शनिवार, 15 जुलाई 2017

किसी की बपौती नहीं है कविता

किसी की बपौती नहीं है कविता / कवि धर्म बनाम कविपुत्र धर्म
नाश के दुख से कभी/ दबता नहीं निर्माण का सुख/ प्रलय की निस्तब्धता से/ सृष्टि का नव गान फिर - फिर/ नीड का निर्माण फिर - फिर/ नेह का आह्वान फिर - फिर।  यह वो कविता है जो हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कलम का दायित्व निर्वहन करते हुये लिखी थी। इस कविता तो कहा जाता है कि अन्य कविताओं की तरह उनके बेटे अभिताब बच्चन जी ने कापी राइट करा कर रखा हुआ था  और तर्पण कार्यक्रम में जब कुमार विश्वास ने साहित्यिक विश्वास के साथ इसको गाया और हरिवंश राय बच्चन जी को अपना साहित्यिक प्रणाम करके लोगों के सामने रखा साथ ही साथ उसका वीडियों यूट्यूब में अपलोड किया गया तब से  एक विवाद गहराया। अभिताब जी ने केश करके कुमार विश्वास को कानूनन नोटिस भेजा और उसका जवाब भी कुमार विश्वास ने अपने राजनैतिक अंदाज में देते हुये उसकी कमाई का बत्तीस रुपये अभिताब जी को वापिस कर दिया। क्या कविता का अपमान किया था कुमार विश्वास ने या कवि का अपमान किया गया। क्या स्व. बच्चन जी की कविता को चोरी करके अपने नाम से कुमार विश्वास ने दर्शकों के सामने रखा। अगर ऐसा नहीं था तो कापीराइट क्या साहित्यिक धर्म से बढ कर है। क्या साहित्यकार के पुत्र होने के नाते अभिताब जी का कुमार विश्वास जी के साथ कोई साहित्यिक और सामाजिक रिश्ता नहीं है। अगर है तो फिर कविता की बपौती के लिये कोर्ट का नोटिश मेरे जैसे कलमकार के गले नही उतरता।
      यह साहित्य और काव्य परंपरा के इतिहास का एक ऐसा विषय पैदा हुआ जिससे कई सवालात मन में जागृत हुए। समान्यतः यह देखा जाता है कि कवि सम्मेलनों मुशायरों  में संचालक कवि अन्य मसहूर कवि शायरों की रचनायें सम्मान के साथ पढते हैं गाते हैं और श्रोताओं तक पहुंचाते हैं। वो जिन कवियों और शायरों की कविताओं को पढते हैं बयाकदे उनका नाम तक लेते हैं। और ये वीडियों यूट्यूब में बाकायदे अपलोड किये जाते हैं ताकि वो कार्यक्रम यादगार बने। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि इस तरह का केश किसी कवि ने दूसरे कवि पर किया हो कि तुमने एक नामी गिरामी कार्यक्रम में मेरी कविता मेरे नाम से क्यों पढी। एक कवि एक पाठक भी है और वह अगर अच्छी रचना पढता है उसे वह रचना पसंद आती है तब वह उसका प्रयोग उसके रचनाकार का उद्द्धरण देते हुये करने के लिये स्वतंत्र होता है। कमलकार की रचना तब तक वैयक्तिक है जब तक वह स्वांताह सुखाय के लिये लिख कर डायरी में कैद है। अगर वह प्रकाशित हो गई। या श्रोताओं के बीच आ गई तब से वह समाज की रचना हो जाती है। हर रचनाकार चाहता है कि उसकी रचनायें उसके नाम को मरने के बाद भी जग में अमर करती रहें।
      अब सवाल यह है कि क्या कविता कवि तो ठीक है उनके परिवार की पैतृक संपत्ति है। क्या गायत्री मंत्र श्लोक, राष्ट्र गान और राष्ट्रगीत आदि भी इसी तरह कापीराइट हो जाने चाहिये। अभिताब जी के अनुसार देखा जाये अगर ऐसे ही कापीराइट का सिस्टम चलता और उपर्युक्त मंत्रों श्लोकों के रचनाकार अगर जीवित होते और उन्होने  अगर हम सब पर केश कर दिया होता तो हम सब पाठकों और रचनाकारों की कहानी समाप्त हो चुकी होती। स्व. बच्चन जी ने यह  कभी नहीं सोचा होगा कि उनका सगा पुत्र अभिताब जी  उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास के ऊपर उन्ही की रचना के प्रचार प्रसार के कारण केश कर देगें। एक पुत्र अपना पुत्र धर्म निभाने का भ्रम पाले बैठा है जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं है जो बालीवुड और सरकार के ब्रांड एम्बेस्डरशिप के ना जाने कितने कांटेक्ट से जुडे हुये हैं। दूसरी तरफ उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास उनकी मृत प्राय कविता को युवा और मीडिया के सामने ससम्मानपूर्वक लाकर अपने कवि धर्म को निर्वहन कर रहे है। तब भी वो गलत हो गये क्योंकि कानूनन अपने खून को अधिकार है कि वो अपने बाप के माल पर अपना अधिकार जमाये। भले ही वो कविता जैसा भावनात्मक शब्द शक्ति क्यों ना हो।  जिस कविता के भाव को लेकर कविता का गायन कुमार विश्वास ने किया वह जग हिताय था। कविता का मर्म हम समझ सकते हैं कि कविता अगर श्रृष्टि के नवगान का आह्वान कराती है तो वह नेह के प्रसार को भी आह्वानित करती है। अफसोस कि यह आह्वान उनके पुत्र नहीं समझ सके और बालीवुड की बाजारी सोच के चलते कविता को धार बनाकर एक कवि को कविता गाने के नाम पर कानून की बारीकियों के आमना सामना करना पडा। हम अगर स्व. बच्चन जी को निशा निमंत्रण और मधुशाला जैसी रचनाओं और कृतियों की वजह से जानते हैं इसमें अगर कुछ और इजाफा करने का काम कुमार विश्वास ने किया तो क्या गलत लिया।
      कुमार विश्वास ने भले ही आप राजनैतिक पार्टी में शामिल हुये हो। भले ही साहित्यिक जगत में उन्हें मंचीय कवि के रूप में जाना जाता हो। भले ही वो राजनीति में शामिल होकर विवादित रहे हो। किंतु कवि के रूप में उनकी ही प्रतिभा थी कि कवि सम्मेलनों की नीरसता को खत्म करने की सोच और साहित्यिक गीतों की परंपरा को उन्होने कालेज कैंपस और युवा मन के अंदर तक घर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुमार की लोकप्रियता ने कपिल के लाफ्टर शो को कवितामय कर दिया जो उस शो के इतिहास में पहली बार था। कुमार की कविता के प्रति वफादारी के चलते विभिन्न अवसरों में सिर्फ टीआरपी के पीछे अंधी दौड में दौडने वाले प्राइवेट चैनलों ने कविता को अपने दर्शकों तक पहुंचाने के लिये विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया जिसमें कविता हुआ। कविता के साथ रचनाकार और रचना पर विमर्श हुआ। और साहित्य के प्रति एक नया दृष्टिकोण दर्शकों तक पहुंचा। यह सब काम करने के लिये अभिताब जी के पास वक्त ना होगा। इस सब से कुमार को अगर कुछ मूल्य मिल भी रहा है तो उनके जीविकोपार्जन के लिये नहीं है। वर्षों से चली आ रही एक कटु शिलालेख जिसमें यह कहा गया कि कविता या साहित्य पेट नहीं भरता सिर्फ प्रसिद्धि देता है, को कुमार ने मिटाने का काम किया। अगर वो अपनी कविताओं को बस उस कार्यक्रम में सुनाये तो व्यक्तिगत स्वार्थ समझ में आता है किंतु एक कविधर्म को निर्वहन करते हुये उन्होने अपने अग्रज कवि साहित्यकारों को मीडिया और दर्शकों के सामने लाने का सराहनीय काम किया है। जो साहित्यिक परंपरा का मूल भी है। मुझे लगता है कि कविता को किसी की बपौती नहीं मानना चाहिये। कवि कविता जग के लिये लिखता है। कवि के स्वर्गवासी होने के बाद कविता पर अगर उसके बेटे का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा कवि वंश के हर रचनाकार का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा पाठक वर्ग का अधिकार है जो हमेशा रहेगा। कवि धर्म कविपुत्र धर्म से ज्यादा श्रेष्ठ था है और रहेगा। अभिताब जी यह साहित्यिक अपरिपक्वता और कुमार विश्वास की यह साहित्यिक परिपक्वता ही थी कि इस विवाद को कोर्ट के दरवाजे तक पहुंचना पडा।"नेह का आह्वान फिर - फिर" का उत्स अगर अभिताब जी समझ जाते तो विवाद यह था ही नहीं भले वो बिग बी हो। पर इस बार एंगरी ओल्ड मैन की छवि बिग ब्रदर पर ज्यादा हावी रही। हमारा साहित्य और साहित्यिक विरादरी इस तरह की छवि का कट्टर विरोधी है।
अनिल अयान

सतनाकिसी की बपौती नहीं है कविता / कवि धर्म बनाम कविपुत्र धर्म
नाश के दुख से कभी/ दबता नहीं निर्माण का सुख/ प्रलय की निस्तब्धता से/ सृष्टि का नव गान फिर - फिर/ नीड का निर्माण फिर - फिर/ नेह का आह्वान फिर - फिर।  यह वो कविता है जो हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कलम का दायित्व निर्वहन करते हुये लिखी थी। इस कविता तो कहा जाता है कि अन्य कविताओं की तरह उनके बेटे अभिताब बच्चन जी ने कापी राइट करा कर रखा हुआ था  और तर्पण कार्यक्रम में जब कुमार विश्वास ने साहित्यिक विश्वास के साथ इसको गाया और हरिवंश राय बच्चन जी को अपना साहित्यिक प्रणाम करके लोगों के सामने रखा साथ ही साथ उसका वीडियों यूट्यूब में अपलोड किया गया तब से  एक विवाद गहराया। अभिताब जी ने केश करके कुमार विश्वास को कानूनन नोटिस भेजा और उसका जवाब भी कुमार विश्वास ने अपने राजनैतिक अंदाज में देते हुये उसकी कमाई का बत्तीस रुपये अभिताब जी को वापिस कर दिया। क्या कविता का अपमान किया था कुमार विश्वास ने या कवि का अपमान किया गया। क्या स्व. बच्चन जी की कविता को चोरी करके अपने नाम से कुमार विश्वास ने दर्शकों के सामने रखा। अगर ऐसा नहीं था तो कापीराइट क्या साहित्यिक धर्म से बढ कर है। क्या साहित्यकार के पुत्र होने के नाते अभिताब जी का कुमार विश्वास जी के साथ कोई साहित्यिक और सामाजिक रिश्ता नहीं है। अगर है तो फिर कविता की बपौती के लिये कोर्ट का नोटिश मेरे जैसे कलमकार के गले नही उतरता।
      यह साहित्य और काव्य परंपरा के इतिहास का एक ऐसा विषय पैदा हुआ जिससे कई सवालात मन में जागृत हुए। समान्यतः यह देखा जाता है कि कवि सम्मेलनों मुशायरों  में संचालक कवि अन्य मसहूर कवि शायरों की रचनायें सम्मान के साथ पढते हैं गाते हैं और श्रोताओं तक पहुंचाते हैं। वो जिन कवियों और शायरों की कविताओं को पढते हैं बयाकदे उनका नाम तक लेते हैं। और ये वीडियों यूट्यूब में बाकायदे अपलोड किये जाते हैं ताकि वो कार्यक्रम यादगार बने। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि इस तरह का केश किसी कवि ने दूसरे कवि पर किया हो कि तुमने एक नामी गिरामी कार्यक्रम में मेरी कविता मेरे नाम से क्यों पढी। एक कवि एक पाठक भी है और वह अगर अच्छी रचना पढता है उसे वह रचना पसंद आती है तब वह उसका प्रयोग उसके रचनाकार का उद्द्धरण देते हुये करने के लिये स्वतंत्र होता है। कमलकार की रचना तब तक वैयक्तिक है जब तक वह स्वांताह सुखाय के लिये लिख कर डायरी में कैद है। अगर वह प्रकाशित हो गई। या श्रोताओं के बीच आ गई तब से वह समाज की रचना हो जाती है। हर रचनाकार चाहता है कि उसकी रचनायें उसके नाम को मरने के बाद भी जग में अमर करती रहें।
      अब सवाल यह है कि क्या कविता कवि तो ठीक है उनके परिवार की पैतृक संपत्ति है। क्या गायत्री मंत्र श्लोक, राष्ट्र गान और राष्ट्रगीत आदि भी इसी तरह कापीराइट हो जाने चाहिये। अभिताब जी के अनुसार देखा जाये अगर ऐसे ही कापीराइट का सिस्टम चलता और उपर्युक्त मंत्रों श्लोकों के रचनाकार अगर जीवित होते और उन्होने  अगर हम सब पर केश कर दिया होता तो हम सब पाठकों और रचनाकारों की कहानी समाप्त हो चुकी होती। स्व. बच्चन जी ने यह  कभी नहीं सोचा होगा कि उनका सगा पुत्र अभिताब जी  उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास के ऊपर उन्ही की रचना के प्रचार प्रसार के कारण केश कर देगें। एक पुत्र अपना पुत्र धर्म निभाने का भ्रम पाले बैठा है जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं है जो बालीवुड और सरकार के ब्रांड एम्बेस्डरशिप के ना जाने कितने कांटेक्ट से जुडे हुये हैं। दूसरी तरफ उनके साहित्यिक पुत्र सम कुमार विश्वास उनकी मृत प्राय कविता को युवा और मीडिया के सामने ससम्मानपूर्वक लाकर अपने कवि धर्म को निर्वहन कर रहे है। तब भी वो गलत हो गये क्योंकि कानूनन अपने खून को अधिकार है कि वो अपने बाप के माल पर अपना अधिकार जमाये। भले ही वो कविता जैसा भावनात्मक शब्द शक्ति क्यों ना हो।  जिस कविता के भाव को लेकर कविता का गायन कुमार विश्वास ने किया वह जग हिताय था। कविता का मर्म हम समझ सकते हैं कि कविता अगर श्रृष्टि के नवगान का आह्वान कराती है तो वह नेह के प्रसार को भी आह्वानित करती है। अफसोस कि यह आह्वान उनके पुत्र नहीं समझ सके और बालीवुड की बाजारी सोच के चलते कविता को धार बनाकर एक कवि को कविता गाने के नाम पर कानून की बारीकियों के आमना सामना करना पडा। हम अगर स्व. बच्चन जी को निशा निमंत्रण और मधुशाला जैसी रचनाओं और कृतियों की वजह से जानते हैं इसमें अगर कुछ और इजाफा करने का काम कुमार विश्वास ने किया तो क्या गलत लिया।
      कुमार विश्वास ने भले ही आप राजनैतिक पार्टी में शामिल हुये हो। भले ही साहित्यिक जगत में उन्हें मंचीय कवि के रूप में जाना जाता हो। भले ही वो राजनीति में शामिल होकर विवादित रहे हो। किंतु कवि के रूप में उनकी ही प्रतिभा थी कि कवि सम्मेलनों की नीरसता को खत्म करने की सोच और साहित्यिक गीतों की परंपरा को उन्होने कालेज कैंपस और युवा मन के अंदर तक घर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुमार की लोकप्रियता ने कपिल के लाफ्टर शो को कवितामय कर दिया जो उस शो के इतिहास में पहली बार था। कुमार की कविता के प्रति वफादारी के चलते विभिन्न अवसरों में सिर्फ टीआरपी के पीछे अंधी दौड में दौडने वाले प्राइवेट चैनलों ने कविता को अपने दर्शकों तक पहुंचाने के लिये विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया जिसमें कविता हुआ। कविता के साथ रचनाकार और रचना पर विमर्श हुआ। और साहित्य के प्रति एक नया दृष्टिकोण दर्शकों तक पहुंचा। यह सब काम करने के लिये अभिताब जी के पास वक्त ना होगा। इस सब से कुमार को अगर कुछ मूल्य मिल भी रहा है तो उनके जीविकोपार्जन के लिये नहीं है। वर्षों से चली आ रही एक कटु शिलालेख जिसमें यह कहा गया कि कविता या साहित्य पेट नहीं भरता सिर्फ प्रसिद्धि देता है, को कुमार ने मिटाने का काम किया। अगर वो अपनी कविताओं को बस उस कार्यक्रम में सुनाये तो व्यक्तिगत स्वार्थ समझ में आता है किंतु एक कविधर्म को निर्वहन करते हुये उन्होने अपने अग्रज कवि साहित्यकारों को मीडिया और दर्शकों के सामने लाने का सराहनीय काम किया है। जो साहित्यिक परंपरा का मूल भी है। मुझे लगता है कि कविता को किसी की बपौती नहीं मानना चाहिये। कवि कविता जग के लिये लिखता है। कवि के स्वर्गवासी होने के बाद कविता पर अगर उसके बेटे का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा कवि वंश के हर रचनाकार का अधिकार है उससे कहीं ज्यादा पाठक वर्ग का अधिकार है जो हमेशा रहेगा। कवि धर्म कविपुत्र धर्म से ज्यादा श्रेष्ठ था है और रहेगा। अभिताब जी यह साहित्यिक अपरिपक्वता और कुमार विश्वास की यह साहित्यिक परिपक्वता ही थी कि इस विवाद को कोर्ट के दरवाजे तक पहुंचना पडा।"नेह का आह्वान फिर - फिर" का उत्स अगर अभिताब जी समझ जाते तो विवाद यह था ही नहीं भले वो बिग बी हो। पर इस बार एंगरी ओल्ड मैन की छवि बिग ब्रदर पर ज्यादा हावी रही। हमारा साहित्य और साहित्यिक विरादरी इस तरह की छवि का कट्टर विरोधी है।
अनिल अयान
सतना

शनिवार, 8 जुलाई 2017

बंदऊं गुरु पद पदुम परागा।


बंदऊं गुरु पद पदुम परागा।
गुरु का कोई दिन होता है क्या। गुरु तत्वज्ञान देने के लिये इस धरा में आता है और इसी तत्वज्ञान को प्राप्त करके शिष्य अपने पथ में आंगे बढकर अपनी मंजिलों को आसानी से प्राप्त कर लेता है। गुरु वेदव्यास से शुरू हुई यह परंपरा आज इस बाजारवाद के युग तक पहुंच चुकी है। पूर्णिमा में गुरु की वंदना करना भी अपने में एक वरदान से कम नहीं है। यह रीति वैदिक कालीन रही है। पुरातन गुरु को देवों से ज्यादा श्रेष्ठ स्थान दिया गया। वेद पुराणों से लेकर साहित्य के अन्य रचनाकारों ने अपने उद्धरणों में यह स्पष्ट कर दिया कि गुरु के बिन ज्ञान के सही रूप को ग्रहण करने की स्थिति में शिष्य़ कभी नहीं आपाता है। मेरे प्रिय संत कबीर ने कहा कि-सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज।सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुण लिखा न जाए।।अगर मै इस पूरी धरती के बराबर बडा कागज बनाऊं और दुनिया के सभी वृक्षों की कलम बना लूं  सातो सामुद्रों के बराबर स्याही बना लूं तो भी गुरु के गुण को लिखना संभव नहीं है।गुरु भारतीय इतिहास में ऐसे होते थे। गुरु महिमा के लिये शिष्यों के पास शब्द कम पड जाया करते थे। गुरु का महत्व समाज से लेकर राष्ट्र तक बहुत ज्यादा होता था। राजा से लेकर वजीर तक गुरु को अपने से बढकर सम्मान देते थे। नरेंद्र को परमहंश ना मिलते तो वो स्वामी विवेकानंद नहीं बन पाते। हर व्यक्ति के जीवन में गुरु का एक विशेष स्थान होता है जो अन्य रिश्ते उसके जीवन से कभी भी नहीं छीन सकते हैं। मनुस्मृति में लिखा गया है कि जो आपको वेद पुराण की बातें बताये वही सिर्फ गुरु नहीं होता बल्कि वो भी गुरु की संज्ञा में आता है जिसने आपको जीवन जीने का मूल मंत्र कुछ छणों के साथ में बता दिया।
      किंतु परन्तु आज के समय में गुरु का वर्चश्व और अस्तित्व भी जैसे कालग्रास में समा गया है। गुरु और शिक्षक को एक ही तराजू में तौलने की परंपरा ने गुरु की गुरुता को और हल्का कर दिया है। गुरु का स्थान अगर स्कूल कालेज में पढाने वाले शिक्षक ले लेंगें तो गुरु का सर्वव्यापी व्यक्तित्व ग्रहण के प्रभाव में आ जायेगा। आज के समय में गुरु के भेष में संपर्क में आने वाले व्यक्ति ढॊंगी और महत्वाकांक्षी होते हैं। औसतन यह देखा गया है कि गुरु का त्रिकाल दर्शी व्यक्तित्व अपने क्षितिज की ओर जा रहा है।-गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव।आज के समय पर गुरु लोभी और शिष्य लालची हो गये हैं। दोनों खुद को इतना ज्यादा विद्वान समझते हैं कि दोनों एक दूसरे पर दांव खेलने की कोशिश करते हैं और दोनों इस दांव के चक्कर में पडकर पत्थर से बनी नाव पर बैठ कर जल श्रोत को पारकरने की जिद करते हैं। इतना ही नहीं है बल्कि गुरु और शिष्य की जोडी भी हास्यास्पद हो चुकी है। जरा इस दोहे को देखिये-जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद। जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।वर्तमान में गुरु अगर मां है तो मां का आदर समाज में कम हुआ है। गुरु अगर आपका अग्रज है तो वह अपने अग्रज होने को भूल रहा है। समाज में गुरु की स्थिति महज पुस्तकीय ज्ञानार्जन प्रदान करना ही रह गया है। विद्यालयों को बाजार में उतार दिया गया है जिसमें ज्ञानार्थ कोई आना नहीं चाहता और सेवार्थ कोई जाना नहीं चाहता। गुरु पूर्णिमा के इस अवसर पर अगर हम धार्मिक गुरुओं की बात करें तो कभी बालकांड में इन पंक्तियों में सार्वकालिक गुरु की वंदना की गई थी जिसकी सार्थकता को यह जग बखूबी जानता है। बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर। मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।
      आज कल इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों। गुरु के स्थान को जहां पर वेद पुराण और धर्म ग्रंथों को समाज तक पहुंचाने के माध्यम के रूप में जाना जाता था वहीं आज कुछ आख्यानों और कपोल कल्पित लोक कथाओं के आधार पर पूरी की पूरी सप्ताह खत्म कर देते हैं। जिन गुरुजनों ने वास्तविक रूप से धर्मग्रंथों की रिचाओं को समाज तक सही रूप से पहुंचाया है वह देश विदेश में गुरुता को विश्व विख्यात कर रहे हैं परन्तु यह संख्या विरली ही है। हमारे यहां गुरु पूर्णिमा में लगे हाथ उन गुरुओं की भी पूजा हो जाती है जिन्होने गुरु का चोला ओढा और मठाधीश बनकर मोटी मलाई की चिकनाई का आनंद उठा रहे हैं। और खुद को इस चिकनाई से फिसलने से बचा भी नहीं पाते। बहरहाल इस बात का संतोष है कि विरले ही सही परन्तु समाज में ऐसे व्यक्तिव मौजूद तो हैं। धीरे धीरे इस बाजारवाद ने अगर इन गुरुओं को अपना ग्रास ना बनाया तो निश्चित ही गुरु वंदना और पूर्णिमा की सार्थकता और सर्वव्यापकता भविष्य में भी बनी रहेगी।
अनिल अयान,सतना


रविवार, 2 जुलाई 2017

दुश्मनी के बीच दोस्ती

दुश्मनी के बीच दोस्ती

विगत दिनों रूस में आयोजित एक कार्यक्रम में जब भारत के पीएम मोदी जी ने यह कहा कि भारत और चीन के बीच सीमा विवाद होने के बावजूद पिछले ४०-५० साल से बार्डर पर एक भी गोली नहीं चली है। इस बयान के आने पर चीन और वैश्विक जगत में खूब प्रशंसा हुई भारत की उदारता की। दुनिया भर को यह लगने लगा कि भारत चीन अपने विवादों को बातचीत से निपटाने में सक्षम हो चुका है। इस बात को लेकर हमारे पीएम मोदी जी की खूब पीठ थपथपाई गई। परन्तु भारत और चीन सिक्किम सीमा पर सोलह जून से आमने सामने है। सिक्किम भूटान और तिब्बत के जंक्शन में सिलीगुडी के चिकन नेक एरिया को चीन की सेनाओं ने अपने कब्जे में लेने की कोशिश की। इस इलाके को चंबी घाटी कहा जाता है जो भारत को तिब्बत और भूटान से जोडने का काम भी करता है। इस पहाडी इलाके को लेकर दोनों देशों के बीच बातचीत चलती रही है और २४ दौर की बातचीत के बाद भी यह मुद्दा अभी अनसुलझा रहा। सोलह जून के बाद इस इलाके में रोड का काम शुरू कर दिया था भूटान और भारत के सैनिक इसका विरोध किये भी किंतु चीन की ताकत अधिक होने की वजह से यह विरोध असफल रहा है। वास्तविकत यह है कि भारत के सिलीगुडी कारीडोर में भारत के पूर्वोत्तर राज्य अन्य देशों के साथ जुड जाते हैं
उधर दूसरी तरफ चीन इस क्षेत्र को  सडक मार्ग से जोडकर  भारत के पूर्वोत्तर को घेरना चाहता है। इसी बात का विवाद जारी है। जो भारत के चीन विवाद को और बढाता है। इसके पूर्व में सिक्किम में नाथुला के रास्ते से जाने वाली मान सरोवर यात्रा को इसलिये रोक दिया क्योंकि सीमा विवाद दोबारा अपने चरम पर रहा था।
यह तो कुछ उदाहरण हैं किंतु सबसे बडे विवाद तिब्बत क्षेत्र जो एक बफर जोन का काम करता है। अक्साई चिन रोड जो लद्दाख इलाके में बन रही है इसमें वो जम्मू काश्मीर के उस इलाके को अपने कब्जे में रखना चाहताहै जो वो अपना मानने की कोशीश कर रहा है। अगला विवाद तो सीमा है जिसमें तीन हजार किलोमीटर की सीमा पर स्पष्ट मत नहीं है। अरुणाचल प्रदेश पर भी वो दावा जताता चला आया है और भारत के साथ उसकी इस मामले में एक भी नहीं बैठती।  ब्रह्म्पुत्र पर बना चीन का बांध और हिंद महासागर में पाकिस्तान म्यामार और श्रीलंका के साथ साझेदारी में प्रारंभ हुई परियोजनायें भारत के लिये सिर दर्द बन चुकी हैं। पाक अधिकृत काश्मीर और गिलगित बालटिस्तान में चीन की गतिविधियां तेज हुई है। चीन में साउथ चाइला सी इलाके में भी अपना वर्चश्व जारी रखा है यहां उसे म्यामार जापान और फिलीपींस से चुनौती मिली भी परन्तु सब व्यर्थ का मामला ही शाबित हुआ। इस तनाव पर असम के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने अपने बयान में यह भी जता दिया कि भारत से चीन कई मामलों में ज्यादा ताकतवर है। इस बात की सत्यता भी है कि भारत से चीन की सैन्य शक्ति ज्यादा मजबूत है। हमारे पीएम चाहे जितना भी कोशिश कर लें खुद को सौहार्द के प्रतिमान बनने की परन्तु जमीनी हकीकत कुछ अलग ही है।
समय रहते अगर हमारा देश अपने निर्णय नहीं लेता तो यह स्थान चीन के कब्जे में चला जायेगा। हमारे पीएम सिर्फ विदेशों में इसी बात का दंभ भरते रह जायेगें कि। हमारा पाक और चीन के साथ सौहार्द पूर्ण संबंध हैं। इस तरह की उदारबादिता का अस्तित्व क्या है वह समझ के परे है। हम सबको पता है कि हमारे संबंध पाकिस्तान और चीन के साथ कैसे हैं। हमारा इन देशों के साथ ऐतिहासिक रूप से किस तरह के विवाद रहे हैं जो आज भी नहीं सुलझ सके हैं। इसके बावजूद हम तिब्बत और भूटान के साथ खडे होने के साथ साथ चीन की तारीफ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर करते हैं और यह सोचते हैं कि इसी बहाने चीन हमारी पीठ थपथपायेगा जो सरासर दोमुही राजनीति है। इससे हम भले ही उदारवाद के मसीहा बन जायें किंतु हमारी सेना और उनका संघर्ष शून्येत्तर हो जायेगा।इस लिये आज आवश्यकता है कि चीन की विरोधी ताकतों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी जवाब देना और दोटूक तरीके से सीमा के विवादों में अपने को स्थापित करना बिन पेंदी के लोटे की तरह अगर चीन की तरफ और अन्य देशों की तरफ एक ही तरह की हिमाकत होती रहेगी तो अपना अस्तित्व खतरे में होगा। चाइना को आइना दिखा अति आवश्यक है।
अनिल अयान,सतना