मंगलवार, 7 मई 2019

मार्क्स की हाय तोबा

मार्क्स की हाय तोबा
विगत दिनों कई बोर्ड परीक्षाओं के परीक्षा परिणाम देखने लायक थे, बच्चों की मार्क्स की रेस मची हुई थी, इन्हीं मार्क्स के चलते कई बच्चों ने अपनी जीवन लीला को खत्म भी कर ली, क्योंकि उन्हें उनकी उम्मीद के अनुरूप परीक्षा परिणाम नहीं प्राप्त हुए। सीबीएसई,आईसीएसई,या फिर कोई भी स्टेट बोर्ड की परीक्षाएँ हों, जब अखबारों और सोशल मीडिया में मार्कशीट्स की फोटों, या ऐसे होनहार बच्चों की मुस्कुराती हुए फोटोग्राफ देखते हैं तो कितनी खुशी होती है कि बच्चे पांच सौ के पूर्णांक में पांच सौ, या चार सौ निन्यानवे नंबर लेकर आ रहे हैं, जब मार्कशीट्स में नजर डाले तो हिंदी, अंग्रेजी, और यहाँ तक की सोशल स्टडीज तक में बच्चा पूरे नंबर पा रहा होता है। इन विषयों में सामान्यतः पूरे नंबर प्राप्त करना हमेशा से कठिन रहा है। मूल्याकनकर्ताओं के लिए इन विषयों में शत प्रतिशत मार्क्स देना ज्याद सरल नहीं है। इन विषयों में पूरे नंबर आने के पीछे के राज क्या है। क्या इसके पीछे शिक्षा बोर्ड की वो सिथिलता कारण है। या पिर परीक्षा पद्धति का लचीलापन कारण है। या फिर शत प्रतिशत रिजल्ट्स की होड़ में शिक्षा बोर्ड द्वारा दी गई ढ़ील जिम्मेवार है। बच्चों में गुणवत्ता की खोज करने की बजाय धीरे धीरे बच्चों को मार्क्स रिलीजिंग मशीन के रूप में परिवर्तित करने का यह जतन उनके भविष्य के साथ कहीं खिलवाड़ तो नहीं है। इस खिलवाड़ के लिए मातापिता से ज्यादा दोषी बोर्ड की नीतियाँ, परीक्षा प्रणाली, और मूल्यांकन पद्धति जिम्मेवाद ठहराई जा रही है। इन सब मामलों में यह देखा जाता है कि प्रतिशत के अनुरूप कक्षा दसवी के प्रतिशत इतने ज्यादा लचीले होते हैं कि जब पांच सौ में से चार सौ निन्यानवे नंबर वाले से बात करो तो उसे इतना ज्यादा आत्म विश्वास होता है कि वो पांच सौ एक नंबर भी मिले तो प्राप्त कर सकता है। एक नंबर कम होने पर उसे ऐसा महसूस होता है जैसे वो परीक्षा में फेल हो गया हो। माता पिता अपने समय को याद करते हैं और इस समय को याद करके मुँह खुला का खुला रह जाता है।
सामान्यतः देखा जाता है कि कक्षा दसवी में मैरिट में आने वाले नंबरों के हैंगर में टंगे ये होनहार बच्चे ग्यारहवी और बारहवी की परीक्षाओं में वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाते जितना कि उन्होने कक्षा दसवी में किए थे। उनका प्रतिशत भी घटता है, विषय वस्तु की गहराई, दसवी के प्रतिशत का आत्माभिमान,और पढ़ाई में लचीलापन इस का प्रमुख कारण है, बच्चा अगर भेंड़चाल चलकर अपने साथियों के जैसे ही विषय का चयन तो करता है किंतु मेहनत नहीं करता तो वह बारहवीं की परीक्षा में कंपार्टमेंटल आ जाता है। आखिरकार यह कैसी मूल्यांकन पद्धति हैं जो बच्चे को दसवी में शत प्रतिशत नंबर दे रही हैं और बारहवी में कंपार्टमेंटल पहुँचाने के लिए जिम्मेवार है। ऊपर दिए गए तीन विषय हिंदी, अंग्रेजी, और सोशल स्टडीज या परफार्मिंग आर्ट्स के विषय ऐसे हैं जिसमें मूल्यांकन समितियों जैसे प्रोग्राम फार इंटरनेशनल स्टूडेंट्स ऐसेसमेंट) या फिर डा कोठारी की मूल्यांकन समिति ने स्वीकार किया कि परीक्षार्थी पूरी तरह से निपुण नहीं होता है। कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ गुंजाइश रह ही जाती है। इन विषयों के पेपर में प्रशनों को ऐसे सेट किया जाता है कि बच्चा शत प्रतिशत अंक प्राप्त नहीं कर सकता है। इन विषयों के अलावा भी जब इनोवेटिव अन्सर सिस्टम को इन परीक्षाओं में फालो किया जा रहा है तब तो शत प्रतिशत की उम्मीद कठिन हो जाती है। ऐसे ही विभिन्न विषयों में बच्चों को जहाँ बारहवी में थ्योरी में पासिंग मार्क्स भी लाना मुश्किल होता है वहीं इंटरनल या प्रैक्टिकल में बच्चे को पूरे नंबर स्कूल की तरफ से दिये जाते हैं, बोर्ड को इस तरह की मार्किंग में भी कोई आपत्ति क्यों नहीं होती है। अधिक्तर बच्चे जो पचास प्रतिशत से ऊपर के नंबर थ्योरी पार्ट में लेकर आते हैं वो सब इंटरनल पार्ट में फुल मार्क्स की श्रेणी में रखे जाते हैं ताकि बच्चों को कुछ मदद मिल सके। सीबीएसई के द्वारा सीसीई पैटर्न को खत्म करना इस मामले में कहीं ना कहीं छल छद्म का रूप लेता नजर आ रहा है। कक्षा दसवी तक बच्चों का मूल्याकन सिस्टम अगल है और बारहवी का मूल्याकन सिस्टम अलग है जिसके चलते वो बच्चे जो दसवी में सुपीरियर होते हैं वो बारहवी में आते आते अपनी पुख्ता जमीन तक नहीं बना पाते हैं।
बारहवी के बाद की स्थिति यह है कि दसवीं और बारहवी के प्रतिशत का आधार नाम मात्र बस का है आगे की पढ़ाई के लिए बच्चे को जहाँ हर कदम में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए खुद को तैयार किया जा रहा है, जहाँ पर इस प्रणाली को धता बताकर परीक्षा पर परीक्षा आयोजित करके सूक्ष्मतम बेस्ट च्वाइस का कांसेप्ट चल रहा है। तब ये होनहार बच्चे क्या करेगें। वहाँ पर दसवी बारहवीं के प्रतिशत सिर्फ आपको उस क्षेत्र में अंदर प्रवेश करने के लिए चाभी की तरह काम करते हैं। बाकी अंदर तो आपका विषय वस्तु में ज्ञान ही आपकी नैया को पार करने के लिए मददगार होते हैं। आज के समय में नीट, आईआईटी जी मेन्स और एडवांस  में जहाँ यूनीफाइड इवैलुएशन सिस्टम है, परसेंटलाइल सिस्टम चल रहा है, वो इस स्कूल एजूकेशन से के सिस्टम से पूरी तरह से अलग है। इनके नियम कायदे तो इतने कड़े हैं जितने कि सिविल सर्विसेस इग्जाम के भी नहीं हैं, इन सब में मार्क्स की भागा दौडी बच्चे को मार्क्स रिलीजिंग मशीन बनाने के लिए परफेक्ट बनाने की होड़ होती है। इस पूरी घटनाक्रम में बच्चों का विषय वस्तु का ज्ञान एक तरफ धरा रह जाता है और बने बनाए पैटर्न पर मूल्यांकन कर अपने रिजल्टस को जल्दी से जल्दी पेश करने की रेस में आगे रहने के लिए बने बनाए उत्तरों पर मार्किंग करना और पैमाने के अनुसार पूरे नंबर दे देना बच्चों के साथ अन्याय तो है ही पूरी तरह से धोखेबाजी है। स्कूली शिक्षा के इस सिस्टम को बदलने की आवश्यकता है। परीक्षा प्रणाली का इस तरह दोमुहा होना अखरता है।
यदि एक बार बच्चा स्कूल में परीक्षा देकर पास होता है और शत प्रतिशत अंक लाता है तो उसे कालेज के एडमीशन के लिए दोबारा प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठना क्यों पडता है, फिर पीजी कोर्सेस के लिए फिर से परीक्षा देना पड़ता है, और तो और नौकरी पाने के लिए भी परीक्षा देना पड़ता है, अपनी ही विषय विशेषज्ञता वाले क्षेत्र के लिए परीक्षा का लंबा तारतम्य चलता रहता है। ऐसा महसूस होता है कि जब से पांचवी और आठवीं को बोर्ड परीक्षाओं की श्रेणियों से किनारे कर दिया गया है तब से दसवी की परीक्षाएँ और ज्यादा लचीली हो गई हैं तथा बारहवी की परीक्षाएँ उतनी ही ज्यादा कठिन हो गई है। इस तरह की विवादास्पद स्थिति को खत्म करने के लिए चाहिए कि सीसीई पैटर्न को दो बारा लागू किया जाए, थ्योरी और इटरनल या प्रैक्टिकल के मार्क्स के बीच सामन्जस्य बना रहे। मूल्यांकन का स्तर सुधारा जाए जहाँ पर बच्चा खुद से इनोवेटिव अंसर देने के छूट में हो उसमें तो शत प्रतिशत अंक देकर उसकी कमजोरी को प्रदर्शित किया जाए। स्कूल हो या कालेज एजूकेशन हो उन सब में परीक्षा प्रणाली पर इतनी कड़ाई होना चाहिये कि ज्ञान रखने वाला बच्चा ही शिखर में रहे, थोक में दिये जाने वाले, और रेवड़ी की तरह बांटे जाने वाले मार्क्स तब ज्यादा घातक हो जाते हैं जब बच्चे को हर स्तर पर पढ़ाई से लेकर रोजगार तक अपड़ेटेड नालेज के आधार पर परीक्षा में बैठना हो।

अनिल अयान,सतना

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