बुधवार, 29 मई 2019

कोचिंग संस्थान और हमारे नौनिहालों का भविष्य


                                                            कोचिंग संस्थान और हमारे नौनिहालों का भविष्य
      अमूमन हर शहर में कोचिंग संस्थान के नाम पर सैकड़ों की तादाद में शिक्षा की अवैध दुकानें खुली हुई हैं। अधिक्तर संस्थान स्कूल के शिक्षकों और शिक्षकों के समूह के द्वारा चलाये जा रहे हैं। इन कोचिंग सेंटर्स को चलाने के लिए शायद ही कोई मालिक किसी अधिकारिक अनुमति का पालन करता होगा। यहां तक कि जिस स्कूल में वो शिक्षक और शिक्षक समूह पढ़ा रहे होते हैं वहां तक से कोई अनुमति नहीं होती हैं। कोचिंग सेंटर्स का मालिक कौन है यह अभी तक शासन प्रशासन निश्चित नहीं कर पाया है। टैक्स के नाम पर इन संस्थानों को नगर निगम और इन्कम टैक्स विभाग से औपचारिक संबंध होजाता है। यहां तक की शिक्षा विभाग के पास भी इतनी जानकारी नहीं होती कि स्कूली शिक्षा और उच्चा शिक्षा के कितने कोचिंग संस्थान हर शहर में चलाए जा रहे हैं। और ये संस्थान किस विभाग से ताल्लुकात रखते हैं, कोचिंग संस्थानों में मुख्यतः दो प्रकार के संस्थान आते हैं पहला वो संस्थान है जो अनौपचारिक रूप से संचालित किया जाता है और इसके बाद किसी नाम से बैनर लगा कर उसे प्रचारित किया जाता है। दूसरा किसी बड़े संस्थान की स्थानीय फ्रेंचायजी जिसमें नियंत्रण उस संस्थान का मुख्य कार्यालय करता है। कोचिंग संस्थानों में छात्र संख्या निर्धारण, पढ़ने पढ़ाने के लिए बनाए जाने वाले क्लास रूम्स का आकार प्रकार, अन्य सुविधाये, आने जाने और वाहन की व्यवस्थाओं, सुरक्षात्मक दृष्टि से उपयोग होने वाले मापदंड क्या होंगें यह कोई निर्धारित नहीं कर रहा है। सिर्फ टैक्स के नाम पर देय शुल्क ही इन संस्थानों का कर होता है। किंतु इसके बाद इन पर नजर रखने वाला कोई आधिकारिक कमेटी नहीं है। इनके लिए कोई जमीनी तौर पर क्रियान्वयन नियम कायदे कानून नहीं है, इसी वजह से वर्ष भर में विभिन्न कोचिंग संस्थानों में कोई ना कोई दुर्घटनाएँ बच्चॊं के साथ घटती रहती है।
      विगत दिनों सूरत में कोचिंग संस्थान में हुए अग्नि कांड, कोटा और इंदौर भोपाल दिल्ली अलाहाबाद में संचालित मंडियों की तरह कोचिंग संस्थानों में आये दिन कुछ ना कुछ होता ही रहता है, कहीं शारीरिक मानसिक शॊषण का शिकार वो बच्चे होते हैं जो अपने कैरियर को सही दिशा देने के लिए यहां आए होते हैं, कोटा में ऐसी घटनाएँ कई कोचिंग संस्थानों में घटित हुईं जिसमें कांपटीटिव परीक्षाओं में सफल ना हो पाने की वजह से दूर दूर से आये बच्चे हताश होकर आत्महत्या करके अपनी इह लीला समाप्त कर लिए। कोचिंग संस्थानों में कहीं ना कहीं पढ़ाने वाले टीचर्स का प्रोफेशनल व्यवहार, माता पिता की बढ़ती अपेक्षाएँ, माता पिता के द्वारा इनवेश्ट किया जाने वाली मोटी रकम और जल्दी सफलता प्राप्त करने की जग्दोजहद बच्चों को जल्दी हताश कर देती है और वो पलायनवादी सोच का शिकार हो जाता है। इसके चलते जब वो अपनी मेहनत में सफल नहीं हो पाता तो वो हारकर मौत को ही अपना अंतिम रास्ता बना लेता है। कोचिंग के नाम बहुत से प्रश्न मन में उठते होंगे, जिसमें सबसे बड़ा प्रश्न यह है जो विषय विशेषज्ञ इन कोचिंग सेंटर्स में पढ़ाते हैं वो अधिक्तर किसी ना किसी बड़े नामी गिरामी स्कूल, कालेज से संबंधित होते हैं, इन स्कूल कालेजों के विद्यार्थी भी इन कोचिंग सेंटर्स में आते हैं, आखिरकार ऐसा क्या ज्ञान इन कोचिंग सेंटर्स में बच्चों को दिया जाता है जो स्कूल की पचास मिनट की कक्षाओं में ये शिक्षक नहीं दे पाते है, कुल मिलाकर सीधा सा उत्तर है कि कोचिंग से बच्चों को इक्स्ट्रा केयर, ज्यादा अटेंशन, मार्क्स बेनीफिट्स, और पैरेंटस के दबाव का हल मिल जाता है। समाज अगर स्कूल में बच्चों को मोटी फीस देने के बाद भी स्कूल के टीचर्स के द्वारा चलाई जाने वाली कोचिंग में ज्यादा भरोसा करता है तो निश्चित ही ये कोचिंग संस्थान छोटे फायदों के लिए बच्चों को कैप्चर करने हेतु कुकुर मुत्तों की तरह फलेंगे और फूलेंगें। एक मानक निश्चित होना चाहिए कि किस स्तर को पूरा करके कोई भी शिक्षक ट्यूशन क्लासेस को कोचिंग संस्थान में बदला जा सकता है यह नहीं होना चाहिए कि कोई भी ऐरा गैरा आये और एक कमरे में कोचिंग संस्थान का बोर्ड लगाकर मीडिया में विज्ञापनों के माध्यम से खुद को रातो रात हाइलाइट कर दे।
      यदि टीचर्स सही ढंग से अपने अपने विद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षण कार्य करें, और संस्स्थान एक स्तरीय वेतनमान दे तो ये कोचिंग संस्थानों की अवधारणा लगभग खत्म हो जायेगी। इन कोचिंग संस्थानों के बहाने जो सफलता का लॉलीपॉप दिया जाता है वो कहीं ना कहीं वो आकर्षण होता है जो बच्चों को थोक के भाव में आकर्षित करने के लिए विवष कर देता है। सबसे बड़ी दुविधा की स्थिति यह  है कि जब पैरेंट्स किसी स्कूल में बच्चे को दाखिल कराने जाता है तब जितनी पूँछताछ करता है उसकी दस प्रतिशत भी कोचिंग संस्थानों में नहीं कर पाता क्योंकि वो एक ऐसा बाजार है जहाँ बच्चें पहले ही मंत्र मुग्ध हो चुका होता है। अब प्रश्न उठता है कि कोचिंग संस्थानों की अवधारणा को खत्म होना चाहिए, ऐसे शिक्षको पर स्कूल कालेजों का कड़ा नियंत्रण होना चाहिए कि  ये शिक्षा की प्राइवेट मंडियाँ बंद हों इसके लिए विद्यालयों और महाविद्यालयों को इन शिक्षको को उचित वेतनमान देना पड़ेगा, जिन संस्थानों में फ्रेंचायजी के रूप में कोचिंग संस्थान चलाए जा रहे हैं, उसमें  वाहन पार्किंग, सुरक्षा व्यवस्था, क्लास रूम और बच्चों की संख्या का निश्चित मापदंड होना चाहिए। जो बच्चे संस्था में आ रहे हैं उनके लिए मेडिकल चेकब, लाइफ इन्स्योरेंश आदि की व्यवस्था भी कोचिंग संस्थान को करना चाहिए। कोचिंग संस्थानों को क्रियान्वित करने के लिए जिला स्तर पर स्क्रीनिंग कमेटी बननी चाहिए, जिसमें कलेक्टर, नगरनिगम या नगर पालिका आयुक्त, जिला शिक्षा अधिकारी, की अनुमति अनिवार्य हो, कोचिंग संस्थानों को मान्यता प्राप्त बनाने के लिए इन अधिकारिक स्क्रीनिंग कमेंटी से नो आब्जेक्शन सिस्टम को विकसित करना होगा। कोचिंग संस्थान खुलने से पहले यह जरूरी है निश्चित किये गए मानदंडों पर वो पूरी तरह से खरा उतर सके, दूसरा सबसे बडा दायित्व समाज का भी है कि वो अपने बच्चे को  किसी भी इस तरह के संस्थान में भेजने से पहले पूरी तरह से जाँच परख कर ले, सारी जानकारियाँ लेकर फिर निश्चित करे कि किस संस्थान में हमारा बच्चा सुरक्षित है, और सही दिशा में उसे मार्गदर्शन मिलेगा। बच्चे की जान जोखिम में नहीं होगी। तभी इस तरह की दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है, थोक मंड़ी की तरह खुल रहे कोचिंग संस्थानों में लगाम लगाने के लिए भी हर शहर में स्क्रीनिंग कमेंटी का बनना और एप्रूवल लेना जरूरी होना चाहिए जिससे नियमित नियंत्रण भी बना रहेगा और हमारी पीढी सुरक्षित हो सकेगी।

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७


गुरुवार, 23 मई 2019

आगामी "मोदी सरकार" की चुनौतियाँ


 आगामी "मोदी सरकार" की चुनौतियाँ
      लोकसभा चुनाव के परिणाम निकले चौबीस घंटे भी नहीं हुए हैं, पूरा देश मोदीमय हो चुका है, पूरा देश मोदी ब्रांड को अपने देश के प्रधान के रूप में आरूढ़ होते देखना चाहता है। इस लोकसभा चुनाव ने देश के इतिहास को फिर से जागृत कर दिया है। इस पिछले पाँच सालों का घर घर मोदी का तिलिस्म अभी भी बरकरार है। पिछले पंच वर्षीय सरकार का तिलिस्म यही है कि लोग एनडीए और भाजपा को भूलकर नरेंद्र मोदी को याद रखे हुए हैं।इसी का परिणाम रहा है कि भाजपा ने जिस सीटों  में पिछले चुनाव में हार गई थी उन सीटों में मोदी की राजनैतिक चुनावी टीम ने बहुत पहले से काम करना शुरू कर दिया था भाजपा के आंतरिक विरोधी सुरों के बीच भी अमित शाह की टीम ने जमीनी स्तर पर काम किया। दस लाख के ऊपर के चुनावी बूथों के माध्यम से जहां भाजपा ने जन जन से संपर्क साधा वही जिन एक सौ बीस सीट पर भाजपा नहीं जीती थी उन सीटों में से अस्सी पार सीटों में जमीनी काम करके पुनः चुनाव लड़ा गया और जीता गया। हर जिले में क्लसटर सम्मेलन, यूथ सम्मेलन, सोशल मीडिया के लिए मोबाइल ऐप की सुविधा, सोशल मीडिया ब्रांडिग के लिए लगातार पार्टी का इनवेस्टमेंट और उन दिग्गजों ने साथ दिया जो संघ से जुड़े होने के बाद भी भाजपा के राजनैतिक सहयोगी बने रहे। देश में सातो चरणों के पहले भाजपा और विरोधी कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने जिस तरह की हुंकार भरी थी उस तरह से लग रहा था कि विपक्ष इस बार के चुनाव में सम्मान जनक स्थान बना पायेगा किंतु इस बार की कहानी ही कुछ अलग रच गई। अच्छे अच्छे दिग्गज अपने सम्राज्य को खत्म होते देखते रह गए। ऐसा लगा जैसे कि भारतीय राजनीति के इतिहास में मोदी की सुनामी ने खामोशी बिखेर दी हो। हर दल की आशाओं के पर आने वाले चुनावी परिणामों को पूरा का पूरा देश और अन्य दल मुंह बाए देखते रहे।
      चुनाव के पहले कांग्रेस और अन्य दलों ने जिस तरह घेराबंदी की गई। मोदी सरकार की रैलियों के वायदे और अधूरे वायदों की रामकहानी, विदेश यात्राओं के लेखा जोखा और खर्च का हिसाब किताब, नोट बंदी का प्रभाव, किसानों की विभिन्न राज्यों में आत्महत्या करना, अन्य पार्टी शासित राज्यों की आर्थिक स्थिति और केंद्र के पक्षपाती रवैये की बाते, आतंकी हमलों की बातें सर्जिकल एयर स्ट्राइक के सबूतों को मांगने की बात, आरक्षण, राममंदिर के निर्माण का मुद्दा, काले धन की वापसी, रसूख कर्जदारों की फरारी, अड़ानी और अम्बानी के साथ मोदी सरकार की मित्रवत लाभ प्रदान करना,  मंत्रियों के बड़बोले बोल, कांग्रेस शासित सरकारों को अस्थिर बनाकर भाजपा की सरकार बनाने की कवायद, विभिन्न विरोधी मुद्दों को लेकर जम्मू काश्मीर की धाराओं के लिए सरकार के वायदे और वायदों का वायदों तक सीमित रह जाना, एक देश एक टैक्स, और उस टैक्स में भी टैक्स देना, दक्षिणभारत में भाजपा की स्थिति, जैसे बहुत से मुद्दे थे जो पिछली पंचवर्षीय में काफी छाए रहे। इसके चलते मोदी सरकार को विरोध झेलना पड़ा। इस विरोध के परिणाम स्वरूप देश में परिवर्तन की लहर उठी तो पर वह मजबूत नेतृत्व ना पाकर धराशायी हो गई। पिछली सरकार के कार्यकाल में विश्वविद्यालयों में देश द्रोह, सुप्रीम कोर्ट में सरकार के अनावश्यक दबाय, योजना आयोग को नीति आयोग में परिणिति, सिने प्रेमियों बुद्धिजीवी वर्ग को देश में असुरक्षा का भय, देश में हिन्दुव शक्तियों का उग्र होना और अन्य धर्मों में लव जेहाद, पकोडे से लेकर चाय की बातें, बेरोजगारों को पकोड़े तलने का सुझाव, मोदी का विरोधियों के घर में पहुँचकर रैलियों के दौरान निकम्मा शाबित करने का साहस, देश में सवाल पूँछने को देश द्रोह के समकक्ष बनाने का राजनैतिक दांव पेंच, विभिन्न साहित्यकारों की हत्या जो वामपंथी विचारधारा के थे, और जो सरकार के विरोध में खड़े हुए, विभिन्न मीडिया ब्रांड को सरकार के प्रचार प्रसार के लिए दबाव बनाना और दबाव के असफल होने पर चैनलों और पत्रकारों को के पेशे को संकट में खड़े करना जैसे बहुत से मुद्दे थे जो इस पंच वर्षीय में छाए रहे। देश की जनता के सामने से ये मुद्दे हटाए नहीं जा सकते हैं। इन सबके बावजूद देश ने एक मत होकर आगामी पंच वर्षीय सरकार के रूप में मोदी सरकार को देखना चाहती है।
      सामान्यत जो नीति रही है कि हमारे लोकतंत्रीय ढ़ांचे में निचले स्तर से विजयी उम्मीदवार अपना मुखिया चुनते हैं, किंतु इस बार के संसदीय चुनाव में तो मोदी सरकार के उम्मीदवारों ने अपने काम के आधार पर खुद के लिए वोट नहीं मांगें, उन सबने देश में मोदी को मुखिया बनाए जाने के लिए खुद के लिए वोट मांगें, मोदी जी के कहने पर वो खुद को चौकीदार तक स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए। इस चुनाव में ऐसा लगा कि मोदी जी खुद के पीएम के प्रभाव से एक आभामंडल बनाये और इसके प्रभाव से अपनी पसंद के सारे उम्मीदवारों को जीत का मुकुट पहनाने में सफल भी रहे, इस चुनाव के दौरान भी हर चुनाव की भांति जाति धर्म संप्रदाय क्षेत्र को लेकर उम्मीदवार खड़े किए गए, इन्हीं कारकों को विरोध का मुद्दा मानकर जनता के बीच में खूब उछाला गया और विपक्ष के द्वारा इसको खुद के लिए वोट प्राप्त करने का माध्यम बनाया, महागठबंधन जैसे प्रयास किये गये किंतु पूरा का पूरा सूपड़ा साफ नजर आ रहा है। इस चुनाव का परिणाम यह भी समझ में आता है कि आने वाले समय में उन सरकारों पर कई राजनैतिक खतरे दस्तक देने वाले हैं जहाँ गैर भाजपा सरकार है। राज्यों को धीरे धीरे अपने पक्ष में लाने के प्रयास किये जाएगें। साम दाम दंड भेद, लालच, पद प्रतिष्ठा, की चाणक्य नीति का इस्तेमाल करके भाजपा शासन स्थापित करने की पुरजोर कोशिश होगी। इस सरकार के बैठते ही भारत अपने विरोधी देशॊं के लिए खतरा बन जाएगा। विश्व में भारत की छवि और प्रभावकारी होगी।
      अब देखना यह भी है कि क्या आने वाले समय में उपर्युक्त पैराग्राफ में लिखी गई चुनौतियों से सरकार खुद को बचा पाएगी। देश में हिंदुत्व और राममंदिर के मुद्दे क्या विलुप्त हो जाएगें, क्या भगोड़े कर्जदारों की घर वापसी होगी, क्या अखलाक और कलबुर्गी, पानस्रे, दाभोलकर, और वापपंथियों की हत्याओं का सिलसिला जारी रहेगा, अभी भी सरकार वही बचकानी चाय पकोडे की बाते करेगी। क्या अभी भी सेना की उपलब्धियों को सरकार खुद की उपल्ब्धियों के रूप में प्रचारित करेगी, क्या लोक तंत्र का चौथा स्तंभ सरकार के सामने घुटने के बल चलने के लिए मजबूर हो जाएगें, सरकार की आगामी पंचवर्षीय में भाजपा के किन नेताओं की बिदाई होगी और किन नेताओं को सत्ता सुख भोगनने को मिलेगा, उन सभी महारथियों का क्या होगा जो देश में असुरक्षा की बात करते हैं, जो देश में इस सरकार को दीमक मानते थे, क्या संसद में विपक्ष पूरी तरह से कठपुतली बनकर सरकार के हाथों का खिलौना बन जाएगा। यह सब यक्ष प्रश्न फिर से उभर कर खड़े हैं, सरकार को इन पर पुनः विचार करने ली आवश्यकता होगी। जीत का जश्न तो एक तरह हैं लेकिन इस चुनावों में बदले रंग से साथ नये वायदे जो परोसे गए हैं उनको सरकार कितना पूरा कर पाती हैं इसकी भी परीक्षा है। सरकार में संघ और अनुसांगिक संगठनों का कितना हस्ताक्षेप बढ़ेगा यह भी सरकार की दशा और दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करेगी। देश को आर्थिक दबाव और मंदी से सरकार कैसे उबारती है,यह भाजपा के मुखिया द्वय को सोचना होगा, बेरोजगार युवाओं का क्या होगा, उनके लिए जीवनयापन का क्या माध्यम तय होगा, देश में विदेशी नीतियों में आतंकवादी देशों के साथ भारत का व्यवहार कैसा होगा, चीन और अमेरिका के साथ भारत अब किस तरह पेश आएगा,यह सब इस सरकार को सोच विचार करके अंजाम तक पहुँचाना होगा। इस बार भारत की जनता को नरेंद्र मोदी से पहले से ज्यादा उम्मीदें हैं। इन उम्मीदों को हवा में उड़ाकर हवा हवाई करना है या फिर जमीनी काम करके जनता को दिखाना है यह तो आने वाला वक्त ही अपनी गवाही देगा।
अनिल अयान सतना

       

गुरुवार, 16 मई 2019

"अप्प दिपो भवः" का संदेशवाहक बुद्ध

"अप्प दिपो भवः" का संदेशवाहक बुद्ध
आज महात्मा बुद्ध का जन्म दिवस है। बुद्ध का अंतिम उपदेश में उन्होने अप्प दिपो भवः सम्मासती का जिक्र किया  जिसके अनुसार अपने दिये खुद बनो स्मरण करो कि तुम भी एक बुद्ध हो, बुद्ध का अर्थ वो महामानव से लगाया गया जिसे जीवन के उद्देश्य का भलीभांति ज्ञान हो चुका हो।धर्म ग्रंथ बताते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा प्रवचन बुद्ध के ही रहे है। पैतीस साल के बाद बुद्ध ने जीवन के प्रत्येक विषय पर धर्म के प्रत्येक रहस्य पर जो कुछ भी कहा था वह अकाट्य रहा। उनका कहा सुना उनके शिष्यों ने त्रिपिटक में संग्रहित किया जिसमें विनय सुत्त और अभिधम्म पिटक प्रमुख हैं। बुद्ध ने अपने गुरु विश्वामित्र, अलारा और उद्दाका रामापुत्त के पद चिन्हों में चलते हुए अपने विचारों को प्रस्तुत किया जिसके प्रमुख कारक उनके अनुयाइयों ने विश्व विस्तार किये जिसमें कि चार आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अनात्मवाद आदि थे, पूरे बौद्ध दर्शन के तीन मुख्य सिद्धांत थे जिसमें अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, और क्षणिकवाद था,जिसकी वजह से बौद्ध धर्म अपनाने वाला हर व्यक्ति पूरी तरह से यथार्थवाद को पालन करता था। अनीश्वरवाद में बुद्ध ने जहां ईश्वर की सत्त्ता को नकार दिया और प्रतीत्यसमुत्पाद को समझाया उन्होने बताया कि कारण और इसकी वजह से होने वाली कार्यों को ही प्रतीत्यसमुत्पाद कहा गया गया, प्रकृति खुद कर्ता को कर्म करने के लिए उचित अवसर उत्पन्न कराती है।उसी से यह कार्य चक्र चलता रहता है। उनके अनुसार ना कोई उत्पत्तिकर्ता है और ना ही  कोई इस दुनिया को चलाने वाला है, प्रकृति खुद बखुद स्वतः परिवर्तन करके इस श्रंखला को आगे बढ़ाती है। दूसरे सिद्धांत के अनुसार अनात्मवाद के अनुसार बुद्ध ने स्पष्ट कर दिया कि आत्मा जैसा कुछ भी इस दुनिया में नहीं है। जीवन चेतना का प्रवाह माना गया है। चेतन मन और चेतन शून्य स्थिति को बुद्धने जन्म और मॄत्यु का पर्याय बताया। तीसरा सिद्धांत क्षणिकवाद था जिसमें बुद्ध ने कहा कि ब्रह्माण नश्वर और क्षणिक है, स्थायित्व यहाँ नहीं पाया जाता है। तत्वों से यौगिक और यौगिक से जीवन का प्रारंभ बताया गया। परिवर्तनशील जीवन निर्माण में विकास का क्रम विशेष स्थान प्राप्त किया। शरीर को मात्र ज्ञान प्राप्त करने के लिए माध्यम बताने वाले बुद्ध का आज जन्म दिन है। सिद्दार्थ से बुद्ध की यात्रा में प्राप्त अनुभव ने राजा को महात्मा के रूप में विश्व विख्यात कर दिया। बुद्ध जैसा वैज्ञानिक विचार सही मायनों में विश्व में कभी कभी पैदा होता है। भारत को इस बात का गर्व होना चाहिए कि बुद्ध इस माटी का सपूत बन जन्म लिया।
बुद्ध के सिद्धांतों के आधार पर बौद्ध दर्शन की रचना हुई इसी के साथ थेरवाद, वैभाषिकम सौत्रान्त्रिक, माध्यमिक शून्यवाद, योगाचार विज्ञानवाद का गठन किया गया। बौद्ध धर्म अनुयाइयों ने जितने भी संप्रदाय और उप संप्रदाय बनाये सबका  प्रतीत्यसमुत्पाद मानना था। बुद्ध ने अपने अनुयाइयों को सुगठित करने के लिए चत्वारि आर्य सत्यानि की घोषणा की जिसमें दुख, समुदय अर्थात दुख का कारण, निरोध अर्थात दुख का निवारण और मार्ग जिसमें उन्होने निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग की विवेचना की। इन मार्गों में  सम्यक दृष्टि, संकल्प, वचन, कर्म, आजीविका, व्यायाम, स्मृति, और अंततः समाधिक को प्रमुख रास्ते माना दुख से दूर होने के लिए। बुद्ध का पंचशील सिद्धांत काफी प्रचलित रहा जिसमें हर बुद्ध अनुयाइयों को इस सिद्धांत का पालन करना जरूरी बताया गया। इस सिद्धांत का प्रथम सिद्धांत हिंसा ना करना, चोरी न करना, व्यभिचार ना करना, झूठ ना बोलना, और नशा न करना, जिसे पालि भाषा में पानातिपाता वेरमणी, अदिन्नादाना वेरमणी, कामेसु मिच्छाचारा वेरमणि, सुरा मेरय मज्ज, पमादठ्ठाना वेरमणि बताया गया है।विश्व में बौद्ध धर्म को बुद्ध के अनुयाइयों ने दो प्रधान शाखाओं में बांट दिया जिसमें हीनयान अर्थात उत्तरीय और महायान अर्था दक्षिणी। इनके बीच में तुलनात्मक अध्यन किया जाए तो समझ में आयेगा कि हीनयान के ग्रंथ पालि में हैं और बौद्ध सिद्धांतों का मौलिक प्रतिपादन करते नजर आते हैं वहीं महायान शाखा में बौद्ध सिद्धांतॊं का प्रतिरूपांतरण कर दिया गया। इसकी वजह से बौद्ध दर्शन यहाँ पर आकर अपनी मौलिकता से भिन्न हो जाता है। क्षेत्र के अनुसार बौद्ध धर्म भी कई भागों में बंट गया जिसमें चीनी बौद्ध धर्म, दक्षिणी पूर्वी बौद्ध धर्म, तिब्बती बौद्ध धर्म, और पश्चिमी बौद्ध धर्म प्रमुख थे।एक तरफ बुद्ध ने बौद्ध धर्म में बुद्ध धम्म और संघ को त्रिरत्न की संज्ञा दी वहीं दूसरी तरफ उनकी शिक्षा लेने के बाद बुद्ध के अनुयाई बौद्ध भिक्षुक और बौद्ध उपासक के रूप में बंट गए जो कहीं ना कही बौद्ध धर्म के विघटन का कारण बना। ्बौद्ध दर्श की तर्क संगत विवेचना, उसके विश्व शांति में योगदान की चर्चा, वौद्ध दर्शन की वर्तमान समाजिक आवश्यकता, बौद्ध दर्शन को धीरे धीरे क्षीण करने के पीछे उत्पन्न हुए कारण और उसका निदान कैसे संभव है। इन सब विषयों पर भी बातचीत करना बहुत आवश्यक है। भारत में बौद्ध धर्म के विस्तार  कितना और कैसा हुआ, उसमें क्या क्या अड़चने आई  हैं। बौद्ध धर्म. अन्य धर्मों के सापेक्ष कितना तटस्थ है मानव कल्याण के लिए कैसे मदद करता है इन विषयों में भी प्रकाश डालने की आवश्यकता है।
बुद्ध आत्मा परमात्मा स्वर्ग नरक और पुर्नजन्म की धारणाओं को अनुयाइयों के मन से बाहर निकाल देते हैं, अर्थात पूर्णतः वैज्ञानिक सोच को स्थापित करने वाला दर्शन देते हैं,  बुद्ध को वैज्ञानिक कहा जाये तो गलत नहीं होगा। बुद्ध भारत के लिए क्यों जरूरी हैं उनकी पद्धतियाँ किस तरह हमारे लिए जरूरी है यह जानने और मनन करने की आवश्यकता है। ह्मारे देश में जब कबीर को नकारने काप्रयास किया जाता है तो बुद्ध की क्रांतिकारी और वैज्ञानिक सोच पर भी तथाकथित विद्वान प्रश्न खड़ा कर देते हैं। बुद्ध का मानना था कि दृष्टा ही दृश्य है। अर्थात आबजर्वर इस द आबजर्वड। बौद्ध धर्म में वैज्ञानिकता और कर्मवाद ही उसे हिंदू और जैन धर्म से अलग करता है। बौद्ध धर्म में आत्मवलोकन को विपश्यना के रूप में स्थापित किया गया। जिसमें अनुयाई आत्मावलोकन करने के लिए स्वतंत्र होता है। बुद्ध आज के समय में आडंबर, चमत्कार अंधविश्वास के खिलाफ खड़े हैं, बौद्ध भिक्षुओं की स्थिति, जाति विहीन समाज और कर्म प्रधान समाज में बुद्ध वैज्ञानिक सोच को सामने लाते हैं, बुद्ध की अष्टांगक मूल्य इशानियत को बचाने के लिए कारगर है। बुद्ध का पंचशील सिद्धांत अपराधों को ख्त्म करने के लिए कारगर होते हैं। यथार्थवाद और वैज्ञानिक दर्शन को केंद्र मानकर यह दर्शन बुद्ध को बार बार याद करने के लिए जरूरतमंद बनाते है।  बुद्ध एक बात में तो अडिग रहे कि आप अपने जीवनमें खुद के दीपक बने जिससे आपने अंतस में निहित ज्ञान को प्राप्त कर जीवन में आगे बढ़ने का मार्ग प्रसस्त करें। लेकिन इन सबके बावजूद यह देखा गया कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व में पाई जाने वाली जन संख्याका अवलोकन किया जाए तो वर्तमान समाज में बौद्ध धर्म में बौद्ध मठों की स्थितियाँ, महिलाओं के प्रवेश की वजह से बौद्ध भिक्षुको के चार चरित्र में आने वाले परिवर्तन, बौद्ध धर्मावलंबियों के मतों में विभेद और अनुयाइयों के द्वारा बौद्ध दर्शन को अपनी सुविधानुसार परिवर्तित करना भी बुद्ध के विचारों के साथ अन्याय है। बुद्ध आज ही बस नहीं बल्कि भविष्य में भी सार्वकालिक बने रहेंगें ऐसी आशा से हम सब परिपूर्ण हैं।

अनिल अयान सतना

मंगलवार, 7 मई 2019

मार्क्स की हाय तोबा

मार्क्स की हाय तोबा
विगत दिनों कई बोर्ड परीक्षाओं के परीक्षा परिणाम देखने लायक थे, बच्चों की मार्क्स की रेस मची हुई थी, इन्हीं मार्क्स के चलते कई बच्चों ने अपनी जीवन लीला को खत्म भी कर ली, क्योंकि उन्हें उनकी उम्मीद के अनुरूप परीक्षा परिणाम नहीं प्राप्त हुए। सीबीएसई,आईसीएसई,या फिर कोई भी स्टेट बोर्ड की परीक्षाएँ हों, जब अखबारों और सोशल मीडिया में मार्कशीट्स की फोटों, या ऐसे होनहार बच्चों की मुस्कुराती हुए फोटोग्राफ देखते हैं तो कितनी खुशी होती है कि बच्चे पांच सौ के पूर्णांक में पांच सौ, या चार सौ निन्यानवे नंबर लेकर आ रहे हैं, जब मार्कशीट्स में नजर डाले तो हिंदी, अंग्रेजी, और यहाँ तक की सोशल स्टडीज तक में बच्चा पूरे नंबर पा रहा होता है। इन विषयों में सामान्यतः पूरे नंबर प्राप्त करना हमेशा से कठिन रहा है। मूल्याकनकर्ताओं के लिए इन विषयों में शत प्रतिशत मार्क्स देना ज्याद सरल नहीं है। इन विषयों में पूरे नंबर आने के पीछे के राज क्या है। क्या इसके पीछे शिक्षा बोर्ड की वो सिथिलता कारण है। या पिर परीक्षा पद्धति का लचीलापन कारण है। या फिर शत प्रतिशत रिजल्ट्स की होड़ में शिक्षा बोर्ड द्वारा दी गई ढ़ील जिम्मेवार है। बच्चों में गुणवत्ता की खोज करने की बजाय धीरे धीरे बच्चों को मार्क्स रिलीजिंग मशीन के रूप में परिवर्तित करने का यह जतन उनके भविष्य के साथ कहीं खिलवाड़ तो नहीं है। इस खिलवाड़ के लिए मातापिता से ज्यादा दोषी बोर्ड की नीतियाँ, परीक्षा प्रणाली, और मूल्यांकन पद्धति जिम्मेवाद ठहराई जा रही है। इन सब मामलों में यह देखा जाता है कि प्रतिशत के अनुरूप कक्षा दसवी के प्रतिशत इतने ज्यादा लचीले होते हैं कि जब पांच सौ में से चार सौ निन्यानवे नंबर वाले से बात करो तो उसे इतना ज्यादा आत्म विश्वास होता है कि वो पांच सौ एक नंबर भी मिले तो प्राप्त कर सकता है। एक नंबर कम होने पर उसे ऐसा महसूस होता है जैसे वो परीक्षा में फेल हो गया हो। माता पिता अपने समय को याद करते हैं और इस समय को याद करके मुँह खुला का खुला रह जाता है।
सामान्यतः देखा जाता है कि कक्षा दसवी में मैरिट में आने वाले नंबरों के हैंगर में टंगे ये होनहार बच्चे ग्यारहवी और बारहवी की परीक्षाओं में वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाते जितना कि उन्होने कक्षा दसवी में किए थे। उनका प्रतिशत भी घटता है, विषय वस्तु की गहराई, दसवी के प्रतिशत का आत्माभिमान,और पढ़ाई में लचीलापन इस का प्रमुख कारण है, बच्चा अगर भेंड़चाल चलकर अपने साथियों के जैसे ही विषय का चयन तो करता है किंतु मेहनत नहीं करता तो वह बारहवीं की परीक्षा में कंपार्टमेंटल आ जाता है। आखिरकार यह कैसी मूल्यांकन पद्धति हैं जो बच्चे को दसवी में शत प्रतिशत नंबर दे रही हैं और बारहवी में कंपार्टमेंटल पहुँचाने के लिए जिम्मेवार है। ऊपर दिए गए तीन विषय हिंदी, अंग्रेजी, और सोशल स्टडीज या परफार्मिंग आर्ट्स के विषय ऐसे हैं जिसमें मूल्यांकन समितियों जैसे प्रोग्राम फार इंटरनेशनल स्टूडेंट्स ऐसेसमेंट) या फिर डा कोठारी की मूल्यांकन समिति ने स्वीकार किया कि परीक्षार्थी पूरी तरह से निपुण नहीं होता है। कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ गुंजाइश रह ही जाती है। इन विषयों के पेपर में प्रशनों को ऐसे सेट किया जाता है कि बच्चा शत प्रतिशत अंक प्राप्त नहीं कर सकता है। इन विषयों के अलावा भी जब इनोवेटिव अन्सर सिस्टम को इन परीक्षाओं में फालो किया जा रहा है तब तो शत प्रतिशत की उम्मीद कठिन हो जाती है। ऐसे ही विभिन्न विषयों में बच्चों को जहाँ बारहवी में थ्योरी में पासिंग मार्क्स भी लाना मुश्किल होता है वहीं इंटरनल या प्रैक्टिकल में बच्चे को पूरे नंबर स्कूल की तरफ से दिये जाते हैं, बोर्ड को इस तरह की मार्किंग में भी कोई आपत्ति क्यों नहीं होती है। अधिक्तर बच्चे जो पचास प्रतिशत से ऊपर के नंबर थ्योरी पार्ट में लेकर आते हैं वो सब इंटरनल पार्ट में फुल मार्क्स की श्रेणी में रखे जाते हैं ताकि बच्चों को कुछ मदद मिल सके। सीबीएसई के द्वारा सीसीई पैटर्न को खत्म करना इस मामले में कहीं ना कहीं छल छद्म का रूप लेता नजर आ रहा है। कक्षा दसवी तक बच्चों का मूल्याकन सिस्टम अगल है और बारहवी का मूल्याकन सिस्टम अलग है जिसके चलते वो बच्चे जो दसवी में सुपीरियर होते हैं वो बारहवी में आते आते अपनी पुख्ता जमीन तक नहीं बना पाते हैं।
बारहवी के बाद की स्थिति यह है कि दसवीं और बारहवी के प्रतिशत का आधार नाम मात्र बस का है आगे की पढ़ाई के लिए बच्चे को जहाँ हर कदम में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए खुद को तैयार किया जा रहा है, जहाँ पर इस प्रणाली को धता बताकर परीक्षा पर परीक्षा आयोजित करके सूक्ष्मतम बेस्ट च्वाइस का कांसेप्ट चल रहा है। तब ये होनहार बच्चे क्या करेगें। वहाँ पर दसवी बारहवीं के प्रतिशत सिर्फ आपको उस क्षेत्र में अंदर प्रवेश करने के लिए चाभी की तरह काम करते हैं। बाकी अंदर तो आपका विषय वस्तु में ज्ञान ही आपकी नैया को पार करने के लिए मददगार होते हैं। आज के समय में नीट, आईआईटी जी मेन्स और एडवांस  में जहाँ यूनीफाइड इवैलुएशन सिस्टम है, परसेंटलाइल सिस्टम चल रहा है, वो इस स्कूल एजूकेशन से के सिस्टम से पूरी तरह से अलग है। इनके नियम कायदे तो इतने कड़े हैं जितने कि सिविल सर्विसेस इग्जाम के भी नहीं हैं, इन सब में मार्क्स की भागा दौडी बच्चे को मार्क्स रिलीजिंग मशीन बनाने के लिए परफेक्ट बनाने की होड़ होती है। इस पूरी घटनाक्रम में बच्चों का विषय वस्तु का ज्ञान एक तरफ धरा रह जाता है और बने बनाए पैटर्न पर मूल्यांकन कर अपने रिजल्टस को जल्दी से जल्दी पेश करने की रेस में आगे रहने के लिए बने बनाए उत्तरों पर मार्किंग करना और पैमाने के अनुसार पूरे नंबर दे देना बच्चों के साथ अन्याय तो है ही पूरी तरह से धोखेबाजी है। स्कूली शिक्षा के इस सिस्टम को बदलने की आवश्यकता है। परीक्षा प्रणाली का इस तरह दोमुहा होना अखरता है।
यदि एक बार बच्चा स्कूल में परीक्षा देकर पास होता है और शत प्रतिशत अंक लाता है तो उसे कालेज के एडमीशन के लिए दोबारा प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठना क्यों पडता है, फिर पीजी कोर्सेस के लिए फिर से परीक्षा देना पड़ता है, और तो और नौकरी पाने के लिए भी परीक्षा देना पड़ता है, अपनी ही विषय विशेषज्ञता वाले क्षेत्र के लिए परीक्षा का लंबा तारतम्य चलता रहता है। ऐसा महसूस होता है कि जब से पांचवी और आठवीं को बोर्ड परीक्षाओं की श्रेणियों से किनारे कर दिया गया है तब से दसवी की परीक्षाएँ और ज्यादा लचीली हो गई हैं तथा बारहवी की परीक्षाएँ उतनी ही ज्यादा कठिन हो गई है। इस तरह की विवादास्पद स्थिति को खत्म करने के लिए चाहिए कि सीसीई पैटर्न को दो बारा लागू किया जाए, थ्योरी और इटरनल या प्रैक्टिकल के मार्क्स के बीच सामन्जस्य बना रहे। मूल्यांकन का स्तर सुधारा जाए जहाँ पर बच्चा खुद से इनोवेटिव अंसर देने के छूट में हो उसमें तो शत प्रतिशत अंक देकर उसकी कमजोरी को प्रदर्शित किया जाए। स्कूल हो या कालेज एजूकेशन हो उन सब में परीक्षा प्रणाली पर इतनी कड़ाई होना चाहिये कि ज्ञान रखने वाला बच्चा ही शिखर में रहे, थोक में दिये जाने वाले, और रेवड़ी की तरह बांटे जाने वाले मार्क्स तब ज्यादा घातक हो जाते हैं जब बच्चे को हर स्तर पर पढ़ाई से लेकर रोजगार तक अपड़ेटेड नालेज के आधार पर परीक्षा में बैठना हो।

अनिल अयान,सतना

सोमवार, 6 मई 2019

लोकतंत्र के डिजिटल महापर्व में दाँव पेंच

लोकतंत्र के डिजिटल महापर्व में दाँव पेंच
जब भी लोकतंत्र का महापर्व मनाने की बात आती है तो निश्चित ही उसके विभिन्न आयाम निर्धारित हो जाते हैं। चुनाव की सरगर्मी आते ही राजनैतिक दलों की सुगबुगाहट शुरू हो जाती है, उम्मीदवारी की दावेदारी सिद्ध करने के लिए जुगत भिड़ाने का काम शुरू हो जाता है। इस काम में साम दाम दंड भेद का पूरा प्रयोग किया जाता है, रायसुमारी कराई जाती है, उम्मीदवारों की टिकट कटने और मिलने के परिणाम के अनुसार पार्टी में बगावत शुरु हो जाती है। इस बगावत के चलते ही दूसरी पार्टियों को निष्काशित और भगोड़े राजनेता खरीद फरोख्त या कुछ लालच प्रदान कर प्राप्त हो जाते हैं, फिर आती है दहाड़ने की बारी, मंच में एक दूसरे को गालियों से भी नीचे के स्तर तक पहुँच कर आरोपित करने की बारी, कोई मुखिया के नाम पर चुनाव में वोट देने की अपील करता है तो कोई दूसरी पार्टी की कमियाँ गिनाकर वोट ड़ालने की बात करता है। कोई धर्म, जाति और पाखंड का चोला ओढ़कर सभी को धता बता देता है, कोई दूसरी पार्टियों के बाप दादाओं तक के इतिहास को दोहराकर खुद को श्रेष्ठ बनाता है। किसी के बोल कुबोल के लेवल को क्रास कर जाते हैं, किसी की जुबान महिलाओं के ऊपर छींटाकसी करने को लालायित नजर आती है। वोटों को किसी भी हद तक जाकर अपने वोट बैंक में जोड़ने के लिए वोटर को आकर्षित किया जाता है। मतदान केंद्र के बाहर तक मतदाताओं की सेवा खुशामद की जाती है। यह सेवा खुसामद हालाँकि वोटरों पर अब के समय में ज्यादा प्रभाव नहीं डालती। वोटिंग के दिन के बाद यह सब तिकड़म को जैसे सांप सूंघ जाता है, पार्टियों के द्वारा आंतरिक रूप से वोटिंग के आँकड़े जुटाए जाते हैं, और मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है कि हमारा उम्मीदवार कितने मतों से जीतेगा या हारेगा। मतगणना के दिन का हाल तो हर पार्टी के लिए बहुत ही खास होता है किसी को जिला निर्वाचन अधिकारी से विजेता का पत्र मिलता है, किसी को हार का तमगा पहना पड़ता है, कितनों की जमानत जब्त होजाती है, कितनों के द्वारा चुनाव की प्रणाली में प्रश्न चिन्ह खड़े किये जाते हैं, ईवीएम, मशीनों को दोषी और कर्मचारियों को पक्षपाती घोषित करने का स्वांग रचा जाता है। आंतरिक विवेचना और समीक्षा बैठकों के साथ महापर्व की इति श्री हो जाती है। रह जाते हैं तो मन भेद से उपजे गिले शिकवे और राजनेताओं के बीच कभी ना खत्म होने वाली चहल कदमी।
इस बार के लोकसभा चुनाव में पिछले चुनावों की भांति नीति रीति तो वही थी किंतु पूरे माहौल में कुछ फैक्टर अवलोकन करने वाले रहे। ये फैक्टर कहीं न कहीं हमारी लोकतंत्रीय प्रणाली को  पुनरीक्षित करने की मांग जरूर उठाती है। इस बार के चुनाव में पार्टियों के द्वारा क्षेत्र विशेष में जातिगत प्रतिशत को पूरी तरह से मूल्यांकित किया गया और उन चेहरों को लोगों के सामने लाया गया जिन पर मतदाताओं की नजर गई ही नहीं थी। स्थापित लोगों को किनारे का रास्ता दिखा दिया गया। जो राजनेता पहले विजयी हुए थे उन्हें टिकट ना देना और हारे हुए उम्मीदवारों को भी मौका देने की जुगत भिड़ाने की नई परंपरा राजनैतिक इतिहास में उकेरी जाएगी। पार्टियों के प्रमुखों के द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को बगावती रुख अपनाने से रोकने की कोशिशे नहीं की गई, भाजपा और कांग्रेस में विशेष रूप से मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों के बाद से बगावती रुख, आपसी खींचतान, और आंतरिक भितरघात इस लोकसभा चुनाव को और ज्यादा आशंकित और रोमांचक बना दिया। भाजपा का कार्यकर्ता भाजपा के उम्मीदवार के विरोध में बोल रहा था और कांग्रेस के जिम्मेदार पदाशीन लोग अपने ही उम्मीदवार के विरोध में मीडिया में मुखर हो रहे थे। जो पार्टी के लिए सीधा नुकसान देने वाला रहा।  भाजपा का कांग्रेस अर्थात राहुल गांधी,, कांग्रेस का भाजपा अर्थात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, महागठबंधन के अंदर के विद्रोह को मीडिया में इतनी ज्यादा मीडिया मार्केटिंग की गई कि आचार संहिता के लगने  का औचित्य ही संदेह के घेरे में आ गया। समाचार चैनलों के द्वारा आयोजित किए जाने वाले डिबेट सुनने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था कि आचार संहिता सिर्फ नाम भर के लिए चुनाव आयोग द्वारा लगाई गई है। कुछ चैनल तो सरकार की सत्तारूढ़ पार्टियों के द्वारा गिरवी रख दिये गए हैं जिसमें भाजपा की प्रशंसा के कसीदे पढ़े जा रहे हैं और गुणगान गाए जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर विपक्षी गिने चुने चेहरे सरकार की आलोचना करने के लिए खरीदे गए हैं, जिसमें सरकार के द्वारा किए गए पांच सालों के काम और उसने राज नैतिक रवैये को पूरी तरह से गलत बताकर खुद न्यायपालिका बनने का भ्रम पाला जा रहा है।
इस चुनाव में सोशल मीडिया को पूरी तरह से इलेक्शन हार्डकोर मार्केटिंग के रूप में पार्टियों के द्वारा इस्तेमाल किया गया। पिछले कई महीनों से चुपचाप इस सोशल मीडिया को बारीकी से अवलोकन करने पर समझ में आया कि पूरा मीडिया हिंदुतव और राष्ट्रवाद का एक पक्ष, और सेकुलर वामपंथियों का दूसरा पक्ष हो गया था, एक पक्ष मोदी, साह और सैनिकों की शहादतों के नाम राष्ट्रवादी होने का दंभ भरता था और भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए मोदी सरकार बनाने का समाजिक दबाव बना रहा था, दूसरी ओर पांच साल की सरकार के परिवर्तन के बाद कांग्रेसी सरकार लाकर त्वरित परिवर्तन लाने का दावा करता था। इस पूरे सोशल मीडिया में जबसे ज्यादा माब लिंचिंग फेसबुक में की गई, फेसबुक हजारों की तादाद में पेज, ग्रुप और डिश्कसन इवेंट तैयार किये गए चौबीस घंटे पार्टियों की विचारधारा को यूजर्स के टच में रखा गया, डिजिटल पोल बनाए गए, वोटिंग कराई गई, फेक डाटा कलेक्ट किए गए।आरोप प्रत्यारोप लगाने के लिए स्तरहीन वीडियों और फोटों बनाई गई,मतदाताओं को बरगलाया गया। टीवीचैनलों में प्रायोजित पेड़ न्यूज का कई बार रिपीट टेलीकास्ट किया गया। ताकि चैनल की टीआरपी बढ़ाई जा सके। आपको विश्वास नहीं होगा कि शासन के द्वारा मतदाता जागरुकता कार्यक्रम भी राज्य सरकारों के द्वारा पार्टीं के प्रचार प्रसार में अनौपचारिक रूप से कैस कर लिए गए। समाचार पत्रों के अधिकतर पृष्ठ पार्टी के प्रचार प्रसार के लिए इस्तेमाल किए जाने लगे, चुनाव आयोग इस सब कारनामों में चुप्पी साधे हुए था। कहीं पर आचार संहिता का उल्लंघन समझ में नहीं आया। पेड़ न्यूज में पहले के समय में इतना हंगामा किया गया किंतु इस बार इस मामले को भी चुनावी महासमर के चलते दबाकर रखा गया।
इस बार के चुनाव में भी एट्रोसिटी एक्ट, विकास और रोजगार की स्थिति शहरों के इंफ्रास्ट्रेक्चर, महिला और बच्चियों की सुरक्षा जैसे मुद्दे, धर्म जातिगत बहुसंख्यक की स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसे उम्मीदवार खड़े किए गए जो समाज में  ब्राह्मण, ठाकुर, आरक्षित एस.सी और एस.टी., मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण कर पार्टी को फायदा पहुँचा सके भले ही वो पार्टी में ज्यादा समय ना गुजारा हो। इस बार क्रिकेट, सिनेमा के सितारों को राजनैतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने की कवायद तेज कर दी गई। इस बार सभी राजनैतिक पार्टियों ने उन्हें आगे रखा जिन्हें जनता देखना और सुनन पसंद करती है। पहले के समय में होने वाले चुनावों में हम सब जैसा देखते आये हैं कि जिनका वर्चश्व जिस क्षेत्र में होता था उसे ही उम्मीदवार बनाकर चुनाव में उतारा जाता था। अब वैसा नही रहा। पूरी तरह से मीडिया के नियंत्रण में चुनाव नजर आया और मीडिया अप्रत्यक्ष रूप से सत्तापक्ष या विपक्ष के कब्जे में नजर आई। सोशल मीडिया  और इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रिंट मीडिया पर ज्यादा हावी रही। प्रिंट मीडिया कुछ हद तक तटस्थता बनाए रखने में सफल रही। केंद्र में यह तो लगभग तय है कि मोदी सरकार बनने की उम्मीद लगाई जा रही है। किंतु इस बार की स्थिति पिछले चुनाव की तरह नहीं है। हार जीत में वोटों की संख्याओं में भारी फेरबदल होने वाला है क्योंकि इस सबके पीछे पूरा का पूरा डिजिटल तंत्र और उसकी पूरी कार्ययोजना का बहुत ही गहरा प्रभाव शामिल है। आने वाले समय में चुनाव जितने ज्यादा डिजिटल होंगें निश्चित है कि यह लोकतंत्र का महापर्व उतना ज्यादा फेक समाचारों से भरा हुआ, मीडिया के सिकंजे में कसा हुआ, चालबाजियों और माब लिंचिंज जैसे हथियारों से लैश हो जाएगा। आम मतदाता जितना ज्यादा जागरुक बनने की कोशिश करेगा ये डिजिटल माध्यम और ज्यादा शातिर और चालाक होते चले जाएगें, मतदाता को अपने रिमोर्ट से दिग्भ्रमित करने वाले हो जाएगें। कुल मिलाकर मतदाता को भी अपने आप को डिजिटल मार्केंटिंग में निपुण बनाना होगा ताकि अधिक से अधिक मतदाता इस हेराफेरी से बच कर लोकतंत्र को मजबूत बना सके।

अनिल अयान,सतना