शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

कुर्सियाँ वही रहीं सवारियाँ बदल गईं

कुर्सियाँ वही रहीं सवारियाँ बदल गईं

देश के हृदय प्रदेश में विगत दिनों समाप्त हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं, सारे कयास जो लगाए गए थे वो अब साकार भी हो गए और निराकार होकर कई उम्मीदवारों के मन में विद्यमान भी हैं। यह पहला अवसर है कि मध्य प्रदेश की विधान सभा में गठबंधन से सरकार बनने जा रही हैं, इसके चलते गठबंधन के लिए कांग्रेसी दल के महानुभाव अपने विधायकों की गुणा गणित बिठाने में लगे हुए हैं। इन सबके बीच राजनीति में एक कहावत हमेंशा सभी सरकारों ने साकार किया कि इस सरकार की कुर्सी में कोई भी बैठे वो अपने हिसाब से चाहे जितना वायदे करता रहा हो किंतु कुर्सियों का दोष माना जाता है, जो भी मुख्यमंत्री बनता है वो इसी कुर्सी के पावों के जंजाल में फंस ही जाता है, अब देखना यह है कि आगामी सरकार की रणनीति इस कहावत के साथ कितना न्याय कर पाती है। इस चुनाव में जीतने वाले भाजपा के वो उम्मीदवार जरूर दुखी होंगें जिनके मन में मंत्री पद की ललक लालसा विद्यमान थी, कांग्रेस के वो उम्मीदवार और ज्यादा दुखी होंगे जिनकी हार सुनिश्चित हुई तो हुई किंतु सरकार कांग्रेस गठबंधन की बनने वाली है। कुछ भी अब आने वाला वक्त बताएगा कि आने वाले पाँच साल गुजरे हुए पंद्रह सालों पर भारी पड़ते हैं या फिर उसके भी पीछे भ्रष्टाचार के मामले में और पिछले पंद्रह सालों को पुनः दुहराते हैं। क्योंकि राजनीति में चाहे कोई जितना सुधार की बात कर ले वो अपने संगठन से परे जाकर काम नहीं कर सकता, मध्य प्रदेश की जो स्थिति शिवराज सरकार के पंद्रह साल के पहले दिग्विजय सरकार के थे वो नासूर जनता को बखूबी पता है।
इस चुनाव में  जिस प्रकार की परिस्थितियाँ राज्य में थी वो भाजपा के लिए घर का भेदी लंका ढ़ाए वाली थी, ऐसी स्थितियों के लिए राज्य सरकार खुद दोषी मानी जा सकती है, केंद्र में राज्य सरकार की राजनैतिक पार्टी होने की वजह से यह दोष कुछ ज्यादा ही हो सकता है। विचार मंथन जारी हो चुका है हाईकमान खुद जानता है कि पार्टी की हार के पीछे जनता का परिवर्तत उतना जिम्मेवार नहीं है जितना कि भितरघातियों का विद्रोह प्रदर्शन और अप्रत्यक्ष विरोधी पार्टी को समर्थन देना, उनका प्रचारप्रसार करना शामिल रहा, पार्टी का मानव धर्म, धर्म राज में  और राजधर्म जातिधर्म के गुणा भाग में लिप्त हो चुके थे, समय के साथ साथ अंतिम पंच वर्षीय में सरकार मन की बात और दिल की बात करने में व्यस्त हो चुकी थी, जनता के विश्वास को कुचलने का कई बार आरोप ग्रहण करने वाली सरकार ने जनता को एससी एसटी, हिंदू मुसलमान, क्रिस्चन, अगड़ा पिछड़ा, के साथ साथ आने वाले समय में आरक्षण को खुद की बुनियादी नींव तक बताने में मंच से परहेज ना किया, व्यापम घोटाला हो, पेड़ न्यूज का मामला हो, नेताओं के बिगड़े बोल हों, जीएसटी में विशंगतियाँ हों, राम मंदिर को राजनैतिक औजार के रूप में इस्तेमाल करना हो, विभिन्न जातियों के महापंचायत का आयोजन हो, कांग्रेस के ऊपर कींचड़ उछालना हो, घोषणाओं का अंबार खड़ा करने से लेकर उन्हें भूलने की बीमारी हो, सड़क से लेकर पानी तक का हाहाकार हो,नोटबंदी हो, या फिर बेरोजगारों को पकोड़ा तलने और चाय बेचने का सुझाव देने की बात हो, कमर टोड़ती मँहगाई, कहीं ना कहीं मतदाताओं को रिझाने की बजाय दूरियाँ बनाने के लिए मुख्य कारण बनती रही। सरकार का औद्योगिक संस्थानों और उद्योग पतियों के प्रति रूझान, बैंक घोटाले, केंद्र का न्यायपालिका और कार्य पालिका मेंअनावश्यक दखल सभी इसमें घी की तरह काम करते रहे।
इन सबके बीच अगर पिछले पांच सालों के पूर्व के दस सालों की बात की जाए तो शिवराज सरकार को जनता पसंद करती रही, उनकी विभिन्न घोषणाओं, कन्याओं की परवरिश से लेकर उनकी शिक्षा और रोजगार के लिए सरकार की योजनाएँ कहीं ना कहीं काबिले तारीफ काम था, बाबूलाल गौर के समय से लेकर मध्य प्रदेश की तस्वीर जितनी तीव्रता से बदली गई थी वो भी देखने लायक थी, दिग्विजय सरकार की दी गई सौगातों को शिवराज सरकार के प्राथमिक दस सालों में आम जनताको बरी कर दिया, बिजली समस्या, रोड़ से लेकर गांवों को जोड़ने की पहल करना, विभिन्न योजनाओं के द्वारा युवाओं को रोजगार और स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करना, इंदौर, भोपाल, और उज्जैन की तस्वीर को मध्य प्रदेश का व्यवसाय केंद्र बनाना भी इस सरकार की उपलब्धियाँ थी, शिक्षा विभाग से लेकर स्वास्थ्य विभाग, सेवा विभागों से लेकर कार्यपालिका तक इस सरकार के कामों से संतुष्ट नजर आई थी, किंतु पाँच साल जो गुजरे वो इस सरकार की साख को खत्म करने के लिए काफी थे, मोदी सरकार के दिग्गज नेताओं की ताबड़तोड़ रैलियों के बीच उपचुनावों में भी इस सरकार ने अपने किए से सीख नहीं पाई, मोदी लहर से लेकर शिवराज और अमित शाह की बातों के पुलिंदे के सामने जनता ने हंस की तरह सच को खोजने परखने की पहल शुरूकर दी। इधर विरोधी दल में कांग्रेस, आप और अन्य पार्टीयों की जागरुकता ने शिवराज सरकार की जड़ों को खोदना शुरू कर दिया, पूरे देश को हिंदुत्व के रंग में रंगने की ललक ने अन्य राज्यों की अपेक्षा इस राज्य को शिवराज सरकार ने थोपने वाली रणनीति नहीं अपनाई, सरकार के साथ साथ भाजपा के अंदर के गुपचुप विद्रोह, कार्यकर्ताओं के बीच असंतुष्टि, और आलाकमान का सही उम्मीदवार का चयन ना कर पाना भी पार्टी की हार का प्रमुख कारण बनी।
कांग्रेस की जीत का प्रमुख कारण भाजपा के अहंकारी भाषणों में राहुल की हास्यास्पद उपस्थिति का होना रहा, राज्य में प्रारंभिक हार के बाद विगत पंद्रह सालों में मे राहुल गाँधी युवाओं को एकत्र करने और युवाकांग्रेस को मजबूत करने का काम किया, इधर चुनावों में भाजपा के दिग्गज नेताओं के बीच फिसलती जुबान में राहुल को केंद्र में रखकर की गई बयान बाजी ने खुद राहुल को बिना किसी ज्यादा प्रयास के जनता के बीच में लोकप्रिय कर दिया, जैसे कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के साथ कुछ ऐसा हुआ माना जा सकता है, मतदाताओं में विशेषकर डाक मतपंत्रों, पिक पोलिंग बूथ में स्त्रीप्रधान प्रतिनिधित्व ने कांग्रेस में दिलचस्पी दिखाना, और भाजपा के राज से सत्ता परिवर्तन करना कहीं ना कहीं एक सोद्देश्य चुनावी सफलता का कारण बना विगत महीनों में माई के लालों में की विरोधी रैली में जिस तरह से विभिन्न दल के लोगों और भाजपा के सवर्ण कुल के राजनीतिज्ञों ने अपना विरोध दिखाया उसके चलते कांग्रेस के विकसित वोटरों के प्रतिशत को बढ़ने का फलने और फूलने का भरपूर मौका मिला। काम करवाने से लेकर लोगों के बीच में लोकप्रियता को देखा जाए तो भाजपा का मोहभंग एक तरफ हो रहा था और दूसरी तरफ कोई रास्ता ना दिखाई देने की वजह से कांग्रेस के पंजे को आजमाने का रास्ता जनता जो ज्यादा उपयुक्त महसूस हुआ, इन सबके बीच यह भी तय था कि इस कांटे की टक्कर के बीच अगर भाजपा कुछ ना करती अपने विरोधियों को अपने पक्ष में कर लेती, सवर्णॊं के लिए कुछ विशेष घोषणाएँ कर देती, या फिर जनमानस में समानता के लिए कुछ बयानबाजी कर देती हो भी वह सरकार बनाने के लिए बहुमत प्राप्त कर लेती।
बारह दिसंबर को राज्य में नई सुबह ने सरकार की कुर्सियों के लिए कांग्रेस की सत्ता राजघर वापसी की भोर लेकर आई, शिवराज जी के बयान से उनकी मायूसी साफ झलक रही थी, आने वाली सरकार से जनता ही नहीं पढ़े लिखे युवाओं, राज्य की बेटियों और बहनों, कर्मचारियों किसानों, बैंकरों, स्वरोजगार करने वाले लघुउद्योग के मालिकों, और आने वाली पीढ़ी के नौनिहालों की काफी उम्मीदें हैं, अच्छी अर्थव्य्वस्था हो, सड़क से लेकर पानी, हवा, पेट्रोल से लेकर रसोई गैस, युवाओं की नौकरियों से लेकर बेरोजगारों का रोजगार, स्त्रियों की सुरक्षा से लेकर उनकी जीवशैली में सुधार, कर्मचारियों की स्थिति को और बेहतर बनाने आशा, किसानों की स्थिति में सुधार और उनके कर्ज की माफी पर तुरंत निर्णय लेना और सबसे बड़ी बात घोषणा पत्र को वचन पत्र बताने वाले राहुल गाँधी जी के मार्गदर्शन आने वाले मुख्यमंत्री जी शासन में सुशासन की उम्मीद को जगाने की आशा शामिल है, वचन पत्र की पूर्ति की अवधि के बिना भी अगर वचन निभाने का कार्य आगामी कांग्रेसी सरकार करेगी तो जनमानस उसे सिर आखों में बिठाएगी, अन्यथा अगर छल कपट, धोखेबाजी, वचन को राजनीति का औजार मानकर पूर्व कांग्रेस की दिग्विजय सरकार की पंद्रह वर्षीय कार्यप्रणाली अपनाएगी तो हर राजनैतिक पार्टी जानती है आने वाले पाँच सालों के बाद भाजपा हो या कांग्रेस एक दिन तो जनता के दरबार में दान माँगने आना ही पड़ता है, वर्तमान माहौल में जनता पुरानी कांग्रेसी जमाने की अच्छाइयों के साथ कुछ नया सवेरा देखने के लिए तैयार है। आगामी सरकार को भी इस बात को स्वीकार करना होगा कि शिवराज सरकार की कमियों को दूरकरते हुए अपने कामों के माध्यम से जनता के बीच स्थान बनाए ताकि आगामी पाँच वर्ष के बाद उसे विज्ञापनों में पिछली सरकार की कमियाँ गिनाने की जरूरत ना पड़े,इसी के साथ आगामी कांग्रेस सरकार के शासनकाल को मै क्या हर युवा किसान और महिलाएँ देखने जीने और महसूस करने के लिए अगवानी करने और अवलोकन करने के लिए तैयार हैं।  

अनिल अयान
सतना

९४७९४११४०७

जातिगत आरक्षण के कोल्हू में पेरी जाती जनता

जातिगत आरक्षण के कोल्हू में पेरी जाती जनता

आरक्षण, आरक्षित वर्ग, आरक्षित नेता, आरक्षित पद, आरक्षित लाभ आदि आदि ना जाने कितने तमगे हैं जो हमारे देश में विभिन्न प्रकार के वोटरों को प्रदान किए जाते हैं। ये सुविधा संविधान के निर्माताओं के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ सालों के लिए प्रदान की गई थी और देखिए कि आज सत्तर दशक होने के बाद भी यह कोढ़ देश में अपना आधिपत्य जमाये हुए है। कोढ़ इसलिए क्योंकि यह आरक्षण जातिगत आधार पर देश के नागरिकों को सरकारों के द्वारा परोसा जाने लगा। पंचवर्षीय योजनाएँ बदली किंतु इस सुविधा को असुविधा बनाने की जुगत और मजबूत करने की कोशिश करती गई।समय के साथ इस आरक्षण की जड़ें और गहरी होती चली गई, जातियाँ,समुदाय और धर्म कमजोर से मजबूत और धनी होते चले गए किंतु आरक्षण की सुविधाभोगी बनने में  उन्हें गर्व महसूस होने लगा। आर्थिक रूप से कई गुना मजबूत लोग भी आरक्षण के तवे में सेंकी गई रोटियों को निगलने के लिए सिर झुकाए तैयार खड़े नजर आए। सरकारों ने आरक्षण को चुनावी दुधारी औजार की तरह इस्तेमाल करने की आदत डाल ली। समय गुजरने के साथ साथ इस तलवार से जातिगत समीकरण भी साधा जाने लगा और दूसरी तरफ आरक्षित जातियों और वर्गों का वोटों की गणित को भी अपने पक्ष मे रखने का रवैया अख्तियार किया जाने लगा। आरक्षण को विगत कई सालों से स्टॆटस सिंबल बनाकर राजनीति में राजनैतिक पार्टियों ने इस्तेमाल किया। कौन सी पार्टी किन जातियों को आरक्षण प्रदान करेगी वो ही उन जातियों के लिए गॉड फादर की तरह बनती चली गई। आरक्षण की आग को बुझाने की बजाय जो इस सत्ता में आया वो इसे और हवा दिया, उसमें कपूर और घी डाला गया, मिट्टी का तेल और पेट्रोल डाल कर समाजिक सौहार्द को खत्म करने की साजिश भी रचने में परदे के पीछे से पूरी तरह से सहयोग करती रही।
आरक्षण का उद्देश्य’ जो संविधान में निश्चित किया गया, उसके परे वर्तमान में आरक्षण का प्रभाव समाज में दिख रहा है, किसी भी बच्चे के पैदा होने के पहले से आरक्षण लागू हो जाता है, उसके पैदा होने, उसकी परवरिस, उसकी शिक्षा, उसकी नौकरी, उसकी शादी ब्याह, उसके बाल बच्चों के पोषण,जीवन यापन और मरने के बाद आगामी पीढियों तक के लिए आरक्षण लागू हो जाता है, आरक्षण के अलावा दी जाने वाली योजनाओं के लाभ सब आरक्षित वर्ग के लिए ही बने हुए हैं, आर्थिक आधार पर कमजोर तबका चाहे वो किसी भी वर्ग जाति धर्म का हो वो इस आरक्षण से कोसों दूर है, पढ़ाई, नौकरी, प्रमोशन, और सेवानिवृति को लेकर तक आरक्षण की गाड़ी मौजूद है। सरकारों के रवैये ने कार्यपालिका में क्रीम और डिशीजन मेंकिंग पोस्ट तक के लिए आरक्षण को ढ़ाल बनाया हुआ है। आने वाली नश्लों को बर्बाद करने का पूरा जिम्मा आरक्षण से आगे आने वाले अधिकारियों ने ले रखा है जिनके पास पहुँच तो है किंतु उस क्षेत्र का अनुभव बहुत कम है। जितनी भी सरकारे हैं वो आरक्षित वर्गों के सहारे चुनाव जीतने की कोशिश करती हैं, यह देखा जाता है कि विधायिका के किसी स्तर के चुनाव में आरक्षित जातियों के उम्मीदवारों की दावेदारी और आर्थिक स्तर सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों की तुलना में अधिक होता है, अब तो आरक्षण को खत्म करना दिवास्वप्न की तरह है। वो दिवास्वप्न जो कभी पूरा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि आरक्षण यदि खत्म तो राजनीति और सत्ता अपाहिज की तरह निस्तोनाबूत हो जाएगी। राजनैतिक पार्टीयाँ निहत्थी हो जाएगी। आरक्षण की आग ने कितने ही तबको की बस्तियाँ नष्ट कर दी हैं, इसके चलते कितने ही विभागों के अधिकारियों के जेबों का वजन हमेशा बढ़ता रहता है।
जातिगत आरक्षण को खत्म करना ही हमारे समाजिक हित में है और समाजिक ढ़ाचे को मजबूत करने के लिए बहुत जरूरी है, आर्थिक सर्वे के आधार पर हर जातियों के लिए गरीबी रेखा निश्चित होनी चाहिए, न्यूनतम वेतन और मासिक वेतनमान के हिसाब से आरक्षण देश को विकास के पथ में अग्रसर करेगा, इस तरह के आरक्षण में रोटी कपड़ा और मकान , बेहतर जीवन शैली जीने के लिए अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, सामान्य वर्ग और अन्य अल्प संख्यकों की वो जनता लाभान्वित होगी जिनको हकीकत में सरकार की मदद की आवश्यकता है। जिनको जीवन यापन करने  के लिए सरकार के अभिभावकत्व की महती जरूरत आज भी है। जब सरकारों की घोषणाएं सुनने में आती हैं कि हम आरक्षण खत्म नहीं कर सकते हैं, तो लगता है आप ही आरक्षण खत्म कर सकते हो, और जातिगत आरक्षण को आर्थिक आरक्षण नीतियों में परिवर्तित करना है। आरक्षण का स्वरूप बदलना है, जब आप योजना आयोग को नीति आयोग का लबादा पहना सकते हो तो फिर आरक्षण को सही तरीके से सही जगह क्यों नही लागू किया जा सकता है। चुनावों के समय में, सत्ता पक्ष का विधानसभा चुनावों में अनारक्षितों को माई के लालों के रूप देकर जातिगत आरक्षण की हुंकार भरना और उन्हें खुली चुनौतियाँ देना ही सत्ता पक्ष को मंहगा पड़ा और पहले भी मंहगा पड़ा था। लोकसभा चुनावों की नजदीकियों को भांप करके केंद्र सरकार का पुन जातिगत आरक्षण की मीठी गोली चूसवाने की योजना अनारक्षित वर्ग बखूबी जानता है। कुछ महीनों में सरकार कुंभकर्णी नींद से जाग रही है, सरकार के चार साल और छः महीने जातिगत आरक्षण की गुणाभाग और जोड़ घटाने में निकाल दिए गए।
इस आरक्षण को असंवैधानिक रूप से देखा जा रहा है, किन जातियों के आरक्षण को कम करके सरकार दस प्रतिशत आरक्षण की बात कर रही है, और इस कानून के बनने में जटिलताओं का अनुभव, विपक्ष की युक्तियँ, उनकी सरकार में आरक्षित वर्ग का विरोध, कैसे सध पाएगा। यह सब अभी सरकार के द्वारा सरकार को अगली पंचवर्षीय में काबिज करने और घोषणा को पूरी करने की राजनैतिक नीति है। मुझे लगता है कि अगर सरकार हर राज्य में आर्थिक ढ़ांचे के हिसाब से आरक्षण का प्रावधान निश्चित करे और जनता को प्रदान करे तो जातिगत नीतियाँ की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके लिए सरकार और विपक्ष को साथ चलकर देश की जनता की आर्थिकी और देश के आर्थिक ढ़ा़चे को मजबूत करने हेतु सामन्जस्य बिठाकर निर्णय लेना होगा। इस हेतु कार्य पालिका न्याय पालिका और विधायिका के साथ साथ आर्र्थिक जनगणना का इस हेतु इस्तेमाल करना,आयकर विभाग के द्वारा सही जानकारियाँ प्राप्तकरके आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए आरक्षण नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन की आवश्यकता है। इस हेतु सरकार के द्वारा हर जगह उपयोग किए जाने वाले आधारकार्ड के माध्यम से भी काफी मदद मिल सकती है। कुछ मिलाकर सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह है कि अगर सरकार यह घोषणाओं को अपने लाभ के हिसाब सेकरने की बजाय, पूरी तरह से तैयारी करके क्रियान्वयन करने की घॊशणा करे तो देश की जनता का उत्थान भी होगा, जनता का सरकार को समर्थन भी होगा, और अनावश्यक जातिगत गुणाभाग से निजात भी मिलेगी।

अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

अब "प्रेम" हाट बिकाय

अब "प्रेम" हाट बिकाय

वेलेनटाइन डे का विश्व में इतना ज्यादा क्रेज बढ़ चुका है कि संत वेलेनटाइन को भी जिंदा जी इतना भान न रहा होगा कि उनके सत्कर्म उन्हें प्रेम और प्रणय के संत के रूप में जानने हेतु विश्व प्रसिद्ध कर देंगें। वेलेनटाइन संत के नाम को बाजार वाद ने इतना ज्यादा कैश किया कि यह एक दिन मनाने के पूर्व से पूरे पखवाड़े और सप्ताह भर प्रणय प्रेम की मादक सुगंध बाजार से लेकर जवां दिलों की नाकों में खुशबू देने लगती है। इस माहौल में यह डर जरूर बना होता है कि मादक सुगंध लेने वाली नाक कहीं कटते कटते न रह जाए। इस तरह के बाजारवादी प्रेम की पराकाष्ठा में जब युवाओं को परवान चढ़ते देखता हूँ तो मुझे उनकी तथाकथित समझदारी पर पुछल्लेदार हंसी आजाती है। समय ने प्रेम को कितना बदल दिया है।यह बदलाव इतना ज्यादा टेक्नालाजी और हाईटेक  हो गया है कि स्कूल कालेजों से लेकर आफिसों तक प्रेमरोग के मरीज अपने प्रेम प्रणय का ऐतबार करते इस मौसम में नजर आ जाते हैं। पूरी तरह से बाजार की कीमती उपहारों पर आधारित यह पखवाड़ा जेब में नोटों के दम पर हलाल होता है। बाजार का आयात निर्यात पश्चिमी संस्कृति से पलायित विभिनन रिश्तों के दिवसों की वजह से साल भर यह बाजार इन त्योहारों की मुनादी करता है। सुनने में आया था इश्क प्यार और मोहब्बत जो खुद में अधूरे हैं वो जीवन को पूर्णता कैसे दे सकते हैं, हालाँकि प्रेम विषय वस्तु को कलमकारों ने अपने अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है। किंतु उन सब प्रेम में जवां दिलों के बीच प्रेमी और प्रेमिका के बीच की अनुभूति को केंद्र बिंदु माना गया है। ढाई आखर पढ़ने की बात करने वाले कबीर संतृप्त पांडित्य की बात करते हैं, किंतु यहाँ पर तो प्रेम में बौराने की भी बात की गई है। आज के समय में दिखावे का प्रेम, पांडित्य के प्रेम पर हावी हो चुका है। आज कल की प्रेयसी भी कई प्रेमियों के साथ फ्लर्ट करने का चाल चलन स्थापित करने में माहिर होती हैं, किसी भी लड़के और लड़की के लिए मित्रता के नाम पर ब्वाय फ्रेंड और गर्लफ्रेंड की पदवी भी उपहारों से शुरू होकर, वासना और शारीरिक संबंधों पर जा कर इतिश्री हो जाती हैं। ड्रेस बदलने की तरह समाज और पार्टियों के बीच स्टेटस सिंबल बने ये पद कुछ समय में ही नई ड्रेस की तरह बदल दिये जाते हैं, इनकी परिणित लंबे समय तक चलने वाले रिश्तों की बजाय, मौसमी नालों में जल भराव की तरह होती हैं। स्वार्थ और जरूरत इस तरह के दिखावटी प्यार का मूल मंत्र होता है।
स्त्री पुरुष के बीच जिस प्रेम पिपासा और निस्वार्थ संबंधों की बात की गई है वह हमारे देश में मर्यादित और संस्कारिक होती है। पूरा समाजिक स्तर इस बात का गवाह है कि प्रेम के दिखावे के नाम पर मादकता को उड़ेल देना, फूहड़तापूर्ण प्रदर्शन करना, विरोध में संस्थाओं का नंगेपन के स्तर तक उतर जाना। आज के समय में आम बात हो चुकी है। इतिहास के पन्नों और साहित्य ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि देह के बिना प्रेम सिर्फ भक्ति ही हो सकती है, स्त्री पुरुष के बीच में प्रेम छिपाने का भाव रहा है। जो दिख जाए वो प्रेम की पराकाष्ठा नहीं हो सकता है। भारत का बाजार विदेश की संस्कृति और सभ्यता के दम पर अर्थव्यस्था को मजबूत कर सकता है। किंतु प्रेम और वासना के बीच में युवाओं के मन में महीन अंतर को मिटाने के लिए भी यह जिम्मेवार होता है। मन में प्यार शब्द आते ही जिस मनो वैज्ञानिक उत्तेजना की परिकल्पना युवा मन करता है उसके पीछे हमारे टीवी चैनलों में दिन रात चलने वाले प्रेम की मानवनिर्मित शहद में डूबे प्रायोजित कार्यक्रम, मीडिया में प्रचारित किया जाने वाला झूठा भ्रम जाल जिम्मेवार है। कुल मिलाकर यह कहना जरूरी है कि वर्तमान में समाज, मीडिया, सरकार, संस्कृति और संस्कार सब इस बात के लिए तैयार हैं कि हम पश्चिम की हवा में आंख बंद करके मृत प्राय होकर बहते चले जाएं। जैसा माहौल हो वैसा ढ़ल जाएं। क्योंकि यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम पिछड़े हो जाएगें, समूह में हमें पुराने जमाने का मान लिया जाएगा। हमें जमाने वाले अपने कुनबे से काट देंगें। हम जो कुछ भी युवा पीड़ी को परोस रहे हैं वो उनके मन में अपराध के रूप में परिवर्तित हो रहा है। यह अपराध किशोर जन्य अपराध, यौन अपराध, अवसाद जन्य अपराध के लिए सबसे बड़ा कारण बनता है। इस दिखावटी प्रेम में लड़का और लड़की अपनी इच्छा के अनुसार अगर साथी नहीं पाते, या साथी से मिलने से रोका जाता है, या फिर साथी के साथ उच्छखृल होने से रोकाजाता है तो आक्रामकता आ जाती है, इस भावनाओं के बहाव में माता पिता से ज्यादा महत्वपूर्ण उस समय के लिए तथाकथित लाइफ पार्टनर हो जाता है। जो सिर्फ आकर्षण के वशीभूत होकर मौन स्वीकृति के लिए तैयार हुआ है।
इतिहास में जिस प्रेम और प्रेमियों की स्थिति का वर्णन किया गया है। उनके वो जमाने रवाने हो गए। जिस तरह के प्रेम उपन्यासों की रचनाएँ की गई उनकी उपयोगिता युवाओं के मन के लिए कुछ नहीं रह गई। आज के लेखक भी प्रेम के नाम पर अश्लीलता, फूहड़ता, देह को उद्घाटित करना, और शारीरिक संबंधों की प्राथमिकता को फिल्मों और मीडिया के माध्यम से प्र्स्तुत करने के लिए आतुर हैं। क्योंकि बाजार उसी प्रकार की प्रस्तुति का है।ज्यादा आदर्शवादिता बताना और अपने पुरानी संस्कृति और सभ्यता को आगामी पीढी के बीच लाना मतलब खुद की बेइज्जती कराना ही है। कहा जाता है ठोकर लगने से जिंदगी संभल जाती है, युवाओं के साथ भी कुछ ऐसा इस मामले में होता है, उन्हें आकर्षण, दिखावा, फ्लर्ट और प्यार की सही स्थिति हादसों से गुजरने के बाद ही महसूस होता है। इस प्यार के बाजार में मादक इस माहौल में जब कोई युवा खुद को परवान चढ़ा देता है तो उसे समझ में आता है वो इस रास्ते में बहुत आगे आ चुका है। उसका कैरियर, उसके सामाजिक संबंध, और उसका समाजिक सम्मान सब जा चुका है। तब तक उसे लौटने में लुटे हुए मन के साथ बहुत कठिनाई होती है। बाजार में उपहारों के दम पर प्रेम, प्रेमी और प्रेमिकाएँ सस्ते दामों में उपलब्द नजर आ जाते हैं, किंतु हर युवा को अपने युवामन के आकर्षण के परे दिल की बजाय दिमाग से एक पल के लिए सोचने की आवश्यकता है। क्या युवा मन के वशीभूत होकर बाजार में बिकने लुटने और बदनाम होने के लिए उत्साहित हैं, तैयार हैं, या तैयार किए गए हैं। स्थितियाँ भटकन की ओर लिए जा रही हैं। यहां पर विरोध दिखावटी प्यार और इश्कबाजी का बाजारू प्रदर्शन करने को लेकर है। फूहड़ता, नग्नता, प्रेम के नाम पर उच्छखृलता, और अश्लीलता को परोसने का विरोध है। भारत में प्रेम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक भवन बनाने की बजाय विदेशी नकल के चलते मल्टीस्टोरी बिल्डिंग तैयार कर खुद की पीठ ठोकने के पागलपन के लिए विरोध है। बहुत सीधी सी बात है बाजार अगर आपको खुद को बेंचने के लिए और खुद के मयार को झुकाने के लिए मजबूर करे तो क्या आप खुशी खुशी खुद की अना को नीलाम करने के लिए तैयार हो जाएगें। इस यक्ष प्रश्न का जवाब हम सबको खोजना होगा। प्रेम में होना बुरा नहीं है, प्रेम को बाजार में तवायफ बनाकर उसके जिस्म से बाजार के लिए दलाली करना नैतिक, मानवीय, और मनोवैज्ञानिक रूप से सरासर गलत है।

अनिल अयान।
सतना
९४७९४११४०७

क्या करें जब अपने ही विभीषण हो जाएं

क्या करें जब अपने ही विभीषण हो जाएं
भारत की सरकारें बदलती हैं पर आतंकवाद और आतंक का पर्याय कभी नहीं बदलता है। धर्म के नाम पर आतंकवादी, दहशतगर्द अपने तथाकथित जेहाद को अंजाम देने के लिए सरेआम कत्लेआम करते हैं। यह कत्लेआम या तो सेना और सेना के जवानों के ऊपर बंब ब्लास्ट करके, या फिर वाहनों को अपहरण करके, या फिर जान माल को नुकसान पहुंचाकर, या फिर पूरे इलाके को अपने कब्जे में लेकर भारत को अपनी मांगों को मनवाने के लिए मजबूर करने की शाजिश रची जाती है, जम्मू और काश्मीर समस्या जितना ज्यादा पाकिस्तान से संबंध रखती हैं उतना ही चीन भी इस में आँख गड़ाए बैठा रहता है। जब से भारत ने अपनी आजादी पाई है तब से आज तक भारत और पाकिस्तान के युद्ध, और भारत के साथ चीन के हुए युद्ध इस बात के गवाह रहे हैं कि जम्मू काश्मीर भारत के लिए वो गले ही हड्डी बन गई है जिसको ना निगल पा रहे हैं हम और ना ही उगल पा रहे हैं हम, इस मध्यस्थ स्थिति में हमारी अर्थव्यवस्था के सहयोग से चलने वाले जम्मू और काश्मीर शासन हमारा ही विरोध करते हैं। वहाँ पर चाहे जिसकी भी सरकार हो वो भारत की नीतियों का विरोध हमेशा से करती रही हैं। कभी यह विरोध खुले आम किया जाता रहा है और कभी यह विरोध आवाम के द्वारा और जेहादियों की मदद से किया जाता रहा है। सरकारें वोट तंत्र की राजनीति के चलते कुछ ऐसा फैसला लाने में असफल रही हैं कि काश्मीर को भारत से अलग कर दिया जाए या पूरी तरह से भारत के साथ संविलियित कर लिया जाए।
कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की सरकार हर शासन काल में रक्षा मंत्रालय कहीं ना कहीं पर सरकारों के इसारों पर काम करने के लिए मजबूर रहा है। सरकार की तरफ से सेना की कमानों को इतनी आजादी नहीं दी गई कि आपातकालीन स्थिति पैदा होने पर वह खुद कोई सुरक्षा हेतु निर्णय ले सके। कहने को भारत में सुरक्षा एजेंसियाँ, और खूफिया एजेंसियाँ बहुत से बनी हुई हैं। वो अपने तरीके से खूफिया जानकारियाँ और सुरक्षा से संबंधित जानकारियाँ जुटाने के लिए काम भी कर रही हैं। किंतु इस तरह के एलर्ट को हमारे सरकारी नुमाइंदों ने उतना संजीद्दा नहीं लिया जितनी संजीदगी के साथ लेना चाहिए। इसी का परिणाम रहा है कि जम्मू काश्मीर में सरे आम विरोध के काले झंड़े दिखाए जाते हैं, आतंकवादियों के संगढ़नों के द्वारा युवाओं को आतंकवादी बनाया जाता है। उन्हें कैंप में ले जाकर पूरी तरह से सैनिकों की तरह ट्रेनिंग दी जाती है। उन्हें सेना के विरोध में तैयार किया जाता है। उन्हें जम्मू काश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने और इस मिशन में अपने को कुर्बान करने के लिए कुरान की आयतो की दुहाई दी जाती है। उन्हें भावनात्मकर रूप से मजबूर किया जाता है कि वो आतंकी संगठन के सैनिक बनकर भारत के विरोध में कत्ले आम करें। पूरी लड़ाई भारत और पाकिस्तान के बीच में लड़ाई की जड़ बने जम्मू और काश्मीर को अपने एकाधिकार में लेने की है। हालांकि इस मामले में पाकिस्तान का साथ देने के लिए विश्व के कई अमुक राष्ट्र भारत के विरोध में खड़े हैं, मध्यस्थता की मलाई खाने की जुगत मॆं लगे रहते हैं किंतु किसी भी तरह भारत इस स्थान को छॊड़ना नहीं चाहता, और पूरी तरह से इस स्थान पर आधिपत्य भी नहीं जमा पा रहा है।
जितने भी आतंकी हमले हुए हैं उन सब में हमारी सुरक्षा व्यवस्था में बट्टा लगा है। हमारे इंतजामात को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया गया है। इसके पीछे हमारे अपने आतंकपरस्तों, उनके संगठनों, और उनके सहयोगियों का हाथ होता है, हमारी ही जमीन में वो आतंकवादियों के संगठनों, उनके स्लीपिंग सेल्स के दहशत गर्दों को, पनाह देते हैं, उन्हें भोजन पानी से लेकर संबंधित स्थान की खूफिया जानकारियाँ मुहैया कराते हैं और ब्लास्ट, अपहरण करने में खूब मदद करते हैं, पत्थरबाजों, काला झंड़ा दिखाने वाले, सुविधा मुहैया कराने वाले, सहयोग करने वाले, उनके जेहाद को अंजाम तक पहुँचाने वाले, उनके संगठनों की ब्रांचेच को पूरे भारत में पहुंचाने वाले,उन्हें यहां की नागरिकता देने में सहयोग देने वाले हमारे ही देश के बेशर्म गद्दार हैं। कुछ धर्म के नाम पर, कुछ पैसे के नाम पर, कुछ सत्ता और सुमारी के नाम पर आतंकी संगठनों के लिए काम करना शुरू कर देते हैं। पुलवामा क्या अन्य जितने भी आतंकी हमले हुए हैं उन सब में हमलावर हमारे देश की सरजमीं की कई दिनों तक रहे, खाए और अंजाम देकर खत्म हो गए। इस सरकार के आने से सर्जिकल स्ट्राइक नाम का एक काम सेना के द्वारा किया गया। पहले की सरकारों में यह काम इस नाम से नहीं किया जाता था। जब देश की सर्वेसर्वा सरकार और जम्मूकाश्मीर की सरकार है तो फिर अलग झंडा, अलग संविधान, और अलग कानून की व्यवस्था को खत्म न कर पाने के मजबूरियों को खत्म करना जरूरी है। सर्वदलीय बैठको से लेकर अध्यादेश लाने तक, जम्मू काश्मीर को रखने या छॊड़ने की शर्तों पर हमारे अनुसार संविलयन करना चाहिए। ताकि वहां पर या तो भारत का संविधान कानून और व्यवस्था लागू हो, या फिर वो पूरी तरह से भारत से अलग हो जाए नहीं तो पाकिस्तान का हिंस्सा बन जाएं।
वर्तमान वैश्चिक स्थिति यह है कि इस गले में फंसी हड्डी को निगल ही दिया जाए या फिर उगल ही दिया जाए। जम्मू काश्मीर से भारतीय सेना हमेशा विरोध झेलती आई है। को एक बार भारत सरकार खुद विरोध क्यों नहीं जता देती हैं। सेना के लिए आर पार के युद्ध की बात या फिर ऐसी स्थितियों में सर्जिकल स्ट्राइक का रास्ता ही अख्तियार करने का अधिकार क्यों नहीं सरकार उपलब्ध करती है। बार बार पाकिस्तान के साथ मधुर संबंधों की कोशिश करना और इस्लामाबाद और लाहौर में जाकर दावतें उड़ाना, हमारे राष्ट्रीय त्योहारों में वहां के हुक्मरानों को आमंत्रित करना, बंद कर देना चाहिए। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि पाकिस्तान को आतंकवादी संगठनों के प्रमुखों को बहुत ही सम्मान से देखा जाता है। उन्हें धर्म गुरु माना जाता है। या यह बात और है कि पाकिस्तान खुद भी आतंकवाद का शिकार होता रहा है। कुल मिलाकर भारत के राजनैतिक संगठनों को इस मसले में एक तरफ का निर्णय लेना चाहिए। जम्मूकाश्मीर को अपनी शर्तों में अपने साथ रखने या फिर पूरी तरह से छोड़ने पर एक मत होना होगा।
आतंकवाद के लिए वो कानून बनाना होगा जिसमें आतंकवाद,आतंकवादी संगठनों, उनके सहयोगियों और मददगारों को कानूनन कारावास हो। इस तरह के हमलों के बाद सरकार, सेना, और सुरक्षा एजेंसियों को अपनी कमजोरियों को खत्म करने पर काम करने की आवश्यकता है, जो नेता या राजनैतिक व्यक्ति, मंत्री, संत्री और प्रशासनिक अधिकारी इन आतंकवादियों के पक्ष की बात करे उसकी भारत की नागरिकता खत्म करके देश को छॊड़ने का विधान होना चाहिए। जनता, से लेकर जनार्दन तक इस आतंकवाद के विरोध में खड़े होकर एक जुट होकर संवैधानिक, कानूनन, और सामाजिक रूप से विरोध करेंगें तो हमारी सेना को इनसे लड़ने में इन्हें खत्म करने में आसानी होगी।हमारी सरकारों को चाहिए कि पाकिस्तान ही नहीं बल्कि अन्य देशों से इस मामले में एक्शन रवैये से काम ले, सेना को ऐसी आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए सारे संवैधानिक अधिकारों से लैस करना होगा, आतंकवाद, आतंकवादी संगठनों को सह देने वाले, उद्योगपतियो, राजनैतिकों, समाजसेवियों, कलाकारों, युवा संगठनो, लेखकों को सश्रम कारावास, या फिर भारत को छॊड़कर जाने का आदेश देना होगा। जम्मू काश्मीर को अपनी शर्तों में भारत में संविलियित करने हेतु निर्णय लेना, अथवा पूरी तरह से स्वतंत्र छोड़ने का निर्णय लेना होगा। सेना के सैनिकों की सुरक्षा, उनके परिवार को हर तरह का सहयोग करने का ध्येय पूरा करना होगा। वोटतंत्र को छोड़कर सभी दलों को एक जुट होकर संवैधानिक रूप से जम्मूकाश्मीर राज्य को उनके निर्णय अनुसार संविलियित और स्वतंत्रत करने पर निर्णय लेना होगा।

अनिल अयान
९४७९४११४०७