मंगलवार, 18 जून 2019

शिक्षा का अधिकार, कितना हुआ साकार

शिक्षा का अधिकार, कितना हुआ साकार

विद्यालयों में कमजोर वर्ग के बच्चो के लिए शिक्षा के अधिकार के तहत प्रवेश प्रक्रिया जारी हो चुकी है, इस प्रक्रिया को हमारे देश में लागू हुए लगभग दस साल के ऊपर हो चुका है किंतु आज भी बहुत से जरूरत मंद माता पिता इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरुक ना होने से परेशान रहते हैं, इसलिए शिक्षा का अधिकार आज के समय कई लोगों के लिए अन सुलझी पहेली बनकर रह गया है। शिक्षा के अधिकार के अतीत के बारे में टटोलें तो पता चलेगा कि दिसंबर, 2002 को संविधान में 86वाँ संशोधन किया गया और इसके अनुच्छेद 21ए के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है। इस मूल अधिकार के क्रियान्वयन हेतु वर्ष 2009 में भारत  सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में एक युगांतकारी कदम उठाते हुए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया। इसका उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सार्वभौमिक समावेशन को बढ़ावा देना तथा माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन के नए अवसर सृजित करना है। इसके तहत 6-14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के लिये शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में अंगीकृत किया गया। किंतु एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण प्राथमिक शिक्षा की स्थिति उत्साहजनक नहीं है। इसके अनुसार, 14-18 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 14 फीसदी ग्रामीण युवाओं का कही भी नामांकन नहीं हुआ है। 14-18 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 25% युवा अपनी भाषा में स्पष्ट रूप से बुनियादी पाठ तक पढ़ने में सक्षम नहीं पाए गए। उच्च विद्यालयी शिक्षा तक पहुँचने वालों में सीखने के परिणाम काफी कम पाया गया। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ग्रामीण), 201८के निष्कर्ष दर्शाते हैं कि नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम  को 6-14 वर्ष के आयु वर्ग तक सीमित ना रखते हुए इसे 18 वर्ष तक के सभी बच्चों तक विस्तृत करने की आवश्यकता है।
          शिक्षा का अधिकार अधिनियम  के क्रियान्वयन के विषय में मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय से लोकसभा में पूछे गए अतारांकित प्रश्नों के संबध में दिये गए लिखित उत्तर निश्चित ही, लगभग एक दशक से चले आ रहे इस अधिनियम के क्रियान्वयन की आपातकालीन स्थितियों को दर्शाते हैं। इस अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) के तहत निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को अनिवार्य रूप से  6 से 14 साल की आयु वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के बच्चों के लिये 25% सीटों को आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार इस अधिनियम ने आर्थिक रूप से हाशिये वाले समुदायों को राज्य द्वारा उठाए गए खर्चे पर उच्च गुणवत्ता वाले निजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्ति हेतु सक्षम बनाया है । किंतु अभी तक पाँच राज्यों गोवा, मणिपुर, मिज़ोरम, सिक्किम और तेलंगाना ने आरटीई के तहत प्रवेश के संबंध में कोई अधिसूचना जारी नहीं की है। हालिया गठित तेलंगाना को यदि छोड़ दिया जाए, तब भी शेष राज्य आठ साल पहले पारित इस अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) को लागू करने में असफल रहे हैं। RTE अधिनियम के प्रावधानों के तहत राज्यों को निजी स्कूलों में भर्ती बच्चों के संबंध में, उनके भुगतान करने के लिये सूचित करना होता है हालाँकि, 29 राज्यों और सात केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल 14 ने प्रति बाल लागत को अधिसूचित किया है लक्षद्वीप में कोई निजी स्कूल नहीं है, इसलिये प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक 20 राज्यों/ केंद्रशासित प्रदेशों ने अभी भी प्रति-बाल लागत अधिसूचित नहीं किया है। इसका मतलब यह है कि 18 राज्यों में, अधिकतम गरीब बच्चे इस अधिनियम के तहत लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। यदि भर्ती होने वाले छात्रों की संख्या को दर्ज करने के लिये कोई डेटा नहीं है, तो यह सवाल उठता है कि राज्य निजी स्कूलों की  प्रतिपूर्ति कैसे कर रहे हैं। संबंधित राज्य सरकारों और केंद्र को इस विशिष्ट बिंदु को स्पष्ट करना चाहिये। ऐसी खामियाँ जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है।
          इस अधिनियम के गैर-कार्यान्वयन को लेकर पूरे देश में शिथिलता का वातावरण है, इसलिये केंद्र सरकार को सभी राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के साथ बैठक आयोजित करनी चाहिये और आरटीई कानून के कार्यान्वयन की समीक्षा करनी चाहिये। आरटीई को निजी स्कूलों के लिये शिक्षा के माध्यम से समाज के वंचित वर्गों को ऊपर उठाने वाले राज्य के प्रयासों को पूरक बनाने के लिये एक ढाँचा उपलब्ध कराना चाहिये। इसके साथ ही कानून के क्रियान्वयन में अंतराल को दूर करने के लिये तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता है। सबसे प्रमुख बात यह है कि हमारे बच्चों का भविष्य इन सभी सार्थक प्रयासों पर ही निर्भर करता है।आरटीई के क्रियान्वयन गुणवत्ता समेत सहित सभी पहलुओं पर निगरानी के लिए राष्ट्रीय  और राज्य बाल अधिकार आयोगों को भूमिका दी गई थी आयोग बन भी गए हैं, लेकिन निगरानी का तंत्र भी अभी तक विकसित नहीं हो पाया है। इन सब रुकावटों के बावजूद कुछ ऐसी कहानियां और प्रयोग हैं, जो उम्मीदों को बनाए हुए हैं यह कहानी जबलपुर विकासखंड का बरगी क्षेत्र में स्थित गांव सालीवाड़ा में तो 65 वर्षीय राम कुंअर नेताम की है, जिन्होंने अपने गांव में मिडिल स्कूल के लिए जमीन नहीं मिल रही थी, तो उसके लिए अपनी जमीन दान में दे दी। वे खुद चौथी तक ही पढ़ सके थे, लेकिन वे शिक्षा के महत्त्व को बखूबी जानते हैं, उनका कहना है किमै और मेरे बच्चे नहीं पढ़ सके तो क्या मेरे गांव के बच्चे आगे तक पढ़ सकें  बस यही सपना है।देश के अलग-अलग राज्यों में कई छोटे- छोटे प्रयोग हो रहे हैं। इसी तरह का एक प्रयोग दिल्ली में हो रहा है, जिसे कुछ युवा अंजाम दे रहे हैं उन्होंने इस पहल को नाम दिया हैसाझा”, यह लोग दिल्ली के स्कूलों में बेहतरी के लिए काम कर रहे है, इनकी कोशिश है कि कैसे शिक्षकों , पालकों और शाला प्रबंधन कमेटी को एक दूसरे से जोड़ते हुए काम किया जाए।साझामानवीय भावनाओं पर जोर देते हुए ये कोशिश करती है कि कैसे स्कूल और समाज और एसएमसी को जोड़ कर बदलाव लाया जाए।हमें इन प्रयोगों से सीखने और उन्हें व्यापक बनाने की जरूरत है, जिससे यह दूसरों के लिए उदाहरण और मॉडल बन सके। हमें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल राज्य का ही विषय नहीं है और केवल ठीकरा फोड़ने से मामला और बिगड़ सकता है। स्कूलों को सरकार और समाज मिल कर ही सुधार सकते हैं। सरकारों को भी कोशिश करनी होगी कि स्थानीय स्तर पर समुदाय को लोग और पालक आगे आकर जिम्मेदारियों को उठा सकें।
इधर, 6 साल बाद यह भी देखना होगा कि शिक्षा का अधिकार कानून अपने ही रास्ते में रोड़ा तो नहीं बन रहा है। 2009 में हम ने जहां से शुरुवात की थी, अब उससे पीछे नहीं जा सकते हैं इसलिए अब जरूरत केवल आरटीई के प्रभावी क्रियान्वयन की नहीं है बल्कि इसे कानूनी और सामाजिक दोनों रूपों में विस्तार देने की जरूरत है। कुछ ऐसा करने की जरूरत है कि हमारे देश में यह एक अभियान की तरह प्रचारित और क्रियान्वयित हो, इसका लाभ हर जरूरतमंद परिवार के बच्चों को मिल सके। पालक अधिकारियों के चक्कर लगाने की बजाय सिर्फ सही दिशा में बच्चे का प्रवेश प्राप्त कर उज्जवल भविषय में योगदान दे सके।

अनिल अयान,सतना