सोमवार, 6 मई 2019

लोकतंत्र के डिजिटल महापर्व में दाँव पेंच

लोकतंत्र के डिजिटल महापर्व में दाँव पेंच
जब भी लोकतंत्र का महापर्व मनाने की बात आती है तो निश्चित ही उसके विभिन्न आयाम निर्धारित हो जाते हैं। चुनाव की सरगर्मी आते ही राजनैतिक दलों की सुगबुगाहट शुरू हो जाती है, उम्मीदवारी की दावेदारी सिद्ध करने के लिए जुगत भिड़ाने का काम शुरू हो जाता है। इस काम में साम दाम दंड भेद का पूरा प्रयोग किया जाता है, रायसुमारी कराई जाती है, उम्मीदवारों की टिकट कटने और मिलने के परिणाम के अनुसार पार्टी में बगावत शुरु हो जाती है। इस बगावत के चलते ही दूसरी पार्टियों को निष्काशित और भगोड़े राजनेता खरीद फरोख्त या कुछ लालच प्रदान कर प्राप्त हो जाते हैं, फिर आती है दहाड़ने की बारी, मंच में एक दूसरे को गालियों से भी नीचे के स्तर तक पहुँच कर आरोपित करने की बारी, कोई मुखिया के नाम पर चुनाव में वोट देने की अपील करता है तो कोई दूसरी पार्टी की कमियाँ गिनाकर वोट ड़ालने की बात करता है। कोई धर्म, जाति और पाखंड का चोला ओढ़कर सभी को धता बता देता है, कोई दूसरी पार्टियों के बाप दादाओं तक के इतिहास को दोहराकर खुद को श्रेष्ठ बनाता है। किसी के बोल कुबोल के लेवल को क्रास कर जाते हैं, किसी की जुबान महिलाओं के ऊपर छींटाकसी करने को लालायित नजर आती है। वोटों को किसी भी हद तक जाकर अपने वोट बैंक में जोड़ने के लिए वोटर को आकर्षित किया जाता है। मतदान केंद्र के बाहर तक मतदाताओं की सेवा खुशामद की जाती है। यह सेवा खुसामद हालाँकि वोटरों पर अब के समय में ज्यादा प्रभाव नहीं डालती। वोटिंग के दिन के बाद यह सब तिकड़म को जैसे सांप सूंघ जाता है, पार्टियों के द्वारा आंतरिक रूप से वोटिंग के आँकड़े जुटाए जाते हैं, और मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है कि हमारा उम्मीदवार कितने मतों से जीतेगा या हारेगा। मतगणना के दिन का हाल तो हर पार्टी के लिए बहुत ही खास होता है किसी को जिला निर्वाचन अधिकारी से विजेता का पत्र मिलता है, किसी को हार का तमगा पहना पड़ता है, कितनों की जमानत जब्त होजाती है, कितनों के द्वारा चुनाव की प्रणाली में प्रश्न चिन्ह खड़े किये जाते हैं, ईवीएम, मशीनों को दोषी और कर्मचारियों को पक्षपाती घोषित करने का स्वांग रचा जाता है। आंतरिक विवेचना और समीक्षा बैठकों के साथ महापर्व की इति श्री हो जाती है। रह जाते हैं तो मन भेद से उपजे गिले शिकवे और राजनेताओं के बीच कभी ना खत्म होने वाली चहल कदमी।
इस बार के लोकसभा चुनाव में पिछले चुनावों की भांति नीति रीति तो वही थी किंतु पूरे माहौल में कुछ फैक्टर अवलोकन करने वाले रहे। ये फैक्टर कहीं न कहीं हमारी लोकतंत्रीय प्रणाली को  पुनरीक्षित करने की मांग जरूर उठाती है। इस बार के चुनाव में पार्टियों के द्वारा क्षेत्र विशेष में जातिगत प्रतिशत को पूरी तरह से मूल्यांकित किया गया और उन चेहरों को लोगों के सामने लाया गया जिन पर मतदाताओं की नजर गई ही नहीं थी। स्थापित लोगों को किनारे का रास्ता दिखा दिया गया। जो राजनेता पहले विजयी हुए थे उन्हें टिकट ना देना और हारे हुए उम्मीदवारों को भी मौका देने की जुगत भिड़ाने की नई परंपरा राजनैतिक इतिहास में उकेरी जाएगी। पार्टियों के प्रमुखों के द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को बगावती रुख अपनाने से रोकने की कोशिशे नहीं की गई, भाजपा और कांग्रेस में विशेष रूप से मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों के बाद से बगावती रुख, आपसी खींचतान, और आंतरिक भितरघात इस लोकसभा चुनाव को और ज्यादा आशंकित और रोमांचक बना दिया। भाजपा का कार्यकर्ता भाजपा के उम्मीदवार के विरोध में बोल रहा था और कांग्रेस के जिम्मेदार पदाशीन लोग अपने ही उम्मीदवार के विरोध में मीडिया में मुखर हो रहे थे। जो पार्टी के लिए सीधा नुकसान देने वाला रहा।  भाजपा का कांग्रेस अर्थात राहुल गांधी,, कांग्रेस का भाजपा अर्थात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, महागठबंधन के अंदर के विद्रोह को मीडिया में इतनी ज्यादा मीडिया मार्केटिंग की गई कि आचार संहिता के लगने  का औचित्य ही संदेह के घेरे में आ गया। समाचार चैनलों के द्वारा आयोजित किए जाने वाले डिबेट सुनने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था कि आचार संहिता सिर्फ नाम भर के लिए चुनाव आयोग द्वारा लगाई गई है। कुछ चैनल तो सरकार की सत्तारूढ़ पार्टियों के द्वारा गिरवी रख दिये गए हैं जिसमें भाजपा की प्रशंसा के कसीदे पढ़े जा रहे हैं और गुणगान गाए जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर विपक्षी गिने चुने चेहरे सरकार की आलोचना करने के लिए खरीदे गए हैं, जिसमें सरकार के द्वारा किए गए पांच सालों के काम और उसने राज नैतिक रवैये को पूरी तरह से गलत बताकर खुद न्यायपालिका बनने का भ्रम पाला जा रहा है।
इस चुनाव में सोशल मीडिया को पूरी तरह से इलेक्शन हार्डकोर मार्केटिंग के रूप में पार्टियों के द्वारा इस्तेमाल किया गया। पिछले कई महीनों से चुपचाप इस सोशल मीडिया को बारीकी से अवलोकन करने पर समझ में आया कि पूरा मीडिया हिंदुतव और राष्ट्रवाद का एक पक्ष, और सेकुलर वामपंथियों का दूसरा पक्ष हो गया था, एक पक्ष मोदी, साह और सैनिकों की शहादतों के नाम राष्ट्रवादी होने का दंभ भरता था और भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए मोदी सरकार बनाने का समाजिक दबाव बना रहा था, दूसरी ओर पांच साल की सरकार के परिवर्तन के बाद कांग्रेसी सरकार लाकर त्वरित परिवर्तन लाने का दावा करता था। इस पूरे सोशल मीडिया में जबसे ज्यादा माब लिंचिंग फेसबुक में की गई, फेसबुक हजारों की तादाद में पेज, ग्रुप और डिश्कसन इवेंट तैयार किये गए चौबीस घंटे पार्टियों की विचारधारा को यूजर्स के टच में रखा गया, डिजिटल पोल बनाए गए, वोटिंग कराई गई, फेक डाटा कलेक्ट किए गए।आरोप प्रत्यारोप लगाने के लिए स्तरहीन वीडियों और फोटों बनाई गई,मतदाताओं को बरगलाया गया। टीवीचैनलों में प्रायोजित पेड़ न्यूज का कई बार रिपीट टेलीकास्ट किया गया। ताकि चैनल की टीआरपी बढ़ाई जा सके। आपको विश्वास नहीं होगा कि शासन के द्वारा मतदाता जागरुकता कार्यक्रम भी राज्य सरकारों के द्वारा पार्टीं के प्रचार प्रसार में अनौपचारिक रूप से कैस कर लिए गए। समाचार पत्रों के अधिकतर पृष्ठ पार्टी के प्रचार प्रसार के लिए इस्तेमाल किए जाने लगे, चुनाव आयोग इस सब कारनामों में चुप्पी साधे हुए था। कहीं पर आचार संहिता का उल्लंघन समझ में नहीं आया। पेड़ न्यूज में पहले के समय में इतना हंगामा किया गया किंतु इस बार इस मामले को भी चुनावी महासमर के चलते दबाकर रखा गया।
इस बार के चुनाव में भी एट्रोसिटी एक्ट, विकास और रोजगार की स्थिति शहरों के इंफ्रास्ट्रेक्चर, महिला और बच्चियों की सुरक्षा जैसे मुद्दे, धर्म जातिगत बहुसंख्यक की स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसे उम्मीदवार खड़े किए गए जो समाज में  ब्राह्मण, ठाकुर, आरक्षित एस.सी और एस.टी., मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण कर पार्टी को फायदा पहुँचा सके भले ही वो पार्टी में ज्यादा समय ना गुजारा हो। इस बार क्रिकेट, सिनेमा के सितारों को राजनैतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने की कवायद तेज कर दी गई। इस बार सभी राजनैतिक पार्टियों ने उन्हें आगे रखा जिन्हें जनता देखना और सुनन पसंद करती है। पहले के समय में होने वाले चुनावों में हम सब जैसा देखते आये हैं कि जिनका वर्चश्व जिस क्षेत्र में होता था उसे ही उम्मीदवार बनाकर चुनाव में उतारा जाता था। अब वैसा नही रहा। पूरी तरह से मीडिया के नियंत्रण में चुनाव नजर आया और मीडिया अप्रत्यक्ष रूप से सत्तापक्ष या विपक्ष के कब्जे में नजर आई। सोशल मीडिया  और इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रिंट मीडिया पर ज्यादा हावी रही। प्रिंट मीडिया कुछ हद तक तटस्थता बनाए रखने में सफल रही। केंद्र में यह तो लगभग तय है कि मोदी सरकार बनने की उम्मीद लगाई जा रही है। किंतु इस बार की स्थिति पिछले चुनाव की तरह नहीं है। हार जीत में वोटों की संख्याओं में भारी फेरबदल होने वाला है क्योंकि इस सबके पीछे पूरा का पूरा डिजिटल तंत्र और उसकी पूरी कार्ययोजना का बहुत ही गहरा प्रभाव शामिल है। आने वाले समय में चुनाव जितने ज्यादा डिजिटल होंगें निश्चित है कि यह लोकतंत्र का महापर्व उतना ज्यादा फेक समाचारों से भरा हुआ, मीडिया के सिकंजे में कसा हुआ, चालबाजियों और माब लिंचिंज जैसे हथियारों से लैश हो जाएगा। आम मतदाता जितना ज्यादा जागरुक बनने की कोशिश करेगा ये डिजिटल माध्यम और ज्यादा शातिर और चालाक होते चले जाएगें, मतदाता को अपने रिमोर्ट से दिग्भ्रमित करने वाले हो जाएगें। कुल मिलाकर मतदाता को भी अपने आप को डिजिटल मार्केंटिंग में निपुण बनाना होगा ताकि अधिक से अधिक मतदाता इस हेराफेरी से बच कर लोकतंत्र को मजबूत बना सके।

अनिल अयान,सतना

   

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