सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

ये अदद मोहब्बत है, सलीके से बेचिए इसको

ये अदद मोहब्बत है, सलीके से बेचिए इसको
जिंदगी का फलसफा भी कहां से शुरू होकर कहाँ खत्म हो जाए कोई नहीं जानता। हर कवि ने अपने अपने अनुसार इस प्रेम रूप रस की व्याख्या की है। बाजार ने अपने अनुसार इसे देखा है। खरीददार और बेंचने वालों ने इसकी बोलियां भी लगाई है। कभी कबीर ने लिखा पोथी पढ पढ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढे तो पंडित होय तब से लेकर अब तक प्रेम,प्यार, मोहब्बत,इश्क और, आशिकी पर हर रचनाकार ने कुछ ना कुछ लिखा ही है। इस पर न जाने कितने लतीफे बनाए गए। वैदिक काल से कृषण-राधा से शुरू होकर कॄष्ण मीरा तक की परंपरा आज हीर रांझा, सोनी महिवाल, लैला मजनूं जैसे प्रेम कथाओं में भी समाप्त नहीं हुई। अमृता प्रीतम से लेकर पंकज सुबीर, और लघु प्रेम कथाओं पर तो न जाने कितनी कलम चलीं। पता है कभी कभी लगता है कि हमने अपने अरमानों के भी मजहब बना लिए हैं। सलीके और तरीके व्यावसायिक हो गए हैं।
हम हाईटेक हो गए हैं। अभिव्यक्ति भी हाईटेक और आभाशी हो गई हैं। हमने पश्चिम से आयात करके सभ्यता के प्रतिमान खुद गढ़ लिया है। प्रणय दिवस को लेकर इतना हो हल्ला होता है कि लगता है जैसे भारत वर्ष में इस सदी का कोई महोत्सव मनाने की तैयारी की जा रही है। यह सब बाजार के हथियार है दोस्तों। जिस प्रेम को छिपाया जाता है, जिस प्रेम को खतों, के माध्यम से अभिव्यक किया जाता था। आज हम उसी प्रेम की मार्क्रेटिंग कर रहे हैं। इस प्रेम के सेल्स मैन तैयार है बाजार में। प्रेम प्रारंभ तो होता है आकर्षण की जुबां लेकर और बाजार में जाकर उपहारों में लुट जाता है। आज का मुद्दा प्रेम कम और इस प्रणय दिवस में मिलने वाले उपहारों की कीमत ज्यादा है। उपहारों ने तो जाने अनजाने जीवन में छद्म प्रेम और छद्म प्रेमी का प्रवेश करा दिया है। बाजार हम सबके प्रेम की ब्रांडिंग और एडवर्टाइजमेंट कर रहा है। प्रेम की परिणित रोमांस भी होगी यह दिवास्वप्न ही था हम सबके लिए। पर धन्य है बाजार और प्रेम के सेल्स मैन जिन्होने पश्चिम से प्रेम की कई कई कोटियां निर्धारित कर दी हैं। हर श्रेणी में बाजार लग जाता है। हर श्रेणी के दिन निर्धारित कर दिए जाते हैं। हर श्रेणी के व्यवसाय में सरकार लाभ कमा रही है। सरकार को कर से उप कर तक मिल रहा है। और सरकार के नुमांइंदे इस प्रेम के मार्केटिंग का दिखावटी विरोध दर्ज कर रहे हैं। इसी बहाने समाज में विचलन पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रेम तो मां के बेटे के संबंध में भी है, पिता का अपनी संतति से, भाई का बहन से है, पर आजकल  बाजार उस प्रेम को प्रदर्शित कर रहा है जो लिविंग रिलेशन में हैं, जो ब्वायफ्रेंड और गर्लफ्रेंड के बीच है, जो विवाहोत्तर स्त्री का पुरुष के बीच जीवन साथी के परे हैं, जो सोशल साइट से उपजता है और कोर्ट कचेहरी या आत्महत्या पर जाकर खत्म हो रहा है। बाजार के ये सब गुर है साहब, जो अनायास ही नए रूप परिवर्तित हो गए। हमने अपने आस पास दैहिक प्यास को प्रेम के रूप में परिभाषित कर दिया। बाजार ने उसे हमी को बेंचने के लिए एक मार्केट खड़ा कर दिया। पश्चिम ने विश्व स्तर पर भारत को लाने के लिए इन्हीं भावों का बाजारीकरण कर दिया। अब तो सब संकरित हो चुका है। इजहार और इकरार भी आयातित हो चुके हैं। उपहार भी आयातित हो चुके हैं। विचार और आचार भी आयातित हो चुके हैं। इस प्रेम के लिए मदर्स डे, फादर्स डे, सिस्टर्स डे, वाइफडे,हसबैंड डे, और वेलेनटाइन डे बना दिए गए। चलो अच्छा ही है अब आज के इस भागमभाग के युग में किसी केपास किसी के लिए कुछ पल भी खर्च करने के लिए नहीं हैं। हम अकेलेपन के साथ जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। हमारा विश्वास वास्तविक रिश्तों के प्रति कम और आभासी रिश्तों में ज्यादा बढ रहा है। तो कम से कम वैधानिक अवैधानिक रिश्तों के लिए इन दिनों के चलते कुछ जेब तो खर्च करते है। हां इस संदर्भ में एक बात तो है यहां पर हम ही बाजार है, हम ही दुकानदार है, हम ही सेल्स मैन हैं, हम  ही इसके दलाल हैं, हम ही खरीददार भी हैं। जब सब कुछ हम ही हैं तो तीसरा भी कोई अप्रत्यक्ष रूप से इस फायदे में शामिल हैं और वह है समाजिक ढांचा और हमारा वैचारिक चिंतन।
प्रशासन से लेकर समाज तक इस इस बाजार वाद में रम गया है। सबके अपने अपने स्वार्थ है। सबके अपने अपने तवे हैं जहां इसकी रोटियां परोसी जा रही हैं। और तो और रखवाले भी इस मृत्युभोज के अदद स्वाद का आनंद अंगुलियां चाट चाट कर ले रहे हैं। इस बाजार में इस मार्केटिंग के पुल बांधें जा रहे हैं। किसी को आर्थिक फायदा है। किसी को मानसिक फायदा है। किसी को जेहनी फायदा है। बस फायदे का ही कायदा है। तो हम क्यों कायदों की सीमाएं बनाएं। क्यों हम विरोध का जरिया बने। क्योंकि विरोध करने वाले जितने ठेकेदार हैं उन्हीं के घर से इसकी जडे प्रारंभ होती हैं। जिनकें यहां साल भर रोमांस चलता है वो विशेष दिनों में विरोध दलों के पेशेवर सदस्य बन जाते हैं। इस लिए जिसे जिसे प्रेम की मार्केटिंग करानी हो वो बाजार में कूद जाए। बाजार खत्म होने तक शामिल रहे और फिर बाद में सोचे कि वो फायदे में रहा कि नुकसान में रहा। अगर आप बाजार में बाजारू नहीं होंगें तो बाजार आपको कूडेदान का सामान मानकर कूडे के भाव में बेंच देगा साहब। आप वो बिका सामान बन जाएगें जिसकी वापसी की गारंटी कोई दुकान वाला नहीं लेता।  
बहरहारइस तरह के दिन पारंपरिक पर्वों की रौनक के परे भी हमारे आसपास गर्माहट बनाए रखते हैं। हम सक्रिय बने रहते हैं, हम इस सक्रियता के चलते भले ही अपना आपा खो दें परन्तु यह तो तय है कि हमारी खुद की स्वीकारोक्ति है कि इस तरह के बाजारवादी आयोजन में आपा खो दें भी तो कोई फिक्र नहीं है। हम खुद हर प्रकार परिस्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो चुके हैं। क्योंकि हम मार्केट में है साहब,इस मार्केट में जब हमारा शरीर,आत्मा, आस्था, विश्वास,और रिश्ते तक बिक जाते हैं, तो प्रेम किस खेत की मूली है, यहां पर हम चिताओं के जलने के बाद बची हुई लूक तक बेंच लेते हैं। यहां पर अंतरंगता भी करोडों में बिक जाती है। प्रेम तो फिल हाल बहुत सालीन है। अनमोल प्रेम को भी हम मोल लगाकर बेंच लेते हैं। विज्ञापन बनकर प्रदर्शित हो जाता है हमारा प्रेम, एक लंबे समय के तक चिंतन करने के बाद समझ में आता है कि सर्फ एक्सेल का विज्ञापन तो हम सबने देखा है कुछ अच्छा हो तो दाग अच्छे हैं। एकाकीपन को दूर करने के लिए अगर बेदाग से दागदार हो जाओ तो क्या बुरा है साहब। किसी अपने की खुशी के लिए ये मार्केटिंग भी ठीक है। बस शर्त यह है कि सलीका से काम होना चाहिए।
यह प्रेम खड़ा अब हाट में सबकी मागें खैर।
तू बेचें मुझे हाट में पर ना तुझसे कोई बैर।
खरीद बेंच धर्म है सब कुछ यहां बिक जाए।
नहीं सोच अब तू खड़ा क्या खोय क्या पाय।
अनिल अयान।

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