शनिवार, 24 अगस्त 2013

परसायी की नजर में.... डरना मना है.....अनिल अयान,,,,,,सतना


परसायी की नजर में.... डरना मना है.....अनिल अयान,,,,,,सतना,
हरिशंकर परसायी को पढना आज के समय की जरूरत है. उन्होने जो लिखा , जैसा लिखा , जिस समय लिखा वह इतना महत्व नहीं रखता है जितना कि यह महत्व रखता है कि उसकी जरूरत आज भी बहुत ज्यादा है. आज के समय में उनकी रचनाये एक आईने की तरह काम कर रही है. और यह भी सच है कि समाज की विशंगतियों के सामने उसके जैसा कलम का योद्धा ही है जो बिना हार माने आज भी खडा हुया है. लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है. और उसकी विवशताओं के साथ अपने को साथ रख कर आक्रोशित भी होता है और दुखी भी होता है.हम चाहें कहानी संग्रह हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव, पढे. या फिर नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल ,तब की बात और थी भूत के पाँव पीछे, बईमानी  की परत, पगडण्डियों का जमाना,शिकायत मुझे भी है ,सदाचार का ताबीज ,प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा,  वैष्णव की फिसलन ,तिरछी रेखाये , ठिठुरता हुआ गड्तन्त्र, विकलांग श्रद्धा का दौरा |सभी में आज के समय में चल रहा भ्रष्टाचार, पाखंड , बईमानी आदि पर परसाई जी ने अपने व्यंगो से गहरी चोट की है | वे बोलचाल की सामन्य भाषा का प्रयोग करते है चुटीला व्यंग करने में परसाई बेजोड़ है |हरिशंकर परसाई की भाषा मे व्यंग की प्रधानता है उनकी भाषा सामान्यबी और सरंचना के कारण विशेष शमता रखती है |  उनके एक -एक शब्द मे व्यंग के तीखेपन को देखा जा सकता है |लोकप्रचलित हिंदी के साथ साथ उर्दू ,अंग्रेजी शब्दों का भी उन्होने खुलकर प्रयोग किया है |पारसायी के  जीवन का हर अनुभव एक व्यंग्य रहा है. परसाई ने अपने जीवन के अनुभव को रचनाओं में उकेरा है. समाज की विशंगतियों को अपने नजरिये से देखा है. उसे कलम की ताकत से दबोचा है, और फिर पोस्टमार्टम करके पाठकों के सामने रखा है. आज परसाई नहीं है आज भी उनकी रचनाओं को मंचन किया जा रहा है. आज भी उनके दरद . उनके रचना कर्म को समझ कर समाज को दिखाया जारहा है.उन्होने समाज के हर उस धतकरम को ललकारा है.चुनौती दी है और उसके खिलाफ आवाज उठाई है जिसमें आम लेखक और कलम कार अपनी कलम फसाने को जान फसाने की तरह मानते है.हरिशंकर परसाई ने बता दिया है कि व्यंग्य वह विधा है और उस कंबल की तरह है जो शरीर में गडता तो है परन्तु समाज को ठंड से बचाता भी है. उनकी हर रचना कालजयी है. और भविष्य़ में भी रहेगी. जब तक इस समाज में मठाधीश रहेंगें और आम जनों के चूल्हे में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते रहेंगे. तब तक हर रचना दरद अत्याचार बेबसी और विवशता को चीख चींख कर बयान करती रहेगी. पारसाई वो कलम कार है जिन्होने साहित्यकारों को भी आडे हाथों लिया है. उन्हे बहुत गुस्सा आती थी जो साहित्यकार सम्मान के पीछी भागता था. उनका मानना था, कि हर अच्छे कलमकार का वास्तविक पुरुस्कार पाठकों और समाज के द्वारा दिया जाने वाला सम्मान है. बाकी सब तो चाटुकारिता के अलावा कुछ नहीं है. आज के समय में जो घट रहा है वह परसाई ने पहले हीं भाँफ लिया था.
आज के समय के लेखकों का यह मानना है कि परसाई ने जो भी किया वह सिर्फ उनके समय की माँग थी और कुछ नहीं जो भी लिखा गया वह सिर्फ उनहे मन के फितूर के अलावा कुछ भी नहीं है. परन्तु यह नहीं है. उन्होने अपनी रचनाओं में प्रगतिशीलता की बात की है. और उन प्रगतिशीलों की लंगोट को विशेश रूप से जाँची है जिन्होने प्रगतिशीलता के नाम पर अस्लीलता और नंगेपन को ओढा हुआ है और इसको साथ में रखना और रचनाओं में दिखाना अपनी प्रतिष्ठा का मूल मंत्र समझते है.परसाई देखते है कि वो अपनी लंगोट को कितना सूखा रख पाने में सफल है इस तरह की प्रगतिशीलता का केशरिया चोला ओढने के बाद. सच तो यह है कि परसाई उस प्रगतिशीलता को अपनाये हुये थे जो समाज को परिवर्तित कर नये आयाम से जोड सके परन्तु आज के समय में इस प्रथा को लेकर है अपने अपने झंडे और डंडे गाडे उनके नाम को कैश कर रहे है और उस पर सरे आम ऐश कर रहे है. आज के समय में प्रेमचंद्र और परसाई समाज की जरूरत है और माँग जब ज्यादा हो तो जरूरी है कि सही रूप में हम आगामी पीढी को विरासत का सही रूप सही सलामत सौपें नहीं तो आज तक इतिहास लिखने वाले प्रभावी रहे है. और साहित्य का इतिहास भी इसी तरह से मठाधीशों के हाथ के द्वारा लिखा जायेगा तो परसाई जयंतियों में याद करने के योग्य ही बचेगें आज के समय में हर पाठक को परसाई को प्ढना चाहिये जिससे उसके ह्रदय में जल रही आग की गर्मी को कुछ सुकून मिलेगा.....उसकी प्रमुख वजह यह है कि परसाई ने हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। ......

बुधवार, 21 अगस्त 2013

पुलिस सोती,जनता रोती


पुलिस सोती,जनता रोती
अंग्रेजों ने पुलिस की स्थापना इस लिये की ताकि वो लाटसाहबों के हुक्म को बजा सके और आज के समय में अब लाट साहब तो रहे नहीं इसलिये आज के समय मे पुलिस राजनेताओं का हुक्म बजा रही है. और इसका परिणाम रहा है कि पुलिस इतना थक जाती है कि समय आने में सो जाती है और जनता इसी वजह से रोती है.१८६१ के एक्ट के अनुसार जब पुलिस बनी तो यह माना गया कि पुलिस राजनैतिक दॄष्टि से लाभकारी हो.सत्ता का हर आदेश पालन करे .व्यवस्था कायम रखे और शांति बनाये रखे.आजादी के बाद ऐसा माना जाता था कि पुलिस का हो सकता है कि रवैये में परिवर्तन आजाये.परन्तु तब से ले कर आज तक हाल और चाल बद से बदतर हो गया है,.यह सच है कि कोई घटना के घटने में पुलिस महकमें को आडे हाथों लेते है . खूब खिंचायी करते है. परन्तु आज के समय की पुलिस अपंग और चिडचिडी होती जारही है. कारण यह है कि उनके लिये कोई ला और आर्डर नहीं होता है. ड्य़ूटी आने के टाइम होता है परन्तु जाने का कोई टाइम नहीं है. जनता की सेवा कितनी होती है यह तो नहीं पता किन्तु कोई भी मंत्री संत्री या तंत्री आ जाये तो पुलिस की सामत आजाती है.तब तो खाना नहाना सोना जगना सब बेटाइम हो जाता है. आज के समय में पुलिस का काम शांति स्थापना करना जरूर है परन्तु अशांति व्यवस्था बनाने में इनका काफी योगदान होता है. जनता के अनुपात में ना ये सही होते है और ना ही इनके पास कोई आधुनिक हथियार होते है आज भी पुलिस के पास वही पुराने जमाने की थ्री नाट थी बंदूक है और अधिकारियों के पास पिस्तौल है. अधिक्त्तर देखा जाता है कि जो हथियार आर्मी, पैरामलेट्री से रिजेक्ट कर दिया जाता है वह राज्य स्तरीय पुलिस के लिये चयन किया जाता है.
आज के समय में जनता पुलिस थाने में ऐसे जाने से डरती है जैसे कि उसे एफ आई आर लिखवाने नहीं बल्कि सजा भोगने के लिये थाने भेजा जा रहा है. जनता के और पुलिस के संबंधों को मधुर बनाने के लिये यह प्रयास गया कि जनता स्वागत केंद्र खोले गये और कई जिलों के थानों में यह कारगर रूप से काम भी कर रहे है. परन्तु कुछ बदनाम थाने में स्वागत केंद्र में आम जनता का ऐसा स्वागत किया गया कि दोबारा स्वागत करवाने की नौबत ही नहीं आयी.पूरी स्टडी  के बाद पता चलता है. की काम की बहुत ज्यादा मात्रा होने के बाद, परिवार से दूरी बढने के साथ, अधिकतर तनाव का प्रभाव हमारी पुलिस में साफ साफ दिखने लगती है. इसके पीछे इनका कोई दोष नहीं है. जब स्थानों में स्थित थानों के अंदर संख्या की मांग अधिक होती है और पुलिस वालों की आपूर्ति कम होती है तब काम का बोझ बढ जाता है. शासन की तरफ से एक निश्चित वेतनमान मिलने के बाद  भी जरूरते पूरी नहीं होती है. पूरा परिवार अपने मुखिया का समय पाने के लिये तरसता रहता है. पुलिस के निम्नतम स्तर की इकाई कांस्टेबल से लेकर मुंशी तक की सामाजिक स्थिति कुछ ऐसे ही है. और उसके बाद जितना अधिक ओहदा बढता जाता है परिवार के लिये समय उतना ही कम हो जाता है. मजबूर पुलिस करे भी तो क्या करे चाहे चोरी हो डकैती हो, बलवा हो दंगे हो सीमित संसाधनों के साथ अपने रफ टफ पोजीशन को बरकरार रखना बहुत कठिन हो जाता है. जब बीमार जवानों की छुट्टियाँ रद्द की जाती है और उनसे विवशतापूर्ण काम कराया जाता है तो वो सोयेगें ही,और जनता रोयेगी ही,आज के समय में अपराध बढ रहा है ,अपराधी बढ रहे है, अपराधियों के ऊपर लगाये गये इनाम बढा दिये जाते है परन्तु पुलिस को सुविधाओं के नाम पर ढेंगा दिखा दिया जाता है. यह सब सतना रीवा ही नहीं वरन पूरे देश में यही हाल है. हम कभी अपने को एक कांस्टेबल की इस परिस्थियों में अपने को रख कर देखें तो समझ में आता है. कि हमारी स्थिति शायद इनसे बुरी होती. पुलिस के अलावा नगर रक्षा समिति,होमगार्ड  और नगर सेना की स्थिति इससे भी बदतर है. एक मजदूर की कमायी और स्तर ज्यादा सम्मान जनक होती है परन्तु इन तीनों की स्थिति यह है कि इनका सक्रिय रूप से कोई माई बाप नहीं है.यह तय है कि इनकी स्थिति उस नंगे की तरह है जो नहायेगा क्या और निचोडेगा क्या, इनकी आर्थिक स्थिति एक मजदूर से भी बदतर है.आज के समय में जनता के बीच में शांति व्यवस्था बनाये रखना, और अनुशासन बनाये रखना बहुत ज्यादा कठिन है. जनता भी जागरुक है. और पुलिस अपने हतकंडों से बाज आती नहीं है. पुलिस अपना इरीटेशन और तनाव बेबस गरीब जनता पे उतारती है. आज समय की जरूरत है कि सरकार को पुलिस के प्रति अपना रवैया बदलना होगा. सुविधा और हथियारों से लैस , जनता के और पुलिस के संबंधों पर पुनः विचार करने और नये तरीके से सामन्जस्य बैठाने की आवश्य्कता है. वरना जनता की बौखलाहट पुलिस की इमेज इसी तरह खराब करती रहेगी. और पुलिस इसी तरह जनता के हाँथों से पिटती रहेगी. और नेता नपाडी सिर्फ खींस निपोरने के अलावा कुछ काम नहीं करेगें.
अनिल अयान,सतना.

बुधवार, 7 अगस्त 2013

अपाहिज प्रशासन में मौत का आशन

अपाहिज प्रशासन में मौत का आशन
सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है. सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस अपाहिज प्रशासन में मौत का आशन
सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है. सतना के बीच बाजार में जो भी हुआ उसके बारे में कोई विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु यहाँ भी तय है की इस तरह के हादसे अपने शहर की शान्ति के लिए घातक है. आज प्रश्न यह उठता है की ऐसे हादसे होते क्यों है. कौन जिम्मेवार होता है इस तरह के हादसों के लिए. आज जिस तरह सतना के बीच बाजार में एक भारी वाहन घुस कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है.
आज भले ही प्रशासन कुछ भी बहाने बना ले परन्तु यह  भी तय है की लोगों की जानों की कीमत सिर्फ बहानेबाजी नहीं होसकती है. हम क्यों भूल जाते है की जिस तरह यह हादसा हुआ उस तरह के कई हादसे इस शहर में हो चुके है. और तब ही नों इंट्री की बात को हवा मिलती है. कुछ दिनों के बाद मामला शांत हो जाता है और प्रशासन भी अपने काम में उसी तरह लग जाता है. जैसे  की कोई बुरा सपना देखा हो. आज जरूरत है की नियमों  पर पुनः समीक्षा हो और यह तय किये जा सके की ऐसे हादसों के लिए पुलिश के आलावा और कौन से कारक है जो सतना के प्रशासन के थू थू करने के लिए जनता को मजबूर करते है. प्रशासन हमें सुरक्षित रखने के लिए पुलिस देती है. पुलिस अमले की जवाबदारी है की जनता के रक्षा करे. प्रशासन ने नियम बनाया की सुबह से रात तक भारी वाहन प्रवेश करे तो भी प्रवेश होते वाहनों के लिए जिम्मेवार कौन है. क्या पुलिस प्रशासन इतना निकम्मा हो गया की उसके घर के खर्चो के लिए भारी वाहनों के द्वारा दी जाने वाली बकसीस से दिन गुजर रहे है. क्या सरकार को और वेतनमान बढाने की आवश्यकता है ताकि पुलिस वाले इस तरह के नीचतापूर्ण कार्य बंद करने की महान कृपा करे. और नो इंट्री का सख्ती से पालन हो. यह भी सच है की पिछले कुछ महीनों से पुलिश अपहरण कांडो में इतना व्यस्त हो गयी के उसे इस मामले में सोचने का कोई अवसर ही नहीं मिला. प्रशासन को मुख्यमंत्री के स्वागत और सुरक्षा व्यवस्था की चिंता अधिक थी. आम जनता तो सिर्फ इनके लिए कीड़े मकोडो की तरह ही शायद है. दो दिन पहले हुए इस हादसे ने प्रशासन के गाल में जिस तरह का तमाचा लगाया है वह प्रशासन मुख्यमंत्री जी की यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था के दौरान भी नहीं भूलेगा. मन में यह ख्याल क्यों रहा था उस दिन की अपने सतना के अमन चैन को भंग करने के लिए कही यह एक राजनैतिक साजिस तो नहीं थी. परन्तु. ज्यादा हताहत दोनों धर्मों के लोग हुए और सबसे ज्यादा फुटपाथ के वो लोग जिनकी कोई जात थी और कोई पात. वो तो सिर्फ गरीब थे. एक तरफ गम इस बात का है की प्रशासन की नपुंसकता का एक और नमूना इस रमजान के पाकीज मौके में देखने को मिला .ऐसा लगने लगा है इस शहर में किसी के साथ कुछ भी हो सकता है  परन्तु प्रशासन शिखंडी के तरह मौन बना रहेगा भविष्य में भी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. कलेक्टर का देर से पहुँचना और फिर विधायक का आप खोना कहीं कहीं एक घातक परिणाम की आशंका पैदा कर रहा था. यह दर्द विदारक घटना कई प्रश्न समाज और प्रशासन के सामने खड़े करते है. की क्या इसी तरह से सड़क सुरक्षा व्यवस्था रहेगी. क्या. इसी तरह सड़क आम जन के खून से लाल होती रहेगी. क्या इसी तरह प्रशासन सोता रहेगा. क्या जिलाधीश इसीतरह बहाने बनाते रहेगे. क्या पुलिस से बेहतर जिम्मेवारी जनता निभाती रहेगी.
अब जागने की जरूरत है. शासन और पुलिस दोनों को क्योंकि सिर्फ नियमों को तार तार करने की जिम्मेवारी और आम जन को मौत की शूली में चढाने की जिम्मेवारी बस उनकी नहीं है. बल्कि इन सब से ज्यादा जरूरत है आम नागरिक के मन से अपने प्रति एक सम्मान पैदा करने के लिए अच्छे कर्म  करने की. सिर्फ मंत्रियों और आला कमान के अधिकारियो से पीठ ठोकवा कर जनता का सेवक जनता के लिए लाभकारी और फलदायी नहीं होगा बल्कि जनता के बीच जाकर उसकी सुरक्षा का जिम्मा उठाना ही प्रशासन और पुलिस का प्रथम और अंतिम रास्ता होना चाहिए. यह एक मौका है नो इंट्री के नियमो को सख्त करने और जवानों को मुस्तैद करने का. नहीं तो यह पब्लिक सब जानती है की कहाँ से उसे अपने कदम उठाने होते है और फिर उसके लिए वो किसी से भी इजाजत नहीं लेती है भले ही धरा १४४ क्यों लगी हो.कर लोगों को अपनी चपेट में लिया वह कोई आम बात नहीं है.
आज भले ही प्रशासन कुछ भी बहाने बना ले परन्तु यह  भी तय है की लोगों की जानों की कीमत सिर्फ बहानेबाजी नहीं होसकती है. हम क्यों भूल जाते है की जिस तरह यह हादसा हुआ उस तरह के कई हादसे इस शहर में हो चुके है. और तब ही नों इंट्री की बात को हवा मिलती है. कुछ दिनों के बाद मामला शांत हो जाता है और प्रशासन भी अपने काम में उसी तरह लग जाता है. जैसे  की कोई बुरा सपना देखा हो. आज जरूरत है की नियमों  पर पुनः समीक्षा हो और यह तय किये जा सके की ऐसे हादसों के लिए पुलिश के आलावा और कौन से कारक है जो सतना के प्रशासन के थू थू करने के लिए जनता को मजबूर करते है. प्रशासन हमें सुरक्षित रखने के लिए पुलिस देती है. पुलिस अमले की जवाबदारी है की जनता के रक्षा करे. प्रशासन ने नियम बनाया की सुबह से रात तक भारी वाहन प्रवेश करे तो भी प्रवेश होते वाहनों के लिए जिम्मेवार कौन है. क्या पुलिस प्रशासन इतना निकम्मा हो गया की उसके घर के खर्चो के लिए भारी वाहनों के द्वारा दी जाने वाली बकसीस से दिन गुजर रहे है. क्या सरकार को और वेतनमान बढाने की आवश्यकता है ताकि पुलिस वाले इस तरह के नीचतापूर्ण कार्य बंद करने की महान कृपा करे. और नो इंट्री का सख्ती से पालन हो. यह भी सच है की पिछले कुछ महीनों से पुलिश अपहरण कांडो में इतना व्यस्त हो गयी के उसे इस मामले में सोचने का कोई अवसर ही नहीं मिला. प्रशासन को मुख्यमंत्री के स्वागत और सुरक्षा व्यवस्था की चिंता अधिक थी. आम जनता तो सिर्फ इनके लिए कीड़े मकोडो की तरह ही शायद है. दो दिन पहले हुए इस हादसे ने प्रशासन के गाल में जिस तरह का तमाचा लगाया है वह प्रशासन मुख्यमंत्री जी की यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था के दौरान भी नहीं भूलेगा. मन में यह ख्याल क्यों रहा था उस दिन की अपने सतना के अमन चैन को भंग करने के लिए कही यह एक राजनैतिक साजिस तो नहीं थी. परन्तु. ज्यादा हताहत दोनों धर्मों के लोग हुए और सबसे ज्यादा फुटपाथ के वो लोग जिनकी कोई जात थी और कोई पात. वो तो सिर्फ गरीब थे. एक तरफ गम इस बात का है की प्रशासन की नपुंसकता का एक और नमूना इस रमजान के पाकीज मौके में देखने को मिला .ऐसा लगने लगा है इस शहर में किसी के साथ कुछ भी हो सकता है  परन्तु प्रशासन शिखंडी के तरह मौन बना रहेगा भविष्य में भी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. इस हादसे के बाद सतना को अब हाई टेक होना चाहिए. और सरकार को चाहिए की  पुलिस को और प्रायोगिक बनाये ताकि इस तरह की आकस्मिक परिस्थितियों से निपटा जा सके और पहले तो यह कोशिश की जानी चाहिए की इस तरह  के नियम विरोधी कृत्य पुलिस के द्वारा किये जाये. मंगलवार की इस काली शाम में सबसे ज्यादा खतरा तो सांप्रदायिक दंगो के भाडाकने और प्रशासनिक सिटी कोतवाली , सिटी अस्पताल के आस पास बवला फैलने का था. क्योकि जिस तरह पुलिस और जनता के बीच  तू तू मै मै हो रही थी वह उग्रता को और बढाने वाली थी. कलेक्टर का देर से पहुँचना और फिर विधायक का आप खोना कहीं कहीं एक घातक परिणाम की आशंका पैदा कर रहा था. यह दर्द विदारक घटना कई प्रश्न समाज और प्रशासन के सामने खड़े करते है. की क्या इसी तरह से सड़क सुरक्षा व्यवस्था रहेगी. क्या. इसी तरह सड़क आम जन के खून से लाल होती रहेगी. क्या इसी तरह प्रशासन सोता रहेगा. क्या जिलाधीश इसीतरह बहाने बनाते रहेगे. क्या पुलिस से बेहतर जिम्मेवारी जनता निभाती रहेगी.

अब जागने की जरूरत है. शासन और पुलिस दोनों को क्योंकि सिर्फ नियमों को तार तार करने की जिम्मेवारी और आम जन को मौत की शूली में चढाने की जिम्मेवारी बस उनकी नहीं है. बल्कि इन सब से ज्यादा जरूरत है आम नागरिक के मन से अपने प्रति एक सम्मान पैदा करने के लिए अच्छे कर्म  करने की. सिर्फ मंत्रियों और आला कमान के अधिकारियो से पीठ ठोकवा कर जनता का सेवक जनता के लिए लाभकारी और फलदायी नहीं होगा बल्कि जनता के बीच जाकर उसकी सुरक्षा का जिम्मा उठाना ही प्रशासन और पुलिस का प्रथम और अंतिम रास्ता होना चाहिए. यह एक मौका है नो इंट्री के नियमो को सख्त करने और जवानों को मुस्तैद करने का. नहीं तो यह पब्लिक सब जानती है की कहाँ से उसे अपने कदम उठाने होते है और फिर उसके लिए वो किसी से भी इजाजत नहीं लेती है भले ही धरा १४४ क्यों लगी हो.