शनिवार, 19 मई 2018

सत्ता का सौंदर्यीकरण

सत्ता का सौंदर्यीकरण

वैसे तो हम सबने हर जगह के सौंदर्यीकरण देखें ही हैं। जब भी यह पुण्य कार्य किया जाता है तब वास्तविक रूप से सामाजिक धतकरम सभी को मुंह बनाए चिढ़ाता है। सड़कों से लेकर गली कूचों का, नगर से लेकर महानगर का, उद्यानों से लेकर शासकीय इमारतों का आदि आदि जितने भी ऐसे पुण्यकार्य हुए उसमें कल्पनाशीलता की इतनी अति हो गई कि वास्तविकता भी चुल्लू भर पानी में डूब मरी। इस बार तो अच्छे दिन की लालसा लिए कुछ जुमले या यह कहूं कि मिसरे नाक कान  को चुभने लगे क्योंकि उसमें आत्म सम्मान की कम अभिमान के लोभान की महक आ रही थी। वो यह था कि एक सत्तारूढ़ अमुक पार्टी के बैनर में यह सुनने में मिला कि आप वोट गिनें हम तो राज्य गिनते हैं। अमुक पार्टी की यह सत्ता के सौंदर्यीकरण की प्रस्तावना के रूप में मतदाताओं के सामने आया। बार बार अमुक तमुक पार्टी के अध्यक्ष को कुछ नाम को बार बार कहने की अपील की जैसे कच्चा पापड़ पक्का पापड़ कहने की आदत हम छोड़ चुके थे। यह सत्ता है यह सब जानती है किंतु मौन भाषा किसी के समझ में कहां आती है। जानने भर से क्या होता है, यहां पर जिंदा मौन लोगों को मृत ही कहा जाता है।
भाषाई संतुलन तो उम्मीदवारों के संतुलन तक को गिरा दिया। पूर्व प्रधान मंत्री जी ने तो राष्ट्रपति से घुटने के बल खडे होकर विनती कि हमारे प्रधानमंत्री की चुनावी भाषा अमर्यादित है वह प्रधानमंत्री की भाषा नहीं हो सकती। अब चुनाव का मतलब ही है अमर्यादित होकर नंग दहाव करना। पूर्व राज्यों में सत्ता का सुख भोगने के बाद अमुक पार्टी ने जिस शेख चिल्ली के स्वप्न को साकार करने का प्रयास किया वह वाकयै सत्ता की भूतनी को राजरानी के रूप में बदलने की चेष्टा थी। इस चेष्टा की प्यास इतनी ज्यादा थी कि संविधान, लोकतंत्र सब को अमुक पार्टी ने धता बता दिया। दोनों बेचारे संविधान और लोकतंत्र इस जबर जस्ती की पीड़ा से कराह उठे। इसके बाद तो सत्ता पगडंडी को फास्ट ट्रैक नेशनल हाईवे बनाने की जग्दो जहद चालू हुई। अमुक पार्टी और  तमुक पार्टी ने एक दूसरे के विजयी विधायकों को लालच की हद तक गिरते देखना चाहते थे। फ्लोर टेस्ट के पहले ही सीटों की रिक्तता और त्रिसंखु सत्ता का स्वप्न दिवा स्वप्न नजर आने लगा। सत्ता की मोहिनी ने अमुक तमुक और भी अन्य को नाचने के लिए मजबूर कर दिया। यह मजबूरी भी थी और सत्ता सुख के लिए मजदूरी भी थी।
राज्य के मुखिया के ऊपर जब अमुक पार्टी ने जब केंद्र का दबाव बनाया तो तमुक पार्टी का व्यास बदल गया। मुखिया की परिधि कब्जे में आ गई। मुखिया ने पक्षपात का शीर्षस्थ नमूना सत्ता के सौंदर्यीकरण के लिए रखा। तमुक पार्टी ने न्यायालय से न्याय की उम्मीद अच्छे दिन की लालसा में लगाई। हालांकि यह उम्मीद कितना साकार होगी वह तो आने वाला वक्त बताएगा। यह देखने में आ रहा है। कि तमुक पार्टी गैर की शादी में अब्दुल्ला दीवाने की स्थिति में है। अमुक पार्टी तो शोक मना रही है क्योंकि उसके अच्छे दिन में चंद्र ग्रहण लग गया। तमुक पार्टी को इस बात की चिंता है कि कहीं उसकी सत्ता रूपी बेगम मौलवी के साथ फरार न हो जाए। आखिर कार हुआ वही मौलवी तो नहीं किंतु मौलवी के सिपेहसलारों ने इसको हथिया ही लिया किंतु। इस चाल की गीदडी खाल बहुत जल्दी ही उतर गई। 
इसी "सप्ताह" की इह लीला देखकर मन द्रवित भी है क्यों कि आखों से द्रव तभी निकलता है जब बहुत ज्यादा खुशी हो या बहुत ज्यादा दुख। यहां पर फिफ्टी फिफ्टी का मामला है। राज्य गिनने वाली अमुक पार्टी के लिए पीपीपी फार्मूला अभी बिना पीओपी के कमजोर है। तमुक पार्टी दूसरे पार्टी की मुख्यमंत्रित्व का गैरपार्टीसुख में लीन है। किंतु कहीं मामला " तेरह घंटे, तेरह दिन, तेरह माह" वाली केंद्र की सरकार की तरह हुआ तो इस बार डूबने के लिए इस गर्मी में चुल्लू भर पानी भी नसीब न होगा। खैर कर्नाटक को जो न जानता होगा वह भी रग रग से जानने लगा होगा। करनाटक ने अमुक को अमुक होने की सीख दी और तमुक को तमुक होने की सीख दे ही दी। इस सप्ताहिक नाटक में सबसे ज्यादा मजे किए इलेक्ट्रानिक मीडिया वाले न्यूज चैनलों को उनकी बाइट देखने लायक होती थी। समझ में नहीं आ रहा था कि मीडिया की बहसों और चर्चाओं का उद्देश्य क्या है टाइम पास करना या जनता के विश्वास के मोहजाल को और सघन करना।
स्थिति यह थी कि वो भी मनोरंजन वाले चैनल बन गए थे। भेडिया घाट में भेडों को हलाल होता तो दिखाया जा रहा था। किंतु भेड़ों के बचाव का रास्ता निकाले बिना ही भेडियों के राजा का गुणगान किया जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि इस बलि के बाद प्रसाद में कुछ भाग इधर भी सरका दिया जाएगा। कई चैनल तो दुखी होकर अमुक पार्टी के लिए शोक संदेश बांचने  में आज भी लगे हुए हैं। ऐसा लगता है कि वीरगाथा काल का चारण वंदन सभा का आयोजन किया जा रहा था। राजनीति विष्लेषक अपनी राजनीतिशास्त्र की सारी किताबों को पलटते पलटते उतान हो गए कि आखिर लोकतंत्र में यह उत्तर प्रदेशी नौटंकी के कलाकार कहां से आ गए। सभी अपना माथा पकड़े हाथों की लकीरों और माथे की लकीरों की तुलना करने में व्यस्त थे।
विधायकों नामक सत्ता की करेंसी को भारतीय करेंसी से तुलादान करके हथियाने की कोशिश में पूरा देश साथ दे रहा था। कुल मिला कर स्वर्ण आभूषणों की बजाय गिलिट के सोने का पानी चढ़ाकर सत्ता को सुशोभित किया जा रहा था। इस सब सप्ताहिकी को देखकर लगा कि वाकयै भारत की सत्ता ने भारत को इतने दशक के बाद भी विकासशील ही क्यों बनाए हुए है। सत्ता सुख किसी भी पार्टी को मिले अमुक या तमुक किंतु जिस प्रकार भेडियों ने लोकतंत्र की भेड़ों को धोबिया घाट में नाटक करके हलाल किया है वह यह साबित करता है कि समय अब जनता का नहीं इन्ही लोगों का है। कार्यपालिका, न्यायपालिका, संवैधानिक पद और  देश का चौथे स्तंभ तक विधायिका की मुट्ठी में कैद हो चुके हैं। इस सौंदर्यीकरण से विदेश में अमुक पार्टी के प्रधान नेतृत्व कुछ भी दिखाए किंतु अंदर की लोकतंत्रीय देह में दीमक को पालने , दीमकों की खरीद फरोख्त करने की शाजिस अमुक पार्टी को ही जाती है। जब सौंदर्यीकरण के मेकप धुलेंगें तब सत्ता की बदसूरत तस्वीर हमें लज्जित जरूर करेगी।

अनिल अयान,सतना

रविवार, 6 मई 2018

स्त्री सुरक्षा के यक्ष प्रश्न से जूझता समाज

स्त्री सुरक्षा के यक्ष प्रश्न से जूझता समाज

पुरातन काल से स्त्री सम्मानित स्थान समाज में रखती चली आई है। हमारे धर्म ग्रंथ वेद पुराण गवाह रहे हैं कि स्त्री को पुरुष के पूर्व देवी देवताओं के नामों के रूप में पुकारा जाता रहा है। स्त्री को आराध्य देवीय रूप माना जाता रहा है। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुरूप स्त्री पर केंद्रित सत्ता रही है। स्त्री की सत्ता को सिरोधार्य मानकर पुरुष ने समाज की रचना की है। हमारी  धार्मिक वर्ण और समाजिक व्यवस्था के परिणाम स्वरूप पुरातन काल से से स्त्री को लेखन का केंद्र माना गया। स्त्री के ऊपर तुलसी ने रावण के मुख से ढोल गंवार सूद्र पशु नारी को एक पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। अहिल्या को इसी व्यवस्था के अंतर्गत अपमान का घूंट पीकर श्राप ग्रहण करने को मजबूर होना पड़ा। रंभा को इंद्र का छल भोगना पड़ा। देवों ने दानवों की स्त्रियों के ऊपर और दानवों ने देवों की स्त्रियों के ऊपर अत्याचार, व्यभिचार के हर स्तर को पार किये। यह रीति हमारे देश में वर्तमान तक चली आ रही है। हमारे देश में स्त्री पुरुष अनुपात कम होने के बाद स्त्री की कम संख्या होने पर एक तरफ चिंता की जाती है और दूसरी तरप कन्या को गर्भ में ही समाप्त करने की चालें स्त्री के द्वारा ही चलाई जाती है। इस काम में पुरुष समाज भी उनक बखूबी साथ देते हैं।
पद्मावती फिल्म का एक संवाद याद आता है कि जो भी स्त्री की अस्मिता में हाथ ड़ाले उसकी अंगुलिंयां नहीं काटना चाहिए बल्कि सीधे गला काट देना चाहिए।यह संकेत हैभविष्य गत समाज में इस तरह के व्यभिचारों और यौन अपराधों की सजा के लिए। हमारा देश अरब राष्ट्र नहीं बन सकता, मुस्लिम राष्ट्र नहीं बन सकता किंतु सजा में फेर बदल करने के लिए उसे सोचना होगा। हमारे देश में हजारों महिला संगढ़न चल रहे हैं। महिला आयोग को कितना फंड़ स्त्रियों की सुरक्षा के लिए सरकार उपलब्ध करवा रही है। महिलाओं के लिए मानवी परामर्श केंद्र, महिला पुलिस थाने, महिला सुरक्षा कानून, पास्को कानून तक हमारे संविधान में है। बहुत से एनजीओ महिलाओं के उच्च समाजिक स्तर, स्वास्थ्य स्तर, परिवारिक और समाजिक उन्नयन के लिए सरकार के करोडो रुपये निगल रहे हैं। किंतु ये भी महिला सुरक्षा के लिए मौन हो जाते हैं।
विगत कुछ दशकों से यह देखा जा रहा है कि महिला सशक्तीकरण के नाम पर जितना स्वांग हमारी सरकारों ने रचाया है। वह राजनैतिक हथकंडा मात्र शामिल हो रहा है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि मीडिया जो पहले खबरे परोसता था अब वह सरकारी अंगुलियों की कठपुतली बनकर खबरों में तेल मसाला लगाकर महिलाओं के ऊपर हो रहे यौन अपराधों,बलात्कार की घटनाओं को वर्ग विशेष हेतु उद्वेलित और उत्तेजित करने का काम कर रहा है। पहले भी समाज में बलात्कार और व्यभिचार हुए हैं किंतु वह या तो दबा दिये गये, या तो महिला को मौत की नींद सुला कर मामले को बंद कर दिया गया। वर्तमान में मीडिया की सक्रिया की वजह से सोशल मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया इस घटनाओं को बडी खबर बनाकर समाज के सामने ला रही हैं। यह  कैमरे के सामने आने के बाद पुलिस की नजरों तक पहुंच पाती हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर कार पिछले कुछ दशकों से ही महिला सुरक्षा पर बहस, चर्चा, मुद्दे उठना क्यों शुरु हुए। पहले भी महिलाएं काम करती थी, पहले भी महिला पहनती ओढ़ती और बिछाती थी। पहले भी वो कामगार थी।
आसपास के वातावरण को देखें तो समझ में आता है महिलाएं पुरुषो से ज्यादा टेक्नालाजी फ्रेडली हो गई हैं। पहले महिला पुरुष को कोई भी काम करने से रोकती थी। अब की स्थिति में महिलाए पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर यहां तक की दो कदम आगे बढ़ चुकी हैं। सोशल मीडिया, कार्यक्षेत्रों,परिवार, समाज, सोशल क्लब्स, समाज सेवा नाम से महिला समाज और परिवार के डेहरी लांघ चुकी हैं, डेहरी लांघने के साथ साथ संबंधों की स्वच्छंदता भी बढ़ी है। संबंधों के रूप बदले हैं। शादी जैसे संबंध अब आधुनिक युग में ढ़कोसले और लिव इन जैसे संबंध आवश्यकता बन चुके हैं, रूम मेट्स में मेल फीमेल का शामिल हो जाना, अपने कोआर्डिनेट्स के साथ स्त्री और पुरुष की निजता का समाप्त होना, परिवार में प्रथाओं का विलोपन, सीमाओं की समाप्ति, आधुनिकता का समावेश सुरक्षा में सेंध उत्तपन्न कर रहा है। वर्तमान में कोई भी क्षेत्र हो महिला चाहे जितने ऊंचे पद पर हो वह अन्य महिला साथी का उतना सहयोग नहीं प्राप्त कर पाती जितना कि पुरुष से प्राप्त करती है। खेल, मीडिया, व्यवसाय, बाजार, बालीवुड़ जैसे कितने स्थान हैं जहां पर महिलाओं से विश्वासघात, मानसिक और शारीरिक शोषण होता है, पूर्व में मौन रहकर सब सहा जाता है और अंततः जब सहा नहीं जाता तब विरोध कर दिया जाता है। यही स्तिथि परिवार के विभिनन संबंधों पर भी देखने को मिलती है।
महिलाएं अपने अधिकारों, सरकार और संविधान के द्वारा दिए गये सुरक्षा कवच को जानती तो हैं किंतु उसे उपयोग करने से सकुचाती हैं,वो अपने परिवार,समाज की इज्जत की चिंता के चलते तात्कालिक निर्णय लेने से घबड़ाती हैं। वहां पर उन्हें अपने पित्रसत्तात्मक और पुरुष समाज की चिंता खाए जाती है। वहां पर उनका सशक्तीकर मौन क्यों हो जाता है। सोशल मीडिया इसका गवाह है कि महिला को एक्सपोजर उसके मेकप,उसके रहन सहन,उसके पहनावे, और उसके वैचारिक स्वतंत्रता के अनुरूप मिलता है, ग्लैमर और वाकपटुता की कीमत लाइक कमेंट और पर्सनल आडियो वीडियों चैट होते हैं, बाजार और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने महिलाओं को उत्पाद मानकर उन्हें कैस कर रहा है। आज के समय में वर्जनाएं खत्म हो चुकी हैं, महिलाओं को जिस एक्स्पोजर बोल्ड़नेश और ग्लैमर की जरूरत है वो उसे मीडिया और बाजार परोस रहा है। खुले आम महिलाओं से संबंधित निजी उत्पादों का  प्रदर्शन और विज्ञापन किया जा रहा है, सरकार की सूचना पौद्योगिकी की नाक के नीचे अश्लीलता और पोर्नोग्राफी का खुला बाजार चल रहा है उसमें महिलाओं और पुरुषों की भागीदारी देखने को मिलती है। परन्तु फिर भी कहा जाता है सोच बदलने की जरूरत है। देश में महिलाओं को देह, उत्पाद, बाजार, मनोरंजन का साधन बनाकर परोसने और अप्रत्यक्ष रूप से हुकूमत की रजामंदी के बाद स्त्री असुरक्षित नहीं होगी तो क्या होगी।
स्त्री की समाजिक सुरक्षा तभी संभव है जब स्त्री को समाजिक प्राणी रहने दिया जाए, उसको शिक्षित होने का अधिकार हो, उसे अधिकारों के उपयोग करने का तरीका पता हो, उसके ऊपर समाज का मनोवैज्ञानिक दबाव न बने, उसे मानव बने रहने दिया जाए, अपने घर में बेटे बेटियों को यह समझाया जाए कि रील लाइफ और रियल लाइफ में कोई समानता नहीं हैं। कोर्ट कचेहरी से असुरक्षा को नहीं खत्म किया जा सकता है। यह समाज की समस्या है समाज के मानसिकता सोच और आने वाली पीढी को वैचारिक रूप से मजबूत बनाकर ही इस पीड़ा से छुटकारा पाया जा सकता है। बच्चों  को यह भी बताया जाए कि भारतीय समाज और पाश्चात समाज की रूप रेखा बिल्कुल अलग है। यहां पर अंग प्रदर्शन और वस्त्र धारण करने में महीन अंतर है, यहां पर सहवास का सुख विवाह पश्चात मान्य है न कि लिव इन रिलेशन में रहकर भोग कर छॊड़ने में है। बच्चों के बीच संवाद स्थापित करने का काम जितना पिता  की जिम्मेवारी निर्वहन कर रहे पुरुष का है उतना ही माता के रूप में जिम्मेवारी का निर्वहन कर रही स्त्री का भी है। स्त्री को अपने स्त्री समाज के लिए खडे होना चाहिए। स्त्री पुरुष की पूरकता को हर स्त्री पुरुष को समझना होगा। स्वतंत्रता,स्वछंदता,उच्छखृलता और इसका बोल्ड़नेश ग्लैमर और अश्लीलता में परिवर्तित होने के बीच में महीन अंतर है। एक सीमा रेखा के इस पार और उसपार पहुंचने के लिए कुछ सेकेंड ही लगते हैं अगर हम इस अंतर को नहीं समझ सकते हैं। स्त्री पुरुष एक साथ चलेंगें तो शायद यह सुरक्षा घेरा नहीं टूटेगा, अगर स्त्री आगे गई और पुरुष पीछे छूटा या फिर पुरुष आगे गया और स्त्री पीछे छूट गई तो यह सुरक्षा असुरक्षा में बदल जाएगी।

अनिल अयान, सतना
९४७९४११४०७