहा है कि आओ और काले धन को सफेद धन में बदलाव करो और फिर काला धन बनाने की होड में लग जाओ. उद्बोधनों में बार बार इस बात का जिक्र आना कि काला धन इस माध्यम से बैंको तक पहुंचेगा.यह साबित करता है कि सरकार ही काले धन का पोषण करना चाहती है. इस प्रकार काले धन के गेहूं के साथ आदेश की चक्की में जनता जैसे घुन भी पिस जायेंगें/. पूर्व में मोरार जी देसाई सरकार ने एक हजार की नोट बंद करने का ऐलान किया था और कांग्रेस सरकार ने पचीस और पचास पैसे के सिक्कों को चलन से बेदखल कर दिया था. उस समय इतनी समस्याये नहीं थी. मीडिया भी उस समय इतना सक्रिय नहीं था.
आज देश की जनसंख्या लगातार बढ रही है.समाज का हर तबका विशेष रूप से गरीब और मध्यम वर्ग रोजगार में लगकर लेनदेन कैश में करने का आदी हो चुका है.एक गरीब के पास मजदूरी के पांच सौ और एक हजार के नोट उपलब्ध होते हैं. बैंकों के बंद हो जाने के बाद सरकार के द्वार शाम को घोषणा करना, महीने की ७-१० तारीख का इस हेतु चुनाव करना औपचारिक और अनौपचारिक रूप से जनता की कमर टॊडने की पहल जैसे ही लगी.यह वही समय था जब अधिक्तर नौकरी पेशे के लोगों के पास तनख्वाह आती है.इन्ही महीनों में पारिवारिक कार्यक्रम होते हैं.इन्ही महीनों में खरीदारी होती है.अक्टूबर के महीने में दो त्योहार होने के बाद नवंबर माह में हर परिवार की आर्थिक स्थिति जितनी कमजोर थी उस पर इस फैसले का बिल्कुल विपरीत प्रभाव पडेगा. नौ तारीख को बैंकरों का बंद होना, एटीएम का बंद होना. और आगामी दिनों में छुट्टी का आना मुसीबत का सम्राज्य लेकर जनता के लिये आने वाला है.काला धन कितना आने वाला है इससे जनता का कोई सरोकार नहीं है. जनता को तो अपनी मुसीबतों से दो दो हांथ करना है मुझे इस बात की खुशी है कि चलो जनता से किये वायदे पर मोदी जी ने ऐसा कदम उठाया कि जनता को भी याद आ जाये कि अगर मोदी सरकार बनी तो हर खाते में सत्रह लाख जमा कराये जायेंगें और सौ दिनों में काला धन वापिस लाया जायेगा. जनता के बढती आर्थिक मुसीबतों के बीच नई करेंसी का आना अच्छे बदलाव के संकेत हैं.जनता को भी नई नोटों से सामना करने का मौका मिलेगा.किंतु एक हजार रुपये को चलन से समाप्त करना आर्थिक स्थिरता को और जटिल बनाना ही है.काला धन आने का स्रोत क्या है.उन स्रोतो को बंद कैसे किया जायेगा.काला धन रखने वालों को क्या सजा होगी. काले धन को सफेद करने के अर्थव्यवस्था के कौन से क्षेत्र हैं और सबसे बडी बात भारतीय उद्योगपति ब्यूरोक्रेट्स और राजनीतिज्ञ काला धन बनाने के आदी क्यों हुए.इन्हें कैसे रोका जाये इसके बारे में कोई रास्ता सरकार ने नहीं दिखाया.काले धन के चक्कर में लो जी जनता को मार झेलनी पड रही है.
नई करेंसी लाने के लिये पांच सौ और एक हजार की नोट को एक साथ चलन से हटाना जनता के साथ सरासर अन्याय है.क्रमश: मुद्रा को चलन से हटाना जनता की मुसीबतों को कम कर सकता था.यह फरमान तुगलकी फरमान की तरह जनता के ऊपर प्रभाव डाल रही है.इसके अलावा नोटों को जमा करना और स्थानांतरित करने के लिये बैंकों के अलावा सहकारी सोशायटी, ग्राम पंचायतों और ब्लाक के सुनिश्चित कैंप लगाकर सरकार को जनता की मुसीबतों को कम करना चाहिये. आम जनता से यह उम्मीद करना कि वो पांच सौ एक हजार के दम पर काला धन लाने में मदद कर सकते हैं. तो यह सरकार का भ्रम हैं.काले धन को ना ला पाने के लिये इस तरह का तुगलकी फरमान कहीं ना कहीं आम जनता के कंधे में बंदूख रखके काले धन्नासेठों को बचाने की पहल तो नहीं हैं? जनता अब नोटों के खेल में सरकार की रखैल बन कर रह गई है.अब देखना यह है कि उपर्युक्त उल्लेखित ऊंट आने वाले समय में किस करवट में बैठता है यह देखने का समय है.क्योंकि हम सबने देखा है कि सरकार के खिलाफ उठने वाले विरोधी सुरों को रोकने के लिये उनको बंद नहीं किया जाता बल्कि देश के सामने नये मुद्दों को रख दिया जाता है जिसकी वजह से सरकार के खिलाफ सुर बंद हो जाते हैं. उठे हुये मुद्दों में सब उलझ जाते हैं.बहरहाल सरकार की नई करेंसी लाने की नीति स्वागत योग्य हैं किंतु इस माध्यम से बढी जनता की मुसीबतों का आंकलन अगर राजधानी में बैथकर किया गया है तो वह सरासर जनता के साथ अन्याय हुआ है.रहीबात काले धन की तो इस माध्यम से काले धन और उनके धन्नासेठों के धन को निकाल पाने का भ्रम और काले धन बनाने की फैक्ट्रियों पर लगाम लगाने की कोशिश सफलता नहीं दिला पायेगी. अब तो हमें भी एटीएम से नई कडक कडक नोटों के निकलने का इंतजार है.
अनिल अयान सतना

९४७९४११४०७