सोमवार, 12 अगस्त 2019

आखिर स्वतंत्रता के मायने क्या है?


वंदेमातरम सुजलाम सुफलाम मलयजशीतलाम शस्य श्यामलाम मातरम की परिकल्पना करने वाले बंकिम दा आज खुश होंगें की वंदनीय भारत माता अपने स्वतंत्रता के ७२ वर्ष पूर्ण कर चुकी है। सन १७५७ से शुरू हुआ विद्रोह जो मिदनापुर से शुरू हुआ वह बुंदेलखंड और बघेलखंड में १८०८-१२ के समय पर अपने शिखर में था। अंततः सन अठारह सौ सत्तावन जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का वर्ष माना जाता है। फिर उसके बाद चाहे बंग भंग आंदोलन हो या फिर बंगाल का विभाजन, चा फिर भगत चंद्रशेखर आजाद युग रहा हो। चाहे करो या मरो वाला अगस्त आंदोलन की बात की जाये। या फिर दक्षिण पूर्व एशिया में आजाद हिंद आंदोलन और आजाद हिंद फौज की भूमिका हो। सब इस स्वतंत्रता से अटूट रूप से जुडे हैं। आज के समय में कितना जरूरी हो गया है ,समझना कि आजादी के मायने क्या है. जिस तरह के संघर्ष के चलते अंग्रेज भारत छॊड कर गये और भारत को उस समय क्या खोकर यह कीमती आजादी मिली यह हमे हर समय याद रखना होगा. आज  ७० वर्ष के ऊपर होगया है भारत अपने विकसित होने की राह सुनिश्चित कर रहा है. वैज्ञानिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण के नये आयाम गढ रहा  है. आज के समय समाज, राज्य, राष्ट्र और अन्य विदेशी मुद्दे ऐसे है जिनके चलते स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान में पानी फिरता नजर आ रहा है.
ट्रिस्ट विद डेस्टिनी भाषण के अंश, जवाहरलाल नेहरू ने तात्कालीन समुदाय से लाल किले में जो कहा वह आज इतने वर्षों के बाद भी बहुत महत्वपूर्ण है। जो निम्नलिखित है।“आज एक बार फिर वर्षों के संघर्ष के बाद, भारत जागृत और स्वतंत्र है। भविष्य हमें बुला रहा है। हमें कहाँ जाना चाहिए और हमें क्या करना चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानों और श्रमिकों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम निर्धनता मिटा, एक समृद्ध, लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश बना सकें। हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं को बना सकें जो प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके? कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण हैं। आज हम दुर्भाग्य के एक युग को समाप्त कर रहे हैं और भारत पुनः स्वयं को खोज पा रहा है। आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो केवल एक क़दम है, नए अवसरों के खुलने का। इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है निर्धनता, अज्ञानता, और अवसर की असमानता मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही इच्छा है कि हर आँख से आंसू मिटे............” मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया. अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी. क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ. अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था. उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.
धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है. आजादी ७२ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे. शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.आज के समय में वैचारिक आजादी के मायने विचारों की लीपापोती और विचारों के माध्यम से निकले शब्दों को आक्रामक बनाकर प्रहार करने की राजनीति की जा रही है। आज हम स्वतंत्रता की ७३ वीं वर्षगाँठ मनाने जा रहे है और यह भी जानते है कि आज के समय में कितना जरूरी हो गया है यह समझना कि आजादी के मायने क्या है। जिस तरह के संघर्ष के चलते अंग्रेज भारत छॊड कर गये और भारत को उस समय क्या खोकर यह कीमती आजादी मिली। आज ७३ वर्ष के ऊपर हो गया है स्वतंत्र भारत जो अपने विकसित होने की राह सुनिश्चित करने की उहापोह में संघर्ष कर रहा है। वैज्ञानिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण के नये आयाम गढ रहा है। आज के समय समाज, राज्य, राष्ट्र और अन्य विदेशी मुद्दे ऐसे है कि आज के समय में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान में पानी फिरता नजर आ रहा है। ऐसा महसूस होता है कि पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और आज अपने राजनेताओं के गुलाम हो गये हैं
जब सन सैतालिस में देश आजाद हुआ उस समय की स्थिति और आज की स्थितियों के बीच जमीन आसमान का अंतर हो चुका है यह अंतर समय सापेक्ष है। आज के समय में भारतीय जनता पार्टी का सम्राज्य लगभग पूरे देश के राज्यों में फैल चुका है। और वैचारिक दृष्टिकोण भी इसी पार्टी के रंग में रोगन हो चुका है। आज के समय में राष्ट्रभक्ति की परिभाषा परिवर्तित होकर पार्टी जन्य हो चुकी है। राजनैतिक अवमूल्यन अगर गिरा है तो उसके प्रचार प्रसार को तीव्र करने के लिये समाज के पांचवें स्तंभ की भूमिका महती हो गई है। आज के समय में मीडिया के विभिन्न रूप भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। वर्तमान में स्वतंत्रता के क्या मायने रह गये हैं यह प्रश्न दिमाग को बार बार कचोटता है। संविधान, स्वतंत्रता की पसलियां हैं, संविधान मनवाने वाले इसकी रीढ़ और इस पूरे ढ़ाचे का दिल आम लोग या दूसरे शब्दों में यूं कहे कि संविधान लोगों के दिल में बसता है। वर्तमान में चल रही पसली तोडू स्वतंत्रता को क्या कहा जाये स्वतंत्रता या फिर उद्दंडता ? इसका निर्धारण तो अब जनता को ही करना शेष रह जाता है।  सामाजिक परिस्थितिया लोगों को दुर्भाग्य से बचाने की जगह दुर्भाग्य में झोंकने जैसी हैं। करोड़ों की सेवा का भाव सिर्फ हजारों तक सिमट कर रह गया है! भारत नये युग में कदम तो बढ़ा रहा है पर कीचड़ सने पैरों के साथ, लोग कदम तो नाप रहे हैं पर जमीन गंदी करने के बाद।  देश को दिया जाने वाला समर्पण जात संप्रदाय पर मरने मारने को समर्पित है। संस्थायें बनी तो पर प्राणदायनी की जगह प्राणघातिनी बन बैठी। लोगों की मानसिक संकीर्णता स्वतंत्रता का पर्याय बनने तक पहुँच गई! क्या स्वतंत्र भारत के इसी भविष्य का सपना देखा था उन हजारों लाखों ने जो देश पर मर मिटे? क्या आज की स्वतंत्रता जनाधिकारो को परिपूर्णता तक ले जाती है, आजादी उसी सीमा तक सही है जब तक यह किसी संप्रदाय विशेष को उकसाने या अपमानित करने का कार्य न करे. जहां चित्त भयमुक्त हो, जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें।इसी संदर्भ में 'गीतांजलि' में रबीन्द्र नाथ टैगोर की रचना में स्वतंत्रता के सही मायने को बेहतर ढ़ंग से समझा जा सकता है जिसमें उन्होने लिखा है कि -
जहां ज्ञान मुक्त हो; जहां दिन रात-विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों; जहां हर वाक्य दिल की गहराई से निकलता हो; जहां हर दिशा में कर्म के अजस्त्र सोते फूटते हों; निरंतर बिना बाधा के बहती हो जहां मौलिक विचारों की सरिता; तुच्छ आचारों की मरू रेती में न खोती हो, जहां पुरूषार्थ सौ-सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो; जहां पर कर्म, भावनाएं, आनंदानुभूतियां सभी तुम्हारे अनुगत हों, हे प्रभु, हे पिता  अपने हाथों की कड़ी थपकी देकर उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ।
अनिल अयान,सतना
संपर्क - ९४७९४११४०७
ईमेल - ayaananil@gmail.com

सोमवार, 8 जुलाई 2019

बढती जनसंख्या- घटते संसाधन ; संघर्षशील आगामी पीढ़ी

विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष (11 जुलाई)

बढती जनसंख्या- घटते संसाधन ;  संघर्षशील आगामी पीढ़ी 

विश्व पूरी तरह से जनसंख्या विस्फोट का सामना करने की दहलीज में खड़ा है, और तो और जिस रफ्तार से भारत कि आबादी बढ़ रही है, उससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि साल 2030 तक वो चीन को भी पीछे छोड़ देगा साल 2017 के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में भारत की आबादी 1.34 अरब है. हर साल अन्य देशों के मुकाबले भारत में जन्म दर ज्यादा है. विश्व की 17.85 प्रतिशत आबादी अकेले भारत की है. भारत की ‘पॉपुलेशन ग्रोथ रेट’ 1.2 प्रतिशत है जिससे ये अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि 2030 तक भारत की आबादी 1.53 अरब हो जायेगी. इन सब आंकड़ों के बीच यह जरूरी हो जाता है कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व व्यापी अभियान की परिकल्पना को साकार किया जाए ताकि कुछ हद तक तो इस मानव महासागर की वृद्धि पर लगाम लगाया जा सके। इस हेतु विश्व जनसंख्या दिवस एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता अभियान है, जिसे पूरे विश्व में मनाया जाता है ताकि लोगों को इस मंच पर हर साल जनसंख्या बृद्धि के कारण बताये जा सके, साथ ही साथ पूरे मानव समुदाय के साथ मिल कर इस समस्या को हल किया जा सके। यह कार्यक्रम विश्व भर में सन 1989 से चलाया जा रहा है ताकि, विश्व स्तर पर आबादी क्रांति लाइ जा सके, साथ ही साथ गहरी नींद में सोये लोगों की नींद तोड़ी जा सके ताकि वो अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें और जनसंख्या बृद्धि के मुद्दे पर मदद कर सकें।विश्व जनसंख्या दिवस एक महान कार्यक्रम है जो कि 11 जुलाई को दुनिया भर में मनाया जाता है। यह दुनिया भर में जनसँख्या या बढ़ते आबादी के मुद्दों पर लोगों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है।
इसके ऐतिहासिक पक्ष को देखे तो हमें समझ मॆं आयेगा कि ये विश्व व्यापी कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की शासी परिषद द्वारा पहली बार 1989 में शुरू हुआ था। जब जनता की आबादी करीब पांच बिलियन के करीब आ गई। तब वर्ष 1987 में 11 जुलाई को जनता के हित के लिए इस दिन की शुरुवात की गयी। यह दुनिया भर में आबादी मुद्दों पर लोगों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है।संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की गवर्निंग काउंसिल का लक्ष्य समुदाय के लोगों में प्रजनन स्वास्थ्य समस्याओं की ओर ध्यान देना है। इस कार्यक्रम में प्रमुख उद्देश्य जो रखे गए वो मुख्य रूप से किशोर और युवा पीढ़ी पर आधारित किए गए। इस कार्यक्रम के तहत लड़कियों और लड़कों दोनों के लिंग को संरक्षित करने और सशक्त बनाने के लिए मनाया जाता है। उन्हें अपने जीवन शरीर और देर से विवाह के बारे में जानकारी देने के लिए, जब तक वे अपनी जिम्मेदारियों को समझने में सक्षम न हो जाएं। युवाओं को उचित और युवाओं के अनुकूल उपायों का उपयोग करके अवांछित गर्भधारण से बचने के लिए शिक्षित करना इसका उद्देश्य है।। लोगों से समाज से लैंगिक रूढ़िवाइयों को दूर करने के लिए शिक्षित करना , प्रारंभिक जन्म के खतरे के बारे में जन जागरूकता बढ़ाना और उन्हें गर्भधारण संबंधी बीमारियों के बारे में शिक्षित करना, उन्हें एसटीडी (यौन संचारित रोगों) के बारे में शिक्षित करना ताकि उन्हें विभिन्न संक्रमणों से बचाया जा सके। बालिका अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ प्रभावी कानूनों और नीतियों के कार्यान्वयन की मांग करना। लड़कियों और लड़कों दोनों को समान प्राथमिक शिक्षा के उपयोग के बारे में सुनिश्चित करना। यह सुनिश्चित करना, कि हर जोड़े के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य हर जगह प्रजनन स्वास्थ्य सेवायें आसानी से पहुंच सकें। आदि बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जो हर समाज की समस्या है और इन समस्याओं को दूर करना कहीं ना कहीं इस विश्वव्यापी अभियान के मुख्य उद्देश्यों में शामिल भी हैं। हर वर्ष यह दिवस किसी ना किसी केंद्रीय विषय पर अधारी ति होता है। इस बार का केंद्रीय विषय 'परिवार नियोजन मानव का अधिकार है'.।
अगर मोटे तौर पर देखा जाए तो किसी देश की जनसंख्या जितनी ज्यादा होगी उस देश की में प्राकृतिक संसाधनों और स्त्रोतों की ज्यादा जरूरत होगी। और इस स्थिति में उस देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है। चीन ने इस समस्या को पहले ही भांप लिया था, इसीलिए कई दशक पहले उसने एक बच्चे से अधिक पैदा करने पर कई तरह के दण्ड लगा दिए थे। जिसकी वजह से ज्यादातर लोग एक ही बच्चा पैदा करते थे। हालांकि अब इसमें कुछ बदलाव किया गया है। इस अतिक्रमी आबादी का दुष्प्रभाव दक्षिण एशियाई देशों जैसे चीन, बांग्लादेश, फिलीपींस, भारत और पाकिस्तान में आसानी से देखा जा सकता है। 7 अरब की आबादी वाले विश्व में 1.3 अरब जनसंख्या के साथ भारत आबादी के मामले में दूसरे नंबर पर आता है। और देश की तमाम गंभीर समस्याओं के साथ यह भी एक गंभीर समस्या है। भारत में कई प्रदेशों की जनसंख्या तो विश्व के कई देशों की जनसंख्या से भी ज्यादा है। और उनमें सबसे आगे है-उत्तर प्रदेश। जिसमें 166 मिलियन यानी 16 करोड़ से भी ज्यादा की जनसंख्या निवास करती। जो की रूस की जनसंख्या से ज्यादा है। क्योंकि रूस की कुल जनसंख्या लगभग 15 करोड़ के आस-पास की है। इसी प्रकार उड़ीसा कनाडा से छत्तीसगढ़ ऑस्ट्रेलिया से ज्यादा आबादी वाले प्रदेश हैं।जितने भी देश जनसंख्या की दृष्टि से सबसे पहले खड़े हुए हैं उनकी इस बीमारी के पीछे कुछ बुनियादी कारण भी हैं। उनके अस्पतालों में मृत्यु दर के मुकाबले जन्मदर में अधिकता है।  भारत में अभी स्थिति यह है कि जन्म दर मृत्यु दर के मुकाबले बहुत अधिक है। 2016 के हिसाब से देखें तो 2016 में जन्म दर 19.3 प्रति 1000 था। अर्थात किसी एक निश्चित समय अवधि में 1000 लोगों को बीच 19.3 नए बच्चे जन्म ले रहे हैं। यानी हर पल लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। ये नही कहा जा रहा है कि मृत्यु दर को बढ़ाया जाए बल्कि ध्यान इसपर देना चाहिये कि जन्मदर को कैसे कम किया जाय। भारत में अधिकतर लोगों के पास अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कोई योजना नहीं होती। उन्हें लगता है कि 15 से 45 वर्ष की आयु में कभी भी बच्चे पैदा कर सकते हैं, और इस प्रकार उनके कई बच्चे हो जाते हैं। जिससे उनके घर की आर्थिक स्थिति पर गहरा असर तब पड़ता है, जब वह बच्चे बड़े होने लगते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होते ही साड़ी व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। भारत जैसे देश में आज भी रूढ़िवादी मानसिकता वाले लोगों की कमी नहीं है, जो यह सोचते हैं कि परिवार बढ़ाने की योजना बनाना गलत है। जो कुछ भी है भगवान की देन है। अधिकतर वह महिला जो बच्चे को जन्म देने वाली है उनसे इस विषय में कुछ नही कर पाती क्योंकि ऐसा करना भगवान के खिलाफ जाने जैसा हो जाता है। वहीं मुस्लिम धर्म का तो अलग ही उसूल है, हिंदू के मुकाबले मुस्लिमों का जन्मदर कई गुना ज्यादा है। कुछ सर्वेक्षणों की मानें तो पुराने ख्यालात के साथ-साथ अपनी कौम को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के चक्कर में मुसलमान दर्जनों का परिवार खड़ा कर लेते हैं। कम उम्र में शादी भी जनसंख्या वृद्धि के प्रमुख कारणों में से एक हैं। आज के इस आधुनिक युग में भी बहुत सारे बच्चे-बच्चियों की शादी कम उम्र में ही हो जाती है। उनकी शादी तभी कर दी जाती है, जब वह ना तो शारीरिक और मानसिक तौर पर फिट होते हैं और ना ही आर्थिक और भावनात्मक तौर पर मजबूत होते हैं। इस स्थिति में उनके भी कई सारे बच्चे हो जाते हैं जो कि जनसंख्या वृद्धि को और बढ़ावा देते हैं। गरीबी भी देश की जनसंख्या बढ़ाने में अहम किरदार निभाती है। बहुत सारे परिवार के लोग इसलिए भी कई बच्चे पैदा कर लेते हैं क्योंकि उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए बच्चों की सहायता की जरूरत पड़ती है। उनकी गरीबी उनको मजबूर करती रहती है कि वो कई बच्चे पैदा करें। बच्चे तो हो जाते हैं हैं लेकिन उनका भरण-पोषण वो अच्छे से नहीं कर पाते, जिससे वो गरीब से और गरीब होते चले जाते हैं।  अगर पर्याप्त शिक्षा मिले तो परिवार नियोजन की कमी, धार्मिक रूढ़िवादिता, कम उम्र में शादी और गरीबी जैसे मुद्दों पर लड़ाई लड़ी जा सकती है। परिवार नियोजन ना सीधे-सीधे अशिक्षा और अज्ञानता की कमी की ओर इशारा करते हैं, खासकर महिलाओं में। जो लोग अशिक्षित होते हैं उन्हें आँकड़े नही समझ में आते। उनको ये बात समझना मुश्किल हो जाता है कि देश में जनसंख्या विस्फोट से कितनी समस्याओं का जन्म होता है। 
आज के इस आधुनिक युग में अतिक्रमी जनसंख्या यानी जनसंख्या विस्फोट पर रोक लगाने में सफलता पा लेने का मतलब है- गरीबी, अशिक्षा बेरोजगारी आर्थिक पिछड़ापन जैसे तमाम समस्याओं से दूर कर देना। हालांकि यह सब कुछ कर पाना इतना आसान नहीं है, लेकिन अगर कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया जाए तो काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है। एक समृद्ध और खुशहाल देश के लिए यह जरूरी होता है कि उस देश के आम आदमी स्वस्थ रहें और उनकी जनसंख्या देश की आर्थिक स्थिति के अनुरूप हो।यह तभी संभव है जब उस देश के आम आदमी इस बात को समझेंगे और परिवार नियोजन के उपाय अपनाकर जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में अपना योगदान देंगे। दो बच्चों के बीच एक निश्चित अवधि का अंतर होता है तो माता-पिता के साथ साथ बच्चों के स्वास्थ्य भी ठीक-ठाक रहेगा। जब स्वास्थ्य ठीक रहेगा तो उनकी शिक्षा-दीक्षा भी सही रह पाएगी। हालांकि हमारे देश के संविधान में लड़कियों की शादी 18 और लड़कों की 21 वर्ष में शादी का प्रावधान है, लेकिन देश के कई हिस्सों में अभी भी लोग बहुत कम उम्र में शादी कर देते हैं। जो कि समाज के लिए काफी घातक होता है। महिलाओं के सशक्तिकरण से देश बढ़ रही जनसंख्या को कम करने में आसानी मिल सकेगी। बहुत सारे मामलों में देखा जाता है कि परिवार बढ़ाने के मामले में महिलाओं की कोई राय नहीं ली जाती। ऐसे में अगर महिलाओं में सशक्तिकरण का विकास होगा तो उनमें भी निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा। और उन निर्णयों को अमल में लाने की क्षमता का भी विकास होगा।
शिक्षा एक ऐसी कड़ी है जिसके बिना कुछ भी संभव पाना मुश्किल ही है। शिक्षा अगर नहीं है तो समाज के किसी भी वर्ग का उत्थान नहीं हो पाएगा। शिक्षा रहेगी तो लोगों को अच्छे-बुरे में फर्क करना समझ में आ जाएगा। साथ ही उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में भी सुधार होगा। उदाहरण के तौर पर किसान को ले लेते हैं क्योंकि किसान एक कमजोर आर्थिक स्थिति से आते हैं। अगर उनको अच्छी शिक्षा ना मिली तो वह वैसे ही रह जाएंगे जैसे उनकी पिछली पीढ़ी थी। हमारे देश और समाज में एक बड़ी संख्या में ऐसी आयु वर्ग के लोग हैं जिन्हें अब स्कूल भेज पाना मुश्किल है। लेकिन अगर उन्हें अच्छे से समझाया जाय कि अधिक आबादी के दुष्परिणाम क्या होते हैं तो स्थिति को सुधारा जा सकता है। वास्तव में विश्व जनसंख्या दिवस को मनाना तभी सार्थक हो सकता है जब हम बढ़ती जनसंख्या के प्रति जागरूक रवैया अपनाएं और इसके विभिन्न पहलुओं व हितों पर ध्यान देते हुए जनसंख्या विस्फोट में कमी लाने का प्रयास करें। जनसंख्या वृद्धि के विभिन्न कारणों पर विचार कर इनके लिए उपायों पर ध्यान देना भी उतना ही जरूरी है।

अनिल अयान,सतना
संपर्क- ९४७९४११४०७

मंगलवार, 18 जून 2019

शिक्षा का अधिकार, कितना हुआ साकार

शिक्षा का अधिकार, कितना हुआ साकार

विद्यालयों में कमजोर वर्ग के बच्चो के लिए शिक्षा के अधिकार के तहत प्रवेश प्रक्रिया जारी हो चुकी है, इस प्रक्रिया को हमारे देश में लागू हुए लगभग दस साल के ऊपर हो चुका है किंतु आज भी बहुत से जरूरत मंद माता पिता इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरुक ना होने से परेशान रहते हैं, इसलिए शिक्षा का अधिकार आज के समय कई लोगों के लिए अन सुलझी पहेली बनकर रह गया है। शिक्षा के अधिकार के अतीत के बारे में टटोलें तो पता चलेगा कि दिसंबर, 2002 को संविधान में 86वाँ संशोधन किया गया और इसके अनुच्छेद 21ए के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है। इस मूल अधिकार के क्रियान्वयन हेतु वर्ष 2009 में भारत  सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में एक युगांतकारी कदम उठाते हुए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया। इसका उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सार्वभौमिक समावेशन को बढ़ावा देना तथा माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन के नए अवसर सृजित करना है। इसके तहत 6-14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के लिये शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में अंगीकृत किया गया। किंतु एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण प्राथमिक शिक्षा की स्थिति उत्साहजनक नहीं है। इसके अनुसार, 14-18 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 14 फीसदी ग्रामीण युवाओं का कही भी नामांकन नहीं हुआ है। 14-18 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 25% युवा अपनी भाषा में स्पष्ट रूप से बुनियादी पाठ तक पढ़ने में सक्षम नहीं पाए गए। उच्च विद्यालयी शिक्षा तक पहुँचने वालों में सीखने के परिणाम काफी कम पाया गया। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ग्रामीण), 201८के निष्कर्ष दर्शाते हैं कि नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम  को 6-14 वर्ष के आयु वर्ग तक सीमित ना रखते हुए इसे 18 वर्ष तक के सभी बच्चों तक विस्तृत करने की आवश्यकता है।
          शिक्षा का अधिकार अधिनियम  के क्रियान्वयन के विषय में मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय से लोकसभा में पूछे गए अतारांकित प्रश्नों के संबध में दिये गए लिखित उत्तर निश्चित ही, लगभग एक दशक से चले आ रहे इस अधिनियम के क्रियान्वयन की आपातकालीन स्थितियों को दर्शाते हैं। इस अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) के तहत निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को अनिवार्य रूप से  6 से 14 साल की आयु वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के बच्चों के लिये 25% सीटों को आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार इस अधिनियम ने आर्थिक रूप से हाशिये वाले समुदायों को राज्य द्वारा उठाए गए खर्चे पर उच्च गुणवत्ता वाले निजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्ति हेतु सक्षम बनाया है । किंतु अभी तक पाँच राज्यों गोवा, मणिपुर, मिज़ोरम, सिक्किम और तेलंगाना ने आरटीई के तहत प्रवेश के संबंध में कोई अधिसूचना जारी नहीं की है। हालिया गठित तेलंगाना को यदि छोड़ दिया जाए, तब भी शेष राज्य आठ साल पहले पारित इस अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) को लागू करने में असफल रहे हैं। RTE अधिनियम के प्रावधानों के तहत राज्यों को निजी स्कूलों में भर्ती बच्चों के संबंध में, उनके भुगतान करने के लिये सूचित करना होता है हालाँकि, 29 राज्यों और सात केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल 14 ने प्रति बाल लागत को अधिसूचित किया है लक्षद्वीप में कोई निजी स्कूल नहीं है, इसलिये प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक 20 राज्यों/ केंद्रशासित प्रदेशों ने अभी भी प्रति-बाल लागत अधिसूचित नहीं किया है। इसका मतलब यह है कि 18 राज्यों में, अधिकतम गरीब बच्चे इस अधिनियम के तहत लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। यदि भर्ती होने वाले छात्रों की संख्या को दर्ज करने के लिये कोई डेटा नहीं है, तो यह सवाल उठता है कि राज्य निजी स्कूलों की  प्रतिपूर्ति कैसे कर रहे हैं। संबंधित राज्य सरकारों और केंद्र को इस विशिष्ट बिंदु को स्पष्ट करना चाहिये। ऐसी खामियाँ जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है।
          इस अधिनियम के गैर-कार्यान्वयन को लेकर पूरे देश में शिथिलता का वातावरण है, इसलिये केंद्र सरकार को सभी राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के साथ बैठक आयोजित करनी चाहिये और आरटीई कानून के कार्यान्वयन की समीक्षा करनी चाहिये। आरटीई को निजी स्कूलों के लिये शिक्षा के माध्यम से समाज के वंचित वर्गों को ऊपर उठाने वाले राज्य के प्रयासों को पूरक बनाने के लिये एक ढाँचा उपलब्ध कराना चाहिये। इसके साथ ही कानून के क्रियान्वयन में अंतराल को दूर करने के लिये तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता है। सबसे प्रमुख बात यह है कि हमारे बच्चों का भविष्य इन सभी सार्थक प्रयासों पर ही निर्भर करता है।आरटीई के क्रियान्वयन गुणवत्ता समेत सहित सभी पहलुओं पर निगरानी के लिए राष्ट्रीय  और राज्य बाल अधिकार आयोगों को भूमिका दी गई थी आयोग बन भी गए हैं, लेकिन निगरानी का तंत्र भी अभी तक विकसित नहीं हो पाया है। इन सब रुकावटों के बावजूद कुछ ऐसी कहानियां और प्रयोग हैं, जो उम्मीदों को बनाए हुए हैं यह कहानी जबलपुर विकासखंड का बरगी क्षेत्र में स्थित गांव सालीवाड़ा में तो 65 वर्षीय राम कुंअर नेताम की है, जिन्होंने अपने गांव में मिडिल स्कूल के लिए जमीन नहीं मिल रही थी, तो उसके लिए अपनी जमीन दान में दे दी। वे खुद चौथी तक ही पढ़ सके थे, लेकिन वे शिक्षा के महत्त्व को बखूबी जानते हैं, उनका कहना है किमै और मेरे बच्चे नहीं पढ़ सके तो क्या मेरे गांव के बच्चे आगे तक पढ़ सकें  बस यही सपना है।देश के अलग-अलग राज्यों में कई छोटे- छोटे प्रयोग हो रहे हैं। इसी तरह का एक प्रयोग दिल्ली में हो रहा है, जिसे कुछ युवा अंजाम दे रहे हैं उन्होंने इस पहल को नाम दिया हैसाझा”, यह लोग दिल्ली के स्कूलों में बेहतरी के लिए काम कर रहे है, इनकी कोशिश है कि कैसे शिक्षकों , पालकों और शाला प्रबंधन कमेटी को एक दूसरे से जोड़ते हुए काम किया जाए।साझामानवीय भावनाओं पर जोर देते हुए ये कोशिश करती है कि कैसे स्कूल और समाज और एसएमसी को जोड़ कर बदलाव लाया जाए।हमें इन प्रयोगों से सीखने और उन्हें व्यापक बनाने की जरूरत है, जिससे यह दूसरों के लिए उदाहरण और मॉडल बन सके। हमें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल राज्य का ही विषय नहीं है और केवल ठीकरा फोड़ने से मामला और बिगड़ सकता है। स्कूलों को सरकार और समाज मिल कर ही सुधार सकते हैं। सरकारों को भी कोशिश करनी होगी कि स्थानीय स्तर पर समुदाय को लोग और पालक आगे आकर जिम्मेदारियों को उठा सकें।
इधर, 6 साल बाद यह भी देखना होगा कि शिक्षा का अधिकार कानून अपने ही रास्ते में रोड़ा तो नहीं बन रहा है। 2009 में हम ने जहां से शुरुवात की थी, अब उससे पीछे नहीं जा सकते हैं इसलिए अब जरूरत केवल आरटीई के प्रभावी क्रियान्वयन की नहीं है बल्कि इसे कानूनी और सामाजिक दोनों रूपों में विस्तार देने की जरूरत है। कुछ ऐसा करने की जरूरत है कि हमारे देश में यह एक अभियान की तरह प्रचारित और क्रियान्वयित हो, इसका लाभ हर जरूरतमंद परिवार के बच्चों को मिल सके। पालक अधिकारियों के चक्कर लगाने की बजाय सिर्फ सही दिशा में बच्चे का प्रवेश प्राप्त कर उज्जवल भविषय में योगदान दे सके।

अनिल अयान,सतना