शनिवार, 29 दिसंबर 2012

सब ठीक नहीं है प्रधानमंत्राी जी

कब तक सहें-
सब ठीक नहीं है प्रधानमंत्राी जी 
दिल्ली ने देश की धो दी प्रधानमंत्राी जी, जब आप कहते है सब ठीक है न तब शायद मजबूरी में कहना पड रहा है कि सब ठीक नहीं है प्रधानमंत्राी जी। दिल्ली के आम इंसानों में जिन युवाओं और महिलाओं का प्रतिनिधित्व उस लडकी को मिला जो इस वक्त सिंगापुर में अपनी जिंदगी और मौत से लड कर हार गई। जब गृहमंत्राी को प्रेस काफ्रेंस करने पर यह लगने लगे कि वह देश के सामने बोल रहे हैं जब युवा शक्ति के प्रदर्शन को माओवादियों से तुलना की जाने लगे तो समझ में प्रधानमंत्राी जी को भी आना चाहिए कि सब ठीक नहीं है। इस बार यह विरोध किसी अन्ना या किसी रामदेव के पास से किये गये उद्घोष के बाद नहीं तैयार हुआ बल्कि पुरूषवादी सत्ता के महाधीशों के विरोध में इसलिए प्रारंभ हुआ कि एक गुनाह करने वालों के लिए सरकार मूर्खतापूर्ण बयानबाजी कर रही है। कभी डी.आई.जी. महिला, एस.डी.एम. के कार्यविधि में राजनैतिक प्रश्न उठाते है। यदि इन राजनैतिक नुमाइंदो के घर की बेटी के साथ कुछ ऐसा कृत्य हुआ होता तब मैं देखता कि ये सब कितना मौन व्रत धारण करते है पर आम जन का कोई पालन हार नहीं है तभी तो राष्ट्रपति के सुपुत्रा सांसद कुछ अच्छा कह नहीं पाये तो प्रदर्शनकारियों की रातों का जायजा डिस्को और बार में लेने पहुॅचते है वहीं दूसरी तरफ अपने भाई की करतूत और बयानबाजी का विरोध राष्ट्रपति जी की सुपुत्राी करती है क्या राजनीत है साहब आम जन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है पर प्रधानमंत्राी और राष्ट्रपति के घर मंे पले हुए कुत्तों को सुरक्षा के लिए गार्ड नियुक्त किये जाते है। देश के रक्षा प्रमुख की जेड सुरक्षा की चिंता देश को नहीं है। देश की युवतियों की सुरक्षा के लिए यदि आम इंसान आवाज उठाता है तो वाटर कैनन, सेना और आंसू गैस के गोले छोडे जाते है। यदि जनता का प्रतिनिधि चैपट हो जाए तो जनता के विद्रोह को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया जाता है उसके बाद भी प्रधानमंत्राी आप कैमरामैन से पूछते है कि सब ठीक है ना। वाह क्या यही होता लोकतंत्रा। भारत लघु महाद्वीप आज भी दिल्ली के कारनामों के चलते पानी-पानी हो गया। मैं पूछता है कि कौन वापस करेगा दिल्ली का पानी इतनी पानीदारी देश के किसी भी राजनेता के पास नहीं बची। भारत की न्यायपालिका का एक सूत्रा है जिसमें यह कहा गया है कि हजारो बेगुनाह छूट जाय पर एक गुनहगार नहीं बचना चाहिए फिर क्यों भारत के गृहमंत्राी जी यह कहते है कि भारत में न्याय तुरंत फुरंत नहीं मिलता। क्या सत्ता और सत्ता के खेल यही है। मेरे समझ में एक बात और नहीं आती कि दिल्ली के कांग्रेसी चमचों के द्वारा कहे जाने वाले सोनिया गांधी के सुपुत्रा, युवा चेतना के रखवाले और यूथ सिम्बल राहुल गांधी क्या इस कडकती ठंड ठंडक के शिकार हो गये हैं। प्रधानमंत्राी जी आप भी देख रहे है कि भारत देश में दिल्ली से उठा आक्रोश हैदराबाद और जयपुर में भी फ ैल रहा है। न्यूटन के तीसरा नियम में न्यूटन ने कहा था कि हर क्रिया के विरोध में प्रतिक्रिया होती है पर जो रवैया महिलाओं ने और युवाओं ने दिखाया है वह न्यूटन के इस बात को गलत साबित करता हुआ नजर आता है। प्रधानमंत्राी जी आपकी केन्द्र और राज्य सरकार इस दुर्दांत घटना में भी राजनैतिक रोटिया सेंकने में लगी हुई है। सरकार के द्वारा अपनाये गये अराजक रवैये को देखकर मन तो गालियाॅ देने का करता है परंतु अपने संस्कारों को खोकर आपके स्तर तक तो मंै नहीं पहुॅच सकता। एक पुलिस वाले की मौत के लिए भी आपकी सरकार ने भी उन युवाओं को ही दोषी माना जिनको किसी ने बरगलाया नहीं बल्कि वह स्वयं की प्रेरणा से अपने समाज की स्त्राी सुरक्षा के लिए घर से निकलकर सडकों में उतरे थे। इतना ही सब होने के बाद आपको क्या लगता है क्या हमारे मुल्क में हमारी बिटिया और बहनें सुरक्षित है। आपके बयान की यदि सही तरह से जाॅच नहीं हुई और उसे मीडिया ने प्रसारित कर दिया तब आपने निजी चैनलों के लोगों को एक शब्द भी नहीं कहा बल्कि अपने पावर का पावर दिखाकर दूरदर्शन के इंजीनियरों और कैमरामैनों के खिलाफ संस्पेशन आर्डर जारी करवा दिया। आप यह क्यों भूल जाते है कि भारत में जब सरकार सत्रा राजकीय कार्य भारतीय समय पर होता है न्याय भारतीय समय के अनुरूप मिलता है तो वो सब बेचारे इसी भारत के निवासी थे और इसी परंपरा का निर्वहन कर रहे थे इस घटना को लेकर दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार इतनी बौखला गई कि किसी को यह समझ में नहीं आया कि लोगों से क्या बातें कही जाय। राष्ट्रपति साहब तो ज्यादा चिंता दिखाई पडे अब जब दामिनी की मौत हो गई है तब सारे नेताओं की चिर निंद्रा टूटी और वे सब झूठी संवेदनाएॅ टी.वी. चैनलों के सामने व्यक्त करके इस बात की अपील करते हुए नजर आ रहे है कि कृपया सभी प्रदर्शनकारी शांति व्यवस्था बनाये रखें। क्या आप देश के उन युवाओ को मूर्ख समझ रखे है। अंततः प्रधानमंत्राी जी एक ही निवेदन करना चाहता हूॅ कि आपके शासनकाल में कुछ भी ठीक नहीं है और इस बात को आपको स्वीकार करना चाहिए। यदि घटना सउदी अरब के देशों में हुई होती तो इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं होता है कि गुनहगार की रूह भी दोबारा इस गुनाह को करने से कोसो दूर भागती पर हम भारत के निवासी है और प्रधानमंत्राी जी भारत मंे सब कुछ ठीक नहीं है।
- अनिल अयान
9406781040

रविवार, 16 दिसंबर 2012

ओलम्पिक से भारत हुआ बेदखल ,टूटा खिलाडियों का मनोबल ....

कब तक सहें -
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ओलम्पिक से भारत हुआ बेदखल ,टूटा खिलाडियों का मनोबल ....
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भारत में जब से कामनवेल्थ गैम्स हुए भारत के राजनीतिज्ञकों के घर की चांदी हो गई। कई मालामाल हो गये, कई घोटालेबाज हो गये, कईयों के ऊपर केस चलने लगे, कई जाॅच के घेरे में आकर अपने आप को जनता की नजरों में गिरा लिये और उस समय राजनीतिज्ञ और अधिक खुश हुए हांेगे जब भारती ओलम्पिक संघ को विश्व ओलम्पिक संगठन से इसलिए बेदखल कर दिया गया क्योकि संगठन के चुनाव में ज्यादा ही राजनीतिक पार्टियों का दखल बढने लगा था इसका प्रमुख कारण राजनीतिक पार्टियों के धन्ना सेठों के मध्य लाभांश के लालची रवैयें की बढोतरी थी।
राजनीतिज्ञों ने दखल दिया और उधर भारत ओलम्पिक संघ से बेदखल हुआ। अब सब हाथ में हाथ रखकर बैठे हुए ओलम्पिक गैम से भारत की निकासी की तेरहवीं और बरसी का शोेक मनाते नजर आ रहे है। क्रिकेट का जुनून इतना अधिक बढ गया है कि क्रिकेट के माहौल को देखते हुए बाॅलीवुड ने कई फिल्में बनाकर करोडो कमा लिये। प्रायोजकों के द्वारा फर्श से अर्श तक का सफर तय कर लिया गया और खिलाडी विज्ञापन के चकाचैंध में आकर खेल की गुणवत्ता की ऐसी की तैसी करने में परहेज नहीं किया। कई खिलाडी मैच फिक्सिंग, डोपिंग टेस्ट में अपने को सबसे आगे रखकर पूरे देश की इज्जत पूरे विश्व के सामने निलाम कर दी और पूरे देश को उनकी करतूतों से शर्मशार होना पडा। क्रिकेट के चलते अधिकतर खेल उपेक्षित होते चले गये। उनको लाभ और सुविधाएॅ बहुत दूर की बात बल्कि उनके साथ जातीयता बढने लगी। अन्य खेलों में भारतीय हुनर को आगे बढने का एक सहारा ऐशियन, कामनवैल्थ और ओलम्पिक ही था। जहाॅ पर भारतीय खिलाडियों को अलग-अलग विधाओं में अपना जौहर दिखाने को मिलता पर उपर वाले की दया और इन राजनीतिज्ञकांे की दुआ के चलते यह भी संभव नहीं हो पायेगा। थोडा बहुत गोल्ड, ब्रांज और सिल्वर मैडल के द्वारा भारत थोडा बहुत विश्व में अपना स्थान सुनिश्चित कर पाया था। वह भी इस परिणाम के चलते खत्म हो गया। आखिरकार कब राजीतिक देश का अहित करने से बाज नहीं आएंगे। मुझे लगता है कि राजनीतिक प्रतिनिधियों का दखल ओलम्पिक कमेटियों में नहीं वरन क्रिकेट, हाॅकी की चयन कमेटियों में भी बढता चला जा रहा है। इसका तात्कालिक उदाहरण भारतीय खिलाडियों का क्रिकेट के दौरे और उनके प्रदर्शन में आई औसतन गिरावट हैं। हम अपने स्वार्थो के चलते यह भूल जाते है कि खिलाडी कोई रोबोट नहीं है जिसे हमने चार्ज किया और उसे अपने पैसा कमाने के होड में लगा दिया। न उसकी सेहत की ध्यान दी और न ही उनके परफार्मेंंस की चिंता की। इसके चलते इंग्लैण्ड दौरे में क्रिकेटरों की जो थू-थू हुई है वह मीडिया ने हम सबके सामने बहुत विस्तार से रखा हैं भारत क्रिकेट के लिए पागल है इसमें कोईं संदेह नहीं है। भारतीय खिलाडी भी हर बार आशाओं में खरे उतरे। यह उनके लिए संभव नहीं हो सका। हमारी मीडिया की सबसे बडी कमी है कि चैनल सबको सिर मे चढा लेते है और इसके चलते खिलाडियों में ओवरकाफिडेन्स पनपने लगता है और यदि खिलाडी फ्लाप हुआ तो उसकी मिट्टी पलीद करने में यह मीडिया पीछे नहीं हटती। यह पब्लिक है दोस्तो इसे सिर्फ अपने हीरो से जीत की उम्मीद रहती है और यदि उम्मीद टूटती है तो वह सिर्फ बौखलना ही जानते है। यही हाल हाॅकी और ओलम्पिक गैम के अन्य विधाओं का भी होता है पर क्या किया जाय लगातार आशंकाओं के बावजूद वहीं हुआ जिसका डर था। आखिरकार वह मौके जिसमेें भारतीय एथिलीटों, टेनिस स्टार, मुक्केबाजों, कुश्ती पहलवानों, तीरदांजो, हाॅकी खिलाडिया और अन्य विधाओं में खिलाडी अपने जौहर दिखाते वह भी उनसे बहुत ही बेशर्मीपूर्वक छीन लिया गया। अब बेचारे यह खिलाडी उस गलती का परिणाम भुगतेंगें जो उन्होंने किया ही नहीं है। अपने घरेलू खेलों में भाग लेने बस से उनका पूरा विकास कैसे हो सकता है वो विश्व स्तर के खिलाडी कैसे बनेंगे। विश्व स्तर का खिलाडी बनने के लिए विश्व स्तर की प्रतियोगिताओं में अपना स्थान सुरक्षित कर भारत का गर्व बढाने की आवश्यकता है। खेल का सीधा सा नियम रहा है जो जिस कार्य के लिए चुना गया है वह उस स्थान पर अपना पावर दिखाये। यदि डाॅक्टर अपना पावर न्यायालय में दिखायेगा तो कैसे काम चलेगा। बस इसी तरह बंटाधार होता रहेगा। इसी तरह खिलाडी अपने कांधे में अपने हुनर की अर्थी लेकर घूमते नजर आयेंगे। आज के समय पर चाहिए कि चयनकर्ताओं केा अपनी जिम्मेवारी तटस्थ होकर निर्वहन करें ताकि उम्दा खिलाडी निकलकर सामने आये और भारत का नाम रोशन करें। ओलम्पिक ही नहीं बल्कि अन्य खेल के संघों को अपने नियम, कायदों मंे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि उसमें खिलाडी, उनके कोच और भूतपूर्व खिलाडियों को चयन समिति में स्थान मिलें न कि राजनीतिज्ञों को। वरना अभी तो ओलम्पिक में ही भारत बेदखल हुआ वह दिन दूर नहीं है कि जब आई.सी.सी. के संगठन से बी.सी.सी.आई. को भी बेदखल होना पडेगा क्योकि राजनीतिज्ञ इसी तरह खेल संगठनोें के बाप बनने की कोशिश करते रहेंगे और खेल संगठनों को सर्वनाश करने में तुले रहेंगे। अंततः खेल को सर्वोपरि बनाने के लिए खिलाडियों का संगठन हो जो खिलाडियों के विकास की बात सोचे खेल को खेल रहने दें दंगल का मैदान न बनायें।
- अनिल अयान , सतना

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

जब शिक्षकों ने दिखाया दम, हम नहीं किसी से कम

जब शिक्षकों ने दिखाया दम, हम नहीं किसी से कम
अध्यापक से शिक्षाकर्मी और फिर संविदा शिक्षक तक के सफर में गुरू के चेहरे का इतना परिवर्तन हो चुका है कि अब मास्टर साहब को मास्टर की संज्ञा दे दी गई। कुछ दिनों पूर्व इस बात को जानकर थोडा खुशी हुई कि शिक्षक कुछ तो जागृत हुए कुछ समय अंतराल में हडताल, मुख्यमंत्राी से मिलना जुलना और फिर कोई परिणाम आ न पाना। इसलिए स्कूटर रैली निकालकर कम से कम शासन को यह तो बताया कि शिक्षकांे की माली हालत क्या हो चुकी उसी काम को करने के लिए सरकार किसी को 20,000 से 40,000 रू0 मासिक वेतन देती है और किसी को कर्मी बनाकर कुछ समय के लिए 5000 से 10000रू0 में निपटा देती है। बेरोजगारी की मार झेल रहे युवाओं को जब कोई अच्छा जाॅब नहीं मिलता तो वह मास्टरी कर लेता है उसकी स्थिति मरता क्या न करता जैसी स्थिति हो जाती है। राधाकृष्णन जी की संज्ञा और गोविंद के समतुल्य इन शिक्षकों का स्थान कितने नीचे इस सरकार ने गिरा दिया है यह सरकार भी नहीं समझ पायी है।
शिक्षक से शिक्षाकर्मियों तक का सफर तो दिग्विजय सरकार ने शुरू किया था जैसे की सफाई कर्मियों की स्थिति थी। फिर शुरू हुआ संविदा शिक्षकों का दौर जिसकी स्थिति और गुड गोबर हो गई। आज के सरकारी स्कूलांे की स्थिति यह है कि मास्टर रोज समय में स्कूल पहुॅचता नहीं है यदि पहुॅच गया तो समय पर बच्चों को पढाता नहीं है। वरिष्ठ शिक्षक इसलिए नहीं पढाता है क्योकि उसका विकास तो 40,000रू0 का वेतन बढा रहा है। बच्चों का विकास भाड में जाए। संविदा शिक्षक इसलिए नहीं पढाता है कि वो अपनी पारिवारिक और आर्थिक समस्याओं के चलते इतना चिंतित रहता है कि पढाने का मन ही नहीं करता। कही यदि कभी पढाने का मन किया भी तो प्राचार्य के आदेश और विभागीय काम की घुडदौड जारी हो जाती है। शिवराज सरकार ने शिक्षा के स्तर को बढाने के लिए शिक्षकों का वेतनमान बढाया तो धन्यवाद की पात्रा है। पर यह भी सच है कि आज उतने वेतन से एक सप्ताह का घर नहीं चलता है। एक महीना घर चलाना सिर्फ बीरबल की खिचडी के तरह ही हाल होगा। आजकल शिक्षकों की स्थिति डेली वेजेज मजदूर से भी बदतर है और बदतर करने वाले हमारे जनप्रतिनिधि और हमारी सरकार। शिक्षक दिवस का ढकोसला मुझे बिल्कुल नहीं भाता। शिक्षक अपना सम्मान करवाने के लिए अधिकारियों की चमचागिरी कर आवेदन पत्रा दें। मैं ये पूछता हूॅ कि वो कमेटी क्या काम करती वो प्राचार्यो और अभिभावकों के मत से शिक्षकों के बारे में जानकारी एकत्रा कर चुनाव करे कि वह पात्राता रखता है कि नहीं। पर नहीं यदि ऐसा हुआ तो सरकारी रेवडी बांटने में लगाम नहीं लग पाएगी। इसलिए शिक्षक दिवस में सरकार सरकारी दामादों को स्वागत करके सम्मानित करती है और सभी शिक्षकों को इस बात का गर्व होता है कि वो डाॅ. राधाकृष्णन के वंशज है उन्हें कितना सम्मान दिया जाता है। यदि शिक्षकों ने समान वेतन समान सुविधाओं की बात की तो वो दोषी हो गया। एक नगर निगम का स्वीपर इन शिक्षकों से अधिक पेमेंट पाता है और घूस जो मिलती है उसकी कोई गिनती नहीं। पोलियों डाॅप पिलाना हो, जनगणना करना हो, सर्वे करना हो या धूप लू में बगारी करना हो सब बिन बुनियाद के अशिक्षकीय कार्यो के लिए सिर्फ शिक्षा के ही सरकार को नजर आता है। क्या और विभाग वाले विशिष्ट लोक से आये है क्या उनकी जिम्मेवारी कुछ नहीं है।
मैं पूछता हूॅ कि जब सरकारी शिक्षक से यदि साल भर पढवाया नहीं जाएगा सिर्फ उपर्युक्त कार्यो की तरह बेगारी करवाया जाएगा तो माॅ सरस्वती की कृपा क्या इतनी ज्यादा इफरात है कि सरकारी स्कूल के बेबस लाचार बच्चों पर मुफ्त में बरसेगा जी नहीं दोस्तो। यदि सरकार को शिक्षकों से उनके हुनर का उपयोग करवाना है तो उन्हें बुनियादी सुविधा उपलब्ध करानी होगी। उनसे सिर्फ पढवाने का कार्य लेना होगा। अन्य जिम्मेवारियों के लिए अन्य विभाग के कुर्सी तोडते कर्मचारी है ना। उनका उपयोग समय-समय पर करना चाहिए।
शिक्षकों का पूरा समूह एक जुट होकर जिस तरह अपनी शक्ति प्रदर्शन किया है वो भी अनुशासित होकर वह पूरे राज्य के संविदा शिक्षक को करना चाहिए। गरम रवैया ही उन्हें उनकी मंजिल तक पहुॅचा सकता है। एक तरफ जब प्रशासन यह कहता पाया गया कि इन पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी तब मुझे लगा कि अपनी आवाज जब बहरों को सुनाने के लिए शक्ति प्रदर्शन करना कहाॅ गलत है वो भी सभी अनुशासन में रहते हुए। यदि इतनी ज्यादा चिंता है तो समान वेतन समान सुविधाएॅ समान कार्य और जिम्मेवारी का सूत्रा अपनाकर इस समस्या को ही खत्म कर दिया जाए। खुद राई का पहाड और तिल का ताड बना लिया और दूसरे पर अंगुलिया उठाई जाने लगी। एक काम के लिए अलग-अलग वेतन माना, अलग-अलग सेवा शर्ते, यह तो दोगलापन हुआ शिक्षक हमारे देश का भविष्य निर्मित कर रहे है और देश की सरकार को चाहिए कि शिक्षक को एक राजपत्रित अधिकारी के बराबर मापदण्ड दें, सेवा शुल्क और सुविधाएॅ प्रदान करना चाहिए तभी उनका वास्तिविक सम्मान उन्हंे प्राप्त होगा अन्यथा अन्य लोगों की तरह शिक्षकों को भी अपनी शक्ति प्रदर्शन करने की आदत पड गई तो स्कूल में बच्चो को कौन पढाएगा और परीक्षा परिणामोें का क्या हाल होगा जनाब इसका जो देश को नुकसान होगा उसके लिए कौन जिम्मेवार होगा इसलिए समस्या को बढाने की बजाय समस्या की जड को खत्म करना चाहिए। शिक्षक का सम्मान हम सब का सम्मान है। इसलिए शिक्षको का हक भी एक समान होना चाहिए। अंत में
झील में पानी बरसता है हमारे देश में
खेत पानी को तरसता है हमारे देश में
यहाॅ नेताओं और बेईमानों के सिवाय
अब खुशी से कौन हंसता है हमारे देश में
- अनिल अयान
मो. 9406781040