सोमवार, 12 अगस्त 2019

आखिर स्वतंत्रता के मायने क्या है?


वंदेमातरम सुजलाम सुफलाम मलयजशीतलाम शस्य श्यामलाम मातरम की परिकल्पना करने वाले बंकिम दा आज खुश होंगें की वंदनीय भारत माता अपने स्वतंत्रता के ७२ वर्ष पूर्ण कर चुकी है। सन १७५७ से शुरू हुआ विद्रोह जो मिदनापुर से शुरू हुआ वह बुंदेलखंड और बघेलखंड में १८०८-१२ के समय पर अपने शिखर में था। अंततः सन अठारह सौ सत्तावन जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का वर्ष माना जाता है। फिर उसके बाद चाहे बंग भंग आंदोलन हो या फिर बंगाल का विभाजन, चा फिर भगत चंद्रशेखर आजाद युग रहा हो। चाहे करो या मरो वाला अगस्त आंदोलन की बात की जाये। या फिर दक्षिण पूर्व एशिया में आजाद हिंद आंदोलन और आजाद हिंद फौज की भूमिका हो। सब इस स्वतंत्रता से अटूट रूप से जुडे हैं। आज के समय में कितना जरूरी हो गया है ,समझना कि आजादी के मायने क्या है. जिस तरह के संघर्ष के चलते अंग्रेज भारत छॊड कर गये और भारत को उस समय क्या खोकर यह कीमती आजादी मिली यह हमे हर समय याद रखना होगा. आज  ७० वर्ष के ऊपर होगया है भारत अपने विकसित होने की राह सुनिश्चित कर रहा है. वैज्ञानिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण के नये आयाम गढ रहा  है. आज के समय समाज, राज्य, राष्ट्र और अन्य विदेशी मुद्दे ऐसे है जिनके चलते स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान में पानी फिरता नजर आ रहा है.
ट्रिस्ट विद डेस्टिनी भाषण के अंश, जवाहरलाल नेहरू ने तात्कालीन समुदाय से लाल किले में जो कहा वह आज इतने वर्षों के बाद भी बहुत महत्वपूर्ण है। जो निम्नलिखित है।“आज एक बार फिर वर्षों के संघर्ष के बाद, भारत जागृत और स्वतंत्र है। भविष्य हमें बुला रहा है। हमें कहाँ जाना चाहिए और हमें क्या करना चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानों और श्रमिकों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम निर्धनता मिटा, एक समृद्ध, लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश बना सकें। हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं को बना सकें जो प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके? कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण हैं। आज हम दुर्भाग्य के एक युग को समाप्त कर रहे हैं और भारत पुनः स्वयं को खोज पा रहा है। आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो केवल एक क़दम है, नए अवसरों के खुलने का। इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है निर्धनता, अज्ञानता, और अवसर की असमानता मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही इच्छा है कि हर आँख से आंसू मिटे............” मैने यह नहीं देखा कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने किस तरह अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त कराया. अंग्रेजों का शासन काल कैसा था.किस तरह अत्याचार होता था.परन्तु इतनी उम्र पार होने के बाद जब मैने विनायक दामोदर सावरकर की १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक को पढा तो अहसास हुआ कि उस समय की मनो वैज्ञानिक दैहिक पीडा क्या रही होगी. क्यो और कैसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ. अपने पूर्वजों से कहते सुना कि सतना रियासत का भी इस समर में बहुत बडा योगदान था. उसके बाद सतना के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री चिंतामणि मिश्र की पुस्तक सतना जिला का १८५७ हाथ में आई और उसे पढ कर जाना कि आजादी प्राप्त करने के लिये लोहे के चने चबाने पडे थे.आज हम आजाद मुल्क में सांस ले रहे है.जम्हूरियत और गणतंत्र की बात करते है.
धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रच कर अपनी वास्तविकता से मुह चुरा रहे है. आजादी ७२ वर्श पूरा होने को है परन्तु क्या हम आजाद है? और जिन्हें यह अहसास होता है कि वो आजाद है वो अपनी आजादी को क्या इस तरह उपयोग कर पाया है कि किसी दूसरे की आजादी में खलल ना पडे. शायद नहीं ना हम आजाद है और ना ही हम अपने अधिकारों के सामने किसी और की आजादी और अधिकार दिखते है.आज भारत बनाम इंडिया के वैचारिक कुरुक्षेत्र की जमीन तैयार हो चुकी है.आजादी के दीवानो ने भारत के इसतरह के विभाजन को सोचा भी ना रहा होगा.इसी के बीच हमारी आजादी फंसी हुई है. दोनो विचारधाराओं के बीच हर पर यह स्वतंत्रता पिस रही है.आज के समय में वैचारिक आजादी के मायने विचारों की लीपापोती और विचारों के माध्यम से निकले शब्दों को आक्रामक बनाकर प्रहार करने की राजनीति की जा रही है। आज हम स्वतंत्रता की ७३ वीं वर्षगाँठ मनाने जा रहे है और यह भी जानते है कि आज के समय में कितना जरूरी हो गया है यह समझना कि आजादी के मायने क्या है। जिस तरह के संघर्ष के चलते अंग्रेज भारत छॊड कर गये और भारत को उस समय क्या खोकर यह कीमती आजादी मिली। आज ७३ वर्ष के ऊपर हो गया है स्वतंत्र भारत जो अपने विकसित होने की राह सुनिश्चित करने की उहापोह में संघर्ष कर रहा है। वैज्ञानिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण के नये आयाम गढ रहा है। आज के समय समाज, राज्य, राष्ट्र और अन्य विदेशी मुद्दे ऐसे है कि आज के समय में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान में पानी फिरता नजर आ रहा है। ऐसा महसूस होता है कि पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और आज अपने राजनेताओं के गुलाम हो गये हैं
जब सन सैतालिस में देश आजाद हुआ उस समय की स्थिति और आज की स्थितियों के बीच जमीन आसमान का अंतर हो चुका है यह अंतर समय सापेक्ष है। आज के समय में भारतीय जनता पार्टी का सम्राज्य लगभग पूरे देश के राज्यों में फैल चुका है। और वैचारिक दृष्टिकोण भी इसी पार्टी के रंग में रोगन हो चुका है। आज के समय में राष्ट्रभक्ति की परिभाषा परिवर्तित होकर पार्टी जन्य हो चुकी है। राजनैतिक अवमूल्यन अगर गिरा है तो उसके प्रचार प्रसार को तीव्र करने के लिये समाज के पांचवें स्तंभ की भूमिका महती हो गई है। आज के समय में मीडिया के विभिन्न रूप भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। वर्तमान में स्वतंत्रता के क्या मायने रह गये हैं यह प्रश्न दिमाग को बार बार कचोटता है। संविधान, स्वतंत्रता की पसलियां हैं, संविधान मनवाने वाले इसकी रीढ़ और इस पूरे ढ़ाचे का दिल आम लोग या दूसरे शब्दों में यूं कहे कि संविधान लोगों के दिल में बसता है। वर्तमान में चल रही पसली तोडू स्वतंत्रता को क्या कहा जाये स्वतंत्रता या फिर उद्दंडता ? इसका निर्धारण तो अब जनता को ही करना शेष रह जाता है।  सामाजिक परिस्थितिया लोगों को दुर्भाग्य से बचाने की जगह दुर्भाग्य में झोंकने जैसी हैं। करोड़ों की सेवा का भाव सिर्फ हजारों तक सिमट कर रह गया है! भारत नये युग में कदम तो बढ़ा रहा है पर कीचड़ सने पैरों के साथ, लोग कदम तो नाप रहे हैं पर जमीन गंदी करने के बाद।  देश को दिया जाने वाला समर्पण जात संप्रदाय पर मरने मारने को समर्पित है। संस्थायें बनी तो पर प्राणदायनी की जगह प्राणघातिनी बन बैठी। लोगों की मानसिक संकीर्णता स्वतंत्रता का पर्याय बनने तक पहुँच गई! क्या स्वतंत्र भारत के इसी भविष्य का सपना देखा था उन हजारों लाखों ने जो देश पर मर मिटे? क्या आज की स्वतंत्रता जनाधिकारो को परिपूर्णता तक ले जाती है, आजादी उसी सीमा तक सही है जब तक यह किसी संप्रदाय विशेष को उकसाने या अपमानित करने का कार्य न करे. जहां चित्त भयमुक्त हो, जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें।इसी संदर्भ में 'गीतांजलि' में रबीन्द्र नाथ टैगोर की रचना में स्वतंत्रता के सही मायने को बेहतर ढ़ंग से समझा जा सकता है जिसमें उन्होने लिखा है कि -
जहां ज्ञान मुक्त हो; जहां दिन रात-विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों; जहां हर वाक्य दिल की गहराई से निकलता हो; जहां हर दिशा में कर्म के अजस्त्र सोते फूटते हों; निरंतर बिना बाधा के बहती हो जहां मौलिक विचारों की सरिता; तुच्छ आचारों की मरू रेती में न खोती हो, जहां पुरूषार्थ सौ-सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो; जहां पर कर्म, भावनाएं, आनंदानुभूतियां सभी तुम्हारे अनुगत हों, हे प्रभु, हे पिता  अपने हाथों की कड़ी थपकी देकर उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ।
अनिल अयान,सतना
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