शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

समय होत बलवान

समय होत बलवान
योगी आदित्यनाथ जी के मुख्यमंत्री बनने से अब सुनने और महसूस करने से समझ में आने लगा है कि राम मंदिर और बाबरी मस्जिद मुद्दे को दोबारा हवा देने के राजनैतिक कयास लगाये जा रहे हैं। हालांकि मामला सुप्रीम कोर्ट में अभी भी लंबित है। किंतु इस प्रकार के विषयों को राजनैतिक रंग प्रदान करना कहीं ना कहीं समाजिक समरसता के लिये प्रश्न चिन्ह लगा सकते हैं। लगभग अडसठ साल गुजरने को है किंतु इस राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विषय ने उत्तर प्रदेश को हर वक्त गर्म रखा है। नब्बे के दशक की देशव्यापी रथ यात्रा की शुरुआत ने भाजपा के लिये वोट बैंक का काम की। सन बान्नवे में बाबरी मस्जिद का ढहाना और न्यायमूर्ति लिब्रहान की अध्यक्षता में आयोग का गठन, सन दो हजार दो में ए,एस.आई की जांच,और दोहजार दस में हाई कोर्ट का फैसला जिसमें विवादित स्थान को तीन भाग में बांटने की बात कहीं। सन ग्यारह के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय को स्टे के फ्रीज प्वांइट में डाल दिया है। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की पेशकस करते हुये यह शर्त रख दी की अगर दोनो पक्ष तैयार हों तो कोर्ट के बाहर कोर्ट मध्यस्थता करने के लिये तैयार है। परन्तु यह संभव ना हो सका। इस समय चक्र के फेर ने नौ बार सुलह की कोशिशें नाकाम हो चुकी है। माननीय बाजपेयी जी तक इन दोनोपक्षकारों को एक मंच में नहीं ला पाये।
अबकी बार मामला और तूल पकड कर राजनैतिक हो गया जब एक तरफ सुप्रीम कोर्ट ने दोनो पक्षों को सुलह के रास्ते में सरकार के सहयोग की अपील कर रही थी वहीं दूसरी ओर से सुब्रमण्यम स्वामी जी ने अपना नया राग अलाप दिया कि मस्जिद सरयू पार बनायी जाये। एक तरफ दो हजार अठारह में राज्य सभा में बहुमत की आश लिये कानून बनाये की बात करती है और शीर्ष न्यायालय अब भी सुलह की राह खोजती है। चेतन भगत से लेकर उत्तर प्रदेश में इस मामले में राम मंदिर बनाने के नारे ज्वलंत हो रहे हैं। राजनैतिक रंग देते हुये जिस तरह पोस्टरों में मुस्लिम संप्रदाय के मौलाना काजमी को स्थान देकर एक और राजनैतिक खेल खेला गया। वह वहां के माहौल के लिये नितांत आपत्ति जनक था। मौलाना साहब तो सरे आम खुद को इस मुद्दे से कोसों दूर कर रहे हैं। पोस्टर में उनकी तस्वीर के जरिये संप्रदाय को राम मंदिर के पक्ष में लाने की बात मात्र राजनैतिक शरारत बता रहे हैं।दोनो पक्षकारों ने सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को खत लिखकर कुछ बातें लिखी जिसमें चार शर्तों में दोनों की सहमति है। पहली शर्त यह है कि उसी दो दशमलव सात एकड जमीन पर राम मंदिर और बाबरी मस्जिद बने।दूसरी शर्त सुलह की पहल के लिये केंद्र अपने नुमांइंदे भेजे। तीसरी शर्त सुब्रमण्यम स्वामी और हाजी  महबूब जैसे विवादित बयानवाजों को इस विषय से बहुत दूर रखा जाये।चौथी शर्त यह है कि अयोध्या में दोनो पक्षकार एक साथ बैठें।और कोर्ट के जरिये फैसला किया जाये। इस सुलह के लिये कांग्रेस भी समर्थन करती नज्र आती है। एक तरफ सुब्रमण्यम स्वामी अपने पूजा के अधिकार का हवाला देते हुये नये रंग देने का प्रयास करते हैं। तो दूसरी तरफ शत्रुधन सिन्हा अपनी ओअर ए एन आई को यह कहते हैं कि ऐसी भी क्या जल्दी है अभी सब कुछ आराम से चल रहा है।सुख शांति तो बनी हुई है। कहकर मामले को और कुछ समय के लिये कोर्ट की छांव में विश्राम करने देना चाहते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि देश में सर्वोत्तम पार्ट की रूप में भाजपा राम नाम जपते जपते पहुंच गई। उत्तर प्रदेश में भगवा मुख्य मंत्री जी अपनी सत्ता में है। भाजपा भी राममंदिर को वहीं बनाने की बात तो करती है किंतु न्यायपालिका के विरोध में यह काम कब शुरू होगा इस पर दस कोस पीछे कदम कर लेती है। क्या इस विषय का आउट आफ सुप्रीम कोर्ट कोई सुलह होने की गुंजाइस है। क्या वाकयै सरकार इस विषय को सुलझाना चाहती है। अगर राम मंदिर और बाबरी मस्जिद में से एक ही बनता है तो सबका साथ सबका विकास का जुमला क्या जुमला ही बनकर इतिहास में दर्ज हो जायेगा। इस मामले में राजनीति इतनी बलवान हो रही है। कि वो सब जानती है मामला पेचीदगी की हद को पार कर रहा है। कोर्ट तक इस मामले में मौन व्रत का पालन कर रहा है। तब भी मामले को और विषय की पेचीदगी को बिना समझे तूल दिया जा रहा है ताकि असांप्रदायिकता का माहौल बन सके। जो सरासर गलत है। कहते हैं कि कुछ मामले अगर शांति व्यवस्था को बनाये रखने हेतु समय पर छॊड देते है तो ही बेहतर है। क्योंकि नब्बे के दशक की भाजपा और अब की भाजपा में बहुत बडा अंतर वैचारिकी में आ चुका है। न्यायपालिका सरकार का हस्ताक्षेप मांग रही है। पक्षकार भी इस मुद्दे को शांत बनाये रखना चाहते हैं। इसके बावजूद में बडबोले बोल यह नहीं समझ रहे कि समय होत बलवान।

अनिल अयान,सतना

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