शनिवार, 27 अप्रैल 2019

भाव भंगिमाओं का रागात्मक संबंध - नॄत्य

भाव भंगिमाओं का रागात्मक संबंध - नॄत्य

अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस, २९ अप्रैल पर विशेष

जीवन की हर अंगड़ाई किसी ना किसी नृत्य कला को प्रदर्शित करती है। हम ही क्या इस चर अचर की हर प्रजाति अपने जीवन में नृत्य को मूलभाग मान कर जीवन जीता है। यही कारण रहा है कि नृत्य लोक कलाओं का मुख्य हिस्सा माना गया है जब भी कोई भी जीवधारी प्रसन्न होता है या उत्सव मय होता है तब तब वह अपने मन और तन को आपस में समन्वयित करके विभिन्न मुद्राओं को जाहिर करता है और वह जाहिर होना ही नृत्य का रूप लेकर हम सबके सामने प्रदर्शित होता है। नृत्य जीवन का राग है जो नियमित चलने वाली परंपरा है। यह परंपरा जो कभी भी खत्म नहीं होने वाली यह परंपरा जो गर्भ में पलने वाले शिशु से लेकर हमारे धर्म ग्रंथों में वर्णित मृत्यु के उपरांत भी क्रमशः चलता रहता है। यदि नृत्य को जीवन की जीवन रेखा मान लिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति ना होगी। इसी नृत्य को  व्यक्ति से समाज, समाज से देश और देश से अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने के उद्देश्य से विश्व रंगमंच संस्थान इटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट जो यूनेस्को की परफार्मिंग आर्ट्स अनुशांगिक संस्था है हर वर्ष २९ अप्रैल को जीन जार्जेस नोवेरे के जन्म दिन के अवसर पर  सन १९८२ से विश्व नृत्य दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया इस अवसर पर थियेटर और नृत्य से संबंधित संस्थानों के द्वारा इस विधा में हर वर्ष एक नई थीम के साथ नृत्य को विश्व व्यापी बनाने के लिए विभिन्न आयोजन किये जाते हैं। जो विश्व के विभिन्न शहरों में आयोजित किये जाते हैं। पिछले वर्ष यह आयोजन हवाना क्यूबा आयोजित किया गया था। हर वर्ष एक नई थीम के साथ विश्व नृत्य दिवस मनाया जाता है और यह संदेस दिया जाता है कि जीवन के एक अप्रतिम उपहार को हम यूँ ही नहीं भुला सकते हैं, हमारी मनोवैज्ञानिक मजबूरी भी है कि हम नृत्य को सांगोपांग अपने में समाहित कर चुके हैं जाने अनजाने हम इसको अपने जीवन में उतार लेते हैं, इसके साथ हमें सुख की अनुभूति होती है, अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस को पूरे विश्व में मनाने का उद्देश्य जनसाधारण के बीच नृत्य की महत्ता का अलख जगाना है। साथ ही लोगों का ध्यान विश्वस्तर पर इस ओर आकर्षित करना है। जिससे लोगों में नृत्य के प्रति जागरुकता फैले। साथ ही सरकार द्वारा पूरे विश्व में नृत्य को शिक्षा की सभी प्रणालियों में एक उचित जगह उपलब्ध कराना  सन 2005 में नृत्य दिवस को प्राथमिक शिक्षा के रूप में केंद्रित किया गया
  हर वर्ष अखिल भारतीय स्तर पर इस अवसर पर कोई ना कोई शख्सियत इस विषय पर अपना मुख्य संदेश विश्व में प्रसारित करता है जिसका चयन संस्थान करता है और इस वर्ष के लिए करिमा मन्सूर, नृत्यांगना,कोरियोग्राफर और प्रशिक्षक इगिप्ट को चुना गया है। इस बार की थीम नृत्य और अध्यात्म रखा गया है। इस थीम पर आधारित नृत्य को केंद्रित करके विभिन्न स्थानों में इस कला के साधक अपनी कला का प्रदर्शन करेंगें। यदि नृत्य की बारीकी देखी जाए तो समझ में आता है कि नृत्य का आध्यात्म के साथ बहुत ही गहरा संबंध है। आध्यात्म के साथ जोड़ने के लिए मनुष्य को गीत संगीत और नृत्य का ही सहारा लेना पड़ता है। इस बहाने उसे आत्मिक सुख शांति मिलती है, उसके जीवन के दुखों को भूलने का एक मार्ग प्रसस्त होता है। भारत में  वैदिक काल से लेकर पुरातन काल और आधुनिक काल तक इस हुनर के लोग इस विधा के खेवनहार रहे हैं। आध्यात्मिक पक्ष, धार्मिक पक्ष, कलात्मक पक्ष और उत्सवधर्मी पक्ष देखें तो नृत्य मानव मन की भंगिमाओं का साकार रूप होता है। वेदों की रिचाओं से भी इसका गहरा संबंध रहा है। पाणिनी के नृत्य सूत्र की बात की जाए या फिर वेदों के रिगवेद के नृत्य वेद, या फिर छत्तीस अध्यायों में वर्णित नृत्य शास्त्र की बात की जाए सभी में भारतीय नृत्य परंपरा का इतिहास वर्णित किया गया है। नृत्य को भारतीय पौराणिक कथाओं में भी भरपूर स्थान मिला है। अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस के अवसर पर भारतीय नृत्य परंपरा को वैश्विक स्तर पर पहुँचाना और यथोचित पहचान दिलाने की कवायद की जानी चाहिए भारत में इस विधा से संबंधित जितनी भी संस्थाएँ हैं वो इस क्षेत्र में अपने अनुसार कार्य तो कर ही रही हैं किंतु यह भी जरूरी है कि इसे ललित कलाओं में विशेष स्थान मिले। भारतीय अथवा पाश्चात नृत्य की विभिन्न कलाओं का अपने अपने स्थानों में विशेष महत्व है, फिल्म उद्योग से लेकर ललित कलाओं से संबंधित संस्थाओं और संगठनों ने इस विधा पर नवीन प्रयोग किये हैं जो निश्चित ही आने वाले समय में नवोन्वेषी कदम के रूप में देखा जाएगा।
देश भर में ललित कलाओ के अंतर्गत नृत्य को प्राथमिक रूप से लिया जाता है यह बात अलग है कि भारतीय नृत्य शैलियों के साथ साथ विश्व स्तर पर पश्चिमी नृत्य शैलियों का समावेश समय की मांग के हिसाब से बढ़ा है। जो समय की सबसे बड़ी मांग है, किंतु भारतीय नॄत्य शैलियाँ विलुप्त ना होने पाए इस हेतु भी विचार विनिमन करने की आवश्यकता है। भारतीय नृत्य परंपराओं को जीवित रखने के लिए, आने वाली पीढियों को उसे उसी मौलिक रूप में पहुँचाने का रिस्क इस कला में लेना पड़ेगा है, वैश्विक स्तर पर स्थान बनाने की होड़ कहीं मौलिकता को खत्म ना कर दे इस संकत के बारे में बातचीत करने की आवश्यकता है। आज के समय में नृत्य जाति धर्म क्षेत्र और राष्ट्रीय सीमाओं को लांघ कर कलाकारों के अंतर्मन के आध्यात्म के साथ जुड रहा है। भारतीय कलाकार विदेशों और विदेशी कलाकार भारतीय शैलियों को सीखने के लिए स्थानांतरित हो रहे हैं। यह स्थानांतरण कुछ हद तक इस नृत्य मौलिकता की राह में एक सकारात्मक पहल के रूप में देखी जा सकती है। लेकिन दुख तब होता है जब कलाकार विदेश जाकर वहीं का होकर रह जाता है। जो सीखते हमारे देश में हैं और बाद में एन आर आई बनकर हमारे देश के साथ दोगले रवैये के साथ सामने आते हैं। बात बहुत छोटी है किंतु पते की यह है कि अखिल विश्व में नृत्य को दिवस के रूप में सहेजने के साथ साथ दैनिक पर्याय मानते हुए आगे बढ़ाने का उपाय खोजें, नृत्य को किताबों के पन्नों के बीच से निकाल कर स्टेज में प्रदर्शित करना, सीखना सिखाना, नृत्य की विभिन्न कलाओं को विद्यालयों महाविद्यालयो, विश्वविद्यालयों के विभिन्न कोर्सेस के माध्यम से प्रचारित करना प्रसारित करके संरक्षित करना भी बहुउद्देशीय लक्ष्य इस अवसर पर निर्धारित करना होगा। कलाकारों की इस दुनिया की जगमगाहट को और आगे तक ले जाने की महती आवश्यकता की पूर्ति करने की पहल होनी चाहिए। मानव मन की हर मुद्रा को किसी ना किसी नृत्य की भाषा का रूप दिया गया है उस भाषा के माध्यम से नृत्य की वैश्विक उपादेयता को संरक्षित करना इस दिवस का सही उत्सव होगा।

अनिल अयान,सतना