रविवार, 12 फ़रवरी 2017

"प्रेम" खडा बाजार में खुद की मांगे खैर

चौदह फरवरी को हम सब जिस प्रेम की उपमाएं देते हैं। वो बाजरवाद से प्रेरित और पोषित है। फरवरी आते ही बासंती पवन इस प्रेम को जहां एक ओर प्रकृति से जोडने का काम करती हैं वहीं दूसरी ओर बाजार ने इस प्रेम को बाजार के चौराहे में खडा करके अपने फायदे के रास्ते खोजता है। यह सच है कि आज हम जितना पाश्चात संस्कृति की ओर अंधानुकरण करते हुए दौड रहे हैं उस दरमियां इस फरवरी का महत्व बाजार के लिये ज्यादा है। आज के इस युग में हर मानवीय रिश्ते के लिये बाजार ने एक दिवस निश्चित कर दिया है। बच्चे को ऐसी शिक्षा दी जा रही है कि वह अपने घर के गलियारे से लेकर स्कूल की क्लास रूप तक टीवी के सीरियल से लेकर सिनेमाघरों की फिल्मों तक आयातित मानवीय संबंधों का बाजारीकरण अपनी खुली आंखों से देख रहा है। आज के समय में परिवारों में जन्म दिन शादी की शालगिरह की तवज्जों इस लिये भी कम हुई क्योंकि इनका स्थान अब "डे" ने ले लिया है। आज अमुक डे हैं कल तमुक डे है। बच्चॊं से लेकर युवा तक इस रुपहले पर्दे के पीछे नेपथ्य में खडे ठहाके मारते बाजार को पहचानने में धोखा खा रहा है।
आज के समय में प्रेम की परिभाषा मात्र अफेयर्स के केद्र के इर्द गिर्द घूमती है। जो लोग इसका मर्म ना समझ पाये वो इसकी मार्केटिंग कर रहे है। जिन लोगों ने रहिमन धागा प्रेम का मत टोडो चटकाय, ढाई आखर प्रेम का पढे जो पंडित होय, प्रेम गली अति सांकरी आदि उक्तियों और दोहों के अर्थ को न समझा उनके हांथों में दिल का बाजार खडा है।आज के समय में तोह्फों का लेनदेन ही सर्वोपरि हैं। तोहफों की कीमत ने बाजार के पखवाडे को करोडों से ज्यादा की सीमा पार कर दिया है। आज का युवा मन बाजार की इस भागंभाग के साथ इतना व्यस्त हो गया है कि समय सापेक्ष मुद्रा और रिश्ते के बीच विभेद करना भूल चुका है। परवरिस में भी हमने हर चीज को अमूल्य की जगह मूल्यवान बना लिया है। हम हर रिश्ते और उसके हर आयाम को मूल्य से तौलने लगे हैं। मंदिरों में रखे गुलाब की कीमत उतनी नहीं है जितनी कि फरवरी के इस पखवाडे में बिकने वाले गुलाबों की किस्मों की तय होती हैं। आज के समय की मांग है कि हम हर रिश्ते को भावनाओं की दौलत से नहीं उपहारों की दौलत से मांपें। कौन सा व्यक्ति कितना मंहगा उपहार दे रहा है उसकी कीमत उपहारों की कीमत से करें। किसी ने अगर पत्र या फोन में दो प्रेम की बात कर ले तो उसकी कीमत इस लिये नहीं होती क्योंकि वो कोई मूल्यवान उपहार नहीं दिया.लोगों ने मलिक मोहम्मद जायसी,मीरा, उपेंद्र नाथ, अमृता प्रीतम, कमलेश्वर,महादेवी आदि की रचनाओं और इनके मर्म को नहीं जाना किंतु,इनके लिखे हुए पर अभिनय करने वालो कॊ बखूबी पहचानते हैं। समय ने जिस वस्तु या विषय का मीडिया में विज्ञापन किया लोगों ने उसे खुले हांथों से स्वीकार किया।
प्रेम की अनुभूति किसको किससे कितनी है।इससे किसी का कोई वास्ता नहीं है।वास्ता है कि अमुक को तमुक से कितने गुलाब किस रंग के गुलाब और कितने मंहगे गुलाब मिले, या फिर अमुक ने तमुक को कितना मंहगा उपहार दिया। कितने मंहगे रेस्टोंरेंट में रात्रि का कैंडलनाइट डिनर कराया। यह सब प्रेम को परखने की श्रेणियां हैं। आज के समय में नॆटवर्किंग साइट्स ने बाजार का साठ प्रतिशत हिस्से को अपने प्रचार प्रसार से प्रभावित किया है। कोई भी दिवस हो कोई भी त्योहार हो किंतु बाजार की दिशा और दशा यह भी तय करने में माहिर साबित हुआ है। लोग सोनी महिवाल हीर रांझा को कितना जानते हैं भारतीयप्रेम कथाओं के इतिहास को कितना समझते हैं। इससे बाजार को कोई मतलब नहीं है। पुरातन काल से प्रेमी का प्रेमिका के लिये इतजार करना, पत्नी की जादू की झप्पी, मां का बेटे के गालॊं पर प्यार की चपत, पोती का दादी और नानी को प्यार से गले लगाना,और बहन का भाई की बांहों में सुकून पाना भी प्रेम की एक पराकाष्ठा हो समाज में रखता है।इसके लिये कोई दिन समय और घडी नहीं निश्चित की गई है। इसके लिये कोई दिन निर्धारित नहीं हुए। इसके लिये दिलों ने मूल्य निर्धारित नहीं किये। अंतर्मन की ललक ने जब अंगडाई ली तभी इन रिश्तों में प्रेम दिवस प्रणय दिवस मन जाता है। यही माहौल अगर चलता रहा तो यह तय है कि समाज में आने वाला वक्त बाजार की गिरफ्त में होगा। जिसके हांथ और दिमाग निर्णय लेंगें कि किस रिश्ते को कम पैदा करना है और कब स्वाहा करना है। हमें इस बाजारवाद के मनोवैज्ञानिक चक्र व्यूह से आगामी पीढी को बाहर निकालने के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है।
अनिल अयान
९४७९४११४०७