शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

एक और "अनुशासन पर्व"

एक और "अनुशासन पर्व"
नोटों के विमुद्रीकरण का प्रभाव कम हुआ ही नहीं कि सरकार के औचक फैसले कहीं ना कहीं पर नागरिकों को आश्चर्य में डाल रहीं है.विनोवा भावे आज अगर होती तो निश्चित ही इस लहर को एक और अनुशासन पर्व का नाम जरूर देती.विमुद्रीकरण से ना उबर पाने वाली जनता और बैंक अब इस बात का हिसाब लगायेंगें कि किस लाकर में कितना सोना भरा हुआ है.पुस्तैनी से लेकर अपनी गाढी कमाई से खरीदा गया सोना भी अब सरकार को काले धन की बदबू फेंकता नजर आने लगा.वैसे सरकार ने जो सोना रखने लिमिट तय की है वह कहीं ना कहीं आम जन पर मार कम पडने वाली है.परन्तु शादी और अन्य उत्सवों में आभूषणों के लिये खर्च किये जाने वाले सोने की दर परिवारों के लिये गले का फांस बनने वाली है.यह तो सच है कि सोना और चांदी हर घर में कुछ ना कुछ पुस्तैनी रूप से एक पीढी से दूसरी पीढी में स्थानांतरित होती हैं किंतु इसका पूरी हिसाब सरकार को दे पाना यथा संभव बहुत कठिन होगा.अब सवाल यह उठता है कि सोने के साथ साथ चांदी और प्लेटिनम और हीरे को क्यों किनारे कर दिया गया. क्या काला धन सिर्फ सोने के साथ ही बदला जा सकता.कहीं ना कहीं इनके साथ तटस्थ फैसला नहीं.कभी कभी तो लगता है.की हीरा भी एक माध्यम है जहां काला धन चमक के सामने सरकार को नहीं दिखाई दे रहा है.सोने के सामने अधिक्तर हीरे जवाहरात की भी जांच होनी चाहिये ताकि धन्ना सेठों की तिजोडियों की भी जांच होनी चाहिये.भगवान को दान दिये जाने वाले आभूषण और हीरे जवाहरात पर सरकार क्यों मौन हो जाती है.यह कैसा अनुशासन पर्व है.जिसमें सोने को अनुशासन में लाकर अन्य रत्नों और जवाहरातों को इसके बाहर कर दिया गया.
इंदिरा जी की एमर्जेंसी समय और अब का  आर्थिक एमर्जेंसी कहीं ना कहीं पर कई अर्थों में समता रखती हैं.इस अनुशासन में आम जन के साथ साथ राजनेता भी फरमान के दायरे  में आते जान पडते हैं.जबकी दायरे से वास्तविक रूप से बाहर हैं,मीसाबंदी का यह अनुशासन पर्व जेल भरो आंदोलनों से काफी दूर है.इसमें अर्थ को मूल मानकर सरकार काले धन की जुगत भिडा रही है.किंतु आज तक विदेशों का कालाधन हमारी नजर में नहीं आ पाया.क्या जन धन में कुछ रुपये की रेवडी बांट देने से यह विषय कहीं दब जाता है,क्या आम जनता की परेशानियों की माला बढने वाली है.यह तो आने वाला वक्त बतायेगा.किंतु सरकार के नियमों में हो रहे बदलाव,व्यवसाय को कैशलेस करने की कवायद कहां तक व्यवसाइयों और आम जनता के पक्ष में गई.इस बात को कोई नहीं समझ पाया है.सब सरकार को अपने पक्ष में मान कर सुखद भविष्य की आशा के साथ अपने दुखद वर्तमान को झेलने के लिये तैयार बैठे हैं,उपचुनाव के नतीजे इसके सबूत हैं.किंतु कैश लेस करने की कवायद में इससे जुडे उद्योग फले फूले हैं.किंतु आज भी एक महीने होने को हैं.किंतु बैंक के अधिक्ततर कर्मचारी जनता की विमुद्रीकरण सेवा में व्यस्त हैं.आम जनता आज भी लेश कैश के लिये एटीएम की राह तक रही है.अनुशासन की ऐसी कदमताल जल्दबाजी का परिणाम तो है ही.रही बात सोने की खपत को टैक्स की जंजीरों में कैद करने तो सोने के अलावा भी बहुत सी धातुए और रत्न हैं जिनका उपयोग काले धन को सफेदकरने के लिये हथियार के रूप में हो रहा है.उसे भी इस दायरे में आना चाहिये.जमीन भी कुछ इसी तरह का हथियार है.इनके साथ साथ विदेशों में छिपा काला धन कब जनता के सामने आयेगा.इसका इंतजार है.यही आर्थिक अनुशासन जनता के मन को धैर्य प्रदान कर रहा है.हमारा वर्तमान तो यही कह रहा है.कि चाहे जितना कैशलेस अर्थव्यवस्था की धुन छेडी जाये किंतु भारत की अधिक्तर जनसंख्या कैश के सहारे ही जीवन यापन कर रही है.काला धन कैश लेस अर्थव्यवस्था में आम जनता को ना उलझाये और काले धन के स्रोत को देश में घर वापसी करें यही सरकार का ध्येय होना चाहिये.

अनिल अयान,सतना९४७९४११४०७

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