शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

अब "प्रेम" हाट बिकाय

अब "प्रेम" हाट बिकाय

वेलेनटाइन डे का विश्व में इतना ज्यादा क्रेज बढ़ चुका है कि संत वेलेनटाइन को भी जिंदा जी इतना भान न रहा होगा कि उनके सत्कर्म उन्हें प्रेम और प्रणय के संत के रूप में जानने हेतु विश्व प्रसिद्ध कर देंगें। वेलेनटाइन संत के नाम को बाजार वाद ने इतना ज्यादा कैश किया कि यह एक दिन मनाने के पूर्व से पूरे पखवाड़े और सप्ताह भर प्रणय प्रेम की मादक सुगंध बाजार से लेकर जवां दिलों की नाकों में खुशबू देने लगती है। इस माहौल में यह डर जरूर बना होता है कि मादक सुगंध लेने वाली नाक कहीं कटते कटते न रह जाए। इस तरह के बाजारवादी प्रेम की पराकाष्ठा में जब युवाओं को परवान चढ़ते देखता हूँ तो मुझे उनकी तथाकथित समझदारी पर पुछल्लेदार हंसी आजाती है। समय ने प्रेम को कितना बदल दिया है।यह बदलाव इतना ज्यादा टेक्नालाजी और हाईटेक  हो गया है कि स्कूल कालेजों से लेकर आफिसों तक प्रेमरोग के मरीज अपने प्रेम प्रणय का ऐतबार करते इस मौसम में नजर आ जाते हैं। पूरी तरह से बाजार की कीमती उपहारों पर आधारित यह पखवाड़ा जेब में नोटों के दम पर हलाल होता है। बाजार का आयात निर्यात पश्चिमी संस्कृति से पलायित विभिनन रिश्तों के दिवसों की वजह से साल भर यह बाजार इन त्योहारों की मुनादी करता है। सुनने में आया था इश्क प्यार और मोहब्बत जो खुद में अधूरे हैं वो जीवन को पूर्णता कैसे दे सकते हैं, हालाँकि प्रेम विषय वस्तु को कलमकारों ने अपने अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है। किंतु उन सब प्रेम में जवां दिलों के बीच प्रेमी और प्रेमिका के बीच की अनुभूति को केंद्र बिंदु माना गया है। ढाई आखर पढ़ने की बात करने वाले कबीर संतृप्त पांडित्य की बात करते हैं, किंतु यहाँ पर तो प्रेम में बौराने की भी बात की गई है। आज के समय में दिखावे का प्रेम, पांडित्य के प्रेम पर हावी हो चुका है। आज कल की प्रेयसी भी कई प्रेमियों के साथ फ्लर्ट करने का चाल चलन स्थापित करने में माहिर होती हैं, किसी भी लड़के और लड़की के लिए मित्रता के नाम पर ब्वाय फ्रेंड और गर्लफ्रेंड की पदवी भी उपहारों से शुरू होकर, वासना और शारीरिक संबंधों पर जा कर इतिश्री हो जाती हैं। ड्रेस बदलने की तरह समाज और पार्टियों के बीच स्टेटस सिंबल बने ये पद कुछ समय में ही नई ड्रेस की तरह बदल दिये जाते हैं, इनकी परिणित लंबे समय तक चलने वाले रिश्तों की बजाय, मौसमी नालों में जल भराव की तरह होती हैं। स्वार्थ और जरूरत इस तरह के दिखावटी प्यार का मूल मंत्र होता है।
स्त्री पुरुष के बीच जिस प्रेम पिपासा और निस्वार्थ संबंधों की बात की गई है वह हमारे देश में मर्यादित और संस्कारिक होती है। पूरा समाजिक स्तर इस बात का गवाह है कि प्रेम के दिखावे के नाम पर मादकता को उड़ेल देना, फूहड़तापूर्ण प्रदर्शन करना, विरोध में संस्थाओं का नंगेपन के स्तर तक उतर जाना। आज के समय में आम बात हो चुकी है। इतिहास के पन्नों और साहित्य ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि देह के बिना प्रेम सिर्फ भक्ति ही हो सकती है, स्त्री पुरुष के बीच में प्रेम छिपाने का भाव रहा है। जो दिख जाए वो प्रेम की पराकाष्ठा नहीं हो सकता है। भारत का बाजार विदेश की संस्कृति और सभ्यता के दम पर अर्थव्यस्था को मजबूत कर सकता है। किंतु प्रेम और वासना के बीच में युवाओं के मन में महीन अंतर को मिटाने के लिए भी यह जिम्मेवार होता है। मन में प्यार शब्द आते ही जिस मनो वैज्ञानिक उत्तेजना की परिकल्पना युवा मन करता है उसके पीछे हमारे टीवी चैनलों में दिन रात चलने वाले प्रेम की मानवनिर्मित शहद में डूबे प्रायोजित कार्यक्रम, मीडिया में प्रचारित किया जाने वाला झूठा भ्रम जाल जिम्मेवार है। कुल मिलाकर यह कहना जरूरी है कि वर्तमान में समाज, मीडिया, सरकार, संस्कृति और संस्कार सब इस बात के लिए तैयार हैं कि हम पश्चिम की हवा में आंख बंद करके मृत प्राय होकर बहते चले जाएं। जैसा माहौल हो वैसा ढ़ल जाएं। क्योंकि यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम पिछड़े हो जाएगें, समूह में हमें पुराने जमाने का मान लिया जाएगा। हमें जमाने वाले अपने कुनबे से काट देंगें। हम जो कुछ भी युवा पीड़ी को परोस रहे हैं वो उनके मन में अपराध के रूप में परिवर्तित हो रहा है। यह अपराध किशोर जन्य अपराध, यौन अपराध, अवसाद जन्य अपराध के लिए सबसे बड़ा कारण बनता है। इस दिखावटी प्रेम में लड़का और लड़की अपनी इच्छा के अनुसार अगर साथी नहीं पाते, या साथी से मिलने से रोका जाता है, या फिर साथी के साथ उच्छखृल होने से रोकाजाता है तो आक्रामकता आ जाती है, इस भावनाओं के बहाव में माता पिता से ज्यादा महत्वपूर्ण उस समय के लिए तथाकथित लाइफ पार्टनर हो जाता है। जो सिर्फ आकर्षण के वशीभूत होकर मौन स्वीकृति के लिए तैयार हुआ है।
इतिहास में जिस प्रेम और प्रेमियों की स्थिति का वर्णन किया गया है। उनके वो जमाने रवाने हो गए। जिस तरह के प्रेम उपन्यासों की रचनाएँ की गई उनकी उपयोगिता युवाओं के मन के लिए कुछ नहीं रह गई। आज के लेखक भी प्रेम के नाम पर अश्लीलता, फूहड़ता, देह को उद्घाटित करना, और शारीरिक संबंधों की प्राथमिकता को फिल्मों और मीडिया के माध्यम से प्र्स्तुत करने के लिए आतुर हैं। क्योंकि बाजार उसी प्रकार की प्रस्तुति का है।ज्यादा आदर्शवादिता बताना और अपने पुरानी संस्कृति और सभ्यता को आगामी पीढी के बीच लाना मतलब खुद की बेइज्जती कराना ही है। कहा जाता है ठोकर लगने से जिंदगी संभल जाती है, युवाओं के साथ भी कुछ ऐसा इस मामले में होता है, उन्हें आकर्षण, दिखावा, फ्लर्ट और प्यार की सही स्थिति हादसों से गुजरने के बाद ही महसूस होता है। इस प्यार के बाजार में मादक इस माहौल में जब कोई युवा खुद को परवान चढ़ा देता है तो उसे समझ में आता है वो इस रास्ते में बहुत आगे आ चुका है। उसका कैरियर, उसके सामाजिक संबंध, और उसका समाजिक सम्मान सब जा चुका है। तब तक उसे लौटने में लुटे हुए मन के साथ बहुत कठिनाई होती है। बाजार में उपहारों के दम पर प्रेम, प्रेमी और प्रेमिकाएँ सस्ते दामों में उपलब्द नजर आ जाते हैं, किंतु हर युवा को अपने युवामन के आकर्षण के परे दिल की बजाय दिमाग से एक पल के लिए सोचने की आवश्यकता है। क्या युवा मन के वशीभूत होकर बाजार में बिकने लुटने और बदनाम होने के लिए उत्साहित हैं, तैयार हैं, या तैयार किए गए हैं। स्थितियाँ भटकन की ओर लिए जा रही हैं। यहां पर विरोध दिखावटी प्यार और इश्कबाजी का बाजारू प्रदर्शन करने को लेकर है। फूहड़ता, नग्नता, प्रेम के नाम पर उच्छखृलता, और अश्लीलता को परोसने का विरोध है। भारत में प्रेम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक भवन बनाने की बजाय विदेशी नकल के चलते मल्टीस्टोरी बिल्डिंग तैयार कर खुद की पीठ ठोकने के पागलपन के लिए विरोध है। बहुत सीधी सी बात है बाजार अगर आपको खुद को बेंचने के लिए और खुद के मयार को झुकाने के लिए मजबूर करे तो क्या आप खुशी खुशी खुद की अना को नीलाम करने के लिए तैयार हो जाएगें। इस यक्ष प्रश्न का जवाब हम सबको खोजना होगा। प्रेम में होना बुरा नहीं है, प्रेम को बाजार में तवायफ बनाकर उसके जिस्म से बाजार के लिए दलाली करना नैतिक, मानवीय, और मनोवैज्ञानिक रूप से सरासर गलत है।

अनिल अयान।
सतना
९४७९४११४०७

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