शनिवार, 2 सितंबर 2017

शिक्षक खडा बाजार में सबकी मांगे खैर

शिक्षक खडा बाजार में सबकी मांगे खैर
पाँच सितंबर की तारीख यानि शिक्षक दिवस, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को पूरा देश शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है। एक दिन के लिए शिक्षक को इस बात का भान कराया जाता है कि वह ही समाज का सबसे सम्माननीय व्यक्तित्व है। अन्य सारे व्यक्ति उसके सम्मान के अधीनस्थ हैं। पांच सितंबर के पहले और बाद में शिक्षक का पद, कद, और हद क्या है वह हम सब बखूबी जानते हैं। ऐसा महसूस होता है कि शिक्षक जैसा दरिद्र प्राणी इस समाज में कोई नहीं है। एक मजदूर को भी उससे ज्यादा श्रम का भुगतान प्राप्त होता है। शिक्षक से समाज से लेकर सरकार और प्रशासन तक आदर्शवादी व्यक्तित्व की उम्मीद करता है और यह माना जाता है कि शिक्षक जैसा आदर्श स्वर्गलोक से आया है। इस लोक में प्रकट हुआ है सब की अपेक्षाएं भी वह अपनी जादू की छडी से पूरी कर देगा। उसके पास जैसे अलादीन का चिराग है जिससे बच्चे के अभिभावकों की अपेक्षाओं में भी खरा उतरेगा। विद्यालय प्रबंधन की उम्मीदों का सितारा होगा। समाज की आशाओं का चितेरा होगा। अपने परिवार और सगे संबंधिओं के साथ रिश्तों में भी शिखर में होगा। आखिरकार शिक्षक को इतना महत्वपूर्ण पद दे कैसे दिया जाता है? लेकिन एक बात तो तय है कि सभी लोग शिक्षक से यही उम्मीद करते हैं कि वो किसी से कुछ उम्मीद ना रखे। यह गल्ती से भी शिक्षक ने इसके बारे में सोच लिया तो उसे समाज का दलिद्र और लालची मानव समझ लिया जाता है।
वर्तमान में शिक्षक का कद कई रूपों में हम सब देख सकते हैं। कभी वो शिक्षक होता है। कभी शिक्षाकर्मी बन जाता है। कभी संविदा अनियतकालिक शिक्षक बन जाता है। कभी गुरु जी बन जाता है। कभी अतिथि शिक्षक बन जाता है। समाज में स्वास्थ्य से लेकर जनगणना तक, समग्र आई डी से लेकर आधार कार्ड तक के आंकडों को इकट्ठा करने में शिक्षकों को निपुण माना जाता है। शिक्षक को और तो और इन कामों को पूरा न कर पाने पर सरकार इनकी वेतन वृद्धि रोक लेती है या मुख्यालय में अटैच कर देती है। शिक्षक को एक बार खराब परीक्षा परिणामों के लिए वेतन वृद्धि रोकने की सजा मिले तो समझ में आता है किंतु इन कामों के वेतन वृद्धि रोकना समझ के परे हैं। अरे भाई जब समय से वेतन जब सरकार नही तब तो उसकी ब्याज नहीं देती है। परन्तु वेतन वृद्धि रोकने के लिए हमारे आलाअफसर आगे- आगे लुतुर-लुतुर करने लगते हैं। आज के समय पर प्रायोगिक रूप से शासकीय विद्यालयों के शिक्षकों को सीएम आनलाइन का जवाब देने, छात्रवृत्ति से लेकर, समग्र आईडी के कलेक्शन, प्रतिभा पर्व मनाने, और शासकीय योजनाओं के क्रियान्वयन का प्रभार का भार ढोने से फुरसत नहीं मिलती है, बचे कुचे समय में से अधिक्तर समय वोटर लिस्ट में नाम हटाने और नये जोडने का काम करना पडता है और अंततः कक्षाओं में जाकर पढाने का समय मिलता है। इसके बाद फिर अपेक्षा की जाती है कि इनका परीक्षा परिणाम प्राइवेट विद्यालयों के परीक्षा परिणामों से बेहतर आए। यह भी एक अतिशयोक्ति से कमतर कुछ भी नहीं है।
शिक्षक दिवस में शिक्षकों के काम में समान वेतन समान काम की बात नहीं की जाती है। उनके विषय उन्नयन पर कोई काम नहीं किया जाता है। सम्मान समारोहों में सम्मानित शिक्षकों की उम्र देखकर और अनुभव देखकर सूचियाँ तैयार की जाती है। यदि एक लेक्चर एक विद्यालय में पढाता है तो उसे राजपत्रित अधिकारी का दर्जा प्राप्त है किंतु उसी विद्यालय में संविदा शिक्षक वर्ग एक के शिक्षक को राजपत्रित अधिकारी से कोसों दूर रखा जाता है। एक दूसरे उदाहरण में अगर हम प्राथमिक और पूर्वमाध्यमिक विद्यालयों में नजर डालें तो विद्यालय में बच्चों और शिक्षक-शिक्षिकाओं के अनुपात की कहानी कुछ और ही होती है। आओ मिल बांचे कार्यक्रम में जन प्रतिनिधि इन विद्यालयों में जाकर अपना ज्ञान बच्चों को प्रदान जरूर करते हैं। किंतु एक दिन में क्या होता है। इन विद्यालयों में अधिक्तर समय मध्यान भोजन की तैयारी करवाने, भोजन करवाने, और उसके बाद बचे कुचे फंड पर हाथ मारने के लिए रखा जाता है। इन विद्यालयों में कितने दिन किताबों को पलटा जाता होगा यह तो यहां का स्टाफ बखूबी जानता है। गुरु जी का कद पुराने जमाने में सबसे ज्यादा हुआ करता था किंतु वर्तमान में शिक्षा गांरटी शालाओं के लिए इनका उपयोग सरकार करती है। इनकों पूरी तरह से निम्न श्रेणी शिक्षकों की कैटेगरी में रखा जाता है। यह समझ के परे है कि शिक्षा की गारंटी कैसे ली जा सकतीहै। साक्षरता को प्रचारित करना समझ में आता है किंतु शिक्षा की गारंटी लेने वाली शालाओं का विषय गत गहराई हम सब खुद समझ सकते हैं।
प्राइवेट विद्यालयों का यह है कि शासन किसी भी जगह पर किसी भी नगर पर कितने भी विद्यालयों को मान्यता दे देता है। विद्यालय के पास उचित जरूरी संसाधन हैं या नहीं, विषय के शिक्षक प्रशिक्षित हैं कि नहीं है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं पडता है। एक कालोनी में कुकुरमुत्ते की तरह विद्यालय मिल जाते हैं। बिना किसी गुणवत्ता को जाने इन शिक्षा की दुकानों में शिक्षक जैसे नये युवा मिल जाते हैं जिनक प्रशिक्षण से ज्यादा कोई वास्ता नहीं होता है। एक दो किलोमीटर के दायरे में हर गली कोने में दो चार स्कूल मिल ही जाते हैं। मान्यता माध्यमिक शिक्षा मंडल की होती है  किंतु किताबें सीबीएसई पैटर्न की प्राइवेट पब्लिकेशन की विद्यालयों में चलाई जातीहै। इससे शिक्षा विभाग को कोई लेना देना नहीं होता है। उडनदस्ता में जाने वाले अधिकारी अपनी जेब गरम करके मामले को रफा दफा करने की आदत से मजबूर होते हैं।इन विद्यालयों को शिक्षक रूपी प्राणी मात्र पढा लिखा गुलाम नजर आता है। वो झाडू लगाने का काम बस नहीं करता है। विद्यालय का बस चले तो वह काम भी  शिक्षक  से करवा ले।शिक्षक का कद जितना बढा चढा कर इस दिन दिखाया जाता है। वास्तविकता में शिक्षक की हद अन्य दिनों में विद्यालयों में देखी जा सकती है। शिक्षक के ना कोई भविषय निधि होती है। ना पेंशन का प्रावधान होता है। ना चिकित्सा की कोई व्यव्स्था होती है और ना ही सुरक्षित नौकरी होती है।जब मैनेजमेट का मूड बदला, शिक्षक ने किसी बात से इंकार किया तो मैनेजमेंट ने दूसरा रास्ता खोज कर बाहर का रास्ता इन शिक्षकों को दिखा देता है। सरकार को इन प्राइवेट किस्म के शिक्षकों से कोई वास्ता नहीं होता है।इन शिक्षकों का कोई माई बाप या कोई संगढन नहीं होता है। यदि संगढन बने तो वो भी मात्र कुछ समय तक के लिए जब तक कि पदाशीन दायित्वधारियों के स्वार्थ सिद्ध हो रहे हैं। इन शिक्षकों पर स्कूल प्रबंधन का हाथ जब तक हैं तब तक इनकी नौकरी हैं इसलिये इनमें बहुत से शिक्षक तो मख्खनबाजी में तल्लीन रहते हैं। शिक्षकों पर जिस ट्यूशन को लेकर लांछन लगाए जाते हैं उस बारे में यह कहना ज्यादा सही रहता है कि आज के समय में ट्यूशन एक सोशल स्टेटस सिंबल बन गया है। जितना मंहगा ट्यूशन उतना ऊँचा स्टेटस सिंबल, शिक्षक जितना कहे कि उसके पास टाइम नहीं है अभिभावक अपने बच्चों को उनके घर तक में छॊडने को तैयार रहते हैं। शिक्षा के बाजार में खडा शिक्षक दूसरों के खैर तब भी मांगता है।
शिक्षक दिवस के बहाने इतनी सारी बातें विभिन्न बिंदुंओं में हो गई हैं कि लगता है कि शिक्षक जैसे अवतरित मानव के लिए एक दिन क्यों।स्व. राधाकॄष्णन जी अगर यह लिख गये होते  कि राष्ट्रपति बनने से पूर्व और पश्चात उन्हें शिक्षण पेशा कैसा लगता है तो हम सब शिक्षकों के कलेजे में ठंडक मिल गई होती कि उनके जन्मदिन में शिक्षकों को क्यों बलि का बकरा बनाया गया। वास्तविक शिक्षक दिवस शिक्षकों के लिए तो तब होगा जब शिक्षक दिवस के दिन शिक्षकों को कुछ भविष्य गत लाभ हो। उसका शिक्षण पेशा सुरक्षित हो। उसका परिवार सम्मान से जीवन यापन कर सके। शिक्षक को सम्मान स्वरूप उसके स्तर के अनुरूप वेतन मिले, उसकी भविष्य निशि उसके पास सेवानिवृति होने के बाद शिक्षा विभाग समय से पहुंचा दे। शिक्षकों की पेंशन उन्हें और उनके परिवार वालों को मिले। शिक्षकों को सिर्फ पढाने और भविष्य सुधारने का काम सौंपा जाए। शिक्षकों को पढा लिखा गुलाम, और समाज का लगुआ या बरेदी ना समझा जाए। शिक्षकों को सम्मान से समाज में रहने कहने और ज्ञान को स्थापित करने का अवसर दिया जाए। शिक्षा के उद्योगें में उसको कोल्हू का बैल ना समझा जाए। विद्यालय और अभिभावकों के बीच की कडी के रूप में शिक्षकॊं को स्थापित किया जाए। शिक्षक आज भी पारस की तरह है चाहे वो मणि हो या पत्थर।आज आवश्यकता है समाज में इन पारस को पहचानने की और उचित सम्मान देने की।
अनिल अयान
सतना
९४७९४११४०७

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