बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

आदिकवि का स्मरण-छण

आदिकवि का स्मरण-छण
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्गमः शास्वतीः समाः।
 यत्क्रोंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितः।
संस्कृत का यह श्लोक हम सबने अपने पढा नहीं तो सुना होगा ही। आदि कवि के नाम से विख्यात महर्षि बाल्मीकि की जयंति हमने कल ही मनाई होगी। रामचरित मानस के परे भी जिस व्यक्ति ने राम के चरित्र का वर्णन किया वो व्यक्ति ही नहीं महर्षि  संस्कृत का प्रकांड विद्वान और आदिकवि बाल्मीकि ही थे। महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र वरुण और चर्षणी के पुत्र बाल्मीकि भृगु ऋषि के भाई थे। इनका दूसरा नाम प्राचेतस भी है दीमक से ढक चुके शरीर की साधना के बाद तो इन्हें दीमदूह बाल्मीकि भी कहा जाने लगा। वो ही ऐसे महर्षि थे जिनका उल्लेख सतयु़ग, द्वापर और त्रेता युग में देखने को मिलता है राम के चरित्र के साथ उनका संबंध जितना गहरा है उतना ही गहरा उनका संबंध कृष्ण के साथ भी रहा। अगर वो राम के लिए ये कहते हैं कि
तुम त्रिकाल दर्शी मुनिनाथा,
विश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा।
तो कृष्ण के जीवन में महाभारतकाल में कुरुक्षेत्र के युद्ध कोजीतने के बाद जब द्रोपदी का यज्ञ सफल नहीं हो पाता तो  बाल्मीकि उसके निवेदन से आते है और अनुष्ठान पूर्ण होता है। इस घतना को कबीर ने लिखा कि
सुपच रूप धार सतगुरु जी आए।
 पांडवों के यज में शंख बजाए।
बाल्मीकि ने अंततः राम के चरित्र का वर्णन किया। राम के चरित्र कोआराध्य मान कर पूरी की पूरी रामायण उन्होने लिखी। इस रामायण में सूर्य चंद्र नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन जिस तरह किया गया है वह तो खगोल विज्ञान के जानकार को ही करना चाहिए था। बाल्मीकि का लिखा यह श्लोक आदि कविता के रूप में प्रसिद्ध भी हुआ। हम उन्हें हिंदु दर्शन के अतिरिक्त भी देख सकते हैं। हमें यह पता होना चाहिए कि आज के समय में अगर तुलसी बाबा को सब लोग जानते हैं और बाल्मीकि को तुलनात्मक कम लोग जानतेहैं तो उसके पीछे यही कुनबे बाजी जिम्मेवार है। राम को केंद्रित करके दोनों ने अपने विचार लिखे किंतु रामचरित मानस घर घर की पूजा हो गई। बाल्मीकि रामायण के तथ्य ज्यादा परंपरागत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संबंधित है।
वनवास में राम का बाल्मीकि से निर्देशन लेना और सीता के परित्याग के बाद बाल्मीकि का सीता को प्रश्रय देना लवकुश का पालन पोषण ज्ञानी बनाना भी बाल्मीकि के तेज का ही प्रभाव था। वर्तमान में जिस तरह के आचार विचार चल रहे हैं उसक चलते कबीर, रहीम, तुलसी, बाल्मीकि, और अन्य ऋषि मुनियों को कुनबों में बांट दिया गया है। किसी कवि और कलमकार का एक ही धर्म हैं वह है मानव धर्म और मानवधर्म की सेवा करना। आजकल तो इन साधू संतो और ऋषि मुनियों की जयंतियां भी इनके समाज के लोग मनाते हैं जैसे कबीर के लिये कबीर पंथी, बाल्मीकि के लिए बाल्मीकि समुदाय के लोग इनको अपने कुनबे में उठाए घूमते फिरते रहते हैं। अब सोचने वाला विषय यह है कि इस प्रकार के आयोजनों में उसी समुदाय के लोगों के द्वारा उत्तराधिकार स्थापित करना और अन्य व्यक्तियों की प्रतिभागिता से परहेज करना न्यायसंगत नहीं है। कवि लेखकम, संत पीर फकीर, औलिया अगर इस गुटबाजी से परे रखकर आस्था से जुडे हों तो लाभप्रद होते हैं। अन्यथा संकीर्ण मानसिकता के काल कपाल क्रिया में विलुप्त होते चले जातेहैं। इतने बडे कवि का आयोजन उतना ही सीमित होता है। सीमित हुआ। एक पक्ष पर बात करके उसके रचनाकर्म को एक पक्षीय बना दिया जाता है। यह वैचारिक स्वतंत्रता का हनन हैं। हम अगर इस संस्कृति के वाहक है तो हमें यह अधिकार है हम आदिकवि और अन्य पुरातन से आद्यतन कलमकार के बारे में किसी नेपथ्य के पक्ष को भी उजागर करें। यही समयपरक सार्थकता होगी।

अनिल अयान ,सतना

1 टिप्पणी:

reema ने कहा…

Thank you so much for share.
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