बुधवार, 27 मार्च 2019

विश्व रंग दिवस के बिहान भये की बात

विश्व रंग दिवस के बिहान भये की बात

इस वर्ष का विश्व रंग दिवस के गुजर चुका है। इस वर्ष रंग मंच दिवस मे काफी रंग रौगन समाचार पत्रों में देखने को मिली। इस अवसर पर पता चला कि विंध्य में रंगमंच कितना फल फूल रहा है। यह धरती कई मायनो में रंगमंच से जुड़े कलाकारों को अपनी कोख में स्थान देती रही है। इसके चलते परिणाम रहा है कि हमारे यहाँ रंगमंच कई दशको से फल फूल रहा है। इस समय सॊशल मीडिया के प्रभाव के चलते रंगमंच के सितारे खुद को मीडिया से काफी हद तक जोड़ चुके हैं। मेरा ताल्लुक रंग मंच से सिर्फ ककहरा सीखने बस का था किंतु मैने देखा है कि रंगमंच का इस क्षेत्र में उठाव किस तरह हुआ और गिराव किस तरह का हुआ, इस क्षेत्र में बहुत से लोग हबीब तनवीर, मानव कौल से बेहतर करने की चेष्टा करने की कोशिश किये। इसी के चलते बहुत से रंगमंच से जुड़े हुए नवांकुर बाहर निकल कर आए। मैने अपने स्कूल के समय से आज तक देखता चला आया हूँ और इसके पहले अपने कुछ पुराने इस क्षेत्र से जुड़े मित्रों से बातों ही बातों में सुना कि रंगमंच अब घाटे का सौदा है। रंग मंच आपको अपनी इच्छाओं को मंच तक अभिनय करने से जोड़ता जरूर है किंतु आज के समय में यह ब्रेड़ और बटर देने में असमर्थ है। वर्तमान में रंगमंच से लोग पलायन करने बॉलीवुड अभिनय में पलायन कर रहे हैं। आकाशवाणियों में नाटकों का लेखन और प्रदर्शन, प्रसारण कम हुआ है। रंगमंच की जगह अब टीवी चैनलों ने लाइव शो ने ले लिया है। समय के सापेक्ष रंगमंच के विकास की बातें बेमानी लगने लगी है।
सतना में बहुत पहले एप्टा और अन्य रंगमंचीय संस्थाओं ने भरपूर काम किए बहुत से नाम ऐसे थे जो नियमित नब्बे के दशक से इस क्षेत्र में लगे हुए थे। सतना में सुनील विश्वकर्मा,शशिधर मिश्र, पृथ्वी आयलानी,सारंग सेठ कुछ पुराने कलाकार थे जो इस विधा में बहुत काम करते थे। इनकी बात की जाए आज के समय में इनका रंगमंच से नाता खत्म सा हो गया है और टीवी चैनलों की तरफ जा चुका है, सिनेमा से जुड़े हुए जितने भी लोग थे वो रंगमंच से गहरे रूप से जुड़े थे ऋषिवंश, आशोक मोगिया, सभाजीत शर्मा, आशोक मिश्र, दिलीप मिश्र, प्रहलाद अग्रवाल प्रदीप मिश्र को मैने नाटकों के लिए समर्पित भाव से मेहनत करते हुए देखा और सुना है। सविता दाहिया, वीरेंद्र गोस्वामी की टीम को अपने कालेज के समय से पी.के.जैन प्रदीप मिश्र और प्रहलाद अग्रवाल के निदेशन में नाटकों के लिए कैंपस में काम करते हुए देखा है। द्वारिका दाहिया और दिलीप मिश्र इस रंगमंच के इस क्षेत्र में उसी तरह काम कर रहे हैं जैसे की रीवा में योगेश त्रिपाठी और हरीश धवन की टीम, सीधी में महावर जैसे कार्यक्रम इस विधा को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। शुभम, नूर, अनिमेष, सिद्धार्थ, मेघना, एकता, निखिल, धनीराम, रोहित, अक्षय ऐसे बहुत से नये कलाकार हैं जो नाट्य विद्यालयों की पौध हैं, इन्होने इस क्षेत्र को रंगमंच में बहुत कुछ देने की कोशिश की है। बाल रंग मंच, आरंभ के अभिषेक और शाहिर की टीम के नुक्कड़ नाटक वर्तमान में इस धरती में इस परंपरा को बढ़ाने में  काफी योगदान दे रहे हैं। इनसे काफी उम्मीदे हैं।
सतना हो या रीवा और सीधी हो इस मामले में जितने भी कलाकार हैं वो नियमित रूप में रंगमंच से जुड़ने से कुछ दूर हो रहे हैं वजह यह है कि उनके लिए रंगमंच फुल टाइम सर्विस या जॉब नहीं हैं, रेगुलर प्रस्तुतियाँ देने में असमर्थ हैं। इस बाजारवादी शहरीय सम्पन्नता के चलते नाट्य संस्थाओं के मन की पीडा यह है कि उनके पास रिहर्सल करने के लिए उपयुक्त सुविधाएँ नहीं, आर्थिक सहयोग हैं, स्थान का अभाव इस विधा को समाज से विलुप्त कर रहा है। इसके अलावा सबसे बड़ी और जरूरी आवश्यकता रंगमंच के लिए नाटक की अच्छी और रोचक स्क्रिप्ट का होना, एक नाटक को तैयार करने के लिए लगने वाला समय। जो किसी के पास नहीं,यह सच हैं जब तक हमें किसी काम से आमदनी नहीं होती तब तक हम उसके अंतर्मन से नहीं जुड़ते और उसके लिए समर्पण नहीं आता है। इस वर्ष रंग रिवोल्यूशन तीन दिन का नाट्य महोत्सव दाहिया दम्पति ने अपने रंगमंच के साथियों के साथ किया, कखग भी समय समय पर सीमित संसाधनों के चलते छुट पुट आक्सीजन देने का काम कर रही है। किंतु समाजिक संगठनों, शासन, और शैक्षिक संस्थानों का इस क्षेत्र में इन संस्थानों को मूल चूल सहयोग देना ही होगा। इनके कैम्पस में रंगमंच को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना आवश्यक है। नई पौध का इस विधा से परिचय कराना आवश्यक है। इसे हॉबी बनाने की बजाय आमदनी का हिस्सा कैसे बनाया जाय इस पर भी विचार करना होगा। आयोजक, प्रायोजक, आर्थिक सहयोगी, और हर नाटक के कलाकारों को कुछ ना कुछ अर्थ मुहैया करने के बारे में नाट्य संस्थाओं को प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। नाट्य संस्थाओं को सामाजिक समन्व्य स्थापित करना होगा। इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि  इनकी प्रस्तुतियाँ, प्रस्तुतियों के लिए तिथि त्योहार, जयंती, पर्व खोजने की बजाय यथा संभव नियमित हो। रंग मंच की सफलता यही है कि इस विधा से चैनलों, सीरियलों, और फिल्मों की ओर होने वाला पलायन रुके, नये कलाकार पैदा हो, अभिरुचि पैदा हो, और सभी को यह कांधे का बोझ ना लगकर फुल टाइम सर्विस के रूप में विस्तार दिया जाए। यह फुल टाइम सर्विस का एक रूप नाट्य विद्यालय, नाट्य कोचिंग सेंटरों की शुरुआत, नाट्य पाठ्य क्रमों का विकास, इनकी शैक्षणिक कार्यशालाएँ, परिचर्चा, और संवाद नियमित किये जाए। नाट्य दिवस नहीं बल्कि नाट्योत्सव का माहौल वर्ष भर बना रहे इस पर भी इस समाज को ही पहल करनी होगी।
अनिल अयान,सतना


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