सोमवार, 4 मार्च 2019

लोकतंत्र की वर्तमान अवधारणा और हमारी विधायिका

लोकतंत्र की वर्तमान अवधारणा और हमारी विधायिका
इस वर्ष के प्रारंभ से ही हमारा देश चुनावी माहौल के साये में अपने गुजर बसर कर रहा है। दिसंबर के महीने में कई राज्यों में चुनाव हुए और उसके बाद केंद्र के चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियाँ खुद में व्यस्त हो गई। लोकतंत्र के तीन मुख्य स्तंभों के साथ साथ चौथा स्तंभ जिसे हम मीडिया के रूप में देखते हैं वो भी इन महीनों के घटना क्रम में अहम भूमिका निर्वहन करता रहा है। ये वही महीने थे जिसमें हमारे देश की पैरा मलेट्री फोर्स सीआरपीएक के काफिले को जैश ए मुहम्मद के आतंवादियों के द्वारा उड़ा दिया गया। इस दौरान हमारे देश में एयर स्ट्राइक, और पाकिस्तान का जवाबी हमला भी हमारे देश ने झेला, अभिनंदन का पाकिस्तान की सरहद पार पाकिस्तान की सेना की गिरफ्त में आना, और वैश्विक दबाव के चलते अभिनंदन की देश वापसी होना, विश्व में अरब की सर जमीं में सुषमा स्वराज का विशेष स्वागत करना, रूस से लेकर अन्य देशों का भारत को समर्थन देना, इनके साथ साथ देश में आई इस आपातकालीन स्थिति के बीच शहीद हुए सी आर पी एफ के जवानों, एयरफोर्स के जवानों, और भारत पाक सीमा में सेना के सैनिकों का बलिदान हम सबके सामने से गुजरा। इन सब माहौल के बीच हमारे देश की पार्टियाँ जहाँ एक जुट होने का दावा कर रही थी वहीं दूसरी ओर उन्हें रह रहकर आने वाले चुनाव में स्वयं की स्थितियों के प्रति चिंता ज्यादा ही सता रही थी।
पिछले पाँच वर्षों के बीच यह देखा गया है कि मोदी सरकार और पुरानी एनडीए सरकार के बीच बहुत सी तुलनाएँ की गईं। मोदी सरकार के पाँच वर्षों के विश्व भ्रमण उनके पहनावे, उनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंधों, उनके पारिवारिक जीवन, उनके द्वारा बढ़ाए गए पाकिस्तान सहित मुस्लिम देशों के साथ मित्रता संबंधों, देश में उनके द्वारा उठाए गए कुछ कदम जैसे, राफेल घोटाला,नोटबंदी, महाराष्ट्र और जम्मू काश्मीर में भाजपा सरकार के लिए पहल, घोटाले करके भागे उद्योगपतियों के मुद्दे, अम्बानी और अड़ानी के साथ मोदी सरकार के संबंध, धारा तीन सौ सत्तर के प्रति सरकार की घोषणा, जीएसटी कर, सेना को एक तरह की पेशन योजना, और राम मंदिर निर्माण जैसे आदि आदि बहुत से मुद्दे जो विपक्ष को अपना पक्ष मजबूत करने का अवसर प्रदान करने अवसर प्रदान करते रहे। पिछले पांच वर्षों में सेना के ऊपर जितने हमले किए गए। उन हमलों में हमारी सरकार का क्या एक्शन रहा, हमारी सरकार ने उन हमलों के बाद क्या सुधार कार्य किया, सेना के स्तर पर क्या सुधार हुआ, सेना को कितने रक्षा से संबंधित अधिकार दिए गए। ये सभी प्रश्न केंद्र सरकार के लिए रक्षा के संबंध में ध्यानाकर्षण हेतु यक्ष प्रश्न बनकर उभरे। विपक्ष और सत्ता पक्ष केंद्र में एक दूसरे की छीछा लेदर करने से एक भी बार पीछे नहीं हटे, और हटना भी नहीं चाहिए। यह दोनों का राजनैतिक दायित्व भी बनता है।
सेना, हमले, वैश्विक हस्ताक्षेप,हमारे लोकतंत्र के खतरे, सरकार के द्वारा सैनिकों के बलिदानो और हमलों में सफलता को चुनाव प्रचार में उपयोग करने के वाकये,हम सबके बीच देखने को मिल रहे हैं। इन वाकयों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया इस समय दो वैचारिक भागों में बंट चुका है, इन वाकयों के बीच,हमारे देश की आतंरिक और बाह्य रक्षा प्रणाली हमारी रक्षा नीतियों, सेना की कार्यवाहियों के लिए निर्देशन, सरकार के द्वारा लिए जाने वाले फैसलों पर दखल, के लिए मीडिया न्यायाधीश बन जाता है, मीडिया हाउस के कैमरे के सामने वो लोग इतनी बेबाकी से अपनी बात रखते, आपस में बहस बाजी करते, कुल मिलाकर जूतम पैजार करते नजर आते हैं जो पहले से प्री प्लान्ड प्रोग्राम के लिए तैयार किए जाते हैं। इन मामलों में चैनलों के एंकर ऐसा हाहाकारी कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं जिससे चैनल की सोसायटी में पकड़ टीआरपी के माध्यम से मजबूत होती है,इन बहसों के दौरान प्रस्तुत किए जाने वाले तथ्य तस्वीरे भी कपोल कल्पित होते नजर आते है। इन चैनकों के द्वारा आयोजित इस तरह के प्राइम टाइम जब पूरी तरह से या तो सरकार पक्षीय या सरकार विरोधी हों तो अविश्वास करने की मजबूरी बन जाती है।
सरकार का चुनावी रैलियों में सेना के हमलों, विंग कमांड़र की वापसी, और आतंकवादी हमलों के शहीदों के प्रति किए जाने वाली कार्यवाहियों की दुहाई देकर खुद की पीठ थपथपाने की प्रक्रिया जिस तरह इस समय जारी है वह किस लहजे से जनता के द्वारा लिया जाना चाहिए, क्या उसे हम खुद के मुख अपनी बड़ाई करते हुए देखें, या फिर अपनी जिम्मेवारियों का प्रचार प्रसार और चुनाव के लिए उपयोग करना माने, या लोकसभा चुनाव में अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए उपयोग किये जाने वाले हथियार के रूप में देखें, विपक्ष की भूमिका इन संदर्भों में और ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रोपेगेंडा वाली हो जाती है, जब वो अपने ही देश की सरकार और सेना की कार्यवाहियों के लिए सबूत मांगने का ढोल पीटते हैं, सरकार और सेना की कार्यवाहियों पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं, बिना आधिकारिक प्रेस वार्ता के द्वारा प्रतिनिधियों के बयानों के सुने बिना न्यायाधीश की तरह अपने निर्णय सुना दिए जाते हैं। समाज के विभिन्न क्षेत्रों से ताल्लुकात रखने वाले प्रतिष्ठित लोगों को सोशल मीडिया व इलेक्ट्रानिक मीडिया में भावावेश के द्वारा दिए गए बयानों के दुष्परिणामों को भी हम महसूस कर सकते हैं।
इस समय सोशल मीडिया, जैसे फेसबुक, ट्वीटर, इस्टाग्राम इलेक्ट्रानिक मीडिया से ज्यादा तेज, आक्रामक, और भड़काऊ हो गया है, राजनैतिक पार्टियों के द्वारा जब यह देखा जाता है कि देश का आम से लेकर खास वर्ग तक सोशल मीडिया से जुडा हुआ है। जुड़ा ही नहीं बल्कि अपनी दिनचर्या का अधिक्तर समय उसी में व्यस्त है तब आईटी सेल की बनी छद्म आई डी, समूह, और पेजेज में ऐसे कंटेट पोस्ट किए जा रहे हैं, जो आम जनता को बरगलाने के लिए अंगारों में पेट्रोल का काम करती हैं। पार्टी की बड़े बड़े राजनेताओं  के खातों का प्रयोग इस तरह के विषयों को उछालने और बहस के निचले स्तर तक गिर कर वैचारिक युद्ध करने वाले यूजर्स न्यायाधीशों की तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन यूजर्स को प्रशासन,सरकारी कामकाज, और सेना के संबंध में बेसिक जानकारी भी नहीं है वो भी ऐसे कुतर्क प्रस्तुत करते हैं कि उस क्षेत्र का विशेषज्ञ भी चुल्लू भर पानी में डूब मरे। इन सब परिस्थितियों के बीच वर्तमान लोकतंत्र को खतरा पैदा करने वाले ऐसे मीडिया हाउसेस, प्राइम टाइम के डिसकशन पैनल्स, चुनावी रैलियों को संबोधित करने वाले राजनेता और मंत्री नौसिखिए पैतरेधारी लोग पूरे देश की लीक को भटकाने का काम कर रहे हैं। विधायिका से जुड़े हुए दल आपस में आरोप प्रत्यारोप लगाने, देश के मूल मुद्दों को छोड़कर सुर्खियों में रहने के आदी हो चुके हैं, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया जिस समय चाहे उस समय किसी भी क्षेत्र में अनावश्यक दखलंदाजी लोकतंत्र और रक्षा मामलों को और भटकाने का काम कर रहे हैं।
किसको क्या करना है, क्या सही और क्या गलत देश के लिए हैं, सेना से लेकर मंत्रालय को क्या निर्णय लेना है, यदि
यह अब सोशल और इलेक्ट्रानिक मीडिया तय करेंगें तब तो देश की दिशा कुछ और ही होगी। पार्टियाँ यदि सुबूतबाजी, आरोप प्रत्यारोप में ही व्यस्त होगी तब तो बाहरी दुश्मन हमारे देश को तहस नहस कर देगा। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को चाहिए कि इन सब अतिवादी प्रसारण और प्रचार हेतु मीडिया हाउसेस और कंपनीज के लिए नए नियम कायदे रखे। चुनाव आयोग को सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनैतिक और चुनावी भूमिका भी तय करनी होगी। न्यायपालिका को यह भी देखना होगा कि कौन से मुद्दे संविधान,लोकतंत्र,और विधायिका को खतरा पैदा कर सकते हैं। कौन से प्रसारण देश के नागरिकों के बीच असंतोष और अराजकता का माहौल पैदा करने के लिए जिम्मेवार होगें। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सरकार और विपक्ष दोनों को खुली आखों से काम करने की आदत को सुमार करना होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे प्रसारण और सूचनाओं को पूरा विश्व देखता है, अवलोकित करता है,और फिर उस हिसाब से हमारे पक्ष और हमारे खिलाफ वैश्विक नीतियाँ निर्धारित करता है। लोकतंत्र के सभी स्तंभ यदि समान्जस्य बनाकर कार्य नहीं करेंगें तो यह आशंका बढ़ेगी कि भारत का लोकतंत्र, प्रशासन तंत्र,खुद में ही एक दूसरे के लिए दुश्मन बन जाएगा।

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

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