बुधवार, 27 मार्च 2019

विश्व रंग दिवस के बिहान भये की बात

विश्व रंग दिवस के बिहान भये की बात

इस वर्ष का विश्व रंग दिवस के गुजर चुका है। इस वर्ष रंग मंच दिवस मे काफी रंग रौगन समाचार पत्रों में देखने को मिली। इस अवसर पर पता चला कि विंध्य में रंगमंच कितना फल फूल रहा है। यह धरती कई मायनो में रंगमंच से जुड़े कलाकारों को अपनी कोख में स्थान देती रही है। इसके चलते परिणाम रहा है कि हमारे यहाँ रंगमंच कई दशको से फल फूल रहा है। इस समय सॊशल मीडिया के प्रभाव के चलते रंगमंच के सितारे खुद को मीडिया से काफी हद तक जोड़ चुके हैं। मेरा ताल्लुक रंग मंच से सिर्फ ककहरा सीखने बस का था किंतु मैने देखा है कि रंगमंच का इस क्षेत्र में उठाव किस तरह हुआ और गिराव किस तरह का हुआ, इस क्षेत्र में बहुत से लोग हबीब तनवीर, मानव कौल से बेहतर करने की चेष्टा करने की कोशिश किये। इसी के चलते बहुत से रंगमंच से जुड़े हुए नवांकुर बाहर निकल कर आए। मैने अपने स्कूल के समय से आज तक देखता चला आया हूँ और इसके पहले अपने कुछ पुराने इस क्षेत्र से जुड़े मित्रों से बातों ही बातों में सुना कि रंगमंच अब घाटे का सौदा है। रंग मंच आपको अपनी इच्छाओं को मंच तक अभिनय करने से जोड़ता जरूर है किंतु आज के समय में यह ब्रेड़ और बटर देने में असमर्थ है। वर्तमान में रंगमंच से लोग पलायन करने बॉलीवुड अभिनय में पलायन कर रहे हैं। आकाशवाणियों में नाटकों का लेखन और प्रदर्शन, प्रसारण कम हुआ है। रंगमंच की जगह अब टीवी चैनलों ने लाइव शो ने ले लिया है। समय के सापेक्ष रंगमंच के विकास की बातें बेमानी लगने लगी है।
सतना में बहुत पहले एप्टा और अन्य रंगमंचीय संस्थाओं ने भरपूर काम किए बहुत से नाम ऐसे थे जो नियमित नब्बे के दशक से इस क्षेत्र में लगे हुए थे। सतना में सुनील विश्वकर्मा,शशिधर मिश्र, पृथ्वी आयलानी,सारंग सेठ कुछ पुराने कलाकार थे जो इस विधा में बहुत काम करते थे। इनकी बात की जाए आज के समय में इनका रंगमंच से नाता खत्म सा हो गया है और टीवी चैनलों की तरफ जा चुका है, सिनेमा से जुड़े हुए जितने भी लोग थे वो रंगमंच से गहरे रूप से जुड़े थे ऋषिवंश, आशोक मोगिया, सभाजीत शर्मा, आशोक मिश्र, दिलीप मिश्र, प्रहलाद अग्रवाल प्रदीप मिश्र को मैने नाटकों के लिए समर्पित भाव से मेहनत करते हुए देखा और सुना है। सविता दाहिया, वीरेंद्र गोस्वामी की टीम को अपने कालेज के समय से पी.के.जैन प्रदीप मिश्र और प्रहलाद अग्रवाल के निदेशन में नाटकों के लिए कैंपस में काम करते हुए देखा है। द्वारिका दाहिया और दिलीप मिश्र इस रंगमंच के इस क्षेत्र में उसी तरह काम कर रहे हैं जैसे की रीवा में योगेश त्रिपाठी और हरीश धवन की टीम, सीधी में महावर जैसे कार्यक्रम इस विधा को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। शुभम, नूर, अनिमेष, सिद्धार्थ, मेघना, एकता, निखिल, धनीराम, रोहित, अक्षय ऐसे बहुत से नये कलाकार हैं जो नाट्य विद्यालयों की पौध हैं, इन्होने इस क्षेत्र को रंगमंच में बहुत कुछ देने की कोशिश की है। बाल रंग मंच, आरंभ के अभिषेक और शाहिर की टीम के नुक्कड़ नाटक वर्तमान में इस धरती में इस परंपरा को बढ़ाने में  काफी योगदान दे रहे हैं। इनसे काफी उम्मीदे हैं।
सतना हो या रीवा और सीधी हो इस मामले में जितने भी कलाकार हैं वो नियमित रूप में रंगमंच से जुड़ने से कुछ दूर हो रहे हैं वजह यह है कि उनके लिए रंगमंच फुल टाइम सर्विस या जॉब नहीं हैं, रेगुलर प्रस्तुतियाँ देने में असमर्थ हैं। इस बाजारवादी शहरीय सम्पन्नता के चलते नाट्य संस्थाओं के मन की पीडा यह है कि उनके पास रिहर्सल करने के लिए उपयुक्त सुविधाएँ नहीं, आर्थिक सहयोग हैं, स्थान का अभाव इस विधा को समाज से विलुप्त कर रहा है। इसके अलावा सबसे बड़ी और जरूरी आवश्यकता रंगमंच के लिए नाटक की अच्छी और रोचक स्क्रिप्ट का होना, एक नाटक को तैयार करने के लिए लगने वाला समय। जो किसी के पास नहीं,यह सच हैं जब तक हमें किसी काम से आमदनी नहीं होती तब तक हम उसके अंतर्मन से नहीं जुड़ते और उसके लिए समर्पण नहीं आता है। इस वर्ष रंग रिवोल्यूशन तीन दिन का नाट्य महोत्सव दाहिया दम्पति ने अपने रंगमंच के साथियों के साथ किया, कखग भी समय समय पर सीमित संसाधनों के चलते छुट पुट आक्सीजन देने का काम कर रही है। किंतु समाजिक संगठनों, शासन, और शैक्षिक संस्थानों का इस क्षेत्र में इन संस्थानों को मूल चूल सहयोग देना ही होगा। इनके कैम्पस में रंगमंच को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना आवश्यक है। नई पौध का इस विधा से परिचय कराना आवश्यक है। इसे हॉबी बनाने की बजाय आमदनी का हिस्सा कैसे बनाया जाय इस पर भी विचार करना होगा। आयोजक, प्रायोजक, आर्थिक सहयोगी, और हर नाटक के कलाकारों को कुछ ना कुछ अर्थ मुहैया करने के बारे में नाट्य संस्थाओं को प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। नाट्य संस्थाओं को सामाजिक समन्व्य स्थापित करना होगा। इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि  इनकी प्रस्तुतियाँ, प्रस्तुतियों के लिए तिथि त्योहार, जयंती, पर्व खोजने की बजाय यथा संभव नियमित हो। रंग मंच की सफलता यही है कि इस विधा से चैनलों, सीरियलों, और फिल्मों की ओर होने वाला पलायन रुके, नये कलाकार पैदा हो, अभिरुचि पैदा हो, और सभी को यह कांधे का बोझ ना लगकर फुल टाइम सर्विस के रूप में विस्तार दिया जाए। यह फुल टाइम सर्विस का एक रूप नाट्य विद्यालय, नाट्य कोचिंग सेंटरों की शुरुआत, नाट्य पाठ्य क्रमों का विकास, इनकी शैक्षणिक कार्यशालाएँ, परिचर्चा, और संवाद नियमित किये जाए। नाट्य दिवस नहीं बल्कि नाट्योत्सव का माहौल वर्ष भर बना रहे इस पर भी इस समाज को ही पहल करनी होगी।
अनिल अयान,सतना


मंगलवार, 19 मार्च 2019

आधुनिक समाज में होली के बदलते पर्याय

आधुनिक समाज में होली के बदलते पर्याय

रंगों का त्योहार होली हम सबके सामने दस्तक दे रहा है। यह वही होली है जिसमें कभी होरियारे होली को जीवंतता प्रदान करते थे। होली की बात हो तो उत्तर प्रदेश के मथुरा बरसाने की होली, और लट्ठमार होली की बात न हो ऐसा हो ही नहीं सकता, होली का संदर्भ जहाँ एक ओर प्रह्ललाद और होलिका के पौराणिक पक्ष को पीढियों के सामने रखता है, तो दूसरी ओर जीजा,साली और सरहज की होली, देवर और भाभी की होली की यादों को ताजा कर ही देता है। होली या वो माहौल भी याद आ ही जाता है जब फागुन की फाग लोक संगीत को कानों के रास्ते हृदय के अंतस में पिरोने का काम करती थी। बसंत के बाद आम की बौर फान्गुन के इस त्योहार का अभिनंदन करने के लिए जैसे आतुर हुआ करते थे, टेशू और पलाश के पेडो़ में लगे लाल सूरज की तरह धधकते फूल होली के रंगों को और ज्यादा गाढ़ा करने का काम करते थे।होली का वो एक पखवाड़े का उत्सव हमारे समाज को नई उर्जा देने का काम किया है। समय के साथ साथ होली का अस्तित्व भी परिवर्तित हुआ है, उसका स्वरूप भी बदल रहा है, जैसे जैसे हम आधुनिकता के दौर में जा रहे है, जैसे जैसे हम बाजारवाद की चपेट में आ रहे हैं, जैसे जैसे हम पाश्चात संस्कृति की ओर अंधानुकरण कर रहे हैं, हमारी पीढियाँ जब वैश्वीकरण के हाथों जकड़े जाने हेतु विवश हो रही हैं, तब होली का वो पौराणिक, धार्मिक, और सामाजिक अस्तित्व का खतरा यह है कि वो मात्र खाना पूर्ति के लिए तिथि त्योहार बनकर ना रह जाए। हम इस ओर कदम दर कदम बढ़ते जा रहे हैं। यह सब मूल्य खत्म ना हो जाएँ इस ओर हमारी कोशिश होनी चाहिए।
वर्तमान संदर्भों की बात की जाए तो टेशू और पलाश जैसे पेड़ खत्म होते जा रहे है, जब गाँव कांक्रीट के शहरी जंगल में बदल रहे हो, तब आम और सेमल के पौधों की उम्मीद करना और बौर देखना स्वप्न जैसा होता जा रहा है, बाजारवाद के चलते प्रदूषण इतना ज्यादा हो गया है कि होलिका दहन के लिए हरे हरे वृक्षों की बली दे दी जाती है, आपसी प्रतिद्वंदिता के युग में होलिका की चिता को ऊँचाई देने के खेल में आस पास की हरियाली को तबाह कर दिया जाता है, होलिका दहन अब एक रस्म आदायगी ही नहीं बल्कि समाजिक अस्मिता का प्रश्न बनकर उभरा है, शहरों में तो यह भी खाना पूर्ति की तरह हो गया है, पुरानी पीढी की स्त्रियों की बात छोड़ दें तो वर्तमान में कामगार महिलाओं के लिए इस अवसर पर घर में पकवान बनाने की परंपरा मात्र कांधे का बोझ ही प्रतीत होता, वो गुड़िया से लेकर खाझा, सलोनी खुरमी और भी अन्य व्यंजन बनाने की सोचती भी नहीं बल्कि इसकी जगह वो बाजार की मिलावटी पकवानों पर आश्रित होने की मजबूरी से विवश हैं, यदि संबंधों की बात की जाए तो जीजा -साली और देवर-भाभी के बीच इतनी ज्यादा नजदीकियां नहीं रह गई कि पुराने समय की तरह होली में सराबोर हो सकें,सभी अपने अपने छोटे परिवार को लेकर परदेश में बसे अपने जीवन को जीने के लिए विवश हैं, ये त्योहार अब छोटे छोटे परिवारों को करीब लाने का काम नहीं कर रहे हैं, परदेश में रहने वाले पतिदेव भी अब होली जैसे त्योहारों में अपने घर वापस नहीं आ पाते हैं। पत्नियाँ खुद छुट्टियों में होली में रंग लगाने चल देती हैं।
डिजिटलाइजेशन के इस युग में पोस्टकार्ड, अंतरदेशीय, जैसे संचार के माध्यम को और उनके विभागों को ताला लगा दिया गया है, डाकियों का विलुप्तीकरण हो रहा है, आज के डिजिटल आडियो विजुअल मैसेजेज होली को आधुनिकता से जॊड़ दिए हैं। अब तो डिजिट्ल माध्यम से होली मनाना आधुनिकता का प्रतीक बन गया है। होरियारों की टोलिया इस समय अपनी रोजी रोटी और बेरोजगारी में व्यस्त हैं, लोक संगीत और लोक भाषा में गाए जाने वाली फाग, क्षेत्रीय गीत खत्म होने की कगार में पहुंच गए हैं। बाजार ने सेंथेटिक रंगो का और आधुनिक विदेशों से आयातित खिलौनों की ऐसी खेप हमें बेच दी हैं जिसके चलते होली में अपनी माटी की महक खत्म होती जा रही हैं, कुछ स्थानों को छोड़ दें तो वर्तमान समय में होली का यह एक पखवाड़े का त्योहार मात्र एक या दो दिन में सिमट कर रह गया है। इसकी वहज समाज के हर तबके का त्योहारों के प्रति उदासीनता, समय की कमी और स्वाभाविक व्यस्तता को माना जा सकता है। आज के समय में जब हमें मोबाइल की आवश्यकता चौबीसों घंटे की हैं तब आने जाने की बात सोचना, फोन में हाल चाल लेना, खैर ख्वाहिश करना तो समय की बर्बादी का पर्याय ही समझा जाता है। अपने कुनबे में अपनी ही पारिवारिक समस्याओं को सुल्झाने में व्यस्त इंशान त्योहारों के उत्साह की बलि दे चुका है। व्यस्तताओं ने हमारी उमंगों और उत्साहों में बेडियाँ ड़ाल दिया है। हम सभी चाहते हुए भी लाचार बने बैठे हुए हैं। किंतु इस लाचारी के परे भी हमें अपने उत्साह को दो बारा नए मिजाज के साथ उचाइयाँ देना होगा। हमें अपने आसपास और अपनी सोशाइटी से ही यह शुरुआत करनी होगी। लोक संगीत से लेकर लोक परंपराओं को बचाने के लिए हमें एक जुट होने की आवश्यकता है ताकी फाल्गुन की मिठास, फाग की सुरीली आवाज विलुप्त ना हो जाए, ताकि आने वाली पीढ़ी को दाग और रंग के भेद अंतर पता हो।
होली के डिजिटलाइजेशन होने से होली की बहार अब प्रायोजित होने वाले कवि सम्मेलनों, चैनलों में होली के अवसर पर नेताओं और व्यवसाइयों पर व्यंग्य प्रहार करना, होली मिलन के आयोजन के बहाने शराब, भांग, सेवन करते हुए नाच गाने के साथ दो चार घंटे की औपचारिक मनोरंजन करना मात्र रह गया है। वर्तमान संदर्भों में सूखे रंगों की होली, प्राकृतिक रंगो की होली खेलने का चलन बढ़ा है, इसके चलते कैमिकल मिले हुए हानिकारक रंगों का प्रयोग कम करने का प्रयास किया जाना, पानी के संकट को देखते हुए पानी को व्यर्थ ना बहाने की इस कोशिश ने निश्चित ही जागरुकता और पर्यावरणीय चिंतक को इस हर्ष उल्लास के बीच शामिल किया है। हर त्योहार के पीछे का एक मूल मंत्र यही रहा है कि सत्य और संघर्ष की हमेशा विजय होती है माना गया है। होली के रंगीले त्योहार में भी यही मूल मंत्र छिपा हुआ है। हमारी आने वाली पीढ़ी को भी इस मंत्र का संज्ञान होना जरूरी है। होली के बहाने यदि हम अपने धार्मिक, पौराणिक, समाजिक, मूल्यों को बचा सके तो शायद इस त्योहार की सार्थकता होगी। इसी बहाने हम अगर अपने पुराने भूले बिसरे मित्रों को याद कर सके, मिल सके, सगे संबंधियों को मिलकर प्रेम के रंगों में भिगो सके, उनके चेहरों की मुस्कान और खुशी की वजह बन सकें तो इस त्योहार का मनाना सार्थक होगा। समाज का हर तबका होली के रंगीन मौसम में रंगों की खुशबू को महसूस कर सके, हम इस प्रयास में अपने स्तर का सहयोग कर सकें। अपने आस पास द्वेष भावना और आंतरिक नफरतों के दागों को मिटा कर अगर सतरंगी रंगों के गुलाल से वातावरण रंगीन बना दें तो निश्चित ही होली के पकवानों की मिठास दिलों की मिठास बनकर लंबे समय तक रहेगी, प्रेम और आपसी भाईचारे का यह गुलाल किसी भी पानी से नहीं धुलेगा। हमारी एक पहल इस होली को यादगार होली बना सकती हैं। तो फिर आइये इस बार होली में रंग गुलाल और अबीर को घर घर पहुँचाएँ और इसी बहाने ही सही दिलों में प्रेम और सौहारर्द के रंगों को हमेशा के लिए लगाने की एक कोशिश करें।
अनिल अयान,सतना

सोमवार, 4 मार्च 2019

लोकतंत्र की वर्तमान अवधारणा और हमारी विधायिका

लोकतंत्र की वर्तमान अवधारणा और हमारी विधायिका
इस वर्ष के प्रारंभ से ही हमारा देश चुनावी माहौल के साये में अपने गुजर बसर कर रहा है। दिसंबर के महीने में कई राज्यों में चुनाव हुए और उसके बाद केंद्र के चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियाँ खुद में व्यस्त हो गई। लोकतंत्र के तीन मुख्य स्तंभों के साथ साथ चौथा स्तंभ जिसे हम मीडिया के रूप में देखते हैं वो भी इन महीनों के घटना क्रम में अहम भूमिका निर्वहन करता रहा है। ये वही महीने थे जिसमें हमारे देश की पैरा मलेट्री फोर्स सीआरपीएक के काफिले को जैश ए मुहम्मद के आतंवादियों के द्वारा उड़ा दिया गया। इस दौरान हमारे देश में एयर स्ट्राइक, और पाकिस्तान का जवाबी हमला भी हमारे देश ने झेला, अभिनंदन का पाकिस्तान की सरहद पार पाकिस्तान की सेना की गिरफ्त में आना, और वैश्विक दबाव के चलते अभिनंदन की देश वापसी होना, विश्व में अरब की सर जमीं में सुषमा स्वराज का विशेष स्वागत करना, रूस से लेकर अन्य देशों का भारत को समर्थन देना, इनके साथ साथ देश में आई इस आपातकालीन स्थिति के बीच शहीद हुए सी आर पी एफ के जवानों, एयरफोर्स के जवानों, और भारत पाक सीमा में सेना के सैनिकों का बलिदान हम सबके सामने से गुजरा। इन सब माहौल के बीच हमारे देश की पार्टियाँ जहाँ एक जुट होने का दावा कर रही थी वहीं दूसरी ओर उन्हें रह रहकर आने वाले चुनाव में स्वयं की स्थितियों के प्रति चिंता ज्यादा ही सता रही थी।
पिछले पाँच वर्षों के बीच यह देखा गया है कि मोदी सरकार और पुरानी एनडीए सरकार के बीच बहुत सी तुलनाएँ की गईं। मोदी सरकार के पाँच वर्षों के विश्व भ्रमण उनके पहनावे, उनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंधों, उनके पारिवारिक जीवन, उनके द्वारा बढ़ाए गए पाकिस्तान सहित मुस्लिम देशों के साथ मित्रता संबंधों, देश में उनके द्वारा उठाए गए कुछ कदम जैसे, राफेल घोटाला,नोटबंदी, महाराष्ट्र और जम्मू काश्मीर में भाजपा सरकार के लिए पहल, घोटाले करके भागे उद्योगपतियों के मुद्दे, अम्बानी और अड़ानी के साथ मोदी सरकार के संबंध, धारा तीन सौ सत्तर के प्रति सरकार की घोषणा, जीएसटी कर, सेना को एक तरह की पेशन योजना, और राम मंदिर निर्माण जैसे आदि आदि बहुत से मुद्दे जो विपक्ष को अपना पक्ष मजबूत करने का अवसर प्रदान करने अवसर प्रदान करते रहे। पिछले पांच वर्षों में सेना के ऊपर जितने हमले किए गए। उन हमलों में हमारी सरकार का क्या एक्शन रहा, हमारी सरकार ने उन हमलों के बाद क्या सुधार कार्य किया, सेना के स्तर पर क्या सुधार हुआ, सेना को कितने रक्षा से संबंधित अधिकार दिए गए। ये सभी प्रश्न केंद्र सरकार के लिए रक्षा के संबंध में ध्यानाकर्षण हेतु यक्ष प्रश्न बनकर उभरे। विपक्ष और सत्ता पक्ष केंद्र में एक दूसरे की छीछा लेदर करने से एक भी बार पीछे नहीं हटे, और हटना भी नहीं चाहिए। यह दोनों का राजनैतिक दायित्व भी बनता है।
सेना, हमले, वैश्विक हस्ताक्षेप,हमारे लोकतंत्र के खतरे, सरकार के द्वारा सैनिकों के बलिदानो और हमलों में सफलता को चुनाव प्रचार में उपयोग करने के वाकये,हम सबके बीच देखने को मिल रहे हैं। इन वाकयों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया इस समय दो वैचारिक भागों में बंट चुका है, इन वाकयों के बीच,हमारे देश की आतंरिक और बाह्य रक्षा प्रणाली हमारी रक्षा नीतियों, सेना की कार्यवाहियों के लिए निर्देशन, सरकार के द्वारा लिए जाने वाले फैसलों पर दखल, के लिए मीडिया न्यायाधीश बन जाता है, मीडिया हाउस के कैमरे के सामने वो लोग इतनी बेबाकी से अपनी बात रखते, आपस में बहस बाजी करते, कुल मिलाकर जूतम पैजार करते नजर आते हैं जो पहले से प्री प्लान्ड प्रोग्राम के लिए तैयार किए जाते हैं। इन मामलों में चैनलों के एंकर ऐसा हाहाकारी कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं जिससे चैनल की सोसायटी में पकड़ टीआरपी के माध्यम से मजबूत होती है,इन बहसों के दौरान प्रस्तुत किए जाने वाले तथ्य तस्वीरे भी कपोल कल्पित होते नजर आते है। इन चैनकों के द्वारा आयोजित इस तरह के प्राइम टाइम जब पूरी तरह से या तो सरकार पक्षीय या सरकार विरोधी हों तो अविश्वास करने की मजबूरी बन जाती है।
सरकार का चुनावी रैलियों में सेना के हमलों, विंग कमांड़र की वापसी, और आतंकवादी हमलों के शहीदों के प्रति किए जाने वाली कार्यवाहियों की दुहाई देकर खुद की पीठ थपथपाने की प्रक्रिया जिस तरह इस समय जारी है वह किस लहजे से जनता के द्वारा लिया जाना चाहिए, क्या उसे हम खुद के मुख अपनी बड़ाई करते हुए देखें, या फिर अपनी जिम्मेवारियों का प्रचार प्रसार और चुनाव के लिए उपयोग करना माने, या लोकसभा चुनाव में अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए उपयोग किये जाने वाले हथियार के रूप में देखें, विपक्ष की भूमिका इन संदर्भों में और ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रोपेगेंडा वाली हो जाती है, जब वो अपने ही देश की सरकार और सेना की कार्यवाहियों के लिए सबूत मांगने का ढोल पीटते हैं, सरकार और सेना की कार्यवाहियों पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं, बिना आधिकारिक प्रेस वार्ता के द्वारा प्रतिनिधियों के बयानों के सुने बिना न्यायाधीश की तरह अपने निर्णय सुना दिए जाते हैं। समाज के विभिन्न क्षेत्रों से ताल्लुकात रखने वाले प्रतिष्ठित लोगों को सोशल मीडिया व इलेक्ट्रानिक मीडिया में भावावेश के द्वारा दिए गए बयानों के दुष्परिणामों को भी हम महसूस कर सकते हैं।
इस समय सोशल मीडिया, जैसे फेसबुक, ट्वीटर, इस्टाग्राम इलेक्ट्रानिक मीडिया से ज्यादा तेज, आक्रामक, और भड़काऊ हो गया है, राजनैतिक पार्टियों के द्वारा जब यह देखा जाता है कि देश का आम से लेकर खास वर्ग तक सोशल मीडिया से जुडा हुआ है। जुड़ा ही नहीं बल्कि अपनी दिनचर्या का अधिक्तर समय उसी में व्यस्त है तब आईटी सेल की बनी छद्म आई डी, समूह, और पेजेज में ऐसे कंटेट पोस्ट किए जा रहे हैं, जो आम जनता को बरगलाने के लिए अंगारों में पेट्रोल का काम करती हैं। पार्टी की बड़े बड़े राजनेताओं  के खातों का प्रयोग इस तरह के विषयों को उछालने और बहस के निचले स्तर तक गिर कर वैचारिक युद्ध करने वाले यूजर्स न्यायाधीशों की तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन यूजर्स को प्रशासन,सरकारी कामकाज, और सेना के संबंध में बेसिक जानकारी भी नहीं है वो भी ऐसे कुतर्क प्रस्तुत करते हैं कि उस क्षेत्र का विशेषज्ञ भी चुल्लू भर पानी में डूब मरे। इन सब परिस्थितियों के बीच वर्तमान लोकतंत्र को खतरा पैदा करने वाले ऐसे मीडिया हाउसेस, प्राइम टाइम के डिसकशन पैनल्स, चुनावी रैलियों को संबोधित करने वाले राजनेता और मंत्री नौसिखिए पैतरेधारी लोग पूरे देश की लीक को भटकाने का काम कर रहे हैं। विधायिका से जुड़े हुए दल आपस में आरोप प्रत्यारोप लगाने, देश के मूल मुद्दों को छोड़कर सुर्खियों में रहने के आदी हो चुके हैं, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया जिस समय चाहे उस समय किसी भी क्षेत्र में अनावश्यक दखलंदाजी लोकतंत्र और रक्षा मामलों को और भटकाने का काम कर रहे हैं।
किसको क्या करना है, क्या सही और क्या गलत देश के लिए हैं, सेना से लेकर मंत्रालय को क्या निर्णय लेना है, यदि
यह अब सोशल और इलेक्ट्रानिक मीडिया तय करेंगें तब तो देश की दिशा कुछ और ही होगी। पार्टियाँ यदि सुबूतबाजी, आरोप प्रत्यारोप में ही व्यस्त होगी तब तो बाहरी दुश्मन हमारे देश को तहस नहस कर देगा। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को चाहिए कि इन सब अतिवादी प्रसारण और प्रचार हेतु मीडिया हाउसेस और कंपनीज के लिए नए नियम कायदे रखे। चुनाव आयोग को सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनैतिक और चुनावी भूमिका भी तय करनी होगी। न्यायपालिका को यह भी देखना होगा कि कौन से मुद्दे संविधान,लोकतंत्र,और विधायिका को खतरा पैदा कर सकते हैं। कौन से प्रसारण देश के नागरिकों के बीच असंतोष और अराजकता का माहौल पैदा करने के लिए जिम्मेवार होगें। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सरकार और विपक्ष दोनों को खुली आखों से काम करने की आदत को सुमार करना होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे प्रसारण और सूचनाओं को पूरा विश्व देखता है, अवलोकित करता है,और फिर उस हिसाब से हमारे पक्ष और हमारे खिलाफ वैश्विक नीतियाँ निर्धारित करता है। लोकतंत्र के सभी स्तंभ यदि समान्जस्य बनाकर कार्य नहीं करेंगें तो यह आशंका बढ़ेगी कि भारत का लोकतंत्र, प्रशासन तंत्र,खुद में ही एक दूसरे के लिए दुश्मन बन जाएगा।

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७